दिवाकर वर्मा (25 दिसंबर 1941 - 1 मई 2014 ) |
आपातकाल के दौरान ग्वालियर केन्द्रीय काराग्रह में रहे मीसाबंदी दिवाकर जी को शायद ही हम कभी भूल पायें। उनकी उन्मुक्त हंसी, हरफनमौला व्यक्तित्व, हर छोटे बड़े के साथ आत्मीयतापूर्ण व्यवहार, सादगी, सरलता सबको अपना बना लेती। दिनांक ०१ मई २०१४ को दिवाकर जी ने अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की। एक सामान्य स्वयंसेवक कितना असामान्य होता है, इसे दिग्दर्शित करता है दिवाकर जी का जीवन वृत्त -पौष शुक्ल सप्तमी संवत १९९८ दिनांक २५ दिसंबर १९४१ को सूकर क्षेत्र सोरों जी में जन्मे दिवाकर वर्मा अपने माता पिता की इकलौती संतान होने के कारण लाड प्यार से पले। हाई स्कूल तक सोरों में फिर इंटर वृन्दावन से तथा स्नातक परिक्षा मथुरा से उत्तीर्ण की। मथुरा में रिश्ते के एक बड़े भाई कालेज में प्रोफेसर थे। शिक्षा पूर्ण होने के बाद सागर जिले के खुरई में संस्कृत शिक्षक बने। फिर भुसावल में रेलवे की ए.एस.एम. ट्रेनिंग ९ माह की, किन्तु इंस्ट्रक्टर से झंझट हो जाने के कारण बीच में ही छोडकर बापस आ गए। इसी दौरान विवाह संपन्न हो गया।विवाह के बाद खुरई मंडी कमेटी में एकाउन्टेंट बने पर ७-८ महीने में ही यह नौकरी भी छोड़ दी। पोलिटेक्निक खुरई में भी ८-१० माह ही टिके। किन्तु ए.जी. ऑफिस में लंबे समय तक सेवा में रहे। जून ६५ से जुलाई ६७ तक भोपाल तथा उसके बाद ग्वालियर। सन १९७४ में भारतीय मजदूर संघ से जुड कर विभागीय जिम्मेदारी संभाली। आपातकाल के दौरान मीसावंदी रहते पूर्णकालिक बनने का विचार पुष्ट हुआ। अतः ग्वालियर से पुनः भोपाल ट्रांसफर कराया। ७९ में भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश मंत्री तथा बाद में प्रदेश उपाध्यक्ष रहे। ८५ के बाद दायित्व मुक्त और २००१ में सेवानिवृत्त हुए। ९८ से साहित्य सृजन शुरू हुआ तथा २००२ में साहित्य परिषद से जुड राष्ट्रीय मंत्री बने। वर्त्तमान में भी प्रदेश उपाध्यक्ष। साथ ही निराला सृजन पीठ के निदेशक भी। प्रकाशित कृतियाँ : सुन्दर बन (बाल गीत), चंदन वन में आग (दोहा संग्रह, साध्वी रत्नावली (नाटक), शब्द का सांस्कृतिक पक्ष (निबंध), कथ्य कसौटी (समीक्षाएँ), जबकि आपके ४ गीत संग्रह, १ गजल संग्रह, १ नाटक, १ दोहा संग्रह तथा १ मुक्त छंद कविता संग्रह, २ गीत संग्रह तथा १ निबंध संग्रह प्रकाशन की राह देख रहे हैं। पुरस्कार व सम्मान : भारत भाषा भूषण, कला गुरू, तुलसी मंजरी सम्मान, महादेवी अलंकरण और श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार आदि से अलंकृत। - संपादक
तुम विधाता विश्व के हो यह सभी रचना तुम्हारी
तम जितना घना होता है, प्रकाश उतने ही आवेग साथ अवतरित होता है। संस्कारों के स्खलन के इस समाजिक घटाटोप में आशाओं का सूर्योदय दिवाकर ही कर सकते हैं। आस्थाओं की बोवनी कर धूप उगाने वाले श्रद्धैय दिवाकर वर्मा जी जीवन पर्यन्त आशाकिरणों की खेती करते रहे। कहते हैं भूमि जितनी नम होती है, फसल उतनी ही मजबूत होती है, दिवाकर जी का व्यक्तित्व ऐसी ही नम भूमि था, जिसमें आस्था, आत्मीयता, और ऊर्जा का संस्कारी जल सिंचित था। और इसीलिये संस्कारों की जड़े उनमें बहुत मजबूत थी। सफेद धोती,सफेद या हल्का पीला कुर्ता, सफेद स्कूटर और बिना विस्मृत किये सर पर लगाया हेलमेट, विन्यास में जितने सरल और अनुशासित, अन्तर में भी उतने ही सहज व नियमित।
दिवाकर जी के लिये लेखन मात्र रचनाकर्म नहीं वरन् रचनाधर्म भी था। ‘साहित्य सहितं’ की उक्ति को अपना लक्ष्य मानने वालेे श्रद्धैय दिवाकर जी का लेखन कभी भी निष्प्रयोजन नहीं रहा। जीवन के विविध आयामों, विविध विषयों और विविध विधाओं में किया गया सम्पूर्ण लेखन राष्ट्रोन्मुखी तथा समाजोन्मुखी रहा।
यद्यपि दिवाकर जी स्वयं को लेखन के क्षैत्र में बहुत नया कहते थे कदापि नियमित लेखन देर से प्रारम्भ करने के कारण वे ऐसा कहा करते थे किन्तु दिवाकर जी के व्यक्तित्व में भाषा की सुघड़ता, विचारों की उत्कृष्टता बाल्यवस्था से ही दृष्टिगोचर होती है। एक पन्द्रह वर्ष का किशोर जो नवीं कक्षा का विद्यार्थी है उसकी भाषा एवम दर्शन देखिये :
दिवाकर जी के लिये लेखन मात्र रचनाकर्म नहीं वरन् रचनाधर्म भी था। ‘साहित्य सहितं’ की उक्ति को अपना लक्ष्य मानने वालेे श्रद्धैय दिवाकर जी का लेखन कभी भी निष्प्रयोजन नहीं रहा। जीवन के विविध आयामों, विविध विषयों और विविध विधाओं में किया गया सम्पूर्ण लेखन राष्ट्रोन्मुखी तथा समाजोन्मुखी रहा।
यद्यपि दिवाकर जी स्वयं को लेखन के क्षैत्र में बहुत नया कहते थे कदापि नियमित लेखन देर से प्रारम्भ करने के कारण वे ऐसा कहा करते थे किन्तु दिवाकर जी के व्यक्तित्व में भाषा की सुघड़ता, विचारों की उत्कृष्टता बाल्यवस्था से ही दृष्टिगोचर होती है। एक पन्द्रह वर्ष का किशोर जो नवीं कक्षा का विद्यार्थी है उसकी भाषा एवम दर्शन देखिये :
तुम विधाता विश्व के हो यह सभी रचना तुम्हारी
सूर्य मण्डल, चन्द्रमा और चॉदनी भी है तुम्हारी,
पुष्प में हो, हो भ्रमर में, हो तुम्हीं दीपक शलभ में
विश्व के कण कण में हो तुम, हो तुम्ही पृथ्वी में नभ में।
आठ पुस्तकों एवं न जाने कितने महत्वपूर्ण विषयों पर किये गये अपने लेखन से उन्होंने बहुत कम समय में साहित्य जगत में सर्वाेत्तम स्थान बनाया। दिवाकर वर्मा जी के सम्पूर्ण कृतित्व पर यदि क्रमबद्ध दृष्टि डाले तो दिवाकर जी प्रत्येक विधा में पूर्णत सफल दिखाई देते है। बाल कविता संग्रह ‘सुंदरवन’ की बात करे तो बाल साहित्य रचने वालों के लिए वह प्रेरणादायी संग्रह है। क्योंकि जितनी मात्रा में बाल साहित्य रचा जा रहा है गुणवत्ता में वह उतना ही कम है। आज के कठिन समय में बाल साहित्य रचना और भी दुष्कर हो गया है। बाल साहित्य एक महती जिम्मेदारी है जिसे चार चार पंक्तियों की उद्देश्यहीन तुकबंदियों से पूर्ण नहीं किया जा सकता है। श्रद्धैय दिवाकर वर्मा जी के बालगीत संग्रह में राष्ट्र के प्रति प्रेम है, पुराणों की कथाओं का सरलीकरण है, तो पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियों की गीतात्मक अभिव्यक्ति भी है, बालकों का प्रकृति से परिचय है तो, ध्रुव तारे की तरह दृढ़ निश्चयी बनने की प्रेरणा भी अर्थाथ दिवाकर जी एक सार्थक बाल साहित्य के रचियता थे।
दिवाकर जी ने न केवल गीत वरन दोहा और गजल के माध्यम से भी छंद के प्रति अपना अनुराग व्यक्त किया है। उनका दोहा संग्रह ‘चंदन वन में आग’ सामान्य दोहा संग्रहों से भिन्न एवं महत्वपूर्ण है। उन्होंने संस्कृत वाड्डमय के नीति परक श्लोकों,उक्तियों का अनुवाद, वेदों की ऋचाओं से लेकर चाणक्य और विष्णु शर्मा रचित श्लोको का सरलीकरण कर दोहों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। शान्ति,धैर्य एवं साहस प्रदान करने वाले ये दोहे अत्यंत ही सार्थक हैं जो कठिन समय में सत्य के पथ से पलायन करने वालो के लिये सच्चे मार्ग दर्शक का सिद्ध हो सकते हैं। यथा :
कालचक्र गतिमान है, उसका ओर न छोर
हॉं संध्या यदि आज है, निश्चय ही कल भोर।
एक महाभारत पुनः, दृष्टि चाहिये वक्र,
वंशी को विश्राम दे सधे सुदर्शन चक्र।
गजल संग्रह ‘अब तो खामोशी तोड़ो’ स्चयं को सिद्ध करने के लिये रचा गया संग्रह नहीं है। वरन संवेदनाओं को खो कर स्वार्थपरता की मुक-बधिरता ओढ़ने वाले समाज की खामोशी तोड़ने का आह्नवान है। गजल के शिल्प का अपने संपूर्ण सामथ्र्य के साथ निर्वाह करने वाले दिवाकर जी हिन्दी गजल रचने में पूर्णतः सफल हुए है। उनके गजल संग्रह का मूल स्वर इस शेर में भी स्पष्ट होता है :
हैं मंदिर में मंत्रोच्चारण और अजाने मस्जिद में,
किन्तु आस्था टूट रही है अब तो खामोशी तोड़ो।
उनका व्यक्तित्व छांदस काव्य का अनुयायी था। इसीलिये उनके मुक्तछंद (युग ने मानदण्ड खोया है) में भी एक लय सुनाई देती है एक प्रवाह दिखाई देता है।
‘आस्था के स्वर’, ‘सूर्य के वशंज सूनो’ तथा ‘और उलझते गये जाल में’ दिवाकर जी के अमूल्य गीत संग्रह हैं। संस्कृति को चिरतंन बनाये रखने की उनकी निष्ठा उनके गीतों की आत्मा है। छंद के अनुशासन का वे अक्षरशः पालन करते हुए वे युग जागरण की बात अपने गीतों के माध्यम से करते हैं। यथा :
यदि पराजित हो गये तो
पीढ़ियां होंगी पराजित
इसलिए आगत समर में
स्वयं को कर दे समर्पित
काल का क्रम तोड़ने को,
वायु की गति मोडने को,
मूल्यगत अद्भुत चिरंतन
संस्कृति सूरज सुनो,
आह्वान नव युग कर रहा है
सूर्य के वंशज सूनो।
दिवाकर जी न केवल अच्छे गीतकार थे वरन एक दार्शनिक, चिन्तक, एवं स्थापित गद्यकार भी थे। अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर लिखे गये उनके आलेख उन्हें एक उत्कृष्ट समीक्षक, एवं चिंतक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
यहॉं यदि उनके द्वारा रचित नाटक ‘साध्वी रत्नावली’ का उल्लेख न किया जाये तो ये उनके कृतित्व का ही नहीं उनके व्यक्तित्व का भी अधूरा आकलन होगा। नाटक ‘रत्नावली’ पर नाट्य रचना करने का उनका उद्देश्य मात्र साहित्य में उपेक्षित स्त्री पात्र को प्रतिष्ठा दिलाना ही नहीं था। वरन् तुलसीदास की पत्नि रत्नावली को एक लोक कथा के माध्यम से जानने वाले अल्पज्ञों के समक्ष उनके समाजसेवी साध्वी स्वरूप को रखना भी था। इस नाटक को रचने के पीछे स्वयं उनकी जन्मस्थली (सोरों सूकरक्षेत्र) जो कि महाकवि तुलसीदास तथा उनकी पत्नि रत्नावली की भी जन्म स्थली मानी जाती है के प्रति उनका अनुराग तथा उनकी शोध दृष्टि भी थी। नाटक ‘साध्वी रत्नावली’ का शिल्प किसी सिद्धहस्त नाटकरचियता की तरह उत्कृष्ट है। सभंवत विद्यालय और महाविद्यालय में अभिनीत नाटकों का अनुभव उसमें सहायक रहा है। उनके इस नाटक लेखन का आधार सोरों सूकरक्षेत्र को तुलसीदास की जन्मस्थली सिद्ध किये जाने वाले शोध और उनके निष्कर्ष ही हैं। इस नाटक को रचने के पूर्व उन्होंने तुलसी और रत्नावली विषयक समस्त सामग्री का गहन अध्ययन किया। नाटक रत्नावली को रचने के पश्चात भी सोरों को तुलसीदासजी की जन्मस्थली सिद्ध करने के लिये निरतंर प्रयत्नरत रहे।
वसुधैव कुटुम्बकम को जीवन का ध्येय समझने वाले दिवाकर जी शु़द्ध रूप से राष्ट्रीय विचारधारा के पोषक होते हुए भी सबको साथ लेकर चलने के लिये निरंतर प्रयत्यशील रहे। सब को जोड़े रखना सबको यथोचित सम्मान व अवसर देना उनके व्यक्तिगत वैशिष्ट्य का द्योतक थे। उनका निराला सृजनपीठ के निदेशक रहने का कार्यकाल मात्र दो वर्ष का ही रहा किन्तु इस अल्प अवधि में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किये। युवाओं को साहित्य से जोड़ने हेतु कई कार्यशालायें की। ‘क्षितिज’ नामक रचनापाठ की श्रृंखला आयोजित कर नवोदित और स्थापित दोनों ही साहित्यकारों को यथोचित अवसर और सम्मान प्रदान किया। सबसे महत्वपूर्ण कार्य ये हुआ कि साहित्य संस्कृति के ऐसे केन्द्र जो विचाराधारा विशेष के लिये आरक्षित समझे जाते थे वहॉं योग्य किन्तु बरसों से उपेक्षित विद्वतजनों की उपस्थित दर्ज हुई, उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ। यद्यपि वे उत्कृष्ट समीक्षक एवं निबंधकार भी थे किन्तु उनके मन को छंद ही अधिक रूचता था। छंद के प्रति उनका गहरा जुड़ाव ही था कि निराला जंयती पर लगातार दो वर्षो तक छंदप्रसंग का भव्य एवं महत्वपूर्ण आयोजन कर देशभर के विद्वान साहित्यकारों को आमंत्रित किया और छंद की महत्ता पर विस्तृत चर्चा करवाई। निस्संदेह यह एक अनुठा और मेरी जानकारी में अप्रस्तुत आयोजन था।
उनका हर प्रयास समाज से विद्वेष के तम को हटाने और सद्भाव का उजास फैलाने के प्रति कृतसंकल्प रहा। कहने का तात्पर्य यह कि स्वयं को सूर्य के वंशज कहने वाले श्रद्धैय दिवाकर जी जीवन पर्यन्त अपने कार्याें, विचारों से प्रकाश का पथ दिखाते रहे।
अल्प समय के परिचय में ही उन्होंने पिता सा प्यार व मार्गदर्शन दिया। बड़े बड़े उत्तरदायित्व दे कर मुझमें विश्वास दिखाया। वे जब किसी कार्यक्रम की योजना बनाते थे उसमें मुझे अवश्य शामिल करते। भविष्य में होने वाले कई कार्यक्रमों की योजना हम बना चुके थें। किन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। अखिल भारतीय साहित्य परिषद के प्रति उनकी निष्ठा शब्दों में नहीं कही जा सकती। परिषद का प्रत्येक कार्य हम उनके अनुभवी मार्गदर्शन में किया करते थे। अपने किसी आत्मीय जन पर लिखना कितना कठिन होता है, ये आज मैं अनुभव कर रही हूॅं। वाक्य विन्यास में ‘हैं’ के स्थान पर ‘थे’ लिखना कितना कष्टप्रद होता है ये मेरी कलम, मेरा ह्नदय ही समझ सकते हैं। उनका न रहना मेरी ही नहीं संपूर्ण साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति है। किन्तु आस्था,कर्मठता का जो दीप अखंड रहेगा, अनवरत् जलेगा और उन्हीं की पंक्तियॉे को सार्थक करेगा।
उनका हर प्रयास समाज से विद्वेष के तम को हटाने और सद्भाव का उजास फैलाने के प्रति कृतसंकल्प रहा। कहने का तात्पर्य यह कि स्वयं को सूर्य के वंशज कहने वाले श्रद्धैय दिवाकर जी जीवन पर्यन्त अपने कार्याें, विचारों से प्रकाश का पथ दिखाते रहे।
अल्प समय के परिचय में ही उन्होंने पिता सा प्यार व मार्गदर्शन दिया। बड़े बड़े उत्तरदायित्व दे कर मुझमें विश्वास दिखाया। वे जब किसी कार्यक्रम की योजना बनाते थे उसमें मुझे अवश्य शामिल करते। भविष्य में होने वाले कई कार्यक्रमों की योजना हम बना चुके थें। किन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। अखिल भारतीय साहित्य परिषद के प्रति उनकी निष्ठा शब्दों में नहीं कही जा सकती। परिषद का प्रत्येक कार्य हम उनके अनुभवी मार्गदर्शन में किया करते थे। अपने किसी आत्मीय जन पर लिखना कितना कठिन होता है, ये आज मैं अनुभव कर रही हूॅं। वाक्य विन्यास में ‘हैं’ के स्थान पर ‘थे’ लिखना कितना कष्टप्रद होता है ये मेरी कलम, मेरा ह्नदय ही समझ सकते हैं। उनका न रहना मेरी ही नहीं संपूर्ण साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति है। किन्तु आस्था,कर्मठता का जो दीप अखंड रहेगा, अनवरत् जलेगा और उन्हीं की पंक्तियॉे को सार्थक करेगा।
तम भले कितना घना हो
आंधियों का सामना हो
दीप में बाती सजायी है सतत जलती रहेगी.......
दीप में बाती सजायी है सतत जलती रहेगी.......
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (31-01-2015) को "नये बहाने लिखने के..." (चर्चा-1875) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut dhnywad
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर आलेख। श्रद्धेय दिवाकर जी को सोरों शूकरक्षेत्र की धरोहरों में स्थान प्राप्त है।
जवाब देंहटाएं