संध्या सिंह |
सम्भावनाशील साहित्यकार संध्या सिंह का जन्म 20 जुलाई 1958 को ग्राम लालवाला, तहसील देवबंद, जिला सहारनपुर, उ.प्र. में हुआ। शिक्षा: मेरठ विश्वविद्यालय से स्नातक (विज्ञान)। प्रकाशन: साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन। प्रकाशित कृति: आखरों के शगुन पंछी (काव्य संग्रह)। संपादन: ‘कविता समवेत परिदृश्य' काव्य संग्रह की सह संपादक। प्रकाशनाधीन: ‘इत्र महकता मन का‘ (साझा संकलन) एवं एक गीत संग्रह ‘मौन की झंकार'। विविध: हिन्दी के प्रचार-प्रसार से जुडी साहित्यिक गतिविधियों में निरंतर सहभागिता। कवि गोष्ठियों एवं दूरदर्शन पर काव्य पाठ। सम्प्रति: स्वतन्त्र लेखन। संपर्क: डी- 1225, इन्दिरा नगर, लखनऊ, ई-मेल : sandhya.20july@gmail.com।
1. तीरंदाज़
मुस्कानों के कोमल पंछी
खतरे में परवाज़
कदम-कदम पर खड़े हुए
आतंकी तीरंदाज़
प्रेम समर्पण की नगरी में
तर्क बहस की सत्ता
मीठे सरस फलों की जड़ में
ज्यों बर्रे का छत्ता
शाखाएं इस भय से हिलतीं
हवा न हो नाराज़
नर्म घास पर आग बबूला
क्रुद्ध दुपहरी भारी
पैरों ने भी रोंद-रोंद कर
अपनी खीज उतारी
भय ठूंसा धरती के मुंह में
मुखर न हो आवाज़
2. विडम्बना
बीच भंवर में आज हाथ से
तिनके छूट गए
मावस वाली रात अचानक
जुगनू रूठ गए
शंकाओं की डाल पकड़ कर
झूल गया विश्वास
इधर बर्फ है उधर भाप है
बीच खड़ी है प्यास
जब नयनों को मिला उजाला
दर्पण टूट गए
कर्तव्यों के हिम पर्वत पर
सपनों का सन्यास
तन उत्सव में भले व्यस्त हो
मन भोगे वनवास
गगन दिखाने वाले खुद
पंखों को लूट गए
भरी भीड़ में मन के भीतर
सूना-सा एहसास
जैसे नदिया बीच किसी का
हो निर्जल उपवास
बिन सींचे ही बीज दर्द का
अंकुर फूट गए
3. बरखा
बहक बहक कर आज सम्भाला
बडे दिनों के बाद
खोली अम्बर ने मधुशाला
बड़े दिनों के बाद
सड़कों पर बूंदों की छम-छम
घुंघरू-सी झंकार हुई
टहनी-टहनी नृत्य दिखाए
बरखा ज्यों त्यौहार हुई
आज भरा पोखर का प्याला
बड़े दिनों के बाद
आज पुराने नियम तोड़ कर
लहर किनारे लांघ रही
मिट्टी ने पानी में घुल कर
मन की सारी बात कही
दरिया आज हुआ मतवाला
बड़े दिनों के बाद
घूँट-घूँट ये शुद्ध सोमरस
पेड़ों ने रसपान किया
पत्तों को चढ़ गयी खुमारी
झोंकों ने पहचान लिया
छलक उठी कुदरत की हाला
बड़े दिनों के बाद
4. मन बांचे तरुणाई
मंजिल आँख मिचौली खेले
छूटे फिसल-फिसल कर
हमने पैरों को बहलाया
रस्ते बदल-बदल कर
जहां मिली उपजाऊ मिट्टी
जल का स्रोत वहीं था
धूप हवा भी वहीं खड़े पर
भीतर बीज नहीं था
पर जिद्दी मन वहीं ढूंढता
छाया टहल-टहल कर
उग्र अभावों के तांडव में
पाँव तले इच्छाएं
लाचारी की जेठ दुपहरी
कोमल मन-शाखाएं
बूँद-बूँद हिमखंड प्रेम के
रिसते पिघल-पिघल कर
अंतर्द्वंद्व समूचा जीवन
खुद से एक लड़ाई
तन पढता है कथा उम्र की
मन बांचे तरुणाई
चलें तार पर संयम के हम
कब तक संभल-संभल कर
5. नहीं मील का पत्थर कोई
कितनी दूर चले हैं जाने
कैसे जीवन पथ पहचाने
नहीं मील का पत्थर कोई
मिला सफ़र में गड़ा हुआ
खुशियाँ जंग लगे बक्से में
बंद पोटली के भीतर
कुंडी लगी विवशताओं की
ताले पर है कड़ी नज़र
सपना चारदीवारी भीतर
पंजो के बल खडा हुआ
दंड मिला तितली को वन में
फूल-फूल मंडराने पर
हवा स्वयं ही चुगली करती
शाखों के लहराने पर
पाबंदी के तंग शहर में
जंगल का मृग बड़ा हुआ
परिवर्तन ने पंख दे दिए
पर रस्मों ने डोर कसी
घर–बाहर के बीच जंग हैं
दरवाजे में देह फंसी
बहती गयी उमर नदिया-सी
मन जिद्दी-सा अड़ा हुआ
6. दिनचर्या
नए पृष्ठ पर व्यथा पुरानी
दिनचर्या की यही कहानी
अलसाई पलकों से किरणें
फूल सरीखे स्वप्न उठातीं
दे कर समय सारिणी दिन की
फिर आँखों में आस जगातीं
भुला-भुला कर कल की ठोकर
फिर पैरों ने मंजिल ठानी
सूरज मिर्च हुआ आँखों में
नंगी पीठ धूप के कोड़े
कंकर-कंकर चुभन पाँव में
मगर हौसले दिन भर दौड़े
कुंठा, खीज, अभाव, विवशता
दिन ढलने पर मुंह की खानी
साँझ गुलाबी ढाढ़स देती
थके बदन पर देख हताशा
नाकामी के पत्थर पर ही
फिर चन्दा ने स्वप्न तराशा
मगर जाग कर इन तारों को
दिन की सारी चोट दिखानी
नींद रहे सिरहाने बैठी
चिंता की आँखों से यारी
किसका कितना कर्ज चुकाया
किसकी कितनी बची उधारी
जोड़-घटाना, गुणा-भाग से
रात सवालों-सी सुलझानी
भोर, दुपहरी, साँझ, निशा सब
घिसी-पिटी तारीख बनाएं
बदल-बदल कैलेण्डर घर के
गुपचुप साल सरकते जाएँ
रोज़ दुखों का गट्ठर ढोना
रोज़ ज़रा-सी खुशी चुरानी
7. सन्नाटा
मौन घुटन का घर लगता है
सन्नाटा बिषधर लगता है
ताबूतों में चीख बंद हैं
राख हुए हैं कितने क्रंदन
सजी धजी देहों के भीतर
बचे नहीं जीवन के लक्षण
नहीं सिसकियाँ उठीं कंठ से
फिर आँचल क्यों तर लगता है
शब्द ढूढ़ते हैं अधरों को
कंठ ढूंढते भटकें अक्षर
लावारिस एहसास घूमते
कब गाओगे गीत बना कर
रेंग रहीं आवाजें दिल की
चलना अब दुष्कर लगता है
सम्प्रेषण के बिन संवेदन
गड़ा हुआ अज्ञात खजाना
अनबोले में उठे भाव को
किसने समझा किसने माना
नीरवता में चैन खोजना
केवल आडम्बर लगता है
चलो ह्रदय के सूनेपन में
थोड़ा-सा कोलाहल भर लें
खामोशी के इस खंडहर में
संवादों के दीपक धर लें
शोर किसी उत्सव में छलकी
अमृत की गागर लगता है
8. कान उगे दीवारों में
तहखाने से राज निकल कर
आ पंहुचे बाज़ारों में
जब भी खुसफुस की अधरों ने
कान उगे दीवारो में
सागर तल की गहराई में
दबे हुए थे किस्से मन के
धरे छुपा कर बंद सीप में
मोती जैसे पल जीवन के
शातिर गोताखोर चुरा कर
बाँट रहे अखबारों में
तट पर एक रेत के घर में
दिल के दस्तावेज़ धरे थे
देख बुरी सागर की नीयत
लहर-लहर पर राज़ डरे थे
उड़ी गगन तक गुप्त कथाएं
सरे आम गुब्बारों में
चुगली बैठ पवन के काँधे
परदे हटा-हटा कर झांके
रुसवाई के तार बाँध कर
किस्से चौराहों पर टाँगे
प्यार फूस का सूखा छप्पर
हवा चली अंगारों में
9. ऋतुराज पधारे हैं
बहुर गए धरती के दिन
तितली ने पंख सँवारे हैं
ऋतुराज पधारे हैं
खुशबू चले हवा के काँधें
गली-गली इतराकर
पांखुर-पांखुर झुकती जाती
भंवरे से शरमाकर
हर गुंजन में फूलों को
आमंत्रण न्यारे हैं
क्षर-अक्षर रंग-बिरंगे
इत्र महकता मन का
उपवन-उपवन खुला पडा हैं
प्रेम पत्र मौसम का
नदिया ने उठ पेड़ों के
अब पाँव पखारे हैं।
मुस्कानों के कोमल पंछी
खतरे में परवाज़
कदम-कदम पर खड़े हुए
आतंकी तीरंदाज़
प्रेम समर्पण की नगरी में
तर्क बहस की सत्ता
मीठे सरस फलों की जड़ में
ज्यों बर्रे का छत्ता
शाखाएं इस भय से हिलतीं
हवा न हो नाराज़
नर्म घास पर आग बबूला
क्रुद्ध दुपहरी भारी
पैरों ने भी रोंद-रोंद कर
अपनी खीज उतारी
भय ठूंसा धरती के मुंह में
मुखर न हो आवाज़
2. विडम्बना
बीच भंवर में आज हाथ से
तिनके छूट गए
मावस वाली रात अचानक
जुगनू रूठ गए
शंकाओं की डाल पकड़ कर
झूल गया विश्वास
इधर बर्फ है उधर भाप है
बीच खड़ी है प्यास
जब नयनों को मिला उजाला
दर्पण टूट गए
कर्तव्यों के हिम पर्वत पर
सपनों का सन्यास
तन उत्सव में भले व्यस्त हो
मन भोगे वनवास
गगन दिखाने वाले खुद
पंखों को लूट गए
भरी भीड़ में मन के भीतर
सूना-सा एहसास
जैसे नदिया बीच किसी का
हो निर्जल उपवास
बिन सींचे ही बीज दर्द का
अंकुर फूट गए
3. बरखा
बहक बहक कर आज सम्भाला
बडे दिनों के बाद
खोली अम्बर ने मधुशाला
बड़े दिनों के बाद
सड़कों पर बूंदों की छम-छम
घुंघरू-सी झंकार हुई
टहनी-टहनी नृत्य दिखाए
बरखा ज्यों त्यौहार हुई
आज भरा पोखर का प्याला
बड़े दिनों के बाद
आज पुराने नियम तोड़ कर
लहर किनारे लांघ रही
मिट्टी ने पानी में घुल कर
मन की सारी बात कही
दरिया आज हुआ मतवाला
बड़े दिनों के बाद
घूँट-घूँट ये शुद्ध सोमरस
पेड़ों ने रसपान किया
पत्तों को चढ़ गयी खुमारी
झोंकों ने पहचान लिया
छलक उठी कुदरत की हाला
बड़े दिनों के बाद
4. मन बांचे तरुणाई
मंजिल आँख मिचौली खेले
छूटे फिसल-फिसल कर
हमने पैरों को बहलाया
रस्ते बदल-बदल कर
जहां मिली उपजाऊ मिट्टी
जल का स्रोत वहीं था
धूप हवा भी वहीं खड़े पर
भीतर बीज नहीं था
पर जिद्दी मन वहीं ढूंढता
छाया टहल-टहल कर
उग्र अभावों के तांडव में
पाँव तले इच्छाएं
लाचारी की जेठ दुपहरी
कोमल मन-शाखाएं
बूँद-बूँद हिमखंड प्रेम के
रिसते पिघल-पिघल कर
अंतर्द्वंद्व समूचा जीवन
खुद से एक लड़ाई
तन पढता है कथा उम्र की
मन बांचे तरुणाई
चलें तार पर संयम के हम
कब तक संभल-संभल कर
5. नहीं मील का पत्थर कोई
कितनी दूर चले हैं जाने
कैसे जीवन पथ पहचाने
नहीं मील का पत्थर कोई
मिला सफ़र में गड़ा हुआ
खुशियाँ जंग लगे बक्से में
बंद पोटली के भीतर
कुंडी लगी विवशताओं की
ताले पर है कड़ी नज़र
सपना चारदीवारी भीतर
पंजो के बल खडा हुआ
दंड मिला तितली को वन में
फूल-फूल मंडराने पर
हवा स्वयं ही चुगली करती
शाखों के लहराने पर
पाबंदी के तंग शहर में
जंगल का मृग बड़ा हुआ
परिवर्तन ने पंख दे दिए
पर रस्मों ने डोर कसी
घर–बाहर के बीच जंग हैं
दरवाजे में देह फंसी
बहती गयी उमर नदिया-सी
मन जिद्दी-सा अड़ा हुआ
6. दिनचर्या
नए पृष्ठ पर व्यथा पुरानी
दिनचर्या की यही कहानी
अलसाई पलकों से किरणें
फूल सरीखे स्वप्न उठातीं
दे कर समय सारिणी दिन की
फिर आँखों में आस जगातीं
भुला-भुला कर कल की ठोकर
फिर पैरों ने मंजिल ठानी
सूरज मिर्च हुआ आँखों में
नंगी पीठ धूप के कोड़े
कंकर-कंकर चुभन पाँव में
मगर हौसले दिन भर दौड़े
कुंठा, खीज, अभाव, विवशता
दिन ढलने पर मुंह की खानी
साँझ गुलाबी ढाढ़स देती
थके बदन पर देख हताशा
नाकामी के पत्थर पर ही
फिर चन्दा ने स्वप्न तराशा
मगर जाग कर इन तारों को
दिन की सारी चोट दिखानी
नींद रहे सिरहाने बैठी
चिंता की आँखों से यारी
किसका कितना कर्ज चुकाया
किसकी कितनी बची उधारी
जोड़-घटाना, गुणा-भाग से
रात सवालों-सी सुलझानी
भोर, दुपहरी, साँझ, निशा सब
घिसी-पिटी तारीख बनाएं
बदल-बदल कैलेण्डर घर के
गुपचुप साल सरकते जाएँ
रोज़ दुखों का गट्ठर ढोना
रोज़ ज़रा-सी खुशी चुरानी
7. सन्नाटा
मौन घुटन का घर लगता है
सन्नाटा बिषधर लगता है
ताबूतों में चीख बंद हैं
राख हुए हैं कितने क्रंदन
सजी धजी देहों के भीतर
बचे नहीं जीवन के लक्षण
नहीं सिसकियाँ उठीं कंठ से
फिर आँचल क्यों तर लगता है
शब्द ढूढ़ते हैं अधरों को
कंठ ढूंढते भटकें अक्षर
लावारिस एहसास घूमते
कब गाओगे गीत बना कर
रेंग रहीं आवाजें दिल की
चलना अब दुष्कर लगता है
सम्प्रेषण के बिन संवेदन
गड़ा हुआ अज्ञात खजाना
अनबोले में उठे भाव को
किसने समझा किसने माना
नीरवता में चैन खोजना
केवल आडम्बर लगता है
चलो ह्रदय के सूनेपन में
थोड़ा-सा कोलाहल भर लें
खामोशी के इस खंडहर में
संवादों के दीपक धर लें
शोर किसी उत्सव में छलकी
अमृत की गागर लगता है
8. कान उगे दीवारों में
तहखाने से राज निकल कर
आ पंहुचे बाज़ारों में
जब भी खुसफुस की अधरों ने
कान उगे दीवारो में
सागर तल की गहराई में
दबे हुए थे किस्से मन के
धरे छुपा कर बंद सीप में
मोती जैसे पल जीवन के
शातिर गोताखोर चुरा कर
बाँट रहे अखबारों में
तट पर एक रेत के घर में
दिल के दस्तावेज़ धरे थे
देख बुरी सागर की नीयत
लहर-लहर पर राज़ डरे थे
उड़ी गगन तक गुप्त कथाएं
सरे आम गुब्बारों में
चुगली बैठ पवन के काँधे
परदे हटा-हटा कर झांके
रुसवाई के तार बाँध कर
किस्से चौराहों पर टाँगे
प्यार फूस का सूखा छप्पर
हवा चली अंगारों में
9. ऋतुराज पधारे हैं
बहुर गए धरती के दिन
तितली ने पंख सँवारे हैं
ऋतुराज पधारे हैं
खुशबू चले हवा के काँधें
गली-गली इतराकर
पांखुर-पांखुर झुकती जाती
भंवरे से शरमाकर
हर गुंजन में फूलों को
आमंत्रण न्यारे हैं
क्षर-अक्षर रंग-बिरंगे
इत्र महकता मन का
उपवन-उपवन खुला पडा हैं
प्रेम पत्र मौसम का
नदिया ने उठ पेड़ों के
अब पाँव पखारे हैं।
मन बाँचे तरूणाई एक प्रयोग है।मंज़िल की तलाश में चला गया हर कदम एक नूतन प्रयोग है।लेकिन कवयित्री को अंदेशा है कि तमाम उपादानों के बावजूद भी अगर जीवन में "बीज तत्व"नहीं है तो सफलता संदिग्ध हो जाती है।कवयित्री यह मानती हैं कि सारा जीवन एक अन्तर्द्वन्द्व है।लड़ाई बाहरी कम भीतरी ज्यादा है।लड़ते-लड़ते चेहरे की झुर्रियाँ भले ही अनुभवसिक्त होने का भाव बयाँ करती हों लेकिन अंतर्मन कहीं न कहीं बच्चा ही बना रहता है।यह रचनाकार की जीवनधर्मिता का परिचायक है।मानो कवयित्री कह रही हो कि-"बहुत जलाने के बाद भी जला नहीं क्योंकि कुछ-कुछ कच्चा था,कुछ-कुछ हरा था।"कवयित्री मन की इस तरूणाई को अर्थात् कच्चेपन को बड़े यत्न से बचा कर रखना चाहती है।
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत नौ गीत नो नायाब मोतियों सरीखे हैं । हर गीत बिलकुल सधा हुआ और प्रवाहमय । भाव ऐसे कि हर कोई इनसे जुड़ा सा महसूस करने लगेगा और शब्द इतने सहज सरल कि आसानी से अपनाये जा सके । गीतों की बिम्बात्मकता अतुलनीय है और भावों को रोचकता दे रही हैं । हर गीत मन को बाँध रहा है । प्रकृति कवियत्री के शब्द शब्द में धड़क रही है । ऐसे गीत निस्संदेह गीतों की पाठशाला हैं और सहेजने योग्य भी ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-05-2016) को "अगर तू है, तो कहाँ है" (चर्चा अंक-2349) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी शुक्रगुज़ार हूं
जवाब देंहटाएं