राजेन्द्र मोहन शर्मा 'श्रृंग' (शृंग) |
लोग कुछ जो हार कर भी जीत जाते हैं यहाँ।
और कोई जीत कर भी है यहाँ हारा हुआ।।
भोपाल के सुपरिचित ग़ज़लगो महेश अग्रवाल की उपर्युक्त पंक्तियाँ कीर्तिशेष रचनाकार राजेन्द्र मोहन शर्मा 'श्रृंग'/ 'शृंग' (12 जून 1934 — 17 दिसंबर 2013) पर सटीक बैठती हैं। इसलिए भी कि मुरादाबाद के साहित्यिक इतिहास में श्रृंगजी (शृंगजी) का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित होने के बावजूद समूचा देश उनके अवदान से लगभग अपरिचित ही है।
श्रृंगजी (शृंगजी) का प्रथम गीत संग्रह 'अर्चना के बोल' 1960 में प्रकाशित हुआ था। यह संग्रह पारम्परिक गीतों की एक कड़ी के रूप में देखा जाता है, जिसमें साठोत्तरी कविता के प्रमुख तत्वों, विशेषताओं, यथा — आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियाँ और उनके प्रति विद्रोह एवं आक्रोश की भावना आदि का अवलोकन किया जा सकता है। शायद इसीलिये उस समय ख्यातिलब्ध रचनाकार हरिवंशराय बच्चन, गोपाल सिंह नैपाली, गोपालदास नीरज आदि ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। समय का पहिया घूमा और यह स्वाभिमानी एवं संस्कारवान रचनाकार रेलवे से रिटायर होने के बाद आर्थिक कठिनाइयों से जूझने लगा। इन विषम परिस्थितियों में भी वह रचनाकर्म करता रहा। किन्तु उस समय और आज भी कलमकार द्वारा रचनाकर्म करना ही काफी नहीं है। जरूरत इस बात की भी है कि वह अपने लिखे को समय से प्रकाशित-प्रसारित करवाता रहे, क्योंकि ऐसा न होने पर उसकी रचनाएँ समय की धुंध में खो भी जाया करती हैं।
श्रृंगजी (शृंगजी) बड़े ही गंभीर, संयमित एवं स्पष्ट व्यक्तित्व के धनी थे। युवा हों या वरिष्ठ हों— वह सभी रचनाकारों को साथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे। शायद इसीलिये उनसे मुरादाबाद के तमाम साहित्यकार— ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', ओम आचार्य, रामलाल 'अनजाना', पुष्पेन्द्र वर्णवाल, मीना नक़वी, शचीन्द्र भटनागर, माहेश्वर तिवारी, महेश 'दिवाकर', अशोक विश्नोई, मक्खन मुरादाबादी, अजय अनुपम, ओंकार सिंह 'ओंकार', राकेश चक्र, प्रेमवती उपाध्याय, रघुराज सिंह निश्चल, वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, शिशुपाल 'मधुकर', राजीव सक्सेना, रामदत्त द्विवेदी, 'फक्कड़' मुरादाबादी, अम्बरीश कुमार गर्ग, आनन्द कुमार 'गौरव', कृष्णकुमार ‘नाज़, योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मनोज रस्तोगी, राम सिंह निशंक, विवेक कुमार निर्मल, मनोज वर्मा 'मनु', जितेन्द्र कुमार जौली, प्रमोद प्रखर, अंकित गुप्ता 'अंक' आदि उनके जीवन काल में तो उनसे जुड़े ही रहे, उनके जाने के बाद आज भी उनके द्वारा स्थापित साहित्यिक संस्था— 'हिन्दी साहित्य संगम' में प्रतिभाग करते रहते हैं। इन्हीं साहित्यकारों में से एक चर्चित कवि योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' श्रृंगजी (शृंगजी) के काफी नजदीक रहे। शायद इसीलिये बहुत समय पहले व्योमजी ने सहृदयतावश उनकी दो पुस्तकों का प्रकाशन करवाया— 'मैंने कब ये गीत लिखे हैं' (गीत संग्रह, 2007) एवं 'शकुंतला' (प्रबंध काव्य, 2007)। इन कृतियों का प्रकाशन श्रृंगजी (शृंगजी) के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना बनी, जिसके परिणामस्वरूप उन दिनों उनमें फिर से रचनात्मक उत्साह एवं उमंग का संचार होता दिखाई देने लगा था।
यहाँ यह बात गौर करने की है कि 1960 से 2007 तक उनकी कृतियों के प्रकाशन का अंतराल बहुत बड़ा है। इस अंतराल का एक प्रभाव यह भी पड़ा कि जो रचनाएँ जिस समय लिखीं गयी थीं, उस समय प्रकाशित न हो पाने के कारण उनकी प्रासंगिकता पर प्रकाशन वर्ष को ध्यान में रखकर विचार किया जाने लगा। तब बदले हुए समय, समाज और परिस्थितियों के साथ काव्य की भाषा-कहन में जबरदस्त बदलाव का प्रभाव पाठकों के मन में श्रृंगजी (शृंगजी) की रचनाओं के प्रति एक अलग प्रकार का दृष्टिकोण बनाने लगा। जो भी हो, इस दृष्टिकोण का प्रभाव स्थानीय स्तर पर कम ही दिखाई पड़ता है और शायद इसीलिये मुरादाबाद में उनके चाहने वालों की कभी कमी नहीं रही।
प्रतिभावान कवि, लेखक, कुशल संयोजक एवं हिंदी प्रेमी श्रृंगजी (शृंगजी) ने गीत, कहानियाँ, संस्मरण, एकांकी, हाइकु, बाल कविताएँ, रेखा-चित्र, हास्य-व्यंग्य, प्रबंध काव्य आदि विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। किन्तु दुःखद यह है कि उनकी कई कृतियाँ आज तक प्रकाशित नहीं हो सकीं और जो हुईं भी उनका ठीक से मूल्यांकन नहीं हो सका। जहाँ तक उनकी प्रकाशित कृतियों की बात है, तो मेरी दृष्टि में संप्रेषणीयता से लैस उनका प्रबंध काव्य 'शकुंतला' सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रबंध काव्य में शकुंतला एवं दुष्यंत के चरित्रों को बड़ी सहजता एवं गंभीरता से उभारा गया है। भारतीय संस्कारों का ऐतिहासिक घटना के माध्यम से प्रकटीकरण इस पौराणिक प्रेम कथा को जीवंत कर देता है। इसका मतलब यह कदापि नहीं कि इसमें आधुनिक जीवन के लिए कोई सन्देश नहीं है, बल्कि इसमें सर्वकाल के लिए सहजानुभूतिक लोकोन्मुख जीवन सौन्दर्य का अद्भुत वर्णन मिलता है। इस दृष्टि से यह प्रबंध काव्य प्रसिद्ध लेखक वेलेन्सकी की इस धारणा से मेल खाता है कि "सौन्दर्य सामाजिक जीवन के जीवंत यथार्थ का ऐसा प्रतिबिम्ब है, जो हमें आनन्द ही नहीं देता, प्रगतिशील होने की प्रेरणा भी देता है।"
अपने को अकिंचन और दूसरों को श्रेय देने वाले श्रृंगजी (शृंगजी) निर्मल हृदय के व्यक्ति थे। सहज एवं मितभाषी। जब भी बोलते, विनम्रता से बोलते। जब भी मिलते, अपनेपन से मिलते। अपनी संस्था 'हिन्दी साहित्य संगम' में साहित्यकारों का स्वागत करना, आगंतुकों का आदर करना, रसिकों पर स्नेह लुटाना — उन्हें अच्छा लगता था। युवा साहित्यकारों से उन्हें विशेष लगाव था। वे युवा रचनाकारों को न केवल प्रोत्साहित करते, बल्कि मंच प्रदान कर उनका मार्गदर्शन भी किया करते थे। वह अपनी संस्था की साहित्यिक गोष्ठी में स्वयं रचनाकारों को आमंत्रित किया करते थे, किसी के न पहुँचने पर उससे फोन पर न आ पाने का कारण, कुशल-क्षेम पूछते और अगली मासिक गोष्ठी में पुनः आमंत्रित करना कभी नहीं भूलते थे। उनके इस महत्वपूर्ण कार्य में अग्रज रामदत्त द्विवेदी एवं 'साहित्य मुरादाबाद' वेब पत्रिका के संपादक युवा रचनाकार जितेंद्र कुमार 'जौली' विशेष सहयोगी बनकर उनकी संस्था के माध्यम से साहित्यकार समागम, सम्मान समारोह, गोष्ठियाँ आदि आयोजित कर उनके साहित्यिक-अनुष्ठान को सहर्ष पूरा कर रहे हैं।
यह श्रृंगजी (शृंगजी) का युवा रचनाकारों के प्रति स्नेह एवं वात्सल्य ही था कि वे यदा-कदा मेरा हाल-चाल लेने मेरे घर पर भी आ जाया करते थे और इसी बहाने मेरे बच्चों को भी उनका आशीर्वाद मिल जाया करता था। श्रृंगजी (शृंगजी) जैसे सहज व्यक्तित्व मुरादाबाद के साहित्यिक इतिहास में कम ही दिखाई पड़ते हैं, इसलिए उनकी याद आना स्वाभाविक है। कहा जाता है कि व्यक्ति मर जाता है, किन्तु व्यक्तित्व कभी नहीं मरता और यदि ऐसा है तो श्रृंगजी (शृंगजी) अतीत में भी थे, वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे।
अर्चना के गीत कुछ लेकर
मैं तुम्हारे द्वार आया हूँ
सोहती तंत्री करों में
और पुस्तक धारणी तुम
हंस है वाहन तुम्हारा
बुद्धि ज्ञान प्रदायिनी तुम
अर्चना को कुछ नहीं लाया
भाव का नैवेद्य लाया हूँ
मैं तुम्हारा क्षुद्र बालक
अर्चना मैं क्या करूँगा
तुम स्वयं वाणी जगत की
वंदना मैं क्या करूंगा
गीत की माला करों में ले
भाव में भर प्यार लाया हूँ
विश्व बढ़ता जा रहा है
नाश के पथ पर निरंतर
ज्योति दो ज्योतिर्मयी
सदभावना भी हो परस्पर
मांगने निर्माण का मैं पथ
वंदना के बोल लाया हूँ।
शानदार आलेख
जवाब देंहटाएंYe mere dada ji hai , inki aur rachnaye bhi h jese shakuntala, mene kab ye geet likhe hai, archana ke geet
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