पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) के मनोरम प्राकतिक वातावरण में जन्मी (जन्म तिथि 27 जून 1955) और पली-बढीं आ. पूर्णिमा वर्मन जी को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। मिर्ज़ापुर और इलाहाबाद में निवास के दौरान इसमें साहित्य और संस्कृति का रंग आ मिला। इलाहाबाद से लखनऊ और फिर यूएई में प्रवास। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती। आपने संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि सहित पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था, जो आजतक साथ है। भारतीय संस्कृति और हिन्दी की पहचान और सम्मान को बनाये रखने के लिए सराहनीय अवदान करने वाली पूर्णिमा जी के जीवन का मुख्य उद्देश्य जीव मात्र से प्रेम और उसके कल्याण के लिए पत्रिकारिता के माध्यम से निरंतर कार्य करते रहना है।
पिछले पचीस सालों में लेखन, संपादन, फ्रीलांसर, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कला कर्म में व्यस्त। आप एक अच्छी नवगीतकार है और आपने हिन्दी गीत और नवगीत के क्षेत्र में भी नवगीत की पाठशाला और अनुभूति के माध्यम से उल्लेखनीय कार्य किया है। आपकी प्रकाशित कृतियाँ: वक्त के साथ (कविता संग्रह) और वतन से दूर (संपादित कहानी संग्रह)। चिट्ठा : चोंच में आकाश, एक आँगन धूप, नवगीत की पाठशाला,शुक्रवार चौपाल, अभिव्यक्ति अनुभूति। आपकी कई रचनाओं- फुलकारी (पंजाबी में), मेरा पता (डैनिश में), चायखाना (रूसी में) आदि का अनुवाद हो चुका है।
वेब पर हिंदी को लोकप्रिय बनाने के अपने प्रयत्नों के लिए आपको 2006 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान, 2008 में रायपुर छत्तीसगढ़ की संस्था सृजन सम्मान द्वारा हिंदी गौरव सम्मान, दिल्ली की संस्था जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मान तथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पद्मभूषण डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से विभूषित किया जा चुका है। संप्रति: शारजाह, संयुक्त अरब इमारात में निवास करने वाली पूर्णिमा वर्मन हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के अनेक कार्यों से जुड़ी होने के साथ साथ हिंदी विकिपीडिया के प्रबंधकों में से भी एक हैं। संपर्क : abhi_vyakti@hotmail.com
1. दर्द हरा है
टुकड़े-टुकड़े टूट जाएँगे
मनके-मनके
दर्द हरा है
ताड़ों पर सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ
जली दूब-सी, तलवों में
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
गुलमोहर-सी जलती हैं
बागी़ ज्वालाएँ
देख-देख कर हँसती हैं
ऊँची आशाएँ
विरह-विरह-सी भटक रहीं
आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है।
2. सच में बौनापन
जीवन की आपाधापी में
खोया-खोया मन लगता है
बड़ा अकेलापन लगता है
दौड़ बड़ी है
समय बहुत कम
हार जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है
चैन कहाँ
अब नींद कहाँ है
बेचैनी की यह दुनिया है
मर-खप कर के जितना जोड़ा
कितना भी हो
कम लगता है
सफलताओं का
नया नियम है
न्यायमूर्ति की जेब गरम है
झूठ बढ़ रहा, ऐसा हर पल
सच में
बौनापन लगता है
खून-ख़राबा
मारा-मारी
कहाँ जाए जनता बेचारी
आतंकों में शांति खोजना
केवल पागलपन
लगता है।
3. राजतंत्र की हुई ठिठोली
सडकों पर हो रही सभाएँ
राजा को धुन रही व्यथाएँ
अखबारों में छपी कथाएँ
दुनिया को मथ रही हवाएँ
4. माया में मन
दिन भर गठरी कौन रखाए
माया में मन कौन रमाए
दुनिया ये आनी जानी है
ज्ञानी कहते हैं फ़ानी है
चलाचली का खेला है तो
जग में डेरा कौन बनाए
कुछ ना जोड़े संत-फ़कीरा
बेघर फिरती रानी मीरा
जिस समरिधि में इतनी पीड़ा
उसका बोझा कौन उठाए।
ताड़ों पर सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ
जली दूब-सी, तलवों में
चुभती यात्राएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
गुलमोहर-सी जलती हैं
बागी़ ज्वालाएँ
देख-देख कर हँसती हैं
ऊँची आशाएँ
विरह-विरह-सी भटक रहीं
सब प्रेम कथाएँ
आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है।
2. सच में बौनापन
जीवन की आपाधापी में
खोया-खोया मन लगता है
बड़ा अकेलापन लगता है
दौड़ बड़ी है
समय बहुत कम
हार जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है
चैन कहाँ
अब नींद कहाँ है
बेचैनी की यह दुनिया है
मर-खप कर के जितना जोड़ा
कितना भी हो
कम लगता है
सफलताओं का
नया नियम है
न्यायमूर्ति की जेब गरम है
झूठ बढ़ रहा, ऐसा हर पल
सच में
बौनापन लगता है
खून-ख़राबा
मारा-मारी
कहाँ जाए जनता बेचारी
आतंकों में शांति खोजना
केवल पागलपन
लगता है।
3. राजतंत्र की हुई ठिठोली
सडकों पर हो रही सभाएँ
राजा को धुन रही व्यथाएँ
प्रजा कष्ट में, चुप बैठी है-
सत्ता अपने में ऐंठी है
पीड़ा जब सिर चढ़कर बोली
बड़े-बड़ों की कुर्सी डोली
अखबारों में छपी कथाएँ
दुनिया-भर में आग लगी है
हिटलर की फिर वाट लगी है
सहनशीलता थक कर टूटी
अहंकार की चिटकी बूटी
दुनिया को मथ रही हवाएँ
जाने कहाँ समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की ऐसी
सड़कों पर बंदूकों जैसी
शासक की नौकर सेनाएँ।
4. माया में मन
दिन भर गठरी कौन रखाए
माया में मन कौन रमाए
दुनिया ये आनी जानी है
ज्ञानी कहते हैं फ़ानी है
चलाचली का खेला है तो
जग में डेरा कौन बनाए
कुछ ना जोड़े संत-फ़कीरा
बेघर फिरती रानी मीरा
जिस समरिधि में इतनी पीड़ा
उसका बोझा कौन उठाए।
Four Hindi Poems of Purnima Varman
बहुत शानदार रचनाएँ
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कल्पना जी
हटाएंबहुत सुन्दर और यथार्थवादी रचनाएं...पूर्णिमा जी आपको शुभकामनाएं....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंपूर्णिमा वर्मन का हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार और प्रसार के लिए किया गया योगदान हिन्दी प्रेमियों के मध्य जगजाहिर है। नवगीत को और अधिक लोकप्रिय बनाने और नवा्ान्तुक नवगीतकारों को सही दिशा देने के लिए भी आप एक ईमानदार कोशिश में जुटी हुई हैं। यहाँ प्रकाशित उनके नवगीतों के लिए हार्दिक वधाई।
जवाब देंहटाएंआपके प्रेरणादायक शब्दों और बधाई के लिये हार्दिक आभार।
हटाएंबहुत ही लाजवाब नव गीत सभी ...
जवाब देंहटाएंपूर्णिमा जी जो योगदान है हिंदी भाषा के प्रचार और प्रसार में ... उनकी लगन और मेहनत का तो जवाब नहीं है ...
सम्मति और सहयोग के लिये आभार
हटाएंबार बार पढ़ने को जी करता है ऐसे अद्भुत गीत. कभी कभी लगता है, आप समय से जिस तरह बात कर रही हैं, वह मजबूर हो जायेगा बदलने के लिए. बाहर बहुत बधाई आ पूर्णिमा जी इन गीतों की यात्रा पर ले जाने के लिए. अवनीश जी आपका आभार इन गीतों से पुनः रूबरू करने के लिए.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद परमेश्वर जी
हटाएंपूर्णिमा जी के इन नवगीतों में मन में उठते राग -विराग के साथ साथ सामाजिक विसंगतियों के प्रति चिंता की भावना है | सत्यम् शिवम् सुन्दरम की कामना करते हुए यह नवगीत मन को गहराई तक छू गए | बधाई |आभार पूर्वाभास |
जवाब देंहटाएंआपके सुंदर शब्दों को लिये आभार शशि
हटाएंnav geet likhne aapka javab nahi bhav bhasha sabhi kuchh kamal
जवाब देंहटाएंbahut bahut badhai
rachana
इन सुंदर शब्दों के लिये धन्यवाद रचना
हटाएंshaandaar
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मोहिनी जी
हटाएंमन-मोहल नवगीत
जवाब देंहटाएंबधाई पूर्णिमा दी ..
बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंसभी गीत बेजोड हैं 'मगर दर्द हरा है 'और ' माया मे मन 'विशिष्ट रूप से पसंद आये आपने हिंदी भाषा को जो सेवा प्रदान की वह सराहनीय है ...मोहक गीतों के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंचारो गीतों को पढ़ते हुये लगा कि जीवनपथ के सूक्ष्म निरीक्षण एवं सम्पूर्ण अनुभवों से निमज्जित होकर दर्शन को काव्य की सरस धारा में अनुभूति के आचमन तथा अप्रतिम आनन्द के साथ पाठक के अंत: चक्षुओं में लोकदृष्टि का अंजन लग गया हो..
जवाब देंहटाएं.. लोकसरोकार के साथ माधुर्य की चासनी में पगे गीत - नवगीतों की प्रासंगिकता को नमन
१- दर्द हरा है पढ़ते हुये लगता है कि जीवनपथ की विसंगतियों की अनुभूतिे मानव मन को सत्य से सहज ही साक्षात्कार करा देती है और वह पीड़ा निरपेक्ष हो सहज ही कह उठता है
..
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
२. सच में बौनापन - आज के बिडम्बनापूर्ण सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य पर कवि की संवेदनशील अंतर्द्रष्टि लोक सरोकार हेतु.. सत्ता के उत्तरदायी शासकों के प्रति व्यंग्य सहित भावों की धारा फूट पड़ती है और
झूठ बढ़ रहा-
ऐसा हर पल
सच में
बौनापन लगता है
खून-ख़राबा
मारा-मारी
कहाँ जाए
जनता बेचारी
आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन
लगता है।
३. राजतंत्र की हुई ठिठोली गीत में जीवन के चरम सत्य की ओर ध्यान अकृष्ट करते हुये कवि शासकों को उनके उत्तरदायित्व्व के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से जीवन दर्शन की अनिश्चितता से आगाह करते हुये.. वह लोकदायित्व के प्रति सचेत करता है
जाने कहाँ
समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की चलती
सड़कों पर बंदूक टहलती
शासक की-
नौकर सेनाएँ।
४. माया में मन .. संभवत: संवेदनशील कवि का मन अपने भाव सर में नित आचमन करते हुये जीवन के उस चरम सत्य का साक्षात्कार सहजता से कर लेता है। यह प्रेतीति ही उसे अनजाने आयाम की ओर प्रेरित करने लगती है और अंतस से गीत अंकुरित होता है ..
माया में मन कौन रमाए
दुनिया ये आनी जानी है
...
इतनी पीड़ा
उसका बोझा कौन उठाए
माया में मन कौन रमाए।
..
सादर
इस विस्तृत व्याख्या के लिये हार्दिक आभार श्रीकांत जी, आपने इतने ध्यान से पढ़ा यह मेरे लिये बहुत सम्मान की बात है।
हटाएंचारों गीत अप्रतिम. क्या शिल्प, क्या कथ्य, क्या विम्ब, सब कुछ सुदर्शन. पढ़ कर लगा कि ऐसा ही तो मैं लिखना चाहता हूँ. बधाई और धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंBadhayee. Hindi font chal nahee raha tha is liye angrejee font mein pratikriya de raha hoon. Pradeep Mishra
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंआदरणीय पूर्णिमा दी ...क्या लिखूँ...हमको तो पता ही न था कि किस सागर से मिल रही हूँ मैं ...भावों का अथाह सागर आपकी रचनाएँ बहुत ज्यादा प्रभावित कर गईं हैं मन को ..ऐसी छाप बहुत दिनों बात पड़ी है हम पर .....वाह कमाल है ....!!
जवाब देंहटाएंआँखों ने
ये क्या पढ़ लिया ..!!
जिसको देखा ही नहीं ,
जिसको कभी सुना भी नहीं ..
उसके लिए ह्रदय पृष्ठ पर ..
उपन्यास गढ़ लिया ...!!
फूटता है ज्वार अनायास
भावों का दौर दौड़ पड़ता है ...
तुम्हारी ओर..
थामे डोर ..!!
मन का बुरा हाल है ...
कमाल है ...!!
आदरणीय पूर्णिमा दी ...क्या लिखूँ...हमको तो पता ही न था कि किस सागर से मिल रही हूँ मैं ...भावों का अथाह सागर आपकी रचनाएँ बहुत ज्यादा प्रभावित कर गईं हैं मन को ..ऐसी छाप बहुत दिनों बात पड़ी है हम पर .....वाह कमाल है ....!!
जवाब देंहटाएंआँखों ने
ये क्या पढ़ लिया ..!!
जिसको देखा ही नहीं ,
जिसको कभी सुना भी नहीं ..
उसके लिए ह्रदय पृष्ठ पर ..
उपन्यास गढ़ लिया ...!!
फूटता है ज्वार अनायास
भावों का दौर दौड़ पड़ता है ...
तुम्हारी ओर..
थामे डोर ..!!
मन का बुरा हाल है ...
कमाल है ...!!
भावना बहुत दिनों से अतापता नहीं है आपका। इतने धैर्य से लंबा संदेश लिखने के लिये हार्दिक आभार
हटाएंकहां ढूंढ पाएंगे उसको
जवाब देंहटाएंजिसमें अपनापन लगता है ।
सारगर्भित और बहुत मुलायम से शब्द
नवगीतों में जान डाल दी आपने पूर्णिमा जी ।
बधाई । शुभकामनाएं ।
सुधा जी, सदा आपकी बधाई और आशीर्वाद मिलता रहे बस यही कामना है।
हटाएंPurnima Varman jee kii rachnaon se kaphi arse ke baad gujarna hua hai,unke nav geeton ne bahut gehre se man ko chhu liya hai,badhai.
जवाब देंहटाएंदौड़ बड़ी है
जवाब देंहटाएंसमय बहुत कम
हार जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है
.... कितनी सच्ची बात कह दी आपने....
चैन कहाँ
अब नींद कहाँ है
बेचैनी की यह दुनिया है
मर खप कर के-
जितना जोड़ा
कितना भी हो
कम लगता है
....सचमुच...
खून-ख़राबा
मारा-मारी
कहाँ जाए
जनता बेचारी
आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन
लगता है। ....
हर एक पंक्ति बेजोड़..
Adbhut kavitayein hain
जवाब देंहटाएंकविताएं हृदयस्पर्शीय हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत मनभावन नवगीत! बधाई- पूर्णिमा जी ..
जवाब देंहटाएं.डॉ सरस्वती माथुर
दौड़ बड़ी है
जवाब देंहटाएंसमय बहुत कम
हार जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है.............पूर्णिमा जी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
शानदार ..दिल की गहराइयों से निकली परत दर परत पढ़ कर एक सुखद अहसास हुआ ....
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शीय रचनाएं हैं। पूर्णिमा जी ढेरों बधाई!
जवाब देंहटाएंआपकी कवितायेँ पढ़ता रहता हूँ |यह भी बहुत ही उत्कृष्ट रचनाएँ हैं |
जवाब देंहटाएंhttp://srishtiekkalpana.blogspot.in/
पूर्णिमा जी!प्रिंट माध्यम में उपेक्षित छंदों की अंतर्जाल पर वापसी में आपका योगदान उल्लेखनीय है। संभवतः स्वयं भी छंद विधा पर पकड़ होने और उसकी उपेक्षा न सह पाने के कारण उसकी वापसी के लिए अकुलाई होंगी। वह अकुलाहट नाना रूपों में आपके नवगीतों में अभिव्यंजित हुई है। गीत और नवगीत प्रायः अन्तर्मन की अभिव्यक्ति ही होते हैं। यह रचनाकर पर है कि वह निज को कितना समाज को अर्पित करता है। समाज को जितना वह अपने को सौंपता है उसी अनुपात में उसके गीतों में लोक स्थान पाता है। इस दृष्टि से 'दर्द हरा है'शीर्षक गीत में कवयित्री ताड़ों पर से आती गरम हवाओं के रुख को बदलने के लिए ,"गुलमोहर-सी जलती है
जवाब देंहटाएंबागी़ ज्वालाएँ"लेकर सामना करने के लिए कटि बद्ध है-
"सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ
जली दूब-सी
तलवों में चुभती
यात्राएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ"। इन दुर्घटनाओं से आहत हो जाने से ही ,"आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का"। यह ज़ख्म जितनी गीतकार के भीतर के दाह के कारण है उतना ही सामाजिक जलन के ताप के बाहरी कारण से भी ।
जीवन की आपाधापी में कवयित्री मानव मन की लाभ-लोभ की अनावश्यक वृत्ति पर क्षुब्ध है।इन पंक्तियों में कबीर की 'जागै अरु रोवै'जैसी -सी बेचैनी देखी जा सकती है "चैन कहाँ
अब नींद कहाँ है।"जितना पैसा उतना बढ़ता लोभ । इंसानी जीवन की इस अतृप्ति पर क्षोभ यहाँ देखा जा सकता है-
कितना भी हो
कम लगता है"।
शायद लोभ की इसी वृत्ति के कारण मानव जीवन से उसका रस भरा अपनापन छिन गया है-"कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है।" कवयित्री ऐसी समृद्धि से ऊब गई है जिसमें अपनेपन का लेश नहीं। वह वर्तमान समृद्धि को सुखदायी कम पीड़ादायी अधिक पा रही है। सच भी है किसी भी दृष्टि से देखें भौतिक सुख -सुविधाएं पर्यावरण से लेकर मानव जीवन तक के सामने अनेक संकट खड़े कर रही हैं। ऐसे कायित्री के मन का इनसे विरक्त हो जाना अस्वाभाविक नहीं लगता-"इतनी पीड़ा
उसका बोझा कौन उठाए।"
यह परिस्थितियों से भागना नहीं बल्कि मानव जीवन से गहरी संवेदना के साथ जुडने के कारण है। -डॉ गंगा प्रसाद शर्मा'गुणशेखर',ग्वाङ्ग्ज़ाऊ,चीन ।
टुकड़े टुकड़े टूट जाएँगे मन के मनके दर्द हरा है
जवाब देंहटाएंवाह पूर्णिमा जी के शब्द आगाज़ कि पंक्ति से ही समां इस तरह बाँध लेटा है कि पाठक पढ़े बिना रह नहीं सकता.
बहुत ही सुंदर रचनायों के लिए बधाई पूर्णिमा जी
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पूर्णिमा जी के नवगीत बहुत अच्छे है बधाई
जवाब देंहटाएं