राम सेंगर
"मैंने जो कुछ कविता में कहा है, वह सब मेरे अपने जीवनानुभव का दिया हुआ है.... जीवन में मैंने जो कुछ देखा, भोगा; अपने तथा दूसरों के अनुभवों से जो कुछ सीखा, अपने संवेदन तंत्र पर इसकी जो झंकारें सुनीं और अपनी चेतना पर जो दबाव झेले- बस, उस सबको मैं काव्यरूप देने का प्रयास करता रहा हूँ"
'नवगीत दशक- दो' और 'नवगीत अर्द्धशती' (स. डॉ. शम्भुनाथ सिंह) में सहयोगी कवि श्रद्धेय राम सेंगर जी की उपर्युक्त पंक्तियाँ उनकी सृजन प्रक्रिया पर प्रकाश तो डालती ही हैं, इससे यह भी स्पष्ट हो चलता है कि यह अद्भुत गीतकवि भोगे हुए यथार्थ और जीवनानुभवों को पूरी लयात्मकता एवं रचनात्मक ईमानदारी के साथ अपनी रचनाओं में व्यंजित करता है। यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता कही जा सकती है। इसलिए भी कि इस चर्चित गीतकार के सरोकारों के केंद्र में न केवल सम्पूर्ण मानवता है, बल्कि अन्य जीवों की पीड़ाओं के लिये भी वहाँ समुचित स्थान है। यद्यपि उनके गीतों की भाषा एवं मुहावरा आंचलिक है, उनमें सादगी को बनाए रखते हुए वैश्विक चिंताओं को सलीके से उकेरा गया है।शायद इसीलिए उनके गीतों में जहाँ एक ओर गोपाल सिंह नेपाली जी एवं कैलाश गौतम जी जैसी वक्रता एवं तेवर दिखाई देते हैं, तो वहीं डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी जैसी शालीनता और सहजता भी देखी जा सकती है। और आज जब आधी दुनिया मनोरोगी हो गई तब उनका यह कहना कि -"पागल होने से अच्छा है/ लिखते-लिखते मर जाना"- काफी समीचीन लगता है लेखकीय मिजाज और साहित्यिक-सामाजिक प्रतिबद्धता की दृष्टि से। 02 जनवरी 1945 को नगला आल, जिला- हाथरस (उ.प्र.) के एक किसान परिवार में जन्मे सेंगर जी आजीविका के लिए कटनी (म.प्र.) में आ बसे। 'शेष रहने के लिए' (1986), 'जिरह फिर कभी होगी' (2001), 'ऊँट चल रहा है' (2007) और 'एक गैल अपनी भी' (2009) आपके अब तक प्रकाशित नवगीत संग्रह हैं। संपर्क- 'अबाबील' , न्यू जागृति कालोनी, तिलक कालेज मोड़ के पास, बरही रोड, कटनी (म.प्र.)-483501, मोब.-09893249356 ।
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
१. श्रेयभाग
एक हादसा बन
हर अनुभव
तोड़ गया सब हाड़ हमारे
धूल झाड़कर उठे सतह से
जीने की चाहत के मारे
पता नहीं क्यों
पिटते-कुटते रहे समय से
समय न हो
मानो हो
कोई गुंडा नामी
कैसी-कैसी
बैरभंजाई अचरजकारी
प्रक्षेपण सब
धरा रह गया
बहुआयामी
कभी किसी के बाल न नोंचे
तो भी मार दिये जायेंगे
श्रेयभाग जब यही
कौन फिर
किस सूरत से किसे पुकारे
भले नहीं हो
रोने वाला हम पर कोई
जितना कुछ
निर्वाह कर सके
कोशिश की है
ज्योतिर्मान उभारा है
जो बुद्धिभाव का
ईश्वर जाने
उसमें कितना गलत सही है
अति निर्जन- नि:संग रही है
हुलसी-झुलसी सोच विचारी
ग्रंथिलता के जो रहस्य थे
हमने सबके बीच उभारे ।
२. कंगाली में
कंगाली में आटा गीला
अपने पास धरा ही क्या था
बिखर गया सब कुटुम कबीला
कंगाली में आटा गीला
छुटपन में माँ मरी
पिता की
आँख गई जगने में
हमदर्दी के हाथ अनेकों
हिला किये सपने में
बढ़ा न लेकिन आगे कोई
सबकी अपनी-अपनी लीला
भाई, बाप बना
भाभी ने
माँ का रोल निभाया
और बहन ने दयाभाव का
अनुपम जाल बिछाया
मार पड़ी रिश्तों की इतनी
पड़ा थोबड़ा गहरा नीला
पड़े अकेले
शरणागत किशोर की पीड़ा झेली
आँख खुली तो देखा-
जीवन,
तब तक बना पहेली
चाबुक जितने पड़े समय के
जिस्म हो गया और गठीला
खटने-खपने की हलचल में
उखड़े पाँव जमाये
मानवसच के
खोजनहारों ने कहकहे लगाये
गर्मजोशियाँ सब गुमान की
यह तिनका भी है गर्वीला
चरैवेति कह-कह कर
गतविधियों से नाता जोड़ा
अटक-अटक जैविक दबाव से
हकलाहट को तोड़ा
अपने को झंझोड़ कर फैंका
खुरच-खुरच व्यवहार लचीला
कंगाली में आटा गीला ।
३. संवत्सर का गीत
संवत्सर बदला है
कुबड़े घोडी चढ़कर आये
नामित दल की ऐबी लदघुड़ियों पर चढ़ कर
भोंपा में जाने क्या
बोल रहे बड़र-बड़र
खासा कुहराम हैं मचाये
छुटकी-मझली-बड़की, गोबर-धनिया-होरी
भौचक-सा गाँव हुआ
औचक छोरा-छोरी
खूंटों पर ढोर बिदुरकाये
बड़े-बड़े परचे औ' पट्टे ले घूम रहे
झुक-झुक कर
चौखट-दर-चौखट चूम रहे
बत्तीसी पूरी चमकाये
भद्रलोक से धर-धर रूप नये आये हैं
जनहित में बाँट रहे
खैरातें लाये हैं
बस्ती के भाग खुले, हाये!
वोट के लिए, नंगी-लुच्ची सब चालें हैं
ठंडी सब क्रान्तिमुखी शब्द की मशालें हैं
लाभ इसी का भड़ुए पाये।
संवत्सर बदला है
कुबड़े घोडी चढ़कर आये।
एक हादसा बन
हर अनुभव
तोड़ गया सब हाड़ हमारे
धूल झाड़कर उठे सतह से
जीने की चाहत के मारे
पता नहीं क्यों
पिटते-कुटते रहे समय से
समय न हो
मानो हो
कोई गुंडा नामी
कैसी-कैसी
बैरभंजाई अचरजकारी
प्रक्षेपण सब
धरा रह गया
बहुआयामी
कभी किसी के बाल न नोंचे
तो भी मार दिये जायेंगे
श्रेयभाग जब यही
कौन फिर
किस सूरत से किसे पुकारे
भले नहीं हो
रोने वाला हम पर कोई
जितना कुछ
निर्वाह कर सके
कोशिश की है
ज्योतिर्मान उभारा है
जो बुद्धिभाव का
ईश्वर जाने
उसमें कितना गलत सही है
अति निर्जन- नि:संग रही है
हुलसी-झुलसी सोच विचारी
ग्रंथिलता के जो रहस्य थे
हमने सबके बीच उभारे ।
२. कंगाली में
कंगाली में आटा गीला
अपने पास धरा ही क्या था
बिखर गया सब कुटुम कबीला
कंगाली में आटा गीला
छुटपन में माँ मरी
पिता की
आँख गई जगने में
हमदर्दी के हाथ अनेकों
हिला किये सपने में
बढ़ा न लेकिन आगे कोई
सबकी अपनी-अपनी लीला
भाई, बाप बना
भाभी ने
माँ का रोल निभाया
और बहन ने दयाभाव का
अनुपम जाल बिछाया
मार पड़ी रिश्तों की इतनी
पड़ा थोबड़ा गहरा नीला
पड़े अकेले
शरणागत किशोर की पीड़ा झेली
आँख खुली तो देखा-
जीवन,
तब तक बना पहेली
चाबुक जितने पड़े समय के
जिस्म हो गया और गठीला
खटने-खपने की हलचल में
उखड़े पाँव जमाये
मानवसच के
खोजनहारों ने कहकहे लगाये
गर्मजोशियाँ सब गुमान की
यह तिनका भी है गर्वीला
चरैवेति कह-कह कर
गतविधियों से नाता जोड़ा
अटक-अटक जैविक दबाव से
हकलाहट को तोड़ा
अपने को झंझोड़ कर फैंका
खुरच-खुरच व्यवहार लचीला
कंगाली में आटा गीला ।
३. संवत्सर का गीत
संवत्सर बदला है
कुबड़े घोडी चढ़कर आये
नामित दल की ऐबी लदघुड़ियों पर चढ़ कर
भोंपा में जाने क्या
बोल रहे बड़र-बड़र
खासा कुहराम हैं मचाये
छुटकी-मझली-बड़की, गोबर-धनिया-होरी
भौचक-सा गाँव हुआ
औचक छोरा-छोरी
खूंटों पर ढोर बिदुरकाये
बड़े-बड़े परचे औ' पट्टे ले घूम रहे
झुक-झुक कर
चौखट-दर-चौखट चूम रहे
बत्तीसी पूरी चमकाये
भद्रलोक से धर-धर रूप नये आये हैं
जनहित में बाँट रहे
खैरातें लाये हैं
बस्ती के भाग खुले, हाये!
वोट के लिए, नंगी-लुच्ची सब चालें हैं
ठंडी सब क्रान्तिमुखी शब्द की मशालें हैं
लाभ इसी का भड़ुए पाये।
संवत्सर बदला है
कुबड़े घोडी चढ़कर आये।
Three Hindi Poems of Ram Sengar ji
aap aise he iss tarah se likhte rhe aur aapki kavitaye amar rhe
जवाब देंहटाएंS.R SAGAR(T.I NKJ)
you are awesome and genius
जवाब देंहटाएंआप की कवितये प्रेरित करती हैं
जवाब देंहटाएं