अंतर्मुखी, सहज एवं मिलनसार अवधेश सिंह का जन्म 4 जनवरी 1959 को इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश, भारत) में हुआ । पिता स्वर्गीय बेनी प्रसाद सिंह का कानपुर शहर में अपना व्यवसाय था, जबकि माता सोमा देवी एक धार्मिक व सामाजिक सरोकार से जुड़ी महिला थीं। आपने विज्ञान स्नातक , मार्केटिंग मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा, बिजनिस एडमिनिस्ट्रेशन में परास्नातक तक शिक्षा प्राप्त की है । अंतररास्ट्रीय ख्याति प्राप्त व अंतर्राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संचालित करने वाली संस्थान "एडवांस लेवल टेलिकॉम ट्रेनिंग सेंटर", गाज़ियाबाद व "भारत रत्न भीम राव अंबेडकर इंस्टिट्यूट आफ टेलिकॉम ट्रेनिंग, जबलपुर से टेलिकॉम तकनीकी पर स्विचिंग टेक्नोलाजी, ट्रांसमिशन, डाटा व आई टी अनालिसिस, वेब एंड इंट्रीग्रेटेड नेट्वर्किंग पर संस्थागत प्रशिक्षण व कोर्सेज प्राप्त किये । वर्तमान में आप सीनियर एक्जीक्युटिव पद पर भारत संचार निगम लिमिटेड के कार्पोरेट आफिस नयी दिल्ली में कार्यरत हैं। आपका सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ाव रहा है। वर्तमान में आप बेनी प्रसाद स्मृति इंस्टिट्यूट आफ स्टडीज एंड कम्युनिकेशन [पंजीकृत] एन जी ओ के माध्यम से संचार साहित्य व शिक्षा से जुड़े सामाजिक कार्यों को कर रहें हैं जिसके अंतर्गत निशुल्क महिला कंप्यूटर शिक्षा केंद्र कानपुर जनपद में विगत 2005 से चल रहा है। 1972 में आकाशवाणी में आपकी पहली कविता प्रसारित हुई, तब आपकी आयु तेरह वर्ष की थी। स्कूल, विद्यालय से कालेज स्तर तक लेख, निबंध, स्लोगन, कविता लिखने का एक क्रम नयी कविता, गीत, नवगीत, गज़ल, शब्द चित्र, गंभीर लेख, स्वतन्त्र टिप्पड़ीकार, कला व साहित्य समीक्षा की विधाओं के साथ आज तक निर्बाध जारी है। अस्सी- नब्बे के दशक में रचनाएँ व रिपोर्ट आदि दैनिक जागरण, दैनिक आज, साप्ताहिक हिदुस्तान, धर्मयुग आदि में प्रकाशित हुए। प्रख्यात साहित्यकार प्रतीक मिश्र द्वारा रचित " कानपुर के कवि" एक खोजपूरक दस्तावेज में आपकी प्रतिनिध काव्य रचनाएँ व जीवन परिचय का संग्रह 1990 में किया गया। दूरदर्शन शिमला, आकाशवाणी तथा स्थानीय मंचों पर काव्य पाठ के साथ विभागीय राज-भाषा कार्यों में संलग्नता नें आपके भीतर हिदी साहित्य की उर्जा का लगातार उत्सर्जन किया। वर्तमान में कई नेट व प्रिंट पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ प्रकाशित हो रहीं हैं । संपर्क: फ्लैट-21, पाकेट- 07, सेक्टर- 02, अवंतिका, नई दिल्ली-85।
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
हमारे अपने
रिश्तों को
बसंत ऋतु में
अक्सर..
पहचान
मिलती है
अपने-
बसंत ऋतु में
अक्सर..
पहचान
मिलती है
अपने-
पहचाने को
फूलों - काँटों
हरियाली - सुगंध
के धरातल पर रख
हम अक्सर
नयी पहचान
नए प्रतीकों से
चिन्हित करते हैं ,
अपरचित
फूलों - काँटों
हरियाली - सुगंध
के धरातल पर रख
हम अक्सर
नयी पहचान
नए प्रतीकों से
चिन्हित करते हैं ,
अपरचित
बेगानों
में टटोलतें है
तुलनात्मक सम्बन्ध
कुछ नए परहेज
कुछ पुराने प्रतिबन्ध
प्यार के
जुड़ते- टूटते
रिश्ते अनुबंध
जिसे हम अंततः
बसंत ऋतु में
अक्सर परखते हैं
में टटोलतें है
तुलनात्मक सम्बन्ध
कुछ नए परहेज
कुछ पुराने प्रतिबन्ध
प्यार के
जुड़ते- टूटते
रिश्ते अनुबंध
जिसे हम अंततः
बसंत ऋतु में
अक्सर परखते हैं
चखते हुए
वेलेनटाइन प्रेम
(2)
फटी जेब में
(2)
फटी जेब में
सहेजे सिक्कों
की तरह
हम अक्सर
ही खोते हैं
अपनेपन के
ऋतु मधुबन के
प्राप्त सहेजे
अनगिनत आलिंगन
लापरवाह बादल-सा
की तरह
हम अक्सर
ही खोते हैं
अपनेपन के
ऋतु मधुबन के
प्राप्त सहेजे
अनगिनत आलिंगन
लापरवाह बादल-सा
यह मन
जेठ की भरी
दुपहरी सी
इच्छाओं की
गर्म भट्टी में झोंक
कहीं उड़ जाता है
कभी प्रवासी
बादल मन
अनायास
जेठ की भरी
दुपहरी सी
इच्छाओं की
गर्म भट्टी में झोंक
कहीं उड़ जाता है
कभी प्रवासी
बादल मन
अनायास
बिंदास
सावन-सा
सावन-सा
आ धमक
स्वतः बरस
भी जाता है
स्नेह की आस में
बसंत ऋतु में
यूँ टूटते हैं मन
यूँ छूटते हैं मन
(3)
आँखों में देखे
स्वतः बरस
भी जाता है
स्नेह की आस में
बसंत ऋतु में
यूँ टूटते हैं मन
यूँ छूटते हैं मन
(3)
आँखों में देखे
सपनो को
सच करती
प्रत्येक सुबह
रोज ही
हरी दूब
पर बिखराती
है चाँदी-सी परत
परिपक्व संबंधों
में पोर-पोर डूबी
यह मोहक सांझ
रोज ही
रिश्तों के उगे
पेड़ों की
हर डाली -शाखा
को देती है
सुनहले
सच करती
प्रत्येक सुबह
रोज ही
हरी दूब
पर बिखराती
है चाँदी-सी परत
परिपक्व संबंधों
में पोर-पोर डूबी
यह मोहक सांझ
रोज ही
रिश्तों के उगे
पेड़ों की
हर डाली -शाखा
को देती है
सुनहले
सोने की
सौगात
मन बसंत के
कंजूस पन ने
क्यों रोक दिए
सारे समर्पण
भूल गए अपनाना
अपना कहना
शायद
धुंधला पड़ा
है वर्षों से
मन कंजूस की
पोटली में बंधा
मटमैला मन दर्पण
खोले इसे
करने अपना
सब कुछ
प्रेम को अर्पण
(4)
लाने संबंधों
सौगात
मन बसंत के
कंजूस पन ने
क्यों रोक दिए
सारे समर्पण
भूल गए अपनाना
अपना कहना
शायद
धुंधला पड़ा
है वर्षों से
मन कंजूस की
पोटली में बंधा
मटमैला मन दर्पण
खोले इसे
करने अपना
सब कुछ
प्रेम को अर्पण
(4)
लाने संबंधों
की बहार
सावन की
रिमझिम बयार
प्रकृति के
नैसर्गिक उपहार
बसंत ऋतु में
शब्दों की कुदाली
ने खोद डाली
अनुभूतियों की
हर बंजर धरती
वर्षो से
बिन बोये
जो पड़ी है
सूखी परती
विश्वास के
बीज गाड़
आंसुओं ने
सींचा यह मन
बन ही गया
फसलों का
वातावरण
खिल गया
जीवन उपवन
महक गया
प्रेम का मधुबन
सावन की
रिमझिम बयार
प्रकृति के
नैसर्गिक उपहार
बसंत ऋतु में
शब्दों की कुदाली
ने खोद डाली
अनुभूतियों की
हर बंजर धरती
वर्षो से
बिन बोये
जो पड़ी है
सूखी परती
विश्वास के
बीज गाड़
आंसुओं ने
सींचा यह मन
बन ही गया
फसलों का
वातावरण
खिल गया
जीवन उपवन
महक गया
प्रेम का मधुबन
लाजवाब रचनाएं हैं सभी ...
जवाब देंहटाएंहोली की मंगल कामनाएं ..
सुन्दर कविताएँ.......
जवाब देंहटाएंप्रभावी सोच...बधाई....