हमारे जीवन की हकीकत बयान करती गजलें — अवनीश सिंह चौहान
चित्र गूगल से साभार |
फिर वही इक बात कहना चाहता हूँ।।
सैयद रियाज रहीम के गजल संग्रह ‘पूछना है तुमसे इतना‘ की फेहरिस्त से पहले उनका उपर्युक्त शेर पाठकों से कलमकार की बात बड़ी साफगोई से कह देता है कि वर्षों से साहित्यकार समाज के जिस कीचड़-दलदल को साफ करने की बात और उसके तत्कालीन सवरूप को प्रतिबिंबित करने का प्रयास करते रहे हैं, वही काम आज भी हो रहा है, बस उसको करने का अंदाज बदल गया है और बदल गयी है कुछ चिन्ताएं भी। ऐसे में इस शायर की कहन में समयानुकूल ताजगी, अपना खिंचवा-जुड़ाव, रगड़-घिसड़ के चिन्हों का रूपायन स्वाभाविक ही है। जिससे इतना तो अंदाजा लगता ही है कि जो बात वह हमसे कहना चाहता है, या पूछना चाहता है, वह हमारी और हमारे परिवेश से जुड़ी बात है, जो हमें ‘रिमाइण्ड‘ कराती है कि किसमें हमारा हित है और किस में नहीं। उसकी यह सजगता-संवेदनशीलता तब और भी मायने रखती है जबकि आज का आदमी मायावी बाजारवाद के वशीभूत होकर अपनी आदमियत को भूलता-दरकिनार करता चला जा रहा है। इसीलिए वह सीधे-सपाट कह देता है-
आदमी हो, रहो, आदमी की तरह
ये समझता नहीं जो वो शैतान है।
...
हमारे बाद भी जिंदा रहेंगे ख्वाब रियाज
हमारे ख्वाबों का रिश्ता तो आदमी से है।
चूंकि रहीम साहब और उनके अशआरों का रिश्ता आदमी से है इसीलिए उसके बेहतर वर्तमान एवं भविष्य को ध्यान में रखते हुए वह किसी भी बात को दो टूक कह देने का साहस रखते हैं। उनका कविमन इस बात को जानता है कि सही बात कहने, दूसरे के दर्द से संवेदित होने और पीड़ितों के लिए आवाज उठाने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए, न केवल हिम्मत बल्कि ‘सर्वे भवन्तु सुखन' जैसी उच्च भावना त्याग, और दृढ़ संकल्प की भी आवश्यकता पड़ेगी और जिनमें उक्त तत्व, बातें मौजूद हैं, वे लोग बहुत कम ही है। किन्तु इतिहास गवाह है कि मुट्ठी भर लोगों ने ही सदैव क्रांति के बीज बोये हैं। इसीलिए उसका पैगाम है-
कब तक एक ही मंजर देखो, कब बदलेगा मंजर यार
सन्नाटों के इस सागर में कोई तो फेंके कंकर यार।
लेखक का यह संदेश हमारे सुप्त मन-मस्तिष्क को झकझोरने का प्रयास कर रहा है ताकि हमारा मरता हुआ ईमान लाज-शर्म, मान-मर्यादा को पुनः अनुप्रमाणित किया जा सके। उसको चिन्ता है-
धर्म को कोई खतरा नहीं है जनाब
अब तो खतरे में हम सबका इर्मान है
कोई अकीदा, कोई नजरिया, कोई उसूल
सब कुछ जैसे ख्वाब तमाशा लगता है।
रचनाकार का यह अनुभव बहुत साफ-सुथरा है, इसमें पूरी सच्चाई है क्योंकि आज की परिस्थितियों और मानवी-प्रवृत्तियाँ बहुत बदल गयी हैं। इसीलिए वह जीवन के लिए जरूरी एवं कल्याणकारी आयामों-सामाजिक-सांस्कृतिक एकता, रस्म-ओ-रिवाज, आपसी स्नेह-विश्वास, सहयोग, भाईचारा , सच्चाई, अमन-चैन, सांप्रदायिकता-निष्ोध और अंतराष्ट्रीय सद्भाव, पर बल देता है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
मस्जिद-मंदिर के झगड़े तो होते मिटते रहते हैं
दफन है जिसमें दिल के रिश्ते उस मलबे की बात करें।
इतना ही नहीं, वह मानव जीवन के लिए अहितकर एवं घातक-संवेदनहीनता, अलगाव, अवसरवादिता, खोट-कपट, नफरत, खौफ, अन्याय, अत्याचार जैसी सामाजिक विसंगतियों-विद्रूपताओं के विरुद्ध भी अपना प्रतिवाद बेधड़क प्रस्तुत करता है-
सितमगरों के हक में हैं सारे मुन्सिफ भी
हमारे हक में कोई फैसला मिलेगा कहां।
मिरे अपने ही मुझको कत्ल करते हैं यहां पल-पल
जहां भी खून बहता है वो मेरा ही तो होता है।
इतना कुछ कहने के पीछे उसकी मंशा यही है कि यदि उसके इन अल्फाजों से समाज में जागृति आ गयी, तो संभव है कि इसके अरुणोदय में नयी कोपलें फूटें और जीवन को सुवासित करने लगें। यही तो उसका ख्वाब है क्योंकि वह मानता है-
सफर का सिलसिला यों ही नहीं जिन्दा है सदियों से
हमारे ख्वाब सहराओं में भी दरिया बनाते हैं।
और इसके लिए वह पूरी तरह से आशावादी भी दिखता है-
धीरज रखो आज नही तो कल अच्छा हो जायेगा
पगडंडी पर चलते रहना ही रस्ता हो जायेगा।
इस कलमकार के कलामों में कइ प्रकार की देशज अन्तर्ध्वनियां हैं, अकथित आशय हैं जो जीवन के तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों के साक्ष्य हैं और महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इनके अर्थ आसानी से निकल आते हैं और लगने लगता है कि मानो वे हमारे जीवन की हकीकत बयान कर रहे हों। हालांकि कुछ गिने-चुने पहलुओं पर कथ्य और शब्द-समूहों की पुनरावृत्ति देखने को मिलती है, फिर भी उसका बिम्ब विधान और भावबोध एक गंभीर चिंतक की सर्जना लगते हैं। कुल मिलाकर यह संग्रह पठनीय है।
(समीक्षित कृति: ‘पूछना है तुमसे इतना', ग़ज़लकार : सैयद रियाज रहीम, प्रकाशक: आजमी पब्लिकेशन ,कुर्ला, मुंबई, 2007)
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