३१ जनवरी १९४५ को जनपद इटावा (उ.प्र.) के ग्राम सरसई नावर में जन्मे दिनेश पालीवाल जी सेवानिवृत्ति के बाद इटावा में स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं। आप गहन मानवीय संवेदना के सुप्रिसिद्ध कथाकार हैं । आपकी ५०० से अधिक कहानियां, १५० से अधिक बालकथाएं, उपन्यास, सामाजिक व्यंग, आलेख आदि प्रितिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। दुश्मन, दूसरा आदमी , पराए शहर में, भीतर का सच, ढलते सूरज का अँधेरा , अखंडित इन्द्रधनुष, गूंगे हाशिए, तोताचश्म, बिजूखा, कुछ बेमतलब लोग, बूढ़े वृक्ष का दर्द, यह भी सच है, दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की, रुका हुआ फैसला, एक अच्छी सी लड़की (सभी कहानी संग्रह) और जो हो रहा है, पत्थर प्रश्नों के बीच, सबसे खतरनाक आदमी, वे हम और वह, कमीना, हीरोइन की खोज, उसके साथ सफ़र, एक ख़त एक कहानी, बिखरा हुआ घोंसला (सभी उपन्यास) अभी तक आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। आपको कई सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। संपर्क: राधाकृष्ण भवन, चौगुर्जी, इटावा (उ.प्र.)। संपर्कभाष: ०९४११२३८५५५। वरिष्ठ कथाकार दिनेश पालीवाल जी से बातचीत की अवनीश सिंह चौहान ने -
दिनेश पालीवाल से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
दिनेश पालीवाल: हर रचनाकर मूलतः स्वप्नदर्शी होता है। समाज समय के साथ बदलता रहता है। समाज की मान्यताएँ भी बदलती रहती हैं। रचनाकार की नजर समस्याओं पर केन्द्रित इसलिए रहती है कि कहानी वह लिखता ही सामाजिक समस्याओं को उठाने के लिए है। बदलते जीवन मूल्यों के प्रति हमारे दो ही नजरिए हो सकते हैं या तो हम उन बदलावों को स्वीकारें या बुरा मानें तो उन्हें नकारें। हर पुराना मूल्य आज की स्थितियों में उचित और अच्छा है, न इसे स्वीकार किया जा सकता है, न हर नए मूल्य को आंख मूंद कर स्वीकारा जा सकता है। बाजार मनुष्य की संवेदना को खत्म कर रहा हैं अर्थकेन्द्रित दुनिया और समय में व्यक्ति जिन नए मूल्यों को अपनाता जा रहा है, विज्ञान और तकनीक जिस तरह मनुष्य की सोच को बदलती जा रही है, स्वकेन्द्रित करती हुई समाज ओर परिवार के अन्य सदस्यों को काटती जा रही है, आदमी जिस तरह अकेला और असहाय होता जा रहा है, अवसादग्रस्त रूग्ण मानसिकता जिस प्रकार व्यक्ति पर हावी होती जा रही है, उससे लगता है सब कुछ तहस-नहस होने को है। न परिवार बचेंगे, न समाज, न व्यवस्था, न मूल्य, न आदर्श। ऐसे भीषण समय में साहित्य की भूमिका बहुत अहं होती है, परन्तु हम रचनाकार मौजूदा व्यवस्था द्वारा हाशिए पर फेंक दिए गए है। आर्थिक रूप से तो हम पहले ही मरे-टूटे व्यक्ति थे। प्रचार-प्रसार के आधुनिक संसाधनों ने हमें और अधिक निरीह प्राणी में बदल दिया है। साहित्य के न पाठक रहे, न किताबों के खरीददार। किताबें बहुत महंगी हो गईं। यों पत्रिकाओं की कमी नहीं है। उनमें नए-पुराने सभी रचनाकार छप भी रहे है। पर पिछला वक्त याद आता है, एक कहानी कहीं छपती थी तो सैकड़ों पत्र पाठकों से प्राप्त होते थे। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में संगम ट्रेन की दुर्घटना पर कभी ‘भौतिक शास्त्र' कहानी लिखी थी। ढाई-तीन हजार पत्र प्राप्त हुए थे। तहलका सा मच गया था। डाकिया चिटि्ठयां लाते-लाते तंग हो गया था। पूछता था- साब क्या कहां लिख दिया जो ये ढरों पत्र आ रहे हैं? खुश हो लेता था।
मेरा भरसक प्रयास रहता है, सामान्य जन-जीवन की व्यथा-कथा कहूं। और सामान्य पाठक को ध्यान में रख कर लिखूं। व्यर्थ के उलझाव कहानी के नाम पर मुझे पसंद नहीं है। नए लेखक जिस तरह से भाषा में नए अंदाज और नए प्रयोग पर श्रम कर रहे है, हम पुरानी पीढ़ी के लोग वह सब कर पाने में शायद अपने आप को असमर्थ-सा पा रहे है। न हम जादुई यथार्थ से आकर्षित हो रहे है और न उत्तरआधुनिकता को मन से स्वीकार कर पा रहे हैं। इसलिए कहानी में कथा तत्व प्रमुख हो, हमारी बात सहज तरीके से पाठक तक पहुंचे, इसका प्रयास रहता है। कविता की मृत्यु का एक बड़ा कारण उसका अति उलझाव है। अति प्रयोगशीलता हैं पाठक को वह छूती ही नहीं तो वह पढ़ता नहीं। यही हुआ था नयी कहानी के दौर में भी। ठीक है कि कहानी का शिल्प विश्वस्तर पर पहुंच गया था। हमारी रचनाएं सात्र, काफ्का, कामू के समकक्ष पहुंच रही थीं। साहित्य के विकास के लिए यह भी आवश्यक रहा होगा। वैसे ही जैसे आज उत्तर आधुनिकता, जादुई यथार्थ, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श का बोलवाला है, पर मेरी सही कहें या गलत यह पक्की धारणा है कि सहज बोधगम्य कहानी-उपन्यास ही पाठक के हृदय को छुएंगे। क्या कारण है कि आज भी हिन्दी में सर्वाधिक प्रेमचंद बिकते हैं या शरद चन्द्र या रवीन्द्रनाथ टैगोर। विमल मित्रा के जितने पाठक हिन्दी में हैं शायद उतने पाठक किसी हिन्दी लेखक के नहीं है और ये लोक कथा कहने के मास्टर हैं। मोपासां, ओहेनरी, चेखोव, टाल्सटाय, गोर्की आज भी हिन्दी में रूचि से पढ़े जा रहे हैं। जहाँ तक जीवन में आए अवरोधों कठिनाइयों का प्रश्न है, हम व्यक्ति के रूप में अपने जीवन में रोज उनका सामना अपनी तरह करते हैं। उनका कभी डटकर मुकाबला करते हैं तो हम पलायन भी कर जाते है। समस्याओं का जब हमें कोई हल नहीं सूझता, चक्रव्यूह में फंसा आज का अभिमन्यु जब यह समझ लेता है कि महामारक समस्याओं-संघर्षो से मुक्ति नहीं है, तो हम बजाय उनका सामना करने के उनसे शुतुरमुर्ग की तरह आंखें चुरा पलायन कर जाते हैं। हर व्यक्ति की अपनी क्षमता होती है। अगर सब में संघर्ष करने की एक सी क्षमता हो तो फसलों की बर्बादी और कर्जों का बोझ हर किसान को आत्महत्या के लिए विवश कर दे। पर हर किसान नहीं मरता। वह अगली फसल पर अपनी आशाएं केन्द्रित करता है और फिर पूरी ताकत से नयी फसल के लिए जुटता है। बीज-खाद, पानी, उचित मूल्यों का संघर्ष करता है। आत्महत्या करना अगर कुछ किसानों का पलायन है तो अगली फसल पर आशाएं केन्द्रित करना उसके सपनों का जीना हैं उसकी जिजीविषा है। इसलिए रचनाकार अक्सर स्वप्नदर्शी होता है। वह कल के लिए जीता है। सपने सच भी हो सकते हैं और गलत भी। ‘रंगभूमि' उपन्यास का पात्र सूरे को याद करिए। दबंग लोग उसकी झोंपड़ी गिरा देते हैं। वह फिर झोंपड़ी बनाता है। लोग उससे पूछते हैं। क्यों बना रहे हो? दबंग लोग फिर गिरा देंगें। फिर उजाड़ देंगें। सूरे कहता है- तो हम फिर बनाएंगे। ... कठिनाइयों और मारक समस्याओं से भाग जाना समस्याओं का हल नहीं है। उनका सामना तो करना पड़ेगा। गिर-गिर के हमें फिर से संभलना ही पड़ेगा। ‘दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा' मदर इण्डिया के उस गीत को याद करिए ज़रा। नायिका नर्गिस के पास कुछ भी नहीं रह गया है। न पति, न खेत, न फसल, बाढ़ में सब तबाह हो गया है, फिर भी वह हिम्मत नहीं हारती। जिंदगी से जीवंत संघर्ष करती है। अपनी अस्मत तक का सौदा नहीं करती। किन स्थितियों में वह अपने छोटे बच्चों को पाल कर बड़ा करती है, कितने प्रकार के शत्रुओं से वह जूझती है और अपना व अपने बच्चों का किसी तरह जीवन बचाती है, यह उसका जीवन के प्रति आशावादी नजरिया है। संघर्ष है। स्थितियों का डट कर सामना करना है। करती है वह हमारे सामने ऐसे पाजिटिव हीरो-हीरोइन भी हैं साहित्य में और डर कर पलायन कर जाने वाले नायक भी हैं। हर कहानी-उपन्यास एक जैसा नहीं हो सकता। न सबकी समस्याओं का एक जैसा हल हो सकता हैं। कभी हम हार जाते हैं। लेकिन उस हार से भी संघर्ष करने का जज्बा फूटता है। मेरा उपन्यास ‘‘जो हो रहा है'' को यदि आप देखें तो यही पाएंगे। नायक गांव के गरीबों का सचमुच बैंक की सहायता से कुछ भला करना चाहता है, पर दबंग और हर सरकारी योजना का पैसा हड़प जाने वाले दलालों के आगे उसकी दाल नहीं गल रही। पूरी व्यवस्था उस बैंक अधिकारी नायक और गरीब, शोषित किसानों के विरुद्ध खड़ी हो जाती है। वह हिंसा का शिकार हो जाता है। उसका परिवार तबाह हो जाता है। पाठकों को लग सकता है कि नायक हार गया। निराशावादी अंत है। परन्तु नहीं। पाठकों को उसकी लड़ाई सही लगती है, उसी तरह जिस तरह अभिमन्यु की लड़ाई सबको सही लगती है। भले ही वह चक्रव्यूह न तोड़ पाया हो, हार गया हो, मारा गया हो।
हाल ही में प्रकाशित कहानी ‘यह सौदा मंजूर नहीं' दैनिक जागरण 21 सितंबर 2009 की नायिका को देखें। जीवन की कठिन और मारक समस्याओं से निजात पाने के लिए यह बाजार उसके शरीर और मातृत्व का सौदा करता है। बाजार ने उसके सामने अत्यन्त आकर्षक प्रस्ताव रखा है। उस प्रस्ताव से उसकी सहेली, उसकी छोटी बहिन यहां तक कि उसकी मां भी सहमत है। उसे नौकरी देने वाला डाक्टर भी उसे उचित मानता है। नायिका गंभीरता से हर पहलू पर विचार करती है और दूसरे दिन मि. दयाल जो इस पूंजीवादी व्यवस्था में बाजारवादी मानसिकता के प्रतीक है और जिनका यह विश्वास है कि बाजार में सब कुछ बिकता है, बिकना चाहिए। जिनमें सब कुछ खरीदनें की ताकत है, उनका हक है कि वे जो चाहें, जैसे चाहे, खरीद लें। पर नायिका उन्हें टका सा जवाब देती है कि आपका सौदा मुझे मंजूर नहीं है। औरत की देह कोई मशीन नहीं है कि आप उसे बच्चा जनने के लिए खरीद लें। उसमें भावनाएं होती हैं। मातृत्व को ले कर कुछ सपने होते हैं। उनका सौदा उन्हें मंजूर नहीं है। अगर सौदा मंजूर कर लेती तो सारी समस्याएं सुलझ जाती। परंतु बाज़ारवाद को यह नायिका अस्वीकार करती हैं। स्थितियों का डट कर सामना करेगी, इसका दृढ़ निश्चय करती है, सूरे की तरह, मदर इंडिया की नायिका की तरह।
अवनीश: आज नारी आन्दोलन नारी-विमर्श के रूप में कम दिखाई देता है, ‘देह-विमर्श के रूप में अधिक। इसका पारिवारिक-सामाजिक संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
दिनेश पालीवाल: नायिका का यह संघर्ष महत्वपूर्ण है। लेकिन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और परिवारिक बदलाव व्यक्ति, उसकी सोच और उसके जीवन जीने के तौर-तरीकों को मूल्यों को बदलते हैं। इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। फैशन-शो के नाम पर जो भोंडी रैंप प्रस्तुति की जाती है, भले वह फैशन हमें आम महिलाओं में दिखाई न दें, समारोहों में कोई उस तरह की ड्रेसें पहन कर न आती हो पर फिल्मों-सीरियलों में आ रही है। कल वे समाज में आ जाएंगी। इस बदलाव को हम सिर्फ आलोचना करके कब तक रोक सकेंगे? पहनावा बदल रहा है। महानगर से ले कर कस्बाई शहरों तक और कस्बों-गांवों तक बदलाव की लहर चल रही है। टी वी और फिल्में बाजार के हाथों के खिलौने हैं। बाजार उन्हें जनजीवन का अंग बनाने पर उतारू है। भले यह बदलाव बहुत धीमे हो रहा हो, पर हो तो रहा ही है। स्त्री-विमर्श के नाम पर कुछ पत्रिकाएं जो अगुआ बनी हुई हैं वे स्त्री को शोषण और दमन से मुक्त नहीं करना चाहती। उनकी रूचि उसे नंगा करने में है। उसका यौन-सुख लेने में है। तमाम इधर कहानियां लेखक-लेखिकाओं ने लिखी हैं जिनमें देह-विमर्श जम कर है और वे छप रही हैं। व्यवस्था बहुत चालाकी और सफाई से इस देह-विमर्श को हवा दे रही हैं हमारे संपादक सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए और अपनी पत्रिकाओं को चर्चा मे बनाएं रखने के लिए इन विमर्श को उछाल कर अपना उल्लू सीध कर रहे हैं। नए के नाम पर ऐसे भोंड़े बदलाव जरूरी नहीं है कि हर रचनाकार को मंजूर हों, मैं स्त्री के शोषण के खिलाफ़ हूँ। चाहे वह उसका शारीरिक हो, भावनात्मक हो, या मानसिक-आर्थिक। उस पर होने वाले अत्याचारों के सख्त खिलाफ हूँ। बलात्कार और हिंसा के खिलाफ़ हूँ। हाँ, प्रेम का संवेदनात्मक स्तर पर समर्थक हूँ। इसलिए महिला पत्रिकाओं में मेरी ढेरों रचनाएं छपी हैं। प्रकाशित हुई हैं। पुरस्कृत भी हुई हैं। फिर भी उनमें मेरी नज़र सकारात्मक रही है। मैं बदलाव के पक्ष में हूँ पर भोंड़े बदलाव के पक्ष में नहीं। बाजार की कठपुतली बनने के पक्ष में कतई नहीं। इसे चाहे मेरा पिछड़ापन कहा जाए या दकियानूसीपन। पर मेरी रचनाएं ऐसे देह-विमर्श के पक्ष में नहीं रही हैं।
अवनीश: साहित्य की राजनीति क्या है एवं राजनीति का स्वप्न साहित्य के स्वप्न से कितना भिन्न हैं? नहीं है तो क्यों?
दिनेश पालीवाल: आजकल साहित्य में हमें जो गुटबाजी दिखाई दे रही है, आपसी उठापटक, मनमुटाव और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है, वह सब साहित्य की राजनीति है। दिल्ली उसका दलदली केन्द्र है। उसके कीचड़ में ज्यादातर दिल्लीवासी रचनाकार और पत्रिकाओं के संपादक लिस्ड़े हुए हैं। समझ रहे हैं कि वे जो कर रहे हैं, जो छाप रहे हैं, जो एक-दूसरे की टांग-खिचाई कर रहे हैं वह पूरा साहित्य जगत देख रहा है और जरूर उसके पक्ष या विपक्ष में खड़ा हो रहा है। पर ऐसा है नहीं। आज भी तमाम रचनाकार इस साहित्य की राजनीति के दलदल से दूर रह कर रचनाकर्म में रत है। हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। फिर भी राजनीतिक रूप से अधिकांश रचनाकार शोषित, पीड़ित, आमजन के साथ हैं। इसीलिए ऐसी राजनीति जो इनके पक्ष में खड़ी हो, उसका साहित्यकार संवेदनात्मक स्तर पर समर्थन करता है। वह चाहे वामपंथी राजनीतिक विचारधारा हो या नक्सली विचारधारा।
हम सब जानते हैं कि रूस के पतन के बाद वामपंथी विचारधारा पर अनेक सवाल दागे जा रहे हैं। एक-ध्रुवीय दुनिया में सिर्फ पूंजीवाद, भूमंडलीकरण, बाजारवाद और उत्तर आधुनिकतावाद का समर्थक आधुनिक पूंजीवाद ही जिंदा रहेगा, बाकी सारी विचारधाराएं अप्रासंगिक हो जाएंगी। लोग ऐसा सोचने मानने लगे हैं। पर साहित्य का यह सपना नहीं हो सकता। साहित्य संवेदनशील कर्म है। और यह संवेदनशील व्यक्ति शोषण, दमन युद्ध, सांप्रदायिकता, हिंसा के विरूद्ध खड़ा होने का स्वप्न देखेगा। उसके इस सपने को कोई नहीं छीन सकता। वामपंथी भी भटक रहे हैं। नंदीग्राम, सिंगूर, लालगढ़ उसके प्रमाण हैं। आगामी चुनावों में आप पाएंगे कि वामपंथी सरकार पं. बंगाल में चुनाव हार जाएगी। यह होगा। क्योंकि अब बुद्धिजीवी, लेखकगण, कलाकार, रचनाकार उनके पक्ष के नहीं है, ज़्यादातर बुद्धिजीवी वामपंथी दलों के इस नंगनाच के खिलाफ हो गए है। उसी तरह जैसे गांधी जी की नीतियां सही थी। गांधी जी स्वयं अच्छे इन्सान थे। पर कांग्रेस ने सत्ता के लिए जो खुला और नंगा नाच किया उससे न गांधीवादी सहमत हुए, न कोई भी समझदार व्यक्ति। इसलिए ही कांग्रेस की देश में दुर्गति भी हुई। यही दुर्गति वामपंथी सरकारों की होगी। अगर ये सँभलेंगे नहीं। शासन-प्रशासन आम जनता के दुख-दर्दों को दूर करने की बजाय सिर्फ अपनी आतंकी सत्ता क़ायम रखने की तिकड़म में मशगूल हो जाएगा, तो उनका पराभव निश्चित है।
हमारा सपना तो आम आदमी के दुख-दर्द हैं। उन्हें कैसे दूर किया जाए। यह सोच है। एक ऐसी दुनिया जिसमें सब नहीं तो अधिसंख्यक लोग सुखी और संतुष्ट हों, शिक्षित और स्वस्थ हो, शोषण और दमन से मुक्त हो, सुरक्षित और संपन्न हों। हर रचनाकार का यही महास्वप्न है, भले ही यूटोपिया लगे पर रचनाकार उसी महास्वप्न का दर्शक होता है। किसी राजनीति का अंध समर्थक नहीं। इसीलिए वामपंथी रचनाकारों की रचनाओं में भी वामपंथ की खिलाफ़त नज़र आती है। यशपाल हो या भीष्म साहनी। अमरकांत जी हों या शेखर जोशी, रेणु हों या आज के तमाम लेखक-रचनाकार। विचलन बाबा नागार्जुन में भी नज़र आता है। परंतु ये सब है उसी महास्वप्न के दर्शी कलाकार। वह स्वप्न सच हो या न हो, पर हमें स्वप्न देखने से कौन रोक सकता है?
कभी गोरखपांडे ने कहा था- समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई। वह एक सपना था। सोच था। पर आज वह सपना टूटता-बिखरता दिखाई दे रहा है। पूँजीवाद के समर्थक गाल और बग़लें बजा रहे हैं। कह रहे हैं- समाजवाद बबुआ अब कभी न आई। पर जब तक बहुसंख्यक आदमी परेशान है, पीड़ित है, शोषित है, दुखी है, बेरोज़गार है, भूखा और ग़रीब है, समाजवाद को तो आना ही पड़ेगा। यही हमारा महास्वप्न है, जो सच होगा।
अवनीश: ‘दलित को विषय बना लेने भर से दलित साहित्य नहीं हो जाता। उसमें लेखक के स्वानुभूत अनुभव होने चाहिएँ।' इस प्रकार का तर्क कुछ रचनाकार-विद्वान देते आये हैं। कहीं यह साहित्य को खांचों में बाँटने का प्रयास तो नहीं?यदि नहीं तो क्यों?
दिनेश पालीवाल: है तो यह सच ही कि सर्वण वर्ग के लोग चाहे जितनी सहानुभूति से दलितों की कथा लिखें, परंतु वे दलितों का दर्द उतनी गहराई से तो अनुभव नहीं कर पाते, जितनी गहराई से स्वयं दलित करते हैं। कहावत है- जिसके पाँव न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई? गाँधी भजन गाते थे- वैष्णवजन ते जाणिएं, जे पीर पराई जाणै रे। संवेदनशील रचनाकार दूसरों के दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द बना कर ही कहते हैं, कहते आये हैं। क्रौंच पक्षी का वध और उसकी करुण चीत्कार ही वाल्मीकि को महाकवि बना गई था। स्त्रियों के दुख-दर्द तो ठीक हैं, महिलाएँ अच्छी तरह लिख रही हैं। पर क्या लेखकों ने उनके दुख-दर्दों को गहराई से नहीं उकेरा है? मेरी ढेरों कहानियाँ महिला पात्रों के शोषण, उनके दुख-दर्द को सामने रखती हैं। हाँ, यह हो सकता है कि मैंने उन्हें उतनी गहराई से न उकेरा हो, जितनी गहराई से आज की लेखिकाएँ काग़ज़ पर उतार रही हैं। हम दलितों के जीवन को दूर से ही देखते हैं। दलित जो अपमान, जो कष्ट, जो दुख समाज में भोगता है, जिसका दंश उसे रोज़-ब-रोज़ सहना पड़ता है, वह हम देख जान सकते हैं। दूर से अनुभव कर उसका चित्रण कर सकते हैं। पर हम स्वयं दलित तो नहीं हैं। वह नारकीय जीवन तो हम नहीं जीते, जो वे जी रहे हें। इसीलिए यह तो सही प्रतीत होता है कि हम उस साक्षात् अनुभव से तो नहीं गुज़रते, जिससे एक सामान्य दलित गुज़रता है। मराठी दलित साहित्य से लेकर इधर हिंदी में लिखा जा रहा दलितों का साहित्य ज़रूर उस पीड़ा, उस दर्द, उस अपमान को सामने रख रहा है, जो दलित भोग रहे हें। परंतु यहाँ यह भी सच है कि उसमें सपाटता है। कलाहीनता है। ज़्यादातर उनका साहित्य आत्मकथात्मक और इकहरा है। यह उनकी सीमाएँ हैं। पर जल्दी उनका साहित्य इन सीमाओं को तोड़कर सर्वव्यापी पीड़ा से जुड़ेगा। अजय नावरिया की रचनाएँ इस संदर्भ में देखी जा सकती हैं। डा. धर्मवीर ने प्रेमचंद को सामंतों का मुंशी कह दिया तो क्या वे सचमुच सामंतों के मुंशी हो गए? कृतित्व को नकारा नहीं जा सकता। दलितों के कृतित्व को भी नकारना उचित नहीं है। परंतु ग़ैर दलित यदि दलितों के दुखों-कष्टों को लिखता है तो उसे भी नकारा नहीं जाना चाहिए। रामचंद्र शुक्ल या महावीरप्रसाद द्विवेदी या हजारीप्रसाद द्विवेदी को सिर्फ ब्राह्मण होने के कारण गालियाँ दी जाएँ, कोसा जाए, उन पर आरोप लगाया जाए कि वे सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त थे, यह नितांत ग़लत लगता है। धरणाएँ हो सकती हैं। स्त्रियों की स्वतंत्रता को लेकर महावीरप्रसाद द्विवेदी रुष्ट नज़र आते हैं। यह उनका व्यक्तिगत दृष्टिकोण हो सकता है। इसकी आलोचना हो, यह सही है, पर उनके समूचे कृतित्व और हिंदी को उनका अवदान ही नकार दिया जाए, यह पूर्णतः ग़लत है। खांचों में बाँटना नहीं है यह।
अवनीश: यूनाइटेड किंगडम में भारतीय मूल के अनिवासियों द्वारा गुजराती, पंजाबी और उर्दू में कथा-साहित्य खूब रचा जा रहा है, जबकि हिंदी यहाँ इन सबसे पीछे है। क्या यह सही है? यदि हाँ तो क्या कारण हो सकते है?
दिनेश पालीवाल: मेरी जानकारी में यूनाइटेड किंगडम में हिंदी की रचनाशीलता पिछड़ी हुई नहीं है। प्रवासियों द्वारा वहाँ हिंदी में कहानी, उपन्यास, कविता, निबंध्, संस्मरण, यात्रा संस्मरण, डायरी आदि खूब लिखी जा रही हैं। कविता के क्षेत्र में पद्मेश गुप्त, डा. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, सोहन राही, गौतम सचदेव, मोहन राणा, दिव्या माथुर, ऊषा राजे सक्सेना, ऊषा वर्मा, शैल अग्रवाल, डा. कृष्णकुमार दर्शन, तेजेन्द्र शर्मा आदि अनेकानेक कवि हैं, जो कविता को वहाँ के परिवेश के अनुरूप लिख रहे हैं और उनका लिखा हम तक पहुँच रहा है।
इसी तरह कहानी-उपन्यास के क्षेत्र में तेजेन्द्र शर्मा, ऊषा राजे सक्सेना, दिव्या माथुर, शैल अग्रवाल, गौतम सचदेव, के.सी. मोहन, कादंबरी मेहरा, प्रतिभा डाबर आदि अर्से से सक्रिय हैं और उनकी अनेकानेक कहानियाँ-उपन्यास हमारे सामने हैं।
आलोचना के क्षेत्र में गौतम सचदेव, प्राण शर्मा, ऊषा वर्मा की समीक्षा पुस्तकें देखी जा सकती हैं।
नाटक में डा. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, अचला शर्मा, तेजेन्द्र शर्मा आदि सक्रिय हैं। अनेकानेक साहित्य संस्थाएँ वहाँ चल रही हैं, जिन्हें हिंदी के रचनाकार संगठित होकर चला रहे हैं। पत्रिकाएँ छपती हैं। पाठकों के बीच पहुँचती हैं। अनुवाद कार्य भी हो रहे हैं। वहाँ हिंदी में। अरुंधती राय का ‘गॉड आफ स्माल थिंग्स' का हिंदी अनुवाद भारत से ज़्यादा वहाँ बिका है। सनराइज रेडियो, बी.बी.सी., जी स्टार और सोनी की हिंदी सर्विस बहुत लोकप्रिय हैं वहाँ। कवि सम्मेलनों का आयोजन होता है और टी.वी. पर दिखाया जाता है। गोष्ठियाँ होती हैं। अखबारों पत्रिकाओं में उनकी चर्चा होती है। हाँ, यह हो सकता है कि हिंदी में उतना न लिखा जा रहा हो, जितना पंजाबी, गुजराती या अन्य भाषा के प्रवासियों के द्वारा लिखा जा रहा है। उसका कारण, हिंदी के लोगों का वहाँ कम होना भी हो सकता है और उनकी आर्थिक स्थिति भी इसकी ज़िम्मेदार हो सकती है।
जहाँ तक अन्य देशों का प्रश्न है- अमरीका, कनाडा,फ्रांस, यूरोप, जापान, जर्मनी, ट्रिनीडाड, फ़िज़ी, सूरीनाम, मारीशस, इंडोनेशिया आदि देशों में हिंदी का लेखन और चलन निरंतर बढ़ रहा है। इधर हिंदी की अनेक पत्रिकाओं ने प्रवासी हिंदी साहित्य पर केंद्रित अंक खूब प्रकाशित किए हैं और उन्हें पढ़कर लगता है कि वे हमारे देश के मूल साहित्य की तरह ही समादृत हैं। उस लेखन को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
आपका यह आरोप किसी हद तक सही हो सकता है कि प्रवासी लेखकों ने वहाँ के जन-जीवन को उतनी गहराई से रेखांकित न किया हो। लगभग वही बात है जो दलित साहित्य के संदर्भ में कहीं है। स्वानुभूत अनुभव की कमी।
अवनीश: सूचना एवं संचार क्रांति के इस युग में विज्ञापन तो घर-घर पहुँच रहा है, किंतु क्या साहित्य भी अपने समाज तक पहुँच रहा है?
दिनेश पालीवाल: विज्ञापन को घर-घर पहुँचाने वाली शक्तियाँ आर्थिक और राजनैतिक हैं। समाज पर वही हावी हैं। साहित्य संवेदनाओं-भावनाओं और मानवीय मूल्यों का पक्षधर होता है। व्यापार में इन चीज़ों का क्या मूल्य? अर्थ व्यवस्था में और राजनीति में इनकी गुंजाइश कहाँ है? वहाँ तो ठोस चीज़ों की ज़रूरत है, जिनके लिए पैसा ही सब कुछ है, मानवीय मूल्य मूल्यहीन हैं, संवेदनाएँ-भावनाएँ व्यर्थ हैं, वे भला साहित्य को जन-जन तक क्यों पहुँचाएँ? उससे उनका क्या भला होना है? साहित्य तो सच का आईना होता है। सच को न धनपशु जानना चाहते हैं, न राजनेता। वे जनता को लुभावनी चीज़ों के माध्यम से बहलाना-फुसलाना चाहते हैं। इसीलिए शैंपू, तेल, साबुन, फैशनी वस्त्र, इलैक्ट्रानिक उपकरण, मोबाइल, टी.वी., फ्रिज, ए.सी., कारें, मोटर साइकिलें, ब्रांडेड कपड़े, चीज़ें विज्ञापनों में छायी हुई हैं। उनका बेचना आर्थिक और राजनैतिक गतिविधि है। साहित्य को क्यों बेचा जाए? वह तो इन सबकी पोल खोलेगा। वह तो इनके पीछे का घिनौना सच सामने रख देगा। बाज़ार, खुली अर्थव्यवस्था और पैसे से पैसा बनाने की चालें, षड्यंत्र, व्यापार बुद्धि के साँचे में हमारा मूल्यों की परवाह करने वाला संवेदनशील साहित्य कहाँ फिट होता है? और जो साहित्य फिट हो रहा है, उसका विज्ञापन हो रहा है।
अवनीश: भाषा, शिल्प एवं कथ्य के स्तर पर नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी की रचनाशीलता (कथा साहित्य) में क्या समानताएँ हैं और क्या असमानताएँ?
दिनेश पालीवाल: इधर दो दशकों में उभर कर सामने आई नई कथा पीढ़ी ने भाषा, शिल्प एवं कथ्य को बहुत बदला है। पुरानी पीढ़ी से एकदम भिन्न तरह कहानियाँ उपन्यास लिखे जा रहे हैं। राजू शर्मा का उदाहरण लिया जा सकता है। उनकी ज़िद है कि रचनाएँ नई भाषा, नए शिल्प, नए कथ्य के साथ लिखी जाएँ।
ऐसा नहीं है कि भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर पुरानी पीढ़ी ने नये प्रयोग नहीं किये। अज्ञेय, मुक्तिबोध, धूमिल ने कविता में अपने समय में अनेक नये प्रयोग किये। आज भी विनोद कुमार शुक्ल, कृष्ण बल्देव वेद और काशीनाथ सिंह बेहद प्रयोगशील रचनाकार हैं। प्रियंवद और उदयप्रकाश को गंभीर प्रयोगशील रचनाकार माना जाता है। हर रचना में वे नये रूप और तेवर के साथ सामने आते हैं। परंतु ज़्यादा पुरानी पीढ़ी अपनी बनी-बनाई भाषा, शिल्प और कथ्य को ही अपनाये चलती है। मनोहर श्याम जोशी हर रचना में नया प्रयोग करते रहे थे। हर अगला उपन्यास नयी भाषा, शिल्प, कथ्य को लेकर सामने आया है।
इधर की उभरी पीढ़ी में नयी लेखिकाएँ और लेखक बहुत प्रयोगशील हैं। मैं इसे बुरा तो नहीं मानता, परंतु कथा-साहित्य का एक उद्देश्य सहज पाठ भी है। पाठक को हमारी बात समझ में आनी चाहिए, तभी वह हमें पढ़ेगा, वरना क्यों पढ़ेगा? कोई भी रचना सिर्फ भाषा के और शिल्प के चमत्कार के कारण नहीं पढ़ी जाती। अपने कथ्य के कारण पढ़ी जाती है। मनोरंजन और बोधगम्यता उसकी जीवन-शक्ति होती है। इसलिए प्रयोगशीलता ज़रूरी है, बदलते वक़्त की अभिव्यक्ति करने के लिए हर स्तर पर बदलाव आवश्यक लगता है, परंतु इतना अधिक बदलाव भी न हो कि रचना की नाक-पूँछ पकड़ में ही न आये। कृष्ण बल्देव वैद की अनेक कहानियाँ सिर के ऊपर से गुज़र जाती हैं। एक बार उनसे इस संदर्भ में बात की। एकदम बोले- मैं आम पाठक के लिए नहीं लिखता। अपने जैसे लोगों के लिए ही लिखता हूँ। मुझे बहुत पाठक नहीं चाहिए। चंद समझदार पाठक चाहिए, जो हमारी तरह सोचें-समझें। ... यह उनका सच हो सकता है। परंतु साहित्य का सच नहीं हो सकता। ‘दीवार में खिड़की होती थी', ‘खिलेगा तो देखेंगे' जैसी विनोदकुमार की रचनाएँ कितनों ने पढ़ी होंगी? जिन्होंने पढ़ी, उनमें कितने समझ पाए होंगे? जबकि इधर प्रकाशित उपन्यासों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हुआ ‘मुझे चाँद चाहिए' उपन्यास। भाषा का सौंदर्य उसमें भी है। शिल्प का कसाव और गठन चमत्कारी उसमें भी है। कथ्य भी एकदम नये क्षेत्र का है। फिर भी वह आम पाठकों द्वारा खूब पढ़ा गया और सराहा गया। शायद अपनी बोधगम्यता के कारण। अपने मनोरंजनी पहलू के कारण।
अवनीश: क्या नयी पीढ़ी के लिए आप सन्देश देना चाहेंगे?
दिनेश पालीवाल: लेखकों को कोई क्या संदेश दे सकता है? हम सब एक ही रंगीन दुशाला बुन रहे हैं। कोई एक छोर बुन रहा है, कोई दूसरा। सब बुनकर हैं। अपनी-अपनी क्षमता और कारीगरी के हुनर के साथ, सब उस दुशाले को बुनने में लगे हैं। अच्छा बुना जा रहा है या बुरा, यह तो पाठकों का निर्णय होगा। एक लेखक फ़तवा क्यों दे कि सारे लेखक ऐसे ही लिखें, यही लिखें, वरना मार दिये जायेंगे, एक हों, वरना हम तुम्हें गोली मार देंगे। हम ऐसे न तो मार्क्सवादी हो सकते हैं, न क्रांतिकारी और न तानाशाह। समीक्षक भले नसीहतें करते रहें। उनका वह काम है। लेकिन योग्य से योग्य समीक्षक ने भी कोई बहुत अच्छी कहानी, कविता या उपन्यास लिखा हो, ऐसा नहीं हुआ। लिख-लिखकर ही समझता है हर लेखक। लिखें। बाक़ी पाठकों पर छोड़ें।
अवनीश: आपका बहुत-बहुत आभार।
* यह साक्षात्कार कुछ समय पहले अभिनव प्रसंगवश, रचनाकार एवं प्रेस मेन पर प्रकाशित हो चुका था, जिसके लिए हृदय से आभार।
* यह साक्षात्कार कुछ समय पहले अभिनव प्रसंगवश, रचनाकार एवं प्रेस मेन पर प्रकाशित हो चुका था, जिसके लिए हृदय से आभार।
An Interview with Dinesh Paliwal
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंshaandaar ...
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