गीत को 'हृदय से हृदय की यात्रा' समझने वाले चर्चित नवगीतकार डॉ. विनय भदौरिया का नाम हिन्दी साहित्य में जाना-पहचाना है; इसलिए नहीं कि उनके पिताश्री वरिष्ठ नवगीतकार डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी हैं बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने जो गीत लिखे, उनकी न केवल गीत-नवगीत के विद्वानों/पाठकों ने बल्कि कविता की अन्य विधाओं के रचनाकारों-आलोचकों ने भी मुक्तकंठ से सराहना की है। भाई विनय जी के नवगीत अपने समय और समाज का बखूबी प्रतिनिधित्व करते हैं बैसबारा की बोलीबानी और खड़ी बोली के मिश्रित प्रयोग के माध्यम से। इस कवि की एक और विशेषता है कि उसकी कहन में जो धारदार व्यंग छिपा है वह भावक को सोचने के लिये बाध्य करता है। यही उसके गीतों की ताकत कही जा सकती है। भाई विनय जी ने भी अपनी प्रकाशित कृति 'झूठ नहीं बोलेगा दर्पण' में यही आशा की थी - "यदि संकलित गीतों में से एक भी पंक्ति आपके अधरों पर ठहर सकी तो अपने कवि-कर्म को धन्य समझूंगा।" तभी तो जब उनके गीत दर्पण की तरह समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करते हैं तो उस तस्वीर के साथ उनकी लिखीं हुईं पंक्तियाँ भी पाठक के मन में रच-बस जाती है। इस विशिष्ट गीतकवि का जन्म ०१ अगस्त १९५८ को लालगंज, रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ। विधि स्नातक और हिन्दी में पीएच.डी. करने के बाद विनय जी वकालत करने लगे। 'हवा बड़ी जहरीली है' (नवगीत संग्रह), महुवा धीरे टपकना' (गीत संग्रह), जलते दिया की तरह' (गज़ल संग्रह), पिया खड़े उस पार' (दोहा संग्रह) आदि उनकी कृतियाँ प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य संस्थान गुजरात, अहमदाबाद से 'साहित्याचार्य की उपाधि' और जैमिनी अकादमी पानीपत से 'राष्ट्र भाषा रत्न सम्मान' से अलंकृत इस कवि की रचनाएँ रेडियो, दूरदर्शन और काव्य-मंचों से प्रसारित हो चुकी हैं। संपर्क- साकेत नगर, लालगंज, रायबरेली (उ.प्र.), मोब. 09450060729 ।
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
१. प्रजातंत्र का खेल
मजेदार चल रहा आजकल
प्रजातंत्र का खेल
लूले-लंगड़े फांद रहे हैं
ऊंचे-ऊंचे शैल
भूंजी भांग न जिनके घर में
वे समाज में 'अगुआ'
एक इलेक्शन में जगजीवन
बन बैठा है 'जगुआ'
दुक्खी-सुक्खी बैठ रहे सब
आरक्षण की रेल
मक्खनबाजी से ही मक्खन
मिलता है अब ककुवा
भैंस दुहें सब दुहानी लेकर
खड़े ताकते भकुआ
दस्यु-सरगना संसद पंहुचे
भले आदमी जेल
साँपों के आगे अब पड़कर
नेउला पूंछ हिलाए
शेर देखते ही सियार को
फ़ौरन हाथ मिलाये
अब तो निकल रहा है भइया
बालू में से तेल ।
मजेदार चल रहा आजकल
प्रजातंत्र का खेल
लूले-लंगड़े फांद रहे हैं
ऊंचे-ऊंचे शैल
भूंजी भांग न जिनके घर में
वे समाज में 'अगुआ'
एक इलेक्शन में जगजीवन
बन बैठा है 'जगुआ'
दुक्खी-सुक्खी बैठ रहे सब
आरक्षण की रेल
मक्खनबाजी से ही मक्खन
मिलता है अब ककुवा
भैंस दुहें सब दुहानी लेकर
खड़े ताकते भकुआ
दस्यु-सरगना संसद पंहुचे
भले आदमी जेल
साँपों के आगे अब पड़कर
नेउला पूंछ हिलाए
शेर देखते ही सियार को
फ़ौरन हाथ मिलाये
अब तो निकल रहा है भइया
बालू में से तेल ।
२. पूछते हैं क्या हुआ
पी रहा
सिगरेट जलाए
ढेर पर बारूद की
बैठा हुआ
पूछते हैं
आप फिर भी क्या हुआ
कुछ बहुत जो
सुलगती थी
आग कल तक
वो समय के साथ
ठंडी हो गई
उठ गया विश्वास से
विश्वास भी
हर हवा जब से
शिखंडी हो गई
सच कहें
तो यह समूचा
दौर ही
लग रहा ज्यों
सांप का सूंघा हुआ
सीपियों को
सौंप करके
गर्म रेती
अंक में घोंघे
समेटे है नदी
कौन-सा
इतिहास रचकर
है गई
अलबिदा की
पूर्व संध्या पर सदी
स्वर्ग से
गिरकर
फंसा है ताड़ में
लग गई है
अम्न को
यों बददुआ।
३. मैं रचता हूँ
मैं रचता हूँ
गीत गाँव के
भइया शहर
बाँचना तुम
काल चक्र का
चलता पहिया
कैसे दिन बहुरें
हर पथ पर
नकाबपोशों के
हैं खूनी पहरे
नियति-नियंता के
करीब हो
कुछ तो करो
याचना तुम
प्रातः से
गिरवी लगती हैं
सूरज की किरनें
मरुथल-मरुथल
रहें भटकते
प्रतिभा के हिरने
ओझाओं की
झाड़-फूँक की
पूरी शक्ति
जांचना तुम
प्यासी बगिया में
शबनम की
बूँदें तो बरसीं
भीगी कानों की
धरती पर
आँखें तरसी-तरसीं
अनृत और कौतुक-
का, जमघट
कुछ भी नहीं
सोचना तुम ।
पी रहा
सिगरेट जलाए
ढेर पर बारूद की
बैठा हुआ
पूछते हैं
आप फिर भी क्या हुआ
कुछ बहुत जो
सुलगती थी
आग कल तक
वो समय के साथ
ठंडी हो गई
उठ गया विश्वास से
विश्वास भी
हर हवा जब से
शिखंडी हो गई
सच कहें
तो यह समूचा
दौर ही
लग रहा ज्यों
सांप का सूंघा हुआ
सीपियों को
सौंप करके
गर्म रेती
अंक में घोंघे
समेटे है नदी
कौन-सा
इतिहास रचकर
है गई
अलबिदा की
पूर्व संध्या पर सदी
स्वर्ग से
गिरकर
फंसा है ताड़ में
लग गई है
अम्न को
यों बददुआ।
३. मैं रचता हूँ
मैं रचता हूँ
गीत गाँव के
भइया शहर
बाँचना तुम
काल चक्र का
चलता पहिया
कैसे दिन बहुरें
हर पथ पर
नकाबपोशों के
हैं खूनी पहरे
नियति-नियंता के
करीब हो
कुछ तो करो
याचना तुम
प्रातः से
गिरवी लगती हैं
सूरज की किरनें
मरुथल-मरुथल
रहें भटकते
प्रतिभा के हिरने
ओझाओं की
झाड़-फूँक की
पूरी शक्ति
जांचना तुम
प्यासी बगिया में
शबनम की
बूँदें तो बरसीं
भीगी कानों की
धरती पर
आँखें तरसी-तरसीं
अनृत और कौतुक-
का, जमघट
कुछ भी नहीं
सोचना तुम ।
Three Hindi Navgeet of Dr. Vinay Bhadauriya
बहुत अच्छी रचनाये....
जवाब देंहटाएंविनय जी ब्लॉग पर आपके गीत पढ़ कर ख़ुशी हुई
जवाब देंहटाएंधन्यवाद