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मंगलवार, 1 मार्च 2011

मधुकर अष्ठाना और उनके चार नवगीत — अवनीश सिंह चौहान


 

२७ अक्टूबर १९३९ को जनपद आजमगढ़ (उ.प्र.) के ग्राम मझगवां, रानी की सराय में जन्मे मधुकर अष्ठाना जी सेवानिवृत्ति के बाद लखनऊ  में स्थाई रूप से आ बसे। चढ़ती उम्र से गीत साधना करने वाले इस गीतकार की रचनाएँ आधुनिक संवेदना  को यथार्थ के धरातल पर पूरी वस्तुपरकता और रागात्मकता के साथ व्यंजित करती हैं। आपके गीत, नवगीत, ग़ज़ल, आलेख, समीक्षाएं आदि महत्वपूर्ण समवेत काव्य संकलनों एवं लब्ध प्रितिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। सिकहर से भिनसहरा  (भोजपुरी गीत संग्रह), गुलशन से बयाबाँ तक (हिन्दी ग़ज़ल संग्रह), वक्त आदमखोर (नवगीत संग्रह), मुट्ठी भर अस्थियाँ (नवगीत संग्रह), दर्द जोगिया ठहर गया (नवगीत संग्रह) आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। आप 'अपरिहार्य' (त्रैमासिक) के अतिरिक्त संपादक, उत्तरायण पत्रिका में सहयोगी एवं अभिज्ञानम पत्रिका के उपसंपादक रहे हैं। भगवती चरण वर्मा सम्मान, साहित्य गौरव सम्मान, नवगीत श्री सम्मान, नवगीत गौरव सम्मान, निमेश सम्मान, साहित्य गौरव सम्मान आदि से आपको अलंकृत किया जा चुका है। संपर्क: विद्यायन,  एस-एस १०८-१०९, सेक्टर-ई एलडीए  कालोनी, कानपुर रोड,  लखनऊ (उ.प्र.)-226012। संपर्कभाष: ०५२२-२४३७९०१, ०९४५०४४७५७९। 




चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 
१. आदर्शों में मरे-खपे

आदर्शों में मरे-खपे
लाचार हुए
पूरे घर को हम
अनचाहे भार हुए

अमल-धवल सपने
हिमगिरी से भागीरथी न ला पाये
फूलों की घाटी से
मन का मरुथल नहीं सजा पाये

फूल हुए जहरीले
दुश्मन ख़ार हुए

धार बने सागर से मिलने
पर उलटे मझधार रहे
मन से निकल, नयन से उतरे
युग-युग पिटे विचार रहे

थके जुनून, समर्पण सब
व्यापार हुए

बालू की दीवार हो गयीं
ढहतीं मर्यादायें
सांसे पूरी करने में भी
हैं अनगिन बाधायें

बज्र बने दुर्गति में
प्रबल प्रहार हुए

२. धूमकेतु से प्राण बचाना

धूमकेतु से प्राण बचाना
अब तो कठिन हुआ
उल्काओं में मन बहलाना
अब तो कठिन हुआ

इतने विस्तृत अन्तरिक्ष में
धरा बिंदु-सी है
मेरी पीड़ा भी कितनी कम
अगर सिन्धु-सी है

नभगंगा में नित्य नहाना
अब तो कठिन हुआ

नक्षत्रों की गहमागहमी
विग्रह का भय है
बनने और बिगड़ने में
सारा जीवन लय है

नवग्रह का अनुमान लगाना

अब तो कठिन हुआ

बंधे विवशताओं में
जीते तीखी शब्द छुरी
नाच रहे सबके सब साधे
अपनी शूल धुरी

भींगा अंतर आग लगाना

अब तो कठिन हुआ

३. चाहे जितना दौड़

चाहे जितना दौड़
न फूटी किस्मत जागेगी
बड़े-बड़ों की आन
जिन्दगी तेरी मांगेगी

दौड़ रही है सारी दुनिया
दौड़ें संग-सहारे
महानगर के छल से
फिर भी हार गये बेचारे

मुंहताजी में ख़ाक

गरीबी घर से भागेगी

जन्म-जन्म की भूख
पेट से लगा रहा है फेरे
निकल नहीं पाया अब तक
ऐसे फौलादी घेरे

कंचन-मृग-छलना

लेकिन हर दूरी नापेगी

श्रम को अर्पित तेरे चरण
आचरण के साये
भाग रहीं मर्यादायें
दुश्मन दायें-बायें

दौड़ निरंतर/ चादर

बनकर/ ममता ढांपेगी

४. घाव अब तो

घाव अब तो
हो गये नासूर भाई
पर करूँ क्या
नियति से मजबूर भाई

एक हो तो कह सकें
कोई अजनबी त्रासदी को
कौन बाँधेगा तटों में
समय की उफनी नदीं को

चाँद रोंदा

चांदनी बेनूर भाई

जिन्दगी को जिन्दगी
कहना नहीं आसान लगता
मुखौटा बदले हुए
बहुरूपिया हर बार ठगता

कहीं नंदीग्राम

कहीं सिंगूर भाई

छा गये बगुले
रही जो झील हंसों की बपोती
उपेक्षित जठराग्नि
है टूटा तवा, फूटी कठौती

हो गया है हाथ

मुंह से दूर भाई। 

Madhukar Ashthana Ke Char Navgeet

4 टिप्‍पणियां:

  1. "छा गये बगुले/ रही जो झील हंसों की बपोती / उपेक्षित जठराग्नि / है टूटा तवा, फूटी कठौती / हो गया है हाथ/ मुंह से दूर भाई "- वह बहुत अच्छा कहा है अष्ठाना जी ने . सभी गीत सुन्दर. बधाई.

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  2. दौड़ रही है सारी दुनिया
    दौड़ें संग-सहारे
    महानगर के छल से
    फिर भी हार गये बेचारे
    मुंहताजी में ख़ाक
    गरीबी घर से भागेगी.
    Bahut sunder vichar hai in panktiyon main. badhai

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  3. चारो गीत बहुत ही प्रभावशाली है....
    मधुकर अष्ठाना जी को हार्दिक बधाई।

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