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सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

अवधेश सिंह और उनकी तीन प्रेम कविताएँ — अवनीश सिंह चौहान

अवधेश सिंह 

अंतर्मुखी, सहज एवं मिलनसार अवधेश सिंह का जन्म 4 जनवरी 1959 को इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश, भारत) में हुआ  आपने विज्ञान स्नातक, मार्केटिंग मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा, बिजनिस एडमिनिस्ट्रेशन में परास्नातक तक शिक्षा प्राप्त की है वर्तमान में आप सीनियर एक्जीक्युटिव पद पर भारत संचार निगम लिमिटेड के कार्पोरेट आफिस नयी दिल्ली में कार्यरत हैं आपका एक कविता संग्रह 'छूना बस मन' प्रकाशित हो चुका है 1972 में आकाशवाणी में आपकी पहली कविता प्रसारित हुई, तब आपकी आयु तेरह वर्ष की थी। स्कूल, विद्यालय से कालेज स्तर तक लेख, निबंध, स्लोगन, कविता लिखने का एक क्रम नयी कविता, गीत, नवगीत, गज़ल, शब्द चित्र, गंभीर लेख, स्वतन्त्र टिप्पड़ीकार, कला व साहित्य समीक्षा की विधाओं के साथ आज तक निर्बाध जारी है प्रख्यात साहित्यकार प्रतीक मिश्र द्वारा रचित "कानपुर के कवि" एक खोजपूरक दस्तावेज में आपकी प्रतिनिध काव्य रचनाएँ व जीवन परिचय का संग्रह 1990 में किया गया वर्तमान में कई नेट व प्रिंट पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ प्रकाशित हो रहीं हैं  संपर्क: फ्लैट-21, पाकेट- 07, सेक्टर- 02, अवंतिका, नई दिल्ली-85  

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
(1)

प्रेम में
कहना क्या
चुप रहना क्या
आँखों में कैद हैं
कई सावन
मन ने पाले
पीड़ा क्रंदन
दूरियां नजदीकियां के
नए बंधन
दूर क्षितिज तक
बिखरे दर्द
अनुभूति कहे
अब सहना क्या ……

बन बैठी मैं

खुली किताब
पढने को थे
तुम बेताब
मेरा बदन
ढला गीत में
डूबी प्रकृति
संगीत में
झंकृत हुए
मन के तार
पनपा यूँ
पहला प्यार
कानों में
कोई कहता है
तेरे बिना
अब रहना क्या ……

पलकों में बंद हैं

तेरे ख्वाब
समर्पण मांगे
कोई जवाब
अन्दर उठती
एक छोटी लहर
होटों पर आई
बन सैलाब
कर लो मुझको
मुट्ठी में बंद
बिंदास हवा सा
अब बहना क्या ……

प्रेम में
कहना क्या
चुप रहना क्या

(2 )

उसने कहा
प्रेम निखालिस उधार है
यह नकद नहीं
इसका कोई कद नहीं
यह आकार में निराकार है

जीवन में अजीवन सा
पंखुरियों सा सुवासित
कोमल बंधन इसका
लगता गले में पड़ा
काँटों भरा हार है

संवेदना इस तरह की
रोयां रोयां अंग अंग
बिना स्पर्श
असंख्य विचारों से परिपूर्ण
सूचना का संसार है

अनुभूति -पीड़ा सोच
एक नहीं भरमार है

ठीक ही तो है
दुविधा में जीता
त्याग से रीता
खोने - पाने के स्वार्थ को अपनाये
खुदगर्जी में दुनिया भुलाये

प्रेम कदाचित अर्थहीन
किशोर वय का प्यार है

(3)

प्रिय ,प्रेम में निभाना
मैंने नहीं जाना
क्या है प्रेम में निभाना
क्या है मिलना उसका
क्या है उसका दूर जाना
जब उसको छोड़ कर
दूर रह कर उससे
है अन्दर से उसे पाना

ठीक ही तो है
प्रेम तो योग है सत्य निष्ठा का
प्रश्न कहाँ उठता है इसमें
अहं और प्रतिष्ठा का

प्रिय यह प्यार कैसा
लालच - लांछन
भय -झूट - अविश्वास
से मिला -विवाद जैसा

ठीक ही तो है
प्रेम शास्वत सत्य है
जिसमें एक को
दूसरे के प्रति संवेदना
भावुकता की अनुभूति रहती है
इस भाव की भाषा
कदाचित यही कहती है
यहाँ साम्यजस्यता
काँटों - कंकड़ के बीच
सब सहती है
पुष्प सुगंध सी प्रीति
हमारे बीच रहती है

न ही कोई जीत है
न ही है किसी को हराना
कदाचित यही तो है
प्रेम का निभाना

Three Love Poems of Awadhesh Kumar Singh

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति ।

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  2. प्रेम पर कुछ नया देने के लिए , भाई अविनीश को, उत्साह जनक टिप्पड़ी के लिए साहित्य प्रेमी रविकर जी व राजेंद्र जी को आभार-धन्यवाद सहित - अवधेश

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