नचिकेता से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत
अवनीश सिंह चौहान— आपका मानना है कि आपके गीत-नवगीत अपना आकार स्वयं ले लेते हैं। इस दृष्टि से आपने किस अवस्था से और किन परिस्थितियों में गीत-नवगीत लिखना प्रारम्भ किया?
नचिकेता— गीत लिखने का आरम्भ मैंने बचपन में ही कर दिया था, बल्कि मेरे कवि-जीवन की शुरूआत ही गीत से हुई है और गीत मैं लिखता नहीं हूँ, वह स्वतःस्फूर्त ढंग से स्वयं लिख जाता है। हाँ, बचपन से ही लोकगीत की लय और धुनें रूपान्तरित होकर मेरे गीतों की लय और छन्दों का निर्माण करती रही हैं। पहले महादेवी वर्मा और रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' मेरे प्रिय गीतकार थे। मैं इन्हीं से प्रेरित होकर उत्तर छायावादी और मध्यवर्गीय परकीया प्रेम के रूमानी गीत लिखा करता था। दरअसल, तब तक मुझे आधुनिकताबोध की जानकारी तक नहीं थी और मेरा ज्ञान छायावाद-उत्तर छायावाद तक ही सीमित था। वर्ष 1967 में रामवृक्ष बेनीपुरी के सुपुत्र के सौजन्य से मुझे केदारनाथ अग्रवाल की कविता पुस्तक— ‘फूल नहीं, रंग बोलते हैं' पढ़ने के लिए मिली। इस पुस्तक ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैंने बाज़ार में उपलब्ध मुक्तछंद की कविताएँ और आलोचना की किताबें बारी-बारी से खरीदीं और पढ़ डाली, जिससे मेरा कायाकल्प हो गया। मैं आधुनिक साहित्य से और नवगीत से भी परिचित हुआ। गीत तो मैं लिखता ही था, आधुनिकताबोध और नवगीत-चिंतन को अपनी सीमाभर समझने के कारण और नवगीत की विशेषताओं और उपलब्धियों को आत्मसात करके मैं नवगीत लिखने लगा। मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि केदारनाथ अग्रवाल की कविता पुस्तक— ‘फूल नहीं, रंग बोलते हैं' को पढ़ना मेरे नवगीतकार-जीवन का ‘टर्निंग प्वाइंट' है तथा ओम प्रभाकर, रमेश रंजक, देवेन्द्र कुमार, नईम, उमाकांत मालवीय, माहेश्वर तिवारी, शिवबहादुर सिंह भदौरिया आदि नवगीतकारों की रचनाओं ने मेरे नवगीतकार के उदय और विकास में उत्प्रेरक का काम किया है, मेरे नवगीत-मानस का निर्माण भी इन्हीं नवगीतकारों की छाया तले हुआ है।
अवनीश सिंह चौहान— आपके नवगीत-मानस में आलोचना के बीज कब फूटे, यानी कि आप हिंदी आलोचना से कब और कैसे जुड़े? आज आप अपने आप को क्या मानते हैं— नवगीतकार या आलोचक? या दोनों?
नचिकेता— अवनीश जी, एक गाँठ बाँध लीजिए कि मैं आलोचक नहीं हूँ, शुद्ध रूप से नवगीतकार हूँ, केवल नवगीतकार। विज्ञान का विद्यार्थी रहने के कारण किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर कसे बिना आँखें मूँदकर चुपचाप मान लेना मेरी फितरत में नहीं है, कहने वाला व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा विद्वान व्यक्ति क्यों न हो। एक बात और जान लें कि नवगीत के प्रति हिन्दी साहित्य की उपेक्षा और अवमानना की वजह से वर्ष 1970 के अंत में मैंने पहली बार हिन्दी में ‘नवगीत से आद्यांत प्रतिबद्ध' पत्रिका, जिसके चार विशेषांक आठवें दशक में छपे, ‘अन्तराल' का सम्पादन-प्रकाशन किया। आठवें दशक में मृतप्राय नवगीत-चर्चा में नया रक्त-संचार इसी ‘अन्तराल' ने ही किया। चूँकि मेरा रुझान नवगीत से जनगीत की ओर हो गया और मुझे जनगीत का प्रवक्ता गीतकार मान लिया गया, इसलिए मेरे साथ ‘अन्तराल' को नवगीत-चर्चा से दरकिनाकर कर दिया गया, मुझे तो नवगीत की दुनिया से बाहर करना संभव नहीं हुआ, लेकिन ‘अन्तराल' को लोगों ने लगभग भुला दिया। मेरी दृष्टि में यह नवगीत-चिन्तकों की ओर से की गयी पहले दर्जे की बेईमानी है।
‘अन्तराल' के सम्पादन-क्रम में और नवगीत सम्बन्धी आलोचनाओें से गुजरते हुए मुझे हमेशा अहसास हुआ कि आलोचकों ने नवगीत के साथ न्याय नहीं किया है तथा नवगीत पर मनगढ़ंत आरोप मढ़े गये हैं। नवगीत के उदय से लेकर उसकी पहचान और परख के प्रतिमान गलत गढ़े गये हैं। मैंने हिन्दी आलोचना की संकीर्णताओं, गलत व्याख्याओं और मनगढ़ंत अरोपों का उत्तर कुछ अधिक तल्ख़ भाषा में दिया है, जब भी देता हूँ, संभव है कि इस प्रकार का मेरा लेखन आलोचना-कर्म दायरे में ही आता हो। हाँ, मैंने विधिवत और योजनाबद्ध तरीके से आलोचना-कर्म नहीं किया है।
अवनीश सिंह चौहान— कविता और गीत में मूलभूत अंतर क्या है? गीत की संरचना किस प्रकार की है और यह नवगीत से किस प्रकार से भिन्न है? नवगीत का उदय कब और कैसे हुआ? गीत-नवगीत के विकास में किन पत्रिकाओं और समवेत संकलनों का विशेष योगदान रहा है?
नचिकेता— कविता अगर मनुष्यता की मातृभाषा है, तो गीत मानवीय सम्वेदनाओं का अर्थसम्पृक्त अन्तः संगीत है। गीत एक आत्मपरक संरचना है, रागात्मकता, सहजता, सामूहिकता और लोकप्रियता गीत-रचना के अनिवार्य गुण हैं। इसमें सामाजिक अनुभव भी वैयक्तिक अनुभव के सांचे में ढलकर व्यक्त होता है, इसमें वस्तु से चेतना का और समाज से व्यक्ति के ऐतिहासिक संबंधों को अभिव्यक्ति मिलती है, इसलिए इसमें विचारधारा इसकी मूल्य-दृष्टि में अन्तर्निहित होती है और इसके रूपाकार में असीम व्यंजना और समग्रता का बोध होता है। चूँकि गीत तत्वतः सामाजिक होता है, इसलिए गीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में निहित मानवीयता की आवाज सुन पाता है। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि एक अच्छा और उदात्त गीत वह होता है जिसमें कवि अपनी भाषा में स्वयं को इस कदर विलीन कर देता है कि उसकी उपस्थिति का आभास नहीं होता और भाषा का अपना स्वर गीत में गूँजने लगता है। यह एक अति संक्षिप्त संरचना होती है, जिसमें वस्तुगत दुनिया और स्थितियों के विवरण और विश्लेषण में जाने की गुंजाइश बहुत कम होती है।
वैसे तो गीत कविता का सबसे आद्य रूप है और समयसापेक्ष, युगसापेक्ष और समाजसापेक्ष ढंग से गीत की मजबूत उपस्थिति मानव-सभ्यता के हर चरण में स्पष्ट दिखलाई देती है, लेकिन स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय समाज और हिन्दी साहित्य में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अत्यंत ही तीव्र हो गयी थी, जिससे साहित्य की प्रायः सभी विधाओं की प्रभावी और वैचारिक अर्न्तवस्तुओं में गुणात्मक तब्दीलियाँ आयीं। परिणामतः गीत की धरती पर भी परिवर्तन की लहर आई। इसलिए आधुनिकतावादी-अस्तित्ववादी जीवन-दृष्टि के प्रभाव और प्रवाह में लिखे गये गीत ही नवगीत है। नवगीत का उदय राजेन्द्र प्रसाद सिंह के सम्पादन में निकली पत्रिका ‘गीतांगिनी' के द्वारा हुआ, जिसे ओम प्रभाकर और भगीरथ भार्गव द्वारा सम्पादित ‘कविता-64' के जरिए स्थायित्व मिला। इसके बाद 'लहर', 'वासंती', 'कल्पना', 'वातायन' (हरीश भदानी), 'रश्मि' (मैथिलीवल्लभ परिमल और गोपीवल्लभ सहाय), 'गीत' (धूपेन्द्र कुमार स्नेहरी), 'अन्तराल' (नचिकेता), 'अंकन' (लक्ष्मीकान्त सरस), 'अथवा' (शान्ति सुमन), 'आईना' (राजेन्द्र प्रसाद सिंह), 'समग्र-चेतना' (राधेश्याम बन्धु), 'सान्ध्यमित्र' (वीरेन्द्र मिश्र), 'नये-पुराने' (दिनेश सिंह) आदि पत्रिकाओं के नवगीत-विशेषांकों तथा 'पाँच जोड़ बाँसुरी' (चन्द्रदेव सिंह), 'नवगीत-दशक' (तीन खण्ड) और 'नवगीत-अर्द्धशती' (शम्भुनाथ सिंह), 'सातवें दशक के उभरते नवगीकार- तीन खण्ड' (लक्ष्मीकान्त सरस), 'नवगीत एकादश' (भारतेन्दु मिश्र), 'नवगीत अर्द्धशती' (राजेन्द्र प्रसाद सिंह), 'धार पर हम'- दो भाग (वीरेन्द्र आस्तिक), 'गीत-संचयन' (कन्हैया लाल नंदन), 'नवगीतः नई दस्तकें' (निर्मल शुक्ल), 'गीत-नवांतर'- पाँच भाग (मधुकर गौड़) आदि गीत-नवगीत-संकलनों ने गीत-नवगीत के विकास में अपूर्व योगदान किया है। अन्य कई पत्र-पत्रिकाओं ने भी समय-समय पर विशेषांक निकाल कर गीत-नवगीत की विकास-यात्रा में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है।
अवनीश सिंह चौहान— आपने विपुल साहित्य रचा है। क्या आप अपनी सृजन-यात्रा से संतुष्ट हैं? यदि नहीं, तो अभी क्या करना शेष है?
नचिकेता— कोई रचनाकार अपनी सृजन-यात्रा से संतुष्ट हो गया तो समझिए कि उसके रचनाकार की मौत हो चुकी है। क्या आपको लगता है कि मेरे रचनाकार की मृत्यु हो चुकी है और मैं जीवित होने का केवल भ्रम पाले हुए हूँ? दरअसल इतना लिखने के बावजूद ईमानदारी से पूछें तो मैं कहूँगा कि जिस मुकम्मल नवगीत की अवधरणा मेरे मन- मस्तिष्क में है, वह तो अभी लिखा ही नहीं गया है, ये सारी रचनाएँ तो उसी तक पहुँचने की सीढ़ियाँ भर हैं।
अवनीश सिंह चौहान— नवगीत को समर्पित पत्रिकाएँ कौन-सी हैं और वे अपने आप में कितनी निष्पक्ष और पारदर्शी हैं? आज के अधिकांश नवगीतकारों के बारे में आपकी क्या राय है?
नचिकेता— मौजूदा समय में बिलकुल अनियमित रूप से निकलनेवाली पत्रिकाएँ— 'उत्तरायण' एवं 'समग्र-चेतना' और नियमित रूप से निकलनेवाली पत्रिकाएँ— 'संकल्प रथ', 'सार्थक', 'अनुभूति' (वेब) एवं ‘पूर्वाभास’ (वेब) को नवगीत की पत्रिकाएँ माना जा सकता है, लेकिन इनसे भी ऐतिहासिक रूप से कोई बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य की उम्मीद अभी नहीं की जा सकती, क्योंकि नवगीत के सम्पादक और रचनाकार निष्पक्ष और ईमानदार होते तो नवगीत की यह दुर्दशा नहीं होती। हिन्दी के अधिकांश नवगीतकार पिछलग्गू, दब्बू, मुँहदूबर, आत्मनिष्ठ, व्यक्तिवादी, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू, डरपोक, टाँगखींचू और ग़ैर-ईमानदार हैं, तभी तो उनके किये का अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ता। मैं निम्न मध्यवर्ग का आदमी हूँ, मुझे ‘इन्टरनेट हैण्डिल' करना नहीं आता, इसलिए ई-पत्रिकाओं से मैं पूरी तरह नावाकिफ़ हूँ, इसलिए उनकी पारदर्शिता और निष्पक्षता के मूल्यांकन के लिए मैं अधिकारी व्यक्ति नहीं हूँ।
अवनीश सिंह चौहान— परिवर्तन और नवाचार दोनों ही साहित्य पर प्रभाव डालते हैं और साहित्य द्वारा प्रभावित भी होते हैं। उक्त सन्दर्भ में गीत, जनगीत एवं नवगीत की क्या भूमिकाएँ हैं?
नचिकेता— आपकी यह बात सोलहों-आने सच है कि सामाजिक परिवर्तन और नवाचार दोनों का साहित्य पर कमोवेश असर ज़रूर होता है। अब आप ही बताइए कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय समाज में आये आधुनिकीकरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न नवगीत का 'नव' विशेषण का आज इक्कीसवीं सदी के गीतों को पहचानने-परखने के लिए औचित्य क्या है? इसी प्रकार से आज जनगीत में ‘जन' विशेषण की आवश्यकता क्या है? 'नव' और ‘जन' विशेषणों को एक विशेष काल-खण्ड की एक विशेष प्रवृत्ति और प्रकृति के गीतों को पूर्ववर्ती गीतों से अलग कर पहचानने और परखने के लिए लगाया गया था। क्या जनगीत के समर्थक और पैरोकार यह मानते हैं कि जनगीत आंदोलन के बाद भारतीय समाज और उसकी सामाजिक चेतना में कोई परिवर्तन और नवाचार नहीं आया है? वैसे जनगीत का सम्पूर्ण रचना-संसार विकल्पहीन प्रतिपक्ष का संसार है। इसलिए जो गीत सामाजिक क्रान्ति में भाग लेने को कृतसंकल्प रहे, परिवर्तनकामी जन-आकांक्षा की अभिव्यक्ति करते रहे, वे गीत नहीं, जनगीत हैं, चाहे उसके रचनाकार घोषित रूप से गीतकार ही क्यों न हों; साथ ही समकालीनता की पोषक चेतना को व्यक्त करने वाली रचना नवगीत ही कहलायेगी, चाहे उसका रचनाकार घोषित रूप से जनगीतकार या गीतकार ही क्यों न हो।
नामवर सिंह के अनुसार गीत समाज को बदलने में क्रान्तिकारी भूमिका निभाते हैं। लेकिन यह काम व्यापक जन-जीवन में घुल-मिलकर ही संपन्न किया जा सकता है, प्रयोगधर्मिता तथा अमूर्त्त बिम्ब, दुरूह प्रतीक एवं अबूझ संकेतों की ऊँची चहारदीवारी खड़ी करके हरगिज नहीं। अगर नवगीत को सामाजिक परिवर्तन में क्रान्तिकारी भूमिका निभानी है, तो उसे अपनी कलात्मकता की रक्षा करते हुए भी सहजता, रागात्मकता, सामूहिकता और लोकप्रियता को अपनी कला-दृष्टि में, हर हाल में, शामिल करना होगा और व्यापक जन-साधारण में अपनी पैठ बनानी होगी।
अवनीश सिंह चौहान— यदि नवगीत सामाजिक या वैयक्तिक अन्तःक्रिया सम्बन्धी उद्देश्य को ध्यान में रखकर रचे जा रहे हैं, तो वे कितना सफल हुए हैं, जबकि आज का आदमी अपनी भागमभाग जिन्दगी में ‘अर्थ' से परे सार्थक चिंतन करने का समय ही कहाँ निकाल पा रहा है और कभी-कभी तो ऐसी सार्थक रचनाएँ ही उस तक नहीं पहुँच पाती हैं?
नचिकेता— सच्चा साहित्य केवल प्रतिपक्ष की भूमिका नहीं निभाता, वरन् प्रतिरोध की भूमिका निभाता है, समाज को अधिक मानवीय बनाने के संघर्ष की भूमि के निर्माण में संघर्षशील जनता का साथ देता है, यथास्थितिवाद का प्रतिरोध करता है। तात्पर्य है कि गीत अपनी सामाजिक अन्तःक्रिया के बनिस्पत वैयक्तिक अन्तःक्रिया पर अधिक केन्द्रित है, सामाजिकता उसका नकाब भर है। गौरतलब है कि पूँजीवाद जब विकास की एक खास मंजिल पर पहुँच जाता है तो कला, साहित्य और संस्कृति को भी एक बिकाऊ वस्तु में तब्दील कर देता है, समाज के सारे काव्यात्मक संबंधों को, घर-परिवार के बेहद आत्मीय रिश्तों को भी एक जिन्स में बदल देता है, ताकि उसका उपयोग भी आवश्यकता अनुसार खरीद-बिक्री के लिए किया जा सके। यह सही है कि आज की उपभोक्तावादी संस्कृति के लगातार बढ़ते दबाव की वजह से मनुष्य के पास कला-संस्कृति के लिए अवकाश कम हो गया है। साहित्य पर बाजारवाद का बहुत ही खूँख़्वार आक्रमण हुआ है, जिसकी गिरफ्त में नवगीत भी आ गया है। अगर इसे बाज़ारवाद के आक्रमण से बचने और खुद को बिकाऊ बनने से बचाना है, तो उसे अपनी जड़ों अर्थात् जन-जीवन और जन-संस्कृति की ओर लौटना ही होगा, क्योंकि दुनिया से कई संस्कृतियाँ केवल इसलिए लुप्त हो गयी हैं कि उसने वर्चस्ववादी विदेशी संस्कृति और उसके जीवन मूल्य को अपनी संस्कृति और जीवन- मूल्य बना लिया था। यदि नवगीत को जन-जीवन से गहरा ताल्लुक बनाना है तो उसे उन्हीं के पास जाना होगा।
अवनीश सिंह चौहान— नवगीत में शब्द-योजना, बिम्ब और प्रतीकों का प्रयोग नवगीतकार अपने मन-मुताबिक करता है, लेकिन क्या यह ज़रूरी है कि पाठक भी नवगीतकार जैसी ही समझ रखता हो? क्या ऐसे नवगीतों को पाठक आसानी से समझ सकता है?
नचिकेता— पहली बात तो यह कि कोई भी नवगीतकार व्यापक जनता और पाठक-समुदाय को नासमझ, बेवकूफ़ और असंवेदनशील समझने की भूल कदापि न करे। जनता का जीवन और उसकी भाषा वह कच्चा माल है, जो लेखकों से तराश पाकर निखर उठता है और कला-संस्कृति के निर्माण में आधार-सामग्री की भूमिका निभाता है। अगर नवगीतकार अपनी आत्माभिव्यक्ति के लिए व्यापक जन-जीवन के सान्निध्य से प्राप्त अनुभवों को आधार बनाता है तथा कलात्मकता के लिए अपने बिम्ब, प्रतीक, संकेत और मुहावरे का चुनाव व्यापक जन-जीवन और जन-भाषा के बीच से करता है, तो उसकी रचनाएँ जन-साधारण को समझ में न आएँ, ऐसा अमूमन नहीं होता है। रचना पाठक के लिए अबूझ तभी होती है जब रचनाएँ अति बौद्धिकता और कलावाद के शिकंजे में फँसकर अमूर्त्त और दुरूह हो जाती हैं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जिस रचना का सम्प्रेषण साधारण पाठकों में सहजता से हो जाता है, वही रचनाएँ दिग्गज आलोचकों को लोहे के चने चबा देती हैं। हाँ, नवगीतकारों को हमेशा सावधान रहना चाहिए कि उसकी रचना कहीं अत्यधिक बौद्धिक और दुरूह तो नहीं हो रही हैं।
अवनीश सिंह चौहान— क्या आज जनता का रुझान मंचीय कविता की ओर है? यदि हाँ, तो क्यों; यदि 'न' तो क्यों नहीं? आज नवगीत की भाषा और बिम्ब-विधान किस प्रकार का होना चाहिए?
नचिकेता— मंचीय कविता से आपका तात्पर्य, अगर बड़े-बड़े पूँजीपति-घरानों, सरकारी संस्थानों और प्रतिगामी सांस्कृतिक संगठनों द्वारा नगरों, महानगरों और कस्बों में आयोजित कवि-सम्मेलनों से है, 'जिसमें कविता के अर्थ से अधिक महत्वपूर्ण गलेबाज़ी और भड़ैंती (तथाकथित हास्य-व्यंग्य की कविताएँ) होती है' से है तो वहाँ किसी रचना का लोकप्रिय होना किस काम का है। नवगीत की भाषा को तो सहज होना ही चाहिए, लेकिन उसके बिम्ब-विधान चिरपरिचित नहीं, बल्कि स्वस्थ, ताजे, ऐन्द्रिक और बोधगम्य अवश्य होने चाहिए। मैनेजर पाण्डेय भी मानते हैं कि सहजता, रागात्मकता, सामूहिकता और लोकप्रियता का निषेध करके नवगीत अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकते।
अवनीश सिंह चौहान— इक्कीसवीं सदी के नवगीत में युवा रचनाशीलता की प्रवृत्तियाँ क्या हैं? ये प्रवृत्तियाँ अपने समय और समाज का प्रतिनिधित्व किस प्रकार से कर रही हैं?
नचिकेता— हिन्दी नवगीत की दुनिया में युवा रचनाकारों की रचनाशीलता की प्रवृत्ति नवगीत के प्रचलित रूपाकार, रचना-दृष्टि, जीवन-दृष्टि और विश्व-दृष्टि से अलहदा नहीं दिखलाई देती, बल्कि युवा नवगीतकार भी अस्तित्ववादी-आधुनिकतावादी विचार-दृष्टि से अनुशासित और अनुकूलित हैं। सुनने में कड़वी लग सकती हैं कि युवा पीढ़ी के नवगीत सातवें और आठवें दशक के नवगीतकारों, मसलन शिवबहादुर सिंह भदौरिया, माहेश्वर तिवारी, नईम, रमेश रंजक, शान्ति सुमन, दिनेश सिंह, वीरेंद्र आस्तिक, यश मालवीय, सुधांशु उपाध्याय आदि के गीत से पिछड़े हुए दृष्टिगोचर होते हैं। यह चिंताजनक बात है। युवा नवगीतकारों को समकालीन जीवन की वस्तुगत दुनिया के नितांत नये अनुभवों को नितांत नये रूपाकार और शिल्प में व्यक्त करना चाहिए, तभी वह नवगीत को नया जीवन दे सकेंगे, उसमें नया रंग भर सकेंगे। इसकी अभी प्रतीक्षा है।
अवनीश सिंह चौहान— साहित्य को प्रान्तीयता की सीमा से अलग रखते हुए बिहार में गीत-नवगीत की स्थिति क्या है और उसका मूल्यांकन किस प्रकार से किया जाना चाहिए?
नचिकेता— आपने सही कहा है कि साहित्य को प्रान्तीयता की सीमा से अलग रखना चाहिए। जिन समस्याओं से आज की पूरी गीत-नवगीत विधा दो-चार हो रही है, बिहार के गीतकार भी आज उन्हीं से संघर्ष कर रहे हैं। वैसे गीत-नवगीत के विकास में छायावादी-उत्तरछायावादी दौर के जानकीवल्लभ शास्त्री, रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली आदि तथा नवगीत दौर के राजेन्द्र प्रसाद सिंह, शान्ति सुमन, सत्यनारायण, हृदयेश्वर, गोपीवल्लभ सहाय, यशोधरा राठौर आदि की रचनाएँ गीत-नवगीत की विकास-यात्रा को गतिशील करने में अपना अपूर्व योगदान देते रहे हैं। इनके दाय को सम्पूर्ण गीत-नवगीत की विकास-यात्रा के परिप्रेक्ष्य में जाँचा-परखा जाना चाहिए, उनका मूल्यांकन किसी पूर्वाग्रह और दुराग्रह का शिकार हुए बगैर तटस्थ ढंग से किया जाना चाहिए।
नचिकेता जी से आपका साक्षात्कार बहुत अच्छा लगा ... नव गीत और रचना के विकास के बहुत से नए आयाम की जानकारी ... बहुत ही सारगर्भित साक्षात्कार ...
जवाब देंहटाएंनवगीत के सर्वाधिक सशक्त और प्रभावशाली सफल-सार्थक रचनाकार नचिकेता जी का साक्षात्कार आपने प्रकाशित किया; इसके लिए आपको अनेक साधुवाद। नचिकेता जी की काव्य-रचना कला-सौष्ठव और सौन्दर्य-वैभव से समृद्ध है। गहन विचारक होने के साथ-साथ वे अद्वितीय काव्य-शिल्पी हैं। उनकी कविताएँ सामाजिकों को आनन्दित करती हैं। वे सही अर्थों में कवि हैं। उनकी काव्य-निपुणता मुझे आकर्षित करती है। आम आदमी तक उनका काव्य-साहित्य पहुँचना चाहिए। वे दीर्धजीवी हों; काव्य-रचनारत रहे।
जवाब देंहटाएं*महेंद्रभटनागर
फ़ोन : 0751-4092908
साक्षात्कार जीवंत ओर सार्थक रहा..आप दोनों महानुभावो को हार्दिक बधाई ..
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