काश! पूछता कोई मुझसे, सुख-दुख में हूँ, कैसी हूँ?
जैसे पहले खुश रहती थी, क्या मैं अब भी वैसी हूँ। - डा. शरद सिंह
रामवती की स्थिति भी काफी कुछ ऐसी ही है। समय से पहले बूढ़ी होने तथा सूखी नदी-सा चेहरा लिए दर-दर की ठोकरें खाने वाली ‘रामवती' का चरित्र जाने-माने कवि एवं प्रेसमेन के पूर्व साहित्य संपादक मयंक श्रीवास्तव जी ने करीने से गढ़ा है- ‘चेहरा लिए हुए फिरती है सूखी हुई नदी जैसा/ कभी हज़ारों में लगती थी सबसे प्यारी रामवती।' लेकिन प्रश्न यह है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि रामवती अब पहले जैसी नहीं रही? कवि ने जब भी यह बात जाननी चाही तो ‘कहते-कहते रुक जाती है कुछ बेचारी रामवती।' रुकना भी बहुत कुछ कह देता है-
जिस दिन वह बीमार पुरुष से ब्याही गई, उसी दिन से
कर बैठी थी विधवा होने की तैयारी रामवती।
और
बूढ़े अनुशासन ने इतना सख़्त लगा डाला पहरा
अपने नये-पुराने सारे सपने हारी रामवती।
यहाँ पर मुझे प्रसिद्ध कवयित्री मरीना त्स्वेवायेवा याद आ रही हैं। वह कहती हैं कि- ‘बहुत दूर की बात छेड़ता है कवि/ बहुत दूर की बात खींच ले जाती है कवि को।' शायद इसीलिए कवि मयंक श्रीवास्तव अपने परिचयात्मक ज्ञान का प्रयोग कर उसके वास्तविक सत्य को जान ही लेते हैं और शायद इसीलिए वह अपनी सांकेतिक भाषा में कह भी देते हैं कि रामवती का जीवन ‘बीमार पुरुष' और ‘बूढ़े अनुशासन' के कारण दुखमय हो गया है। आख़िर यह बीमार पुरुष कौन है? चिकित्सा विज्ञान के अनुसार जो पुरुष शारीरिक या मानसिक स्तर पर अस्वस्थ हो, बीमार पुरुष कहलायेगा। ‘पुरुष' कौन कहलायेगा? यहाँ पुरुष रामवती का पति है और यह पुरुष प्रधान समाज भी, जहाँ स्त्री को भोग की वस्तु मानकर सदियों से उसकी स्वतंत्रता और प्रसन्नता का हनन होता रहा है। परिणामस्वरूप रामवती के न केवल सपने और उम्मीदें टूटती हैं, बल्कि वह विक्षिप्तावस्था में पहुँचने के लिए भी बाध्य हो जाती है-
जब-जब भी गुज़री बस्ती से मन अपना विक्षिप्त लिए
मैंने देखा टेर रहे थे कई जुआरी रामवती।
कवि यहाँ पर सब कुछ देख रहा है- जुआरियों की नज़र और रामवती का जीवन-संघर्ष भी। रामवती का संघर्ष उन तमाम महिलाओं जैसा ही है जो भारतीय समाज में पुरानी पड़ चुकी व्यवस्थाओं-मान्यताओं से तो जूझ ही रही हैं, आधुनिक समय में अपने अधिकारों से भी कोसों दूर हैं। तिस पर भी उसका नैतिक पतन नहीं हुआ, यह बहुत महत्त्वपूर्ण है- ‘मर्यादा की एक पुजारिन है यह नारी रामवती।' इसलिए भी कि जहाँ मयंक जी ने अपने इस संग्रह में आज की सड़ी-गली व्यवस्था और स्त्री दुर्दशा के तमाम पहलुओं को उजागर किया है, वहीं उन्होंने यह सकारात्मक संकेत भी दिया है कि जीवन तभी सुंदर है, जब यह मर्यादित होता है। और यह मर्यादा या कहें जीवनमूल्य सिर्फ स्त्रियों के लिए ही नहीं है, बल्कि उन सभी के लिए ज़रूरी है जो जीवन को सुंदर बनाना चाहते हैं।
इस संग्रह में मयंक जी एक पत्नी की कथा-व्यथा के साथ एक माँ की तस्वीर भी उकेरते हैं। माँ, जिसे चिंता है अपने बच्चों के भावी जीवन की- ‘बच्चों के भावी जीवन से डरी हुई है मेरी माँ/ ज़िंदा होकर भी लगती है मरी हुई है मेरी माँ।' माँ जानती है कि बच्चे राष्ट्र का भविष्य होते हैं। किंतु अब हालात बदल गए हैं। देश में अराजकता एवं कुशासन का बोलबाला है। अंधों-बहरों की जमात बढ़ती चली जा रही है। इन बदले हालातों में माँ को उनका भविष्य सुरक्षित दिखाई नहीं दे रहा है - ‘कोई नहीं सुनेगा तेरी अब मत और पुकार नदी' और ‘मौसम का दिल तो पत्थर से और अधिक हो गया कड़ा / इसके आगे अश्रु बहाना है तेरा बेकार नदी।' यह तो संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। कवि को लगने लगा है कि अब एक ही रास्ता बचा है- वह है सशस्त्र क्रांति का, क्योंकि बात से बात बनने की संभावना बहुत कम रह गयी है और नदी और नारी दोनों की अस्मिता बचाए रखने के लिए यह बेहद ज़रूरी है। इसीलिए वह नारी शक्ति का आवाहन करता है-
तुझको अपनी इज़्ज़त की रक्षा खुद ही करनी होगी
इसके लिए थामने होंगे हाथों में हथियार नदी।
सशस्त्र क्रांति कितनी सही होगी, यह तो समय की बात है। लेकिन यह संकेत तो कवि दे ही रहा है कि अब महिलाओं को स्वयं ही आगे आना होगा, उन्हें स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़नी होगी। नारी शक्ति में अटूट विश्वास रखते हुए कवि उसे बड़े आदर एवं श्रद्धा के साथ देखता है-
यह लहर है, यह भँवर है, यह किनारा है
नाव है, लेकिन कहीं मँझधार है औरत।
+ + +
एक मंदिर, एक पूजा, एक श्रद्धा है,
एक प्रतिमा का लिए आकार है औरत।
+ + +
एक पर्वत, एक चोटी, एक तिनका है,
एक आँगन एक देहरी द्वार है औरत।
यहाँ कवि कहना चाहता है कि नारी शक्ति को आशा और विश्वास बनाये रखकर प्रयास करते रहना है, उसे निराश तो क़तई नहीं होना है। यहाँ पर मुझे वरिष्ठ कवि राम सेंगर की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
छुप-छुपकर रोना मत
ओ रे क़ंदील
पिघलेगी दुख की यह जमी हुई झील।
इस ग़ज़ल संग्रह में मयंक जी ने ख्यात गीतकवि कैलाश गौतम की तरह ही कई जीवंत चरित्रों को गढ़ा है- रामरतन, नीलकंठ, चंपा, चौधरी, रामवती आदि। ये चरित्र हमारे ही समाज के प्रतिनिधि हैं और हमारे बारे में ही बहुत कुछ कह रहे हैं। एक जगह यह कवि चंपा का चरित्र-चित्रण करता है और उसी के माध्यम से देश के बीमार होने की बात कहता है-
हो गया है देश ही बीमार जब अपना
कौन आये देखने बीमार चंपा को।
इस पुस्तक में ग़ज़लकार ने न केवल देश और समाज की वर्तमान स्थिति का चित्रण किया है, बल्कि उसने इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए भी जरूरी संकेत दिये हैं- ‘इन हाथों ने पेड़ बहुत काटे/ पेड़ लगाने की कुछ बातें हों' और ‘प्यार बहुत है मान लिया लेकिन/ प्यार जताने की कुछ बातें हों।' पेड़ लगाने और प्यार जताने के कई अर्थ हैं, इसे समझना पड़ेगा। कवि ने अन्य कई मुद्दों पर भी बात की है- 'घर-द्वार', 'गाँव-खेत-खलिहान', 'पीपल-आम-बबूल', 'लड़की-खिड़की', 'नगर-डगर', 'बेटा-बेटी, 'भूख', 'बेबसी', 'बोरोज़गारी', 'महँगाई', 'ग़रीबी', 'धर्म', 'दर्शन', 'राजनीति', 'इतिहास', 'भूगोल' आदि। एक सहज रचनाकार के रूप में वह इन सब का सटीक वर्णन करना भी जानता है-
कोमल और हरे पत्तों का गिरना बंद नहीं होता
देख चुका है अब तक लेकर हर करवट पीपल का पेड़।
मयंक श्रीवास्तव जी अपने समय के साक्षी तो हैं ही, वह अपने आसपास के सन्नाटे को भी अपने ढंग से तोड़ते दिखाई पड़ते हैं। यही बात सैयद रियाज़ रहीम के एक शेर में भी दिखाई पड़ती है, किन्तु मुझे लगता है कि मयंक जी उससे आगे की बात कह रहे हैं। देखिए-
सैयद रियाज़ साहब कहते हैं-
कब तक एक ही मंज़र देखें, कब बदलेगा मंज़र यार
सन्नाटों के इस सागर में, कोई तो फेंके कंकर यार।
जबकि मयंक जी कहते हैं-
ज़िंदगी का तुम्हें असली पता मिल जाएगा
मेरी ग़ज़लों को तरन्नुम में तो गाकर देखो।
+ + +
कब तक एक ही मंज़र देखें, कब बदलेगा मंज़र यार
सन्नाटों के इस सागर में, कोई तो फेंके कंकर यार।
जबकि मयंक जी कहते हैं-
ज़िंदगी का तुम्हें असली पता मिल जाएगा
मेरी ग़ज़लों को तरन्नुम में तो गाकर देखो।
+ + +
मुझमें लहरा रहे सागर का संग चाहो तो
दिल में एक प्यार का पौधा तो उगाकर देखो।
ख्यात कवि मयंक श्रीवास्तव जी की ये गजलें मंगलमय जीवन जीने के लिए प्यार और सहकार की भावनाओं को उकसाती-जगाती प्रतीत होती हैं। इन रचनाओं के माध्यम से ग़ज़लकार भारतीय जीवन-मूल्यों को अनुप्राणित कर देश-दुनिया के उज्ज्वल भविष्य की कामना तो करता ही है, मानव-समाज को सजगता, जागरूकता एवं पुरुषार्थ का अद्भुत संदेश भी देता है, कुछ-कुछ बाबा रामदेव की तरह ही, जो कहा करते हैं- ‘जिस देश के लोगों में इतिहास के प्रति गौरव व स्वाभिमान और पुरुषार्थ व भविष्य के प्रति आशा नहीं होती, वह देश नष्ट हो जाता है।' कुल मिलाकर यह संग्रह बेहद पठनीय है।
दिल में एक प्यार का पौधा तो उगाकर देखो।
ख्यात कवि मयंक श्रीवास्तव जी की ये गजलें मंगलमय जीवन जीने के लिए प्यार और सहकार की भावनाओं को उकसाती-जगाती प्रतीत होती हैं। इन रचनाओं के माध्यम से ग़ज़लकार भारतीय जीवन-मूल्यों को अनुप्राणित कर देश-दुनिया के उज्ज्वल भविष्य की कामना तो करता ही है, मानव-समाज को सजगता, जागरूकता एवं पुरुषार्थ का अद्भुत संदेश भी देता है, कुछ-कुछ बाबा रामदेव की तरह ही, जो कहा करते हैं- ‘जिस देश के लोगों में इतिहास के प्रति गौरव व स्वाभिमान और पुरुषार्थ व भविष्य के प्रति आशा नहीं होती, वह देश नष्ट हो जाता है।' कुल मिलाकर यह संग्रह बेहद पठनीय है।
..................................................................
पुस्तक : रामवती (ग़ज़ल संग्रह), कवि : मयंक श्रीवास्तव, प्रकाशन वर्ष : प्रथम संस्करण- 2011, मूल्य : रुo 120/-, प्रकाशक : पहले पहल प्रकाशन, 25-ए, प्रेस काम्प्लेक्स , एम् पी नगर, भोपाल, म.प्र. , दूरभाष : 09425011789
..................................................................
अवनीश सिंह चौहान
Ramvatee by Mayank Sreevastav. Revised in Nov 2020
Ramvatee by Mayank Sreevastav. Revised in Nov 2020
Mayank Ji ki is lajawab kriti se milwane ka abhar ... Lajawab sameeksha hai ...
जवाब देंहटाएं