आशा सहाय |
आशा सहाय का जन्म 6 मार्च 1947 को पटना, बिहार में हुआ। शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी साहित्य) एवं एम.एड., पटना विश्वविद्यालय, पटना से। माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में सन्1972 से अध्यापिका के पद पर कार्य करते हुए 2007 में उपरोक्त पद से सेवानिवृत्त। शिक्षिका के रूप में कार्यरत रहते हुए समय-समय पर अपनी काव्य अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास करती रहीं। आपकी कविताएं पहली बार प्रकाशित हो रही हैं। संपर्क : ashasahay01@gmail.com
चित्र गूगल से साभार
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डम-डम डमरू
छन-छन घुँघरू
सुन महाकाल के चपल चरण,
फिर दिये पलाश ने नये रँग,
आया अनंग,
तिर्यंक दृष्टि से देख रहा,
भ्रू-भंग नहीं,
शिव का है मंगल नृत्य-तरंग,
हो मुदित मगन,
छिटका-छितरा नवपीत रँग,
सरसों के सँग
रँग गया वसंत,
हंसों ने छेड़ा जलतरंग,
कोयल कूकी,
फिर गंध-विलास मँजरियों का,
उन्माद भरा हो गया गगन
ले वन-पराग,
मदमस्त हवा,
रँग गई गुलाल,
अब छलक उठे चहुँ ओर जाम,
वन के ढाकों पर पड़ी थाप,
आई होली,
नव प्राण- वायु संचरित हुआ,
भूला सारा कटु मधु प्रसंग
संगीत धरा का मुखर हुआ
शिव- ताल लयों में झूम उठा
फिर सकल विश्व
हो सबल प्राण।
आई होली, आई होली।
2. पहली धूप
पूरब के
झाँकते आकाश के कोनों में
छा गई हल्की सी लालिमा,
सुबह की मीठी धूप—
पसर रही छतों पर,
बन्द दरवाजे खुले..।
हल्की शाल में बन्द बाजुओं के साथ
टटोलती धूप को देखा,
नवबाला ने,
नागरी,
डुबाती चुस्कियों में चाय की,
ठिठुरन हाथों की गुलाबी
या कि फिर जगाती
मीठी सिहरन बदन में..!
किताबों में मगन हो पन्ने पलटती
सहज हो जाता सभी कुछ..
कुछ और चाय--?
या कि—गर्म कॉफी।
निकली हुई है कब की
बाला ग्राम की,
आधे अँधेरे में
साथ में बच्चे।
डालती हैं, लकड़ियाँ छोटी-बड़ी
घेरकर बैठी हुई हैं सिगड़ियों के पास
सिर पर दुपट्टे बाँध,
सिमटी हुई गातों में।
सामने है चाय का छोटा पतीला ,
उबल रहा
फिर,
गिलासों में छोटे बड़े, अब चाय की घूँट
हुआ अब ताप का अनुभव,
छूट गया कहीं दुपट्टा सिरों से
हाथ में झाड़ू सुबह की,
खर्र..खर्र और खर्र
हुआ गृहकार्य आरम्भ।
3. मौसम शीत का
ठिठुर-ठिठुर कर
हो गई अब बंद उनकी श्वास और प्रश्वास
पात झरते पादपों के
करुण उर स्तब्ध और उदास।
झिरझिराते पात तरु के,
मन्द- मन्द समीर का उच्छ्वास।
चिर पुरातन राग है यह,
व्योम में भटका कहीं था,
मार्ग में मौसम खड़े थे
छिपछिपाते।
स्वयं की कुछ झुक गई
धनुषी हुई,
वृद्ध हड्डियों को कँपाती,
ठण्ड को कैसे छिपाये
आ गयी अब शनैःशनैः।
बढ़ चली अब भीति
काँपता है यह लघु संसार,
हुआ गृहकार्य आरम्भ।
3. मौसम शीत का
ठिठुर-ठिठुर कर
हो गई अब बंद उनकी श्वास और प्रश्वास
पात झरते पादपों के
करुण उर स्तब्ध और उदास।
झिरझिराते पात तरु के,
मन्द- मन्द समीर का उच्छ्वास।
चिर पुरातन राग है यह,
व्योम में भटका कहीं था,
मार्ग में मौसम खड़े थे
छिपछिपाते।
स्वयं की कुछ झुक गई
धनुषी हुई,
वृद्ध हड्डियों को कँपाती,
ठण्ड को कैसे छिपाये
आ गयी अब शनैःशनैः।
बढ़ चली अब भीति
काँपता है यह लघु संसार,
तरु हुए उदास।
छिन गयी ऊष्मा,
कभी थी,
थरथराते पात थे अब
शुष्क होते जा रहे थे चिर सँजोए आस।
भींगती धरती नहीं थी,
धूल की परतें खिली थीं
उड़ रही थी भाप बनकर,
आद्रता नभ की जमी थी
जीर्ण होते जा रहे थे प्रौढ़ तरु के पात
दीर्घ होते जा रहे थे वृद्ध तरु के श्वास औ, प्रश्वास,
मौन वे चुपचाप।
सत्य है कटु
जीव, जग में हैं बड़ी ऋतुएँ निरंतर ।
एक देती दान जीवन का शुभंकर
दूसरा करती उपस्थित मृत्यु का सम्भार
होता गगन का अट्टहास।
4. शरद-पूर्व
नभ के सूख गये हैं अश्रु,
शून्य हो गया गगन,
संवेदनहीन।
बूँदें ठिठक गयीं करुणा की,
निस्तेज हो गया अधर।
आहें तप्त हैं अब भी,
नहीं हुईं ठंढी।
कराहें धीमी नहीं हुईं,
कचोट रहीं अन्तर में बन्द हो।
बोझिल हैं अब भी हवाएँ,
आकुल व्याकुल हैं उठी हुई बाहें
बादल,
चील की बड़ी-बड़ी पाँखों से
फैल रहे गगन में अब भी
आच्छादित है अब भी उदास मन
भावों के करुण बोझ से
उजास अब भी नहीं आया।
ऊष्मा घुटन की,
बेचैन है अब भी विषाद-घन बन।
काश..
कि प्यास बुझ गयी होती
हवाएँ मुक्त हो गयी होतीं
अश्रु-बोझ से,
आहें ठंढी हो गयीं होतीं
सिसकियाँ उबर जातीं
कराहें डूब जातीं शान्ति में।
फिरसे संचरण होता ,
उस प्राण-शक्ति का
शीतल उजास भरता चतुर्दिक,
पाँख फड़फड़ा उठते श्वेत कबूतरों के,
घरों में।
तटों पर मचल उठते, सारस के जोड़े,
किलकिला उठतीं हँसों की पाँतें,
तड़ागों में।
शीतल हो जाता धरती का ताप।
नभ शान्त मुस्कुराता होता
गर्विष्ठ-सा, उदार,
उन्मुक्त-सा।
काश! अभी ऐसा ही होता।
Hindi Poems of Asha Sahay
छिन गयी ऊष्मा,
कभी थी,
थरथराते पात थे अब
शुष्क होते जा रहे थे चिर सँजोए आस।
भींगती धरती नहीं थी,
धूल की परतें खिली थीं
उड़ रही थी भाप बनकर,
आद्रता नभ की जमी थी
जीर्ण होते जा रहे थे प्रौढ़ तरु के पात
दीर्घ होते जा रहे थे वृद्ध तरु के श्वास औ, प्रश्वास,
मौन वे चुपचाप।
सत्य है कटु
जीव, जग में हैं बड़ी ऋतुएँ निरंतर ।
एक देती दान जीवन का शुभंकर
दूसरा करती उपस्थित मृत्यु का सम्भार
होता गगन का अट्टहास।
4. शरद-पूर्व
नभ के सूख गये हैं अश्रु,
शून्य हो गया गगन,
संवेदनहीन।
बूँदें ठिठक गयीं करुणा की,
निस्तेज हो गया अधर।
आहें तप्त हैं अब भी,
नहीं हुईं ठंढी।
कराहें धीमी नहीं हुईं,
कचोट रहीं अन्तर में बन्द हो।
बोझिल हैं अब भी हवाएँ,
आकुल व्याकुल हैं उठी हुई बाहें
बादल,
चील की बड़ी-बड़ी पाँखों से
फैल रहे गगन में अब भी
आच्छादित है अब भी उदास मन
भावों के करुण बोझ से
उजास अब भी नहीं आया।
ऊष्मा घुटन की,
बेचैन है अब भी विषाद-घन बन।
काश..
कि प्यास बुझ गयी होती
हवाएँ मुक्त हो गयी होतीं
अश्रु-बोझ से,
आहें ठंढी हो गयीं होतीं
सिसकियाँ उबर जातीं
कराहें डूब जातीं शान्ति में।
फिरसे संचरण होता ,
उस प्राण-शक्ति का
शीतल उजास भरता चतुर्दिक,
पाँख फड़फड़ा उठते श्वेत कबूतरों के,
घरों में।
तटों पर मचल उठते, सारस के जोड़े,
किलकिला उठतीं हँसों की पाँतें,
तड़ागों में।
शीतल हो जाता धरती का ताप।
नभ शान्त मुस्कुराता होता
गर्विष्ठ-सा, उदार,
उन्मुक्त-सा।
काश! अभी ऐसा ही होता।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19 - 03 - 2015 को चर्चा मंच की चर्चा - 1922 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
achchi kavitaye hai
जवाब देंहटाएंachchi kavitaye hai
जवाब देंहटाएंBahut samay se Prakriti aur rituon ka varnan karti acchi kavitayen nahin padhi thi... Aapki Kavita ne Prakriti ke saath janjivan ka bhi chitran kar diya... Saath me jeevan darshan ki bhi jhalak mili... Aapko Bahut Mubarakbaad
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएं
जवाब देंहटाएंDelightful poems, deep and insightful.....Will wait for more to come !!!
जवाब देंहटाएंApki kavitaon ko padh kr prakriti ki ek bahot hi behtareen anubhuti prapt hui.....
जवाब देंहटाएंApki kavitaon ko padh kr prakriti ki ek bahot hi behtareen anubhuti prapt hui......
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो माफ़ी चाहती हूँ इतनी सुन्दर कविताएँ देर से पड़ने के लिए/ सच में प्रकृति जीवन और संगीत के माध्यम से कविताओ में आपने जो जीवन रस की अनुभूति करा दी वह अद्भुत है/ बहुत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंरेणु खंतवाल