सिर पर / सुख के बादल छाए/ दुख नए तरीके से आए।
घर है, रोटी है, कपडे हैं/ आगे के भी कुछ लफड़े हैं
नीचे की बौनी पीढी के,/ सपनों के नपने तगड़े हैं
अनुशासन का/ पिंजरा टूटा/ चिडिया ने पखने फैलाए। (दिनेश सिंह)
घर है, रोटी है, कपडे हैं/ आगे के भी कुछ लफड़े हैं
नीचे की बौनी पीढी के,/ सपनों के नपने तगड़े हैं
अनुशासन का/ पिंजरा टूटा/ चिडिया ने पखने फैलाए। (दिनेश सिंह)
प्रख्यात नवगीतकवि एवं आलोचक श्री दिनेश सिंह आधुनिक समय में जिन दुखों की बात कर रहे हैं उनके कारणों से भलीभांति परिचित है युवा गीतकार रमाकांत जी। शायद तभी भाई रमाकांत जी अपनी रचनाओं में सामाजिक, राजनैतिक एवं अध्यात्मिक क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों के प्रति न केवल सजग हैं बल्कि उन्हें पहचानकर अपने गीतों में ढालना भी उन्हें बखूबी आता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनकी अभिव्यक्ति में ताज़गी है और विषयवस्तु में टटकापन। साथ ही वे अपने गीतों में रागभाव एवं गेयता को भी बनाये रखते हैं। इसीलिए उनके गीत अपने समय का दस्तावेज़ कहे जा सकते हैं। पूरे लाऊ, बरारा बुजुर्ग, जनपद रायबरेली (उ.प्र.) में जन्मे रमाकांत जी एम.ए., एम.फिल. एवं पत्रकारिता में पी.जी डिप्लोमा करने के बाद अध्यापन से जुड़ गये। 'वाक़िफ रायबरेलवी: जीवन और रचना', हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ हाइकु', नृत्य में अवसाद', 'जमीन के लोग', 'सड़क पर गिलहरी', 'जो हुआ तुम पर हुआ हम पर हुआ' (नवगीत संग्रह) आपकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। आप त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'यदि' के सम्पादक है। आपको म.प्र. का 'अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत अलंकरण' ('सड़क पर गिलहरी' कृति के लिए) सहित अन्य कई विशिष्ट सम्मान प्रदान किये जा चुके हैं। संपर्क- ९७, आदर्श नगर, मुराई बाग़ (डलमऊ), रायबरेली-२२९२०७ (उ.प्र)। मोब. 09415958111।
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
१. गाने दो
जीवन में
या सपने में
जो भी आता है
आने दो
जीवन छोटा है
सपने हैं
बहुत बड़े
हम अपने ही
पैरों पर
हैं नहीं खड़े
जीवन में
या सपने में
जो भी आता है
आने दो
जीवन छोटा है
सपने हैं
बहुत बड़े
हम अपने ही
पैरों पर
हैं नहीं खड़े
कोई टेक लगाये
पीछे चलता है
उस पर
थोड़ी नज़र रखो
या जाने दो
इश्तहार में
जो भी है
सब झूठा है
या कि कला का
मालिक ही
कुछ रूठा है
करो प्रार्थना
देखा सुना
सही ही हो
गलत गा रहा
यदि कोई तो
गाने दो।
२. तेरी बातें कब होंगी
हर दम मेरी बातें
तेरी बातें
कब होंगी
बातों का सिलसिला
इधर से ही
क्यों चलता है
तेरे सिर तक
आते-आते
पानी ढलता है
यहाँ-वहाँ सब तरफ
एक बरसातें
कब होंगी
चटक-मटक
कपड़ों में
छिप जाती हैं
तस्वीरें
खुले हुए चेहरे से
दिख जाती हैं
छिप जाती हैं
तस्वीरें
खुले हुए चेहरे से
दिख जाती हैं
सब पीरें
पीरों को नींद
सुलाने वाली रातें
कब होंगी।
३. ये दूकानें हैं
ये दूकानें हैं
दूकानें सजी-सजायीं हैं
दूकानें
मालिक के घर से
बिकने आयीं हैं
खड़ी हुई दूकानें
लेटी, बैठी, दूकानें
टेंट देखकर
बड़ी अदा से
ऐठीं दूकानें
दूकानों में
छीना-झपटी
बड़ी लड़ाई है
दूकानों तक
चलकर आना
एक जिन्दगी जीना
फूल और
काँटों का एक संग
पड़े रसायन पीना
जो पीना चाहें
पीने में
नहीं बुराई है
जो सामान
सजा रखा है
उसको खोलो, बांधो
तुरत-फुरत का
जादू-मन्तर
सधे न साधे माधो
फिर भी दूकानों की
माधो संग
सगाई है।
आपकी रचना शुक्रवारीय चर्चा मंच पर है ||
जवाब देंहटाएंcharchamanch.blogspot.com
चटक-मटक कपड़ों में
जवाब देंहटाएंछिप जाती हैं
तस्वीरें
खुले हुए चेहरे से
दिख जाती हैं
सब पीरें
पीरों को नींद
सुलाने वाली रातें
कब होंगी ।
waah
Ravikarji & Rashmiji, Ap Sabka Abharee hoon
जवाब देंहटाएंजीवन में
जवाब देंहटाएंया सपने में
जो भी आता है
आने दो
सुन्दर!
Tino kavitayen, jivan,samaj aur vyaktiyon ke antarik pratidwand ( internal conflict) ko darshati hai.
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