कवि और गीतकार डॉ. महेन्द्र भटनागर का रचना-कर्म स्वतंत्रता- प्राप्ति से पूर्व, नवम्बर सन् 1941 से ही प्रारंभ हो गया था। प्रथम गीत-संग्रह ‘तारों के गीत’ सन् 1949 में प्रकाश में आ गया था। इसके पश्चात् तो उनके गीतों और कविताओं के ‘टूटती शृंखलाएँ’(1949), ‘बदलता युग’ (1953), ‘अभियान’ (1954), ‘अंतराल’ (1954), ‘विहान’ (1956), ‘नयी चेतना (1956), ‘मधुरिमा’ (1959), ‘जिजीविषा’ (1962), ‘संतरण‘ (1963), ‘संवर्त’ (1972), ‘संकल्प’ (1977), ‘जूझते हुए’ (1984), ‘जीने के लिए’ (1990), ‘आहत युग’ (1997), ‘अनुभूत क्षण’ (2001), नामक अनेक संग्रह प्रकाशित होते चले गये। उपर्युक्त कृतियाँ डॉ. महेन्द्र भटनागर की अखण्ड रचनात्मक ऊर्जा का पुष्ट एवं प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। ‘गीति-संगीति’ उनके प्रतिनिधि गेय गीतों का विशिष्ट संकलन है। वस्तुतः इस गीत-संकलन को उनके गीतोत्कर्ष का गौरवमय निदर्शन कहा जा सकता है।
डॉ. महेन्द्र भटनागर के व्यक्तित्व और कृतित्व का केन्द्रीय तत्व है उनकी सहज द्रवणशील सघन संवेदना । उनकी संवेदना को दिशा और दृष्टि प्रदान करने वाला चिन्तन भी नितान्त सहज और सुग्राह्य है। उनके मधुर-कटु अनुभवों के निष्कर्षों से ही उनका चिन्तन विकसित हुआ है और उस अनुभव-अर्जित सहज तथा मौलिक चिन्तन ने ही उनकी संवेदनाओं को वैचारिक साँचे में ढाल कर प्रौढ़ता एवं स्थायित्व प्रदान किया है। डॉ. महेन्द्र भटनागर का चिन्तन किसी बाह्य, आरोपित दर्शन के शुष्क सिद्धान्त-जाल से समाच्छन्न नहीं है। यद्यपि वे नव-प्रगतिवादी आन्दोलन से जुड़े रहे हैं; तथापि उन्होंने प्रगतिवाद के उस वाद-मुक्त सहज मानवीय स्वरूप को ग्रहण किया है जो उत्पीड़न, शोषण और अत्याचार के विरुद्ध है तथा शोषित-पीड़ित जनता को दुर्गति से मुक्त करके उसकी बहुमुखी प्रगति का पक्षधर है। युग- विराधी शक्तियों को चुनौती देना उनके प्रगति-चिन्तन का प्रतिक्रियात्मक पक्ष है और स्वस्थ मन से आत्म-सम्बल के सहारे, निर्भयतापूर्वक, ज्ञान-दीपित, नव सृजनात्मक शक्तियों के बल पर सर्वहारा वर्ग की विजय-पताका फहराना उनके प्रगति-दर्शन का क्रियात्मक या सकारात्मक आयाम है। युग-विहग को लक्ष्य करके वे अपने प्रगति-दर्शन के नकारात्मक-सकारात्मक पक्षों को समन्वित रूप में उजागर करते हुए कहते हैं:
आत्म-सम्बल के सहारे और निर्भय
पथ-प्रदर्शक, ज्ञान-दीपक,
नव-सृजन से, सर्वहारा वर्ग की जय
युग विरोधी शक्तियों को
तुम चुनौती दे चढ़ोगे,
तुम चढ़ोगे !
डॉ. महेन्द्र भटनागर की रचनाओं में यह प्रगति-दर्शन ही एक सर्वांगीण स्वातंत्र्य-दर्शन के रूप में विकसित हुआ है। ‘युग-विहग’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं — ‘विश्व को संदेश नूतन मुक्ति का दे, तुम बढ़ोगे!’ उनका यह मुक्ति-दर्शन ठोस, व्यावहारिक शक्ति-दर्शन पर आधारित है। ‘अपराजित’ शीर्षक कविता में उन्होंने युग-जवानी की उस अदम्य शक्ति का उल्लेख किया है, जो दुर्बलों में भी सबलता का संचार करती है और क्रांति का संदेश सुनाती है। ‘परिचय’ शीर्षक कविता में उन्होंने स्वयं को ‘शक्ति का संसार’ और ‘मुक्ति की पतवार’ कहा है। अपराजेय शक्ति के द्वारा अगति, दुर्गति, विकृति के अंधकार पर विजय पाकर प्रगति और उत्कर्ष के उजाले को वरण करना ही उनकी क्रांति-चेतना है; जिससे मानव-मुक्ति का लक्ष्य सिद्ध होता है। विश्वास, आस्था, उत्साह, संकल्प, आशा इसी क्रांति और मुक्ति के लक्ष्य की सिद्धि के सुदृढ़ संबल हैं; जिनसे पथ के अवरोध दूर हो जाते हैं। डॉ. महेन्द्रभटनागर सतत साधना और संघर्ष में ही जीवन की सार्थकता मानते हैं। उनका आत्मविश्वास ही उनके स्वावलंबन का अमोघ स्रोत है; जिसके बल पर वे किसी बाहरी सहारे को स्वीकार नहीं करते — ‘गिर-गिर चलने देना मुझको, क्षण भर भी आधार न देना !’ संघर्ष-क्रम में समय-समय पर मिलने वाली विफलताएँ भी उनके जीवन और जीवन-दर्शन का अभिन्न अंग हैं। ‘सहारा’ कविता में वे किसी दूसरे के सहारे की लालसा को त्याग कर एकाकी संघर्षरत रहने का संकल्प करते हैं और साधना-क्रम में विफलता को भी वरेण्य मानते हुए कहते हैं — ‘निखरता मनुज का न जीवन विफलता बिना !’ ‘अप्रतिहत’ कविता में वे दुर्भाग्य और असफलता को साधना-क्रम का स्वाभाविक आयाम मानते हुए कहते हैं:
मैं नहीं दुर्भाग्य के सम्मुख झुकूंगा,
आज जीवन में हुआ असफल भले ही !
कवि महेन्द्र भटनागर का उपर्युक्त प्रगति-दर्शन अपनी मूल चेतना में ‘आलोक-दर्शन’ कहा जा सकता है। वे निश्चय ही, ज्योति के कवि हैं। ‘दीपमाला’, ‘दीप जलाओ’, ‘अभिषेक’, ‘ज्योति-पर्व’, ‘प्राण-दीप’, ‘दीप धरो’, ‘स्नेह भर दो’ आदि अनेक आलोकधर्मी रचनाएँ उन्हें ‘ज्योति का कवि’ सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं। उन्हीं की भाँति उनका दीप भी प्रतिकूल परिस्थितियों में अकेला ही प्रज्वलित रहने में अपनी साधना की सच्ची सार्थकता समझता है — ‘कौन है यह दीप ! जलता जो अकेला, तीव्र गतिमय वात में !’ ‘अभिषेक’ कविता में अमावस्या की रात में शुभ्र आलोक की किरणें विकीर्ण करते हुए प्रत्येक दीप को आलोक-मुकुट से मंडित युवराज के रूप में अभिषिक्त करने का आयोजन किया गया है। वास्तव में, यह कवि की आलोकधर्मी सजग साधना और भास्वर चेतना का ही सम्मान-समारोह है:
कह दो अँधेरे से प्रभा का राज है,
हर दीप के सिर पर सुशोभित ताज है !
ज्योतिपंथी डॉ. महेन्द्र भटनागर की आलोक-साधना इस तथ्य से भी प्रमाणित होती है कि प्रस्तुत कृति में चाँद, चाँदनी, किरण, भोर, उषा आदि को विषय बना कर रची गयी एक दर्जन से भी अधिक रचनाएँ संकलित हैं। कवि ने ‘चाँद’ में प्रियतमा और प्रियतमा में चाँद के दर्शन करके अपने सौन्दर्य-बोध को भी उक्त आलोक-दर्शन से संयुक्त कर दिया है।
यहाँ यह उल्लेख करना नितान्त प्रासंगिक होगा कि गीतकार महेन्द्र भटनागर संघर्ष, जिजीविषा, शक्ति, क्रांति, मुक्ति, ज्योति आदि के जितने प्रखर एवं प्रभावी प्रस्तोता हैं; वे मानव-हृदय की कोमल, करुण, मधुर अनुभूतियों के उससे भी कहीं अधिक समर्थ एवं सफल चितेरे हैं। वे उन तथाकथित प्रगतिवादी कवियों और साम्यवादी समालोचकों- शोधकों की पंक्ति से पृथक हैं, जो मानव-हृदय की नैसर्गिक कोमल-करुण अनुभूतियों को ‘लिजलिजी’ और उनकी छंदोबद्ध, संगीतमयी, मार्मिक अभिव्यक्ति को ‘रोमानी’ या ‘छायावादी’ कह कर लांछित करके प्रकारान्तर से अपनी प्रतिभा सीमा और मानसिक संकीर्णता से उत्पन्न कुण्ठा के विरेचन का मार्ग खोजते हैं और इस प्रकार मानवीय अनुभूतियों की सहजता और व्यापक साहित्यिक प्रतिमानों पर प्रहार करके साहित्य जगत में मूल्यात्मक विपर्यय, कट्टरता और स्वेच्छाचार को बढ़ावा देते हैं। उदारचेता, सहृदय कवि महेन्द्रभटनागर मानव-हृदय की समग्र कोमलतम अनुभूतियों के सिद्धहस्त एवं सफल चित्रकार हैं। उनकी उत्सवपरक रचनाओं में उमंग, उल्लास और उत्साह की उत्ताल तरंगें उद्वेलित होती हुई अनुभव होती हैं। 'फाग’, ‘वर्षा’, ‘बसंत’, ‘आ गया सावन’, ‘चाँदनी में’, ‘दीप जलाओ’, आदि उत्सवपरक रचनाओं में उमंग और उल्लास की अभिनव अभिव्यक्ति हुई है। उत्सव और उल्लास के वातावरण से कवि को जितनी सुखद अनुभूति होती है, उल्लास के अभाव में उतनी ही पीड़ा भी होती है; जो नितान्त नैसर्गिक है:
बहुत ही पास से मैंने तुम्हें देखा,
न थी मुख पर कहीं उल्लास की रेखा,
न जाने क्यों रहीं केवल
खड़ी तुम पद-जड़ित गुमसुम !
वे उल्लास और आशा के जितने बड़े गायक हैं, उतने ही उदासी और निराशा के भी। उदासी और निराशा भी उल्लास और आशा की भाँति जीवन की नैसर्गिक और यथार्थ अनुभूतियाँ हैं। सच तो यह है कि अभाव से ही भाव का बोध होता है। जो निराशा की जितनी गहरी पीड़ा भोग चुका है, उसे आशा उतनी ही अधिक उल्लसित करती है। अनुभूतियों के इसी द्वन्द्वात्मक स्वरूप को साकार करते हुए कवि ने कहा है:
कल खिलेगी उर लता जो
किस क़दर मुरझा रही है !
अनुभूति के रूप में निराशा और उदासी को भी आशा और उल्लास के समान गौरव प्रदान करने पर भी डॉ. महेन्द्रभटनागर जीवन के सकारात्मक पक्ष के ही पोषक हैं। हताशा, कुण्ठा, अवसाद, भाग्य आदि जीवन-यात्रा के यथार्थ अवश्य हैं; किन्तु वे इन्हें जीवन का अंतिम सत्य या साध्य नहीं मानते। वे आशा-निराशा, जय-पराजय, सौभाग्य-दुर्भाग्य के द्वन्द्व में विश्वास रखते हुए भी आशा, विजय, विकास, गति, आस्था आदि में ही जीवन की फलवत्ता मानते हैं। वे मरण की चिता पर जीवन के गीत गाने वाले आस्तिक, आशावादी, और आस्थावादी कवि हैं। अतः वे निराशाजनक, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशावाद का सबल संबल अपनाये रहने पर बल देते हैं:
दीप सारे बुझ गये
आया प्रभंजन,
सब सहारे ढह गये
बरसा प्रलय-घन,
हार, पंथी ! लड़खड़ाओ मत
भोर होती है !
कवि मानव-प्रकृति और बाह्य-प्रकृति का मुक्त अध्येता होता है। वह न तो मनोवैज्ञानिक की भाँति मानव-प्रकृति का यांत्रिक अध्ययन करता है और न ही किसी वनस्पतिशास्त्री की भाँति प्रकृति का वैज्ञानिक विश्लेषण करता है। कविता में मानव-मनोभावों का चित्रण मानवीय परिवेश के संदर्भ में किया जाता है। प्रकृति परिवेश का ही अभिन्न अंग होती है; अतः कविता में मानव-प्रकृति को बाह्य प्रकृति से विच्छिन्न नहीं किया जा सकता। डॉ. महेन्द्रभटनागर की कविताओं में प्रकृति और मानव-प्रकृति में गहन तादात्म्य दिखलायी पड़ता है। ‘चाँद’ के विषय में रचित सभी कविताओं में कवि को चाँद के रूप में प्रियतमा के रूप के ही दर्शन होते हैं। यह ही नहीं, स्वयं चाँद ही प्रियतमा बन कर अपने रूप-लावण्य से कवि के प्रेमी-हृदय को इस सीमा तक सम्मोहित एवं आसक्त करता है कि कवि रागावेग के वशीभूत होकर चाँद से कह उठता है — ‘कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा, मुसकराओ ना !’ स्पष्ट है कि यहाँ चंद्र अपनी भौतिक सीमा का अतिक्रमण करके किसी रूपवती इंदुबाला के रूप में उपस्थित हुआ है। जब कवि महेन्द्रभटनागर कहते हैं कि ‘जीवन की हर सुबह सुहानी हो’ तो मानव और प्रकृति एकाकार हो जाते हैं तथा जीवन में प्रभात की प्रभा परिव्याप्त प्रतीत होती है। ‘कौन तुम’ शीर्षक समग्र कविता में प्रेमिका और उषा का ऐक्य आद्योपान्त दिखलायी पड़ता है। इस कविता में प्राकृतिक और मानवीय सौन्दर्य की परिणति दिव्य सौन्दर्य में हुई है। उषा-सी प्रियतमा ही नभ-अप्सरा-सी दिव्य प्रतीत होने लगती है और इस प्रकार उसमें मानवीय, प्राकृतिक और दिव्य सौन्दर्य का संगम सहज ही घटित हो जाता है:
बीथियाँ सूने हृदय की घूम कर,
नव किरण-सी डाल बाहें झूम कर,
स्वप्न-छलना से प्रवंचित प्राण की
चेतना मेरी जगायी चूम कर,
कौन तुम नभ-अप्सरा-सी इस तरह बहका गयी हो !
प्रियतमा की सरलता ही रहस्यम बन कर उसे नभ-परियों की समकक्षता प्रदान करती है। ‘सचमुच, तुम कितनी भोली हो’ पंक्ति से प्रारंभ होने वाली ‘तुम’ शीर्षक कविता की भोली नायिका निम्नलिखित पंक्तियों में रहस्यमय और दिव्य रूप ग्रहण कर लेती है:
संकेत तुम्हारे नहीं समझ में आते,
मधु-भाव हृदय के ज्ञात नहीं हो पाते,
तुम तो अपने में ही डूबी
नभ-परियों की हमजोली हो !
प्रियतमा के सहज, सरल, भोले सौन्दर्य में परियों के अलौकिक, रहस्यम सौन्दर्य के दर्शन करना डॉ. महेंद्रभटनागर के सौन्दर्य-निरूपण की मौलिक विशेषता है; जो किसी सामान्य प्रगतिवादी कवि या समालोचक के लिए निश्चय ही अकल्पनीय और दुर्ग्राह्य है। कवि की दृष्टि में प्रकृति, मानव और स्वर्ग एक ही सार्वभौम सौन्दर्य-चेतना से अनुप्राणित हैं। डॉ. महेन्द्रभटनागर की सौन्दर्य-दृष्टि अत्यन्त व्यापक और विराट् है। स्वर्ग उनकी प्राकृतिक और मानवीय सौन्दर्य-चेतना की चरम परिणति है; किन्तु उसका स्रोत प्राकृतिक और मानवीय सौन्दर्य ही है।
सौन्दर्य-शिल्पी डॉ. महेन्द्र भटनागर के आंगिक सौन्दर्य-निरूपण में भी एक मौलिकता, उन्मुक्तता और सद्यता के दर्शन होते हैं। आकृति-सौन्दर्य और शील-सौन्दर्य के निरूपण में प्रकृति-सौन्दर्य का उपमान-योजना के रूप में सहयोग लिया गया है। स्वभाव की सरलता और निश्छलता डॉ. महेन्द्रभटनागर के सौन्दर्यांकन की केन्द्रीय विशेषता है। नारी की मानसिक भास्वरता ही उसकी कायिक कमनीयता और कान्ति में दीप्त हो उठती है। निम्नलिखित पंक्तियों में नारी के हृदय की सरलता उसके नयनों में साकार हो उठी है और आन्तरिक आभा आकारिक उज्ज्वलता में:
मद भरे अरुणाभ है सुन्दर अधर,
नैन हिरनी से कहीं निश्छल, सरल,
देह विद्युत, काँच, जल-सी श्वेत है,
डालियों-सी बाहु मांसल तव नवल !
जैसा कि कहा जा चुका है, गीत-शिल्पी महेन्द्र भटनागर का सौन्दर्य-दर्शन व्यापक एवं सर्वसमावेशी है। यदि सामन्ती या पूँजीवादी ठिकानों में भी कहीं उन्हें सौंन्दर्य की अनुभूति होती है तो वे वितृष्णा से नाक-भौं नहीं सिकोड़ते, वरन् मुक्त मन से उसका आस्वादन और चित्रांकन करते हैं। उनकी इस मुक्त सौन्दर्य-चेतना से उनकी प्रगतिशीलता तनिक भी बाधित और कुंठित नहीं होती; वरन् और भी उदात्त धरातल पर प्रतिष्ठित होती है:
मुझे मालूम है यह चाँद वैभव का पुजारी है,
बड़ी मनहर गुलाबी स्वप्न दुनिया का विहारी है,
व मेरे पंथ पर काँटे बिछे अगणित
अभावों की हवाएँ आ गरजती नित,
न जाने क्यों उसी से राह का शृंगार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !
प्रियतमा का अनूठा रूप-लावण्य ही रूपासक्ति और प्रेम का वास्तविक आलंबन है। डॉ. महेन्द्रभटनागर सौन्दर्य और प्रेम के रस-सिद्ध कवि हैं। उनकी कविताओं में उद्दाम यौवन के उभार और निखार से दीप्त रूपोत्कर्ष के मादक और मनोरम चित्रों के साथ ही रूपासक्ति, मिलनोत्कण्ठा और प्रेम के अत्यन्त आवेगपूर्ण, ऊष्मिल चित्र अंकित हुए हैं। रूपाकर्षण से उत्पन्न मिलनोत्कण्ठा और लोक-मर्यादा से जुड़ी नैतिक चेतना के द्वन्द्व के चित्र बहुत ही मार्मिक और मनोवैज्ञानिक हैं। इस दृष्टि से ‘मत बनो कठोर’ कविता निश्चय ही बड़ी प्रभावशाली और भावपूर्ण है। प्रियतमा की रूप-सुषमा की वर्षा से आर्द्र प्रेमी का हृदय यौवन के उमड़ते नद को मर्यादा के तट तोड़ने को व्याकुल कर देता है। किन्तु इसमें बेचारे प्रेमी का क्या दोष ! प्रियतमा का छलछलाता लावण्य ही सारे संकट का मूल कारण है। कवि का रूपाभिभूत, द्रवणशील हृदय प्रियतमा को कठोरता त्याग कर प्रेमालिंगन में आबद्ध होने का आमंत्रण देता है:
इस सुषमा की वर्षा में तो पथ भूल रहा है भीगा मन,
तुम उत्तरदायी, यदि सीमा तोड़े यह उमडा़ नद-यौवन,
आ जाओ ना कुछ और निकट, यों इतनी मत बनो कठोर!
यदि प्रेमिका के रूप में विलक्षण वशीकरण और सम्मोहन की क्षमता है, तो रूप-रस-पिपासु प्रेमी का मिलनातुर हो उठना स्वाभाविक ही है। मिलनाकुल प्रेमी का प्रेमिका से ‘संकोच-परदा हटा लो’ या ‘लजीली ! मुझे भी न बंदी बना लो’ कह कर प्रणय-निवेदन करना सहज मनोवैज्ञानिक परिणति प्रतीत होता है। भावना के इस सत्य को डॉ. महेन्द्र भटनागर के प्रेम-दर्शन में सामाजिक नैतिक मर्यादा से भी बढ़ कर मान्यता मिली है। कदाचित् कवि के अनुसार सहज भावोद्रेक और अनुभूति का नैसर्गिक सत्य ही नैतिकता की सच्ची कसौटी है। इसीलिए मिलन के क्षणों में प्रेमी लौकिक सुख-दुःखों से उपरत होकर स्वर्गिक आनन्द (चिरन्तन सुख) की अलौकिक अनुभूति में लीन हो जाता है। ‘रस-संचार’ कविता में मिलानान्द की इसी ब्रह्मानन्द-सहोदरा दशा का चित्रण किया गया है — ‘सुख चिरन्तन पा गया स्वर्ग कर साकार !’ कवि के अनुसार स्वर्ग लौकिक अवस्था के चरमोत्कर्ष का ही दूसरा नाम है, कोई लोक-बाह्य परिस्थिति या परिवेश नहीं। भावना का सत्य भव्यता को दिव्यता और लौकिकता को अलौकिकता में परिणत कर देता है।
डॉ. महेन्द्र भटनागर के प्रेम-दर्शन का एक उल्लेखनीय बिन्दु है समानुराग। कवि महेन्द्र भटनागर की आस्था समानुराग में है, विषमानुराग में नहीं। विषमानुराग के चित्रणों में अधिकतर कवि प्रेमी-प्रेमिका में से किसी एक को निष्ठुर दिखला कर प्रेम की इस विषमावस्था में निहित नाटकीयता का दोहन करते हुए अपनी कविता में प्रखरता और वाग्वैदग्ध्य की सृष्टि किया करते हैं ; किन्तु डॉ. महेन्द्रभटनागर ऐसी तकनीकों में आस्था नहीं रखते। वे समानुराग में विश्वास रखते हैं। प्रेमी-प्रेमिका के पारस्परिक आदान-प्रदान में ही सच्चे प्रेमोत्कर्ष की उपलब्धि होती है। प्रेमी प्रेमिका के मनोरम रूप को अपने गीत में बिम्बित करता है तो प्रेमिका प्रेमी की छवि को अपने ध्यान में बसा लेती है:
गीत में तुमने बसाया है मुझे जब,
मैं सदा को ध्यान में तुमको बसाऊँ !
यही समानुराग-प्रेरित आदान-प्रदान की अवस्था उषा रानी और शशि के पारस्परिक प्रेम के माध्यम से प्रस्तुत की गयी है:
शशि-बंध में बँध रात भर आसव पिया,
प्रतिदान जिसका प्रीति पावन से दिया !
गीतकार महेन्द्र भटनागर प्रेम के क्षेत्र में भी नियतिवादी हैं। ‘हे विधना’ कविता में नायिका विधाता से प्रार्थना करती है कि उसके मन-बसिया प्रेमी का मन कभी क्लान्त, शुष्क न हो; सदा सरस और उल्लसित रहे। उधर प्रेमी की नियति से यही विनती है कि उसका उसकी प्रेमिका से संयोग का यह क्रम निरन्तर चलता रहे। — ‘साथ छूटे यह कभी ना, हे नियति ! करना दया !’ मिलन के मादक प्रसंगों में जितनी भावोष्मा के दर्शन होते हैं, उतनी ही, वरन् उससे भी कहीं अधिक अनुभूति की तपन डॉ. महेन्द्रभटनागर के विरह-चित्रों में मिलती है। उनका ‘विरहिन’ शीर्षक गीत अनुभूति की तपिश और शिल्पगत कसाव की दृष्टि से निश्चय ही अद्भुत प्रभाव-क्षमता से युक्त है। विरह की पीड़क घड़ी में भी विरहिणी अपने प्रेमी को निर्दय या निष्ठुर नहीं कहती, वरन् उसे ‘सदय’ समझ कर जीवन की जलन का भीतर-ही-भीतर वहन और सहन करते हुए उसके मधुर मिलन की प्रतीक्षा करती है:
अनमना सूना बहुत बोझिल हृदय,
धड़कनों के पास आओ हे सदय !
कर रही विरहिन प्रतीक्षा, उर भरे जीवन-जलन !
विरहिणी की भाँति विरही भी अपनी प्रिया के ध्यान में समाधिस्थ है। विरही की यह ध्यानावस्था गीता के उस संयमी योगी के समान है, जो उस अज्ञान-निशा में जागता है, जिसमें जगत् के सब लौकिक प्राणी निद्रा-मग्न रहते हैं। भूमि लोरी गा कर सारी सृष्टि को सुलाती है ; किन्तु निद्रित सृष्टि के सन्नाटे में विरही प्रेमिका के ध्यान में जागता है। भूमि के लोरी गाने से सृष्टि के सोने और उसमें विरही के एकाकी जागने का विराट् बिम्ब कवि की उर्वरा उद्भावना-क्षमता का साक्ष्य प्रस्तुत करता है:
ज़िन्दगी के आज इस सुनसान में,
जागता हूँ मैं तुम्हारे ध्यान में,
सृष्टि सारी सो रही है,
भूमि लोरी गा रही है !
‘रूपासक्ति’ शीर्षक कविता में प्रेम-विह्वल प्रेमी के हृदय की सौन्दर्य-पिपासा, मिलनाकांक्षा, विरह-वेदना का यह अत्यन्त भाव पूर्ण चित्र दर्शनीय है:
रीझा हुआ मोर-सा मन मगन,
बाँहें विकल, काश भर लूँ गगन,
कैसी लगी यह विरह की अगन,
मधु-गंध-सी याद रह-रह सताती किसी की !
निम्नलिखित पंक्तियों में विरहानुभूति ने पूजा-अर्चना या भक्ति का रूप ग्रहण कर लिया है। प्रियतम से मिलने की प्रतीक्षा में आस्तिक, आस्थामयी, भोली-भाली विरहिणी अनेक लोकाचार और अनुष्ठान करती है; किन्तु फिर भी चिर-प्रतीक्षित प्रियतम के न आने के कारण वह उसकी चरण-धूलि पाने से वंचित ही रहती है। विरहिणी की विवशता का यह चित्र लोक-परिवेश के संस्कारों से संयुक्त होने के कारण और भी अधिक अर्थगर्भित हो गया है। ‘प्रियतम’ के लिए ‘चरन’ का प्रयोग करने से विरहिणी की समूची आस्था सिमट कर प्रियतम की चरण-धूलि पर केन्द्रित हो गयी है और प्रेम, भक्ति की कोटि में आ गया है:
भर-भर आँचल कलियाँ फूल,
दीप बहाये सरिता-कूल,
रह-रह तरसे पाने धूल,
चरन न आये !
कवि महेन्द्र भटनागर के विरह-निरूपण की एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति यह है कि वे प्रियतमा की स्मृति के भावपूर्ण प्रसंगों से विरहावस्था को और भी अधिक प्रखरता और मार्मिकता प्रदान करते हैं। यादों के अनेक अनुभूति-प्रवण गीत उनके रचना-संसार में उपलब्ध हैं। ‘सोनचंपा-सी तुम्हारी याद साँसों में समायी है’ पंक्ति से प्रारम्भ होने वाले ‘मोह-माया’ शीर्षक गीत की संरचना वस्तुतः एक झलमलाते सुहाने रूप वाली प्रेमिका के सौन्दर्य और प्रेम से सम्बद्ध प्रसंगों की प्रेमी के मानस-पट पर अंकित समृतियों के बिम्बों की मनोरम माला के रूप में हुई है। ‘याद रह-रह आ रही है’, ‘बस, तुम्हारी याद मेरे साथ है’, ‘आज वर्षों की पुरानी आ रही है याद’ पंक्ति से प्रारम्भ होने वाले गीत ऐसे ही स्मृति-गीतों के वर्ग में आते हैं, जिनमें अतीत की बीती बातें कवि-हृदय का आलम्बन बन कर तीखी-तरल अनुभूतियों के रूप में लयाकार हुई हैं। ये स्मृतियाँ अतीत और वर्तमान के मध्य संवेदना-सेतु बन कर पुरानी अनुभूतियों को वर्तमान में पुनर्जीवित करती हैं और संवेद्य बनाती हैं। इस कथन की पुष्टि निम्नलिखित भावपूर्ण बिम्ब से होती है; जिसमें पुराना प्रेमोन्माद ही वर्तमान में भी प्रेमी के नयनों में छाया हुआ दिखलायी पड़ता है:
तुम खड़ीं छत पर, अँधेरे में सिहर कर
गा रही थीं गीत,
पास आया था तभी मैं भी, मिले थे
स्नेह से दो मीत,
आज नयनों में उसी का शेष है उन्माद !
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कवि ने अपने प्रेम-गीतों के माध्यम से प्रेम को अपनी नैसर्गिक परिणति तक पहुँचा कर समूचे प्रेम-व्यापार को सुखान्त रूप प्रदान किया है; जो भारतीय परम्परा के अनुरूप है। यह प्रेम-मिलन से प्रारम्भ होकर विरह की ज्वाला में तपता हुआ फिर मिलन के सुखद प्रसंग में परिणत होता है। स्मृति के माध्यम से विरह की घड़ियों में भी मानसिक मिलन का क्रम चलता ही रहता है। विरह की पुनर्मिलन में परिणति का यह उदहारण ध्यातव्य है:
बीते बिरहा के सजल बरस,
गूँजे मंगल नव गीत सरस,ंड्य
घर आये प्रियतम, हौले-हौले
सखि ! हीय हरो !
डॉ. महेन्द्र भटनागर के प्रेम-गीतों की अन्य विशेषता यह है कि इन गीतों में प्रेमी और प्रेमिका की भूमिका में जिन व्यक्तियों का अवतरण हुआ है, वे ग्रंथियों, कुण्ठाओं, संकीर्णताओं, मतभेदों, मालिन्यों से मुक्त, स्वस्थ एवं संतुलित व्यक्तित्व के स्वामी हैं। ऊपर जिस समानुराग की प्रवृत्ति को रेखांकित किया गया है, उसमें प्रेमी-प्रेमिका के सौमनस्य और भावनात्मक सामंजस्य की ही अभिव्यक्ति हुई है। यहाँ प्रेम संकल्पात्मक है, विकल्पात्मक नहीं। किन्तु कभी-कभी प्रेम-पथ में अपरिहार्य कारणों से धर्म-संकट उपस्थित हो ही जाता है; तब भी प्रेमी पुरानी प्रेमिका और उसके प्रेम को अपने जीवन-पथ का पुनीत पाथेय बनाये रखना चाहता है। नये की खोज में विवश होने पर भी वह पुराने प्रेम-पात्र को विस्मृत नहीं करना चाहता। वास्तव में भूलना उसका तू स्वभाव ही नहीं है। ‘तुमसे मुझे आज कोई शिकायत नहीं है’ पंक्ति से प्रारम्भ होने वाले गीत की निम्नलिखित पंक्तियाँ दृष्टव्य
हैं:
विवश बन, नयन भेद सारा छिपाये हुए हैं,
मिलन-चित्र मोहक हृदय में समाये हुए हैं,
बहुत सोचता हूँ, बहुत सोचता हूँ,
कहीं दूर का पथ नया खोजता हूँ
पर, भूलने की शुभे ! एक आदत नहीं है !
प्रेम-परिस्थिति की ऐसी विषमता और उससे उत्पन्न विवशता के क्षणों में भी प्रेमी असाधारण धैर्य, सहनशीलता और आत्मोकर्ष का परिचय देता है। जब प्रेमिका प्रणय-पथ से विमुख हो कर स्थायी सम्बल परिणय-सूत्र में बँधने के लिए विवश होती है, तो प्रेमी की पीड़ा की कोई सीमा नहीं रहती; किन्तु वह इस पीड़ा-पारावार का धैर्य के साथ संतरण करता है और नयी परिस्थिति के साथ अपनी मनःस्थिति का सामंजस्य स्थापित करते हुए प्रेमिका के नूतन प्रेम-बंधन पर हार्दिक प्रसन्नता की अभिव्यक्ति करता है। निम्नलिखित पंक्तियों में प्रेमी की यही मनोदशा व्यक्त हुई है:
ज़िन्दगी में आँधियाँ-ही-आँधियाँ,
स्नेह बिन कब तक जलेगा यह दिया !
आ रहा बढ़ता भयावह ज्वार है,
हाथ में आ कर गिरा पतवार है,
पर खुशी है —
मिल गया तुमको सबल आधार !
प्रेमी की रीझ और खीझ में गहरा सामंजस्य है। कभी प्रेमी को आत्मलीन चाँद धरा के जीवन से विमुख, निर्दय और पाषाण-हृदय प्रतीत होता है, तो वह खीझ कर कहता है — ‘चाँद ! तुम पत्थर-हृदय हो !’, किन्तु मनोदशा बदलते ही वह कह उठता है:
‘चाँद ! तुम पत्थर नहीं हो !’
अब चाँद उसे कोमल-हृदय, स्नेहिल और भावुक प्रतीत होने लगता है:
है तुम्हारे भी हृदय कोमल,
स्नेह उमड़ा जा रहा छल-छल,
हो बड़े भावुक बड़े चंचल,
इसलिए मेरे निकट हो, प्राण से बाहर नहीं हो !
उपर्युक्त पंक्तियों में स्थूल चाँद नहीं है। व्यक्तित्व की जो विशेषताएँ वर्णित हैं, उनसे यही ज्ञात होता है कि यह तो किसी चँद्रमुखी का ही चरित्र-चित्रण है।
यहाँ डॉ. महेन्द्र भटनागर के गीतों की शिल्पगत और भाषिक विशेषताओं पर भी संक्षेप में विचार करना प्रासंगिक होगा। गीतकार डॉ. महेन्द्रभटनागर की गीत के प्रति गहन आस्था है। उनकी मान्यता है कि यदि गीत पूरी निष्ठा और तल्लीनता से गाया जाये, तो पूरा जीवन-क्रम ही लयबद्ध होकर एक गीत का रूप ले सकता है — ‘गाओ कि जीवन गीत बन जाए’; ‘भोर का गीत’ की प्रथम पंक्ति-‘भोर की लाली हृदय में राग चुप-चुप भर गयी’ में गीतकार ने ‘राग’ का श्लिष्ट प्रयोग किया है। ‘राग’ का यहाँ अर्थ लाली के साथ अनुराग या भावावेग तथा संगीत भी है। राग या अनुराग ही राग या संगीत में साकार होता है। वस्तुतः उक्त पंक्ति में गीत-रचना का मूल-मंत्र निहित है। गीत के रूप में राग या भावावेश ही राग या संगीत का लयात्मक आकार ग्रहण करता है। इस प्रकार राग या अनुराग ही गीत बन जाता है। कवि ने गीत और अनुराग को समकक्ष माना है। प्रेमी-प्रेमिका के पारस्परिक आदान-प्रदान में जब प्रेमी प्रेमिका को अपने गीत में निरूपित करता है तो प्रेमिका उसकी समकक्षता में प्रेमी को अनुरागपूर्वक अपने हृदय में सजाती है:
गीत में तुमने सजाया रूप मेरा,
मैं तुम्हें अनुराग से उर में सजाऊँ !
समर्थ गीतकार केवल भावुक ही नहीं होता, वह चिन्तक और कल्पनाशील भी होता है। अतः गीतकार की अनुभूति में कल्पना, चिन्तन और भावना का समन्वय रहता है; फिर भी प्रधानता भावावेग या भावना की ही रहती है। बुद्धि भावावेग को नियंत्रित करके निश्चित दिशा और दृष्टि प्रदान करती है तथा कल्पना बुद्धि के सहारे भावावेग के आधारभूत सन्दर्भों को नवीन उद्भावनाओं के साँचे में ढाल कर अनुभूति को नूतन आकार प्रदान करती है; जिसे सम्मूर्तन या बिम्ब-विधान कहते हैं। निर्बन्ध भावावेग तो रोने या हँसने में ही व्यक्त होता है; किन्तु गीत न हँसना है, न रोना। गीत चिन्तन द्वारा नियंत्रित घनीभूत भावावेग का कल्पनाश्रित संगीतात्मक सम्मूर्तन है; जिसका केन्द्रीय भाव टेक की पंक्ति में निबद्ध रहता है तथा वही भाव पूरे गीत के संक्षिप्त कलेवर में समाहित दो या चार या छह अन्तरों द्वारा पुष्ट और घनीभूत होता चलता है। अनुभूति की गहनता और व्याप्ति के अनुरूप गीत में चार तथा कभी कुछ कम या अधिक अन्तरों की योजना रहती है तथा प्रत्येक अन्तरे के उपरान्त टेक की पंक्ति के समतुकान्त पंक्ति आती है, जिसके पश्चात टेक की आवृत्ति होती है। टेक की यह आवृत्ति पूरे गीत को भावात्मक अन्विति प्रदान करती है। अन्तरे दो या चार या छह समतुकान्त पंक्तियों के होते हैं तथा उनकी तुकें टेक की पंक्ति की तुक से भिन्न होती हैं। अनुभूति की तीव्रता के कारण गीत में संक्षिप्तता, भावान्विति, संगीतात्मकता तथा बिम्बधर्मी प्रभावपूर्ण भाषा का प्रयोग होता है। डॉ. महेन्द्रभटनागर के गीत, गीत की उपर्युक्त कसौटी पर खरे उतरते हैं। प्रायः सभी गीत दो से लेकर चार अन्तरों के हैं और पुस्तक के एक ही पृष्ठ में आ गये हैं।
डॉ. महेन्द्र भटनागर के गीतों के शीर्षक बहुत ही संक्षिप्त हैं। टेकों की योजना में वैविध्य है। अधिकतर गीतों की टेक इकहरी पंक्ति की है। कुछ गीतों में टेक के रूप में दुहरी समतुकान्त पंक्तियों की योजना मिलती है। यथा:
मुसकराये तुम हृदय-अरविन्द मेरा खिल गया,
देख तुमको हर्ष-गद्-गद् प्राप्य मेरा मिल गया !
कहीं-कहीं डेढ़ पंक्ति की समतुकान्त टेकें भी हैं; यथा —
अंग-अंग में उमंग आज तो पिया,
बसंत आ गया !
कुछ गीतों में दो विषमतुकान्त पंक्तियों की टेकें भी प्रयुक्त हुई हैं; यथा:
यह न समझो कूल मुझको मिल गया,
आज भी जीवन-सरित मझधार में हूँ।
कुछ टेकों में आवृत्ति के माध्यम से अनुभूति को सघन बनाया गया है। यह प्रवृत्ति इकहरी पंक्ति की टेकों से भिन्न टेकों में पायी जाती है। यथा:
मैं निरन्तर राह नव-निर्माण करता चल रहा हूँ,
और चलता ही रहूंगा !
× × ×
नये विचार लो !
समाज की गिरी दशा सुधार लो !
× × ×
शून्य नभ में युग-विहग तुम,
एक गति से ही उड़ोगे,
तुम उड़ोगे !
विषममात्रिक तीन पंक्ति वाली टेकों के अनुरूप प्रत्येक अन्तरे के उपरान्त जो टेक के समकक्ष पंक्तियाँ दी गयी हैं, उनमें टेक की पंक्तियों की मात्राओं का ही निर्वाह किया गया हैं। उदाहरण के लिए ‘धन्यवाद’ शीर्षक गीत में 14, 21 और 14 मात्राओं वाली तीन पंक्तियों की टेक है। इस गीत के अन्तरे अट्ठाईस-अट्ठाईस मात्राओं की दो पंक्तियों वाले हैं। प्रत्येक अन्तरे के बाद टेक के समकक्ष तीन पंक्तियाँ दी गयी हैं, जिनकी मात्राएँ क्रमशः14,21,14 हैं। स्पष्ट है कि टेकों की विषममात्रिक पंक्तियों तथा अन्तरे और टेक की पंक्तियों की विषममात्रिकता के द्वारा गीतों के लय-विधान में नाटकीयता उत्पन्न की गयी है, जो गीत के शिल्प की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
शैलीवैज्ञानिक दृष्टि से कवि की भावात्मक और भाषिक भंगिमा का समन्वित उत्कर्ष ‘विचलन’ के प्रयोगों में मिलता है। प्रत्येक कवि अपनी अनुभूति के अनुरूप नयी तथा मौलिक भाषा का अनुसंधान या आविष्कार करता है। वह अपनी मानसिक संरचना और अनुभूति के वैशिष्ट्य के अनुरूप अपनी नयी भाषा गढ़ता है। ऐसा करने के लिए वह सामान्य भाषा को अपने ढंग से फेंटता है। इस फेंटने की क्रिया में सामान्य भाषा में प्रयुक्त संज्ञा, विशेषण, क्रिया आदि शब्द अपने मूल संदर्भों से कट कर दूसरे नये संदर्भों से जा जुड़ते हैं। सामान्य भाषा के संज्ञा, विशेषण, क्रिया आदि शब्दों को अपने मूल अथवा प्रकृत संदर्भों से हटा कर या विचलित करके नये संदर्भों के साथ जोड़ कर नयी भावात्मक तथा भाषिक भंगिमा उत्पन्न करना ही शैलीविज्ञान में ‘विचलन’ कहलाता है। डॉ. महेन्द्रभटनागर ने अपने गीतों में विचलन के अनूठे प्रयोगों के माध्यम से अद्भुत प्रभाववत्ता की सृष्टि की है। निम्नलिखित पंक्तियों में संज्ञा-विचलन का उत्तम उदाहरण द्रष्टव्य है:
जल रही अविरल अकम्पित लौ हृदय की यह
सतत उद्देश्य-लक्षित साधना मेरी !
वास्तव में तो ‘लौ’ दीपक की होती है; किन्तु यहाँ कवि ने लौ को दीपक के प्रकृत संदर्भ से हटा कर हृदय के साथ जोड़ दिया है। लौ के हृदय के साथ जुड़ते ही हृदय में अनायास दीपक का आभास होने लगता है। दूसरी पंक्ति में ‘लौ’ को ही साधना बताया गया है। इस प्रकार साधना की लौ से हृदय उसी प्रकार आलोकित हो उठता है जिस प्रकार दीपशिखा से दीपक। हृदय दीपक की भाँति अनूठे उजास से भास्वर दिखलायी पड़ने लगता है। कवि की लक्ष्यनिष्ठ साधना हृदय के दीपक की सतत निष्क्रिय लौ के रूप में पूर्ण दीप्ति के साथ साकार दिखलायी पड़ने लगती है। इसी प्रकार संज्ञा-विचलन का एक अन्य उल्लेखनीय उदहारण देखिए:
बताये लक्ष्य की दृढ़ता तुम्हारी आँख की भाषा !
भाषा मूलतः मौखिक व्यापार है। उपर्युक्त पंक्ति में मुख के स्थान पर आँख को भाषिक अभिव्यक्ति करते हुए दर्शाया गया है। ऐसा करने से आँख की पुतलियों की दृष्टि को वाणी मिल गयी है और वाणी को दृष्टि; क्योंकि जो वाणी आँखों से मुखरित होगी वह दृष्टि-सम्पन्न (विवेक युक्त) तो होगी ही। संकल्प की जो दृढ़ता वाणी से व्यक्त नहीं की जा सकती, वह आँखों की आशान्वित, संकल्पनिष्ठ, लक्ष्य-केन्द्रित पुतलियों से कहीं अधिक प्रभावशाली ढंग से व्यक्त की जा सकती है। पुतलियों की एकाग्रता में मानसिक दृढ़ता साकार हो उठती है। ज्ञानेन्द्रियों में आँखों का ही मस्तिष्क से सर्वाधिक सन्निकर्ष है। कवि की युवा-वर्ग से यही अपेक्षा है कि उनकी लक्ष्य की सिद्धि का सुदृढ़ संकल्प, बिना मुख से बताये ही, स्वतः उनकी उदात्त लक्ष्य पर एकाग्र ना पुतलियों से व्यंजित होना चाहिए। आँख की भाषा का उल्लेख करके कवि ने निश्चय ही अभिव्यक्ति के नये ढंग का अनुसंधान किया हैं। निम्नलिखित उद्धरण में संज्ञा-विचलन का एक उदाहरण प्रस्तुत है:
देखती आँखें क्षितिज की ओर, सृष्टि का बदला नहीं क्यों वेष ?
‘वेष’ का संबंध नर-नारियों से है, सृष्टि से नहीं है। नर-नारी पुराने, मलिन वस्त्रों को उतार कर उनके स्थान पर नये परिधान धारण करते हैं और इस प्रकार नूतन सज्जा और परिष्कार का बोध कराते हैं। प्रस्तुत संदर्भ में ‘वेष’ शब्द के जुड़ते ही सृष्टि में उस नारी का आभास होता है, जो किसी निगूढ़ विवशता के कारण नूतन शृंगार से विमुख है और पुराने, मैले वस्त्र। धारण किये रहने को ही अभिशप्त है। इस प्रकार कवि ने नये रूपान्तरण और विकास की सम्भावनाओं से वंचित, रूढ़िग्रस्त, जर्जर समाज और संसार की दुर्दशा को संज्ञा-विचलन के अभिनव प्रयोग के माध्यम से दर्शाने में विशेष सफलता प्राप्त की है।
‘कौन कहता है’ शीर्षक गीत तो संज्ञा-विचलन के प्रयोगों के कारण ही भाव-भंगिमा और भाषिक-भंगिमा के समन्वित उत्कर्ष का उत्तम निदर्शन प्रस्तुत करता है। इस गीत की टेक और टेक की समतुकान्त पंक्तियों का समूचा सौष्ठव संज्ञा-विचलन पर आश्रित है:
— कौन कहता है कि मेरे चाँद में जीवन नहीं है?
— कौन कहता है कि मेरे चाँद में धड़कन नहीं है?
— कौन कहता है कि मेरे चाँद में यौवन नहीं है?
— कौन कहता है कि मेरे चाँद में चन्दन नहीं है?
प्रस्तुत संग्रह के गीतों में विशेषण-विचलन के माध्यम से भी काव्य-सौन्दर्य में अभिवृद्धि की गयी है। एक उदाहरण प्रस्तुत है:
कोलाहल में मूक उमरिया बीत गयी !
मूक तो व्यक्ति होता है, किन्तु उमरिया के साथ मूक जोड़ते ही सन्नाटे, चुप्पी, विवशता से भरे हुए उस समग्र जीवन की विडम्बना का गहरा बोध होता है जो अनेक झंझटों के शोर-शराबे के मध्य यों ही निष्फल व्यतीत हो गया। इसी प्रकार ‘बीते बिरहा के सजल बरस’ में विरही के नेत्रों को सजल न बता कर विरह की व्याप्ति के वर्षों को अश्रु-जल प्रवाहित करते दर्शाया गया है। वर्षों के रुदन में विरही के रुदन और विरह-व्यथा की विवृत्ति का बोध निश्चय ही अधिक मार्मिक हो गया है। एक अन्य उदहारण:
गहरी बड़ी जो मिली पीर है
निर्धन हृदय के लिए हीर है !
इन पंक्तियों में निर्धन विशेषण को विचलित करके हृदय को निर्धन कहा गया है। सच्चे धन (प्रियतमा) से वियुक्त हृदय का निर्धन होना स्वाभाविक है। विपन्नता की ऐसी स्थिति में प्रियतमा के बिछुड़ने की गहन पीड़ा भी सूने, कंगाल हृदय को हीरे के समान मूल्यवान प्रतीत हाती है; क्योंकि वह पीड़ा भी प्रियतम की स्मृति को सजीव बनाये रखने में सक्षम है।
क्रिया-विचलन के प्रयोग भी वैदग्ध्य-विधायक होने के कारण कविता के प्रभाव में वृद्धि करते हैं तथा कवि की सृजन-क्षमता का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। उदहारण द्रष्टव्य है:
उपवनों में गूँजते रस-सिक्त पंचम राग को,
क्या पता था, इस तरह प्रारब्ध निगलेगा !
‘निगलना’ क्रिया सामान्यतः अजगर-सरीखे हिंस्र जन्तु के लिए प्रयुक्त होती है। ‘प्रारब्ध’ के साथ ‘निगलना’ क्रिया जुड़ते ही प्रारब्ध का अजगरीकरण हो गया है। प्रेमी को अपने प्रारब्ध पर भारी भरोसा था; किन्तु उसने छल करके प्रेमी को उसके चाँद(प्रियतम) से वियुक्त कर दिया और इस प्रकार प्रेमी के जीवन के उपवन में गुंजित सरस राग-रंग को अजगर बन कर निगल लिया। ‘निगलना’ क्रिया के विचलन से प्रारब्ध की भीषणता में जितनी वृद्धि हुई है, उतनी ही प्रियतमा-प्रवंचित प्रेमी की पीड़ा को तीव्रता प्रदान करने में कवि को सफलता मिली है। क्रिया-विचलन का एक अन्य उदहारण:
सब सहारे ढह गये,
बरसा प्रलय-घन !
‘सहारे’ के साथ ‘ढहना’ क्रिया जुड़ते ही, सारे सहारे दीवारों की भाँति अकस्मात्, अप्रत्याशित रूप में धड़ाम से ढहते दिखलायी पड़ने लगते हैं। पथिक के मार्ग में विघ्न-बाधाओं के विनाशकारी मेघ ऐसे बरसे कि पथ के सभी सहायक साथी अचानक साथ छोड़ कर चले गये।
वास्तव में, काव्य-भाषा की आन्तरिक संरचना में काव्य-शिल्प के अनेक उपादान संश्लिष्ट रहते हैं। विचलन के विशिष्ट प्रयोगों से कविता में उस भावात्मक तथा भाषिक प्रवृत्ति का उदय होता है जिसे मानवीकरण कहते हैं। जब मानव के स्वभाव और जीवन से जुड़ी संज्ञाओं, क्रियाओं, विशेषणों आदि को अचेतन वस्तुओं तथा अमूर्त भावों या व्यापारों से संयुक्त कर दिया जाता है तो वे सजीव, सचेत और मानवीय प्रतीत होने लगते हैं। कवि की यह मानवीय दृष्टि ही निर्जीव को सजीव और मानवेतर को मानवीय बना देती है। जो कवि जितना अधिक अन्तर्मुखी अर्थात् भावुक, कल्पनाशील और चिन्तक होता है, वह उतना ही अधिक अचेतन जगत् को चेतन-रूप में अनुभव करता है। मानवीकरण के निम्नलिखित उदाहरणों में क्रिया, संज्ञा और विशेषण के ऐसे विचलित प्रयोग देखे जा सकते हैं:
ठिठक कर रुकेंगी, विरोधी हवाएँ,
फिसल कर गिरेंगी, सभी आपदाएँ,
हमें यह पता है —
कि हिम्मत की साँसें कभी व्यर्थ जाती नहीं हैं !
मानवीकरण के दो ऐसे ही प्रभावपूर्ण उदाहरण और-
— है दूर रोहिणी का आँचल, रोता मूक कलाधर,
— खोज रहा हर कोना, बिखरा जुन्हाई का सागर !
— विभा को वक्ष पर अपने लिटाये चाँद सोता है !
अर्थ पर अर्थ की परतें चढ़ाने के लिए जिस शैलीवैज्ञानिक उपादान का उपयोग किया जाता है उसे ‘समानान्तरता’ कहा जाता है। अक्सर भाषणों को भाव और प्रभाव से पूर्ण बनाने के उद्देश्य से पदों, पदबंधों और वाक्यों के समानान्तर प्रयोग किये जाते हैं। अतः प्रभावोत्पादकता के लिए पदों, पदबंधों और वाक्यों के समानान्तर प्रयोगों की प्रवृत्ति को ‘समानान्तरता’ कहा जाता है। प्रस्तुत संग्रह की ‘सुहानी सुबह’ और ‘लघु जीवन’ की तो पूरी संरचना ही समानान्तरता से हुई है। पद के स्तर पर समानान्तरता की दृष्टि से ‘सुहानी सुबह’ गीत की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:
भर लो हास बहारों का
नदियों, कूल, कछारों का
फूलों, गजरों, हारों का
कन-कन की हर्षान्त कहानी हो !
पदबंध के स्तर पर समानान्तरता का उदाहरण देखिए:
हो किधर तुम सत्य मेरी मोह-माया री,
प्राण की आसावरी, सुख धूप छाया री !
वाक्यगत समानान्तरता का यह उदाहरण भावपूर्ण भाषण की शैली को कविता में संक्रमित करता प्रतीत होता है; जिसमें भग्न-हृदय प्रेमी की व्यथा की परतें क्रमशः उद्घाटित होकर प्रभाव को सघनता प्रदान करती हैं:
बंद युग-युग से हृदय का द्वार मेरा,
राह भूला तम भटकता प्यार मेरा,
भग्न, जीवन-बीन का हर तार मेरा,
कविता, संदर्भ के सहारे संवेदना का सरस, सोद्देश्य, संगीतात्मक सम्मूर्तन अथवा बिम्बन है। अमूर्त एवं अदृश्य भावों को उनके मूल संदर्भों से संयुक्त करके गोचर एवं ग्राह्य रूप में प्रस्तुत करना ही कवि-कर्म का मुख्य लक्ष्य है। विविध भाषिक उपादान अमूर्त अनुभूतियों के सम्मूर्तन में सहायक होते हैं। अनुभूतियों के सम्मूर्तन को बिम्ब- विधान कहा जाता है। अनेक बार प्रस्तुत संदर्भ को और भी अधिक मूर्त और भावाभिव्यंजक बनाने के लिए अन्य सदृश संदर्भों की योजना की जाती है; जिसे उपमान-योजना या अप्रस्तुत-विधान कहा जाता है। डॉ. महेन्द्रभटनागर ने सादृश्य-विधान के विविध रूपों — उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का बिम्ब-विधान अथवा संवेदना-सम्मूर्तन के लिए सफल प्रयोग किया है। निम्नलिखित पंक्तियों में प्रियतमा की सुहानी, सुरभित स्मृति को उपमा द्वारा गन्ध-बिम्ब के रूप में साकार किया गया है:
— मधु-गंध-सी याद रह-रह सताती किसी की !
— सोनचंपा-सी तुम्हारी याद साँसों में समायी है !
निम्नलिखित पंक्तियों में रूपक के माध्यम से एक विषम-व्यापार-विषयक बिम्ब की सृष्टि की गयी है:
भर-भर डाले क्षीर सिन्धु मुसकानों के,
संवेदन से हृदय भिगोया एक नहीं !
उक्त बिम्ब में विधाता से शिकायत की गयी है कि उसने इस दुनिया में चारों ओर खिलखिलाती सफेद दूधिया हँसी के सागर लहरा रखे हैं; किन्तु कवि को, उसके निराश-हताश जीवन में, संवेदन से भरा एक भी हृदय प्रदान नहीं किया !
‘प्रिय रूप-जल-हीन, अँखियाँ बनी मीन !’ में रूपक का प्रयोग बड़ा ही भाव-व्यंजक है। इसी प्रकार ‘काल-धार में एक दिवस मैं भी लय हो जाऊंगा चंचल !’ में जीवन के अवसान की कल्पना काल की धारा में विलीन होने के रूप में करके एक करुण बिम्ब की सृष्टि की गयी है। अनेक स्थलों पर कवि ने अपने उपमानों को नये सिरे से गढ़ा है अर्थात् उनकी पुनर्रचना की है। जहाँ सामान्य गगन केवल घन-रजकणों से भरा होता है; वहाँ आदमी की चाहनाओं का गगन ‘विष-भरे घन-रजकणों’ से परिपूर्ण होने के कारण कहीं अधिक विषम और पीड़क है:
विष भरे घन-रजकणों से है भरा
आदमी की चाहनाओं का गगन !
आलिंगनबद्ध प्रेमिका की, देहधारी वरदान के रूप में की गयी उद्भावना को आकार देने वाली उत्प्रेक्षा का यह प्रयोग निश्चय ही अनूठा है:
बंदी गयीं बन बिना कुछ कहे ही,
वरदान मानों मिला हो सदेही !
साधना का स्वरूप मूर्त और अमूर्त के मध्य ही संचरण करता है। कभी निर्गुण सगुण बनता है तो कभी सगुण निर्गुण हो जाता है। भाषा में व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ जातिवाचक से भाववाचक तक पहुँच कर अमूर्त हो जाती हैं और फिर भाववाचक संज्ञाओं को जातिवाचक और व्यक्तिवाचक में परिणत किया जा सकता है। अमूर्तन से मूर्तन और मूर्तन से अमूर्तन की यह प्रक्रिया काव्य-संरचना में भी दिखलायी पड़ती है। बिम्ब में प्रस्तुत (उपमेय) और अप्रस्तुत (उपमान) के सहारे सूक्ष्म भाव का सम्मूर्तन होता है; किन्तु प्रतीक में सादृश्य की सघनता के कारण उपमेय के प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं रहती, उपमान ही अपनी भौतिक सत्ता (अभिधार्थ) खोकर अमूर्तन के द्वारा सम्प्रेष्य भाव की व्यंजना करता है। उदाहरण के लिए-‘कौन है यह दीप; जलता जो अकेला तीव्र गतिमय वात में?’ में ‘दीप’ और ‘वात’ का प्रतीक रूप में प्रयोग हुआ है। यहाँ ‘दीप’ साधना और आशा आदि अमूर्त भावों का व्यंजक है तथा ‘वात’ जीवन के संकटों और प्रतिकूल परिस्थितियों का। ‘व्योम में, मन में घिरी झंझा’ में ‘झंझा’ की अभिधात्मक और प्रतीकात्मक रूप में दुहरी भूमिका है। व्योम में घिरी झंझा अभिधात्मक है, जब कि मन में घिरी झंझा मानसिक व्यग्रता और उथल-पुथल की प्रतीक है। व्यंजना की भाँति लक्षणा के प्रयोग भी प्रतीक की परिधि में आ जाते हैं। प्रतीक के लाक्षणिक स्वरूप का एक उत्कृष्ट उदहारण:
रह-रह तरसे पाने धूल,
चरन न आये !
यहाँ अंग (चरन) अंगी (प्रियतम) का बोध कराने के लिए प्रयुक्त हुआ है। प्रियतमा उस प्रियतम को पाने के लिए व्यग्र है जिसके चरणों की धूलि के संस्पर्श के लिए वह बहुत दिनों से तरस रही है। प्रियतमा ने प्रियतम के आने की बात न करके केवल उनके चरणों का ही उल्लेख किया है, क्योंकि चरण आयेंगे तो प्रियतम अवश्य आयेंगे। ‘चरन’ के माध्यम से प्रियतम के प्रति प्रियतमा की गहन श्रद्धा-भक्ति व्यंजित हुई है। ‘चरण’ के तद्भवीकरण (चरन) के कारण अनुभूति ने नितान्त आत्मीय और अनौपचारिक रूप ग्रहण कर लिया है।
डॉ. महेन्द्र भटनागर के गीतों के शिल्प-सौन्दर्य में तुकों का भी विशेष योगदान है। अनेक गीतों की अनेक पंक्तियों में आन्तरिक तुकों की योजना से संगीतात्मक एवं भावात्मक प्रभाव में अभिवृद्धि की गयी है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित पंक्तियाँ:
— उतर रही प्रमोद से अबोध चंद्र की किरण !
— भर सुनहरा रंग ऊषा कर गयी वसुधा नयी !
— आ गया समय बहार का, विहार का !
— अँधेरी निराशा-निशा में उषा की दमकती न आशा-किरण !
निम्नलिखित पंक्तियों में पूरी संरचना ही आन्तरिक तुकों से शिल्पित है:
प्यार मुझको धार से,
धार के हर वार से,
प्यार है बजते हुए
हर लहर के तार से !
यों तो संगीतात्मक ध्वनियों, विस्मयादिबोधकों, प्रश्नात्मक संरचनाओं, तद्भवीकृत शब्द-प्रयोगों (कन-कन, किरनों, चरन) आदि के माध्यम से भी गीतों के शैल्पिक सौन्दर्य को संवर्द्धित किया गया है, तथापि सम्बोधनों के प्रयोगों ने गीतों में भाव-सघनता का वातावरण तैयार करने में उत्तम भूमिका निभायी है। यहाँ कुछ प्रयोग प्रस्तुत है:
— सृष्टि तो माया निरी, माझी !
— रे सलोने मेघ सावन के,
मुझे क्यों इस तरह नहला दिया ?
— साथ छूटे यह कभी ना, हे नियति, करना दया !
— हे विधना! मोरे आँगन का बिरवा सूखे ना !
— लजीली! मुझे भी न बंद बना लो!
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि डॉ. महेन्द्रभटनागर के गीत संवेदना और शिल्प की दृष्टि से नितान्त प्रौढ़ और स्तरीय है। उन्होंने शोषण, उत्पीड़न, अन्याय की दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध युद्ध के उद्देश्य से शक्ति, गति, मुक्ति की चेतना से अनुप्राणित एक व्यापक स्वातंत्र्य-दर्शन अपने गीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इस स्वातंत्र्य -दर्शन में उनका प्रगति-दर्शन भी समाहित है और आलोक-दर्शन भी। उनकी अनेक कविताओं में जिजीविषा और संघर्ष की अदम्य, सजग चेतना के दर्शन होते हैं।
डॉ. महेन्द्र भटनागर के गीतों में मानव-कल्याण और मानवतावाद का शंख-नाद गुंजित हुआ है। वे निराशा, दुर्भाग्य, असफलता, प्रतिकूल परिस्थितियों आदि को जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं; किन्तु उनके सामने घुटने न टेक कर उन पर आशा, आस्था, साहस, संकल्प आदि के सहारे विजय प्राप्त करने का पावन संदेश देते हैं। डॉ. महेन्द्रभटनागर को जितनी परुष भावों के निरूपण में सफलता मिली है, उतनी ही कोमल अनुभूतियों के चित्राण में । वे एक अत्यन्त सफल रोमाण्टिक कवि हैं। स्वातंत्र्य-दर्शन की भाँति ही उन्होंने एक प्रौढ़ एंव सर्वांगीण सौन्दर्य-दर्शन एवं प्रेम-दर्शन भी प्रस्तुत किया है। उनका सौन्दर्य और प्रेम से संबंधित चिन्तन सहजता, उन्मुक्तता, उदारता, उदात्तता की विशद पृष्ठभूमि पर आधारित है। उसमें संकीर्णता, विषमता, असंतुलन, कुण्ठा, अवसाद आदि अनुभूतियाँ भी उदात्तीकृत होकर वैकुण्ठी भाव-भूमि में पर्यवसित हो जाती हैं। प्रकृति, मानव और स्वर्ग एक ही सौन्दर्य और प्रेम की सत्ता में सुगुम्फित पाये जाने के कारण डॉ. महेन्द्रभटनागर के रचना-संसार में भव्यता और दिव्यता का सुन्दर सामंजस्य संघटित हुआ है। उनकी दिव्यता की संकल्पना प्रकृति और मानव के लौकिक परिवेश से ही प्रसूत है तथा भव्यता के प्रति भी समर्पित है। इस प्रकार उनकी अलौकिकता की धारणा भी लोक-बाह्य नहीं है, वरन् नितान्त लोक-सापेक्ष है। विचलन, समानान्तरता, मानवीकरण, सादृश्य-विधान, प्रतीक-योजना आदि शैल्पिक उपादानों के कौशलपूर्ण प्रयोगों के कारण उनके गीतों में भाव-भंगिमा के साथ भाषिक-भंगिमा का भी समन्वित उत्कर्ष देखने को मिलता है। डॉ. महेन्द्र भटनागर का हिन्दी के इने-गिने प्रथम पंक्ति के गीतकारों में गौरवपूर्ण स्थान है।
[1] डा॰ महेंद्र भटनागर, 110, बलवंतनगर, गांधी रोड, ग्वालियर- 474 002 [म॰प्र॰]
[2] डा॰ हरिश्चंद्र वर्मा, फ़्लैट - 55, सेक्टर - 1, हुडा, रोहतक- 124 001 [हरियाणा]
फ़ोन : 01262-273396Dr Mahendra Bhatnagar: Vyaktitva Aur Krititva
डॉ. महेन्द्र भटनागर पर समीक्षात्मक आलेख बहुत अधिक सार्थक है । जो व्यक्तित्व के साथ - साथ काव्य साधना पर विस्तृत आलेख है । अतः आपका प्रयास सार्थक है ।
जवाब देंहटाएं- बीजेन्द्र जैमिनी