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गुरुवार, 7 जून 2012

हिन्दी-ग़ज़ल की दिशाबोधी पारदर्शियाँ - मधुर नज्मी


डॉ. मधुर नज्मी

"बुलबुल ग़ज़ल सराई आगे हमारे मत कर/ सब हमसे सीखते हैं, अंदाज़ गुफ़्तगू का।" (मीर तकी 'मीर') कहन का ऐसा अंदाज़ कम ही देखने को मिलता है। हिन्दी ग़ज़ल में यह अंदाज़ लाने का प्रयास कई रचनाकारों ने किया है, उनमें कुछ ही सफल हुए हैं । हिन्दी ग़ज़ल की इस महायात्रा के महत्वपूर्ण  यात्रियों  के रूप में जो नाम मेरे जेहन में उभरते हैं उनमें से एक हैं - डॉ. मधुर 'नज्मी' ।०१ दिसंबर १९४९ ई. को जनपद मऊ (उ.प्र.) के एक गाँव गोहना (मुहम्मदाबाद) में जन्मना डॉ मधुर नज्मी चर्चित साहित्यकार है। आपकी पहली कृति 'थोड़े आंसू ढेरों काजल' (गीति काव्य) के अतिरिक्त आपकी सभी कृतियाँ 'ऐ परिंदों! परों में रहो', साये में सवालों के', 'कुछ दरख़्त पानी के' (सभी ग़ज़ल संग्रह), 'समकालीन हिन्दी ग़ज़ल' (संपादित), 'समकालीन भोजपुरी ग़ज़ल' (संपादित) आदि ग़ज़ल विधा में हैं। हिन्दी ग़ज़ल को देश-विदेश में प्रचारित-प्रसारित करने वाला यह रचनाकार मृदुभाषी एवं मिलनसार है । अंतर्राष्ट्रीय ट्रिनीडाड 'हिन्दी गौरवसम्मान', 'भोजपुरी शिरोमणि', 'निराला सम्मान' आदि सारस्वत-सम्मानों से आपको राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय  स्तर पर अलंकृत किया जा चुका है। संपर्क - 'कव्यमुखी साहित्य अकादमी', गोहना, मुहम्मदाबाद, जिला- मऊ (उ.प्र.)। संपर्कभाष-०९३३६१८२१७४ । इस चर्चित रचनाकार का एक  आलेख हम आप तक पहुंचा रहे हैं:-

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 
'ग़ज़ल' साहित्य की जमीन पर एक पुरकैफ खुशबू का नाम है। उर्दू से लगायत हिन्दी-भाषा, अंग्रेजी भाषा तथा अन्य भाषाओं, उपभाषाओं (बोलियों) के बीच इसकी अक्षर गति तथा निर्बाधता से इंकार नहीं किया जा सकता। ग़ज़ल की अर्थवत्ता, गुणवत्ता और रसवत्ता को कमोबेश स्वीकारते सभी हैं किन्तु अपने-अपने शिविरों की सुधि आते ही उनके विचार-राग में सांघातिक तब्दीलियॉ आ जाती हैं और वे खड्‌गहस्त हो जाते हैं। हमारे अधिसंख्य समीक्षक पूरी की पूरी छान्दसिक कविता पर बोलने-कहने से गुरेज करते है। उनके नजदीक छन्दकार 'अछूत' की मानिन्द है। गजल की वर्तमान लोकप्रियता, कथन-भंगिमा और संप्रेषणीयता को दृष्टि में रखकर सुख्यात समीक्षक डॉ. संतोष कुमार तिवारी का यह अभिमत ग़ज़ल परिदृश्य की आईनादारी करता है, ''जब से हिन्दी- ग़ज़ल सामाजिक सरोकारों से जुड़कर नयी जमीन पर कदम रखना सीख गयी है, तब से विशेषतः दो बातें परिलक्षित होती हैं- पहली तो यह कि ग़ज़ल का कैनवास (आधार फलक) बहुत व्यापक हो गया है। उसमें कथ्य (वस्तु) का पर्याप्त वैविध्य देखने को मिलता है और दूसरी बात यह कि हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू- ग़ज़ल का पार्थक्य मिटता नजर आ रहा है। उर्दू, हिन्दी की यह मिली-जुली भाषागत संस्कृति यह दर्शाती है कि आज की नयी ग़ज़ल हिन्दी भाषी को हिन्दी की लगती है और उर्दू वाले को उर्दू की । एक तीसरी बात भी दिखलाई देती है कि अपनी कहन और भाव-भंगिमा में आज की ग़ज़ल पहले से बहुत सशक्त और बेहतर है । हम जानते हैं कि गालिब का अन्दाजे-बयॉ आते-आते भी रह जाता है पर इस तथ्य को स्वीकारना होगा कि ग़ज़ल अपने शिल्प विन्यास में भी बहुत आगे बढ चुकी है।'' (अभिनव प्रसंगवश' जुलाई-सितम्बर अंक २०११ ) अपनी समीक्षात्मक टिप्पणी में डॉ. तिवारी आगे एक बात और दमदारी-समझदारी से कहते हैं, ''जब ग़ज़ल, ग़ज़लकार की अनुभव सम्पन्नता के बाद किसी जीवन दर्शन को व्यक्त करने लगती है तो अपने आप रचना में जीवन का कमाया हुआ सत्य बोलने लगता है।'' 'अनुभव सम्पन्नता' विद्या के प्रति आस्था, जनबोधी चिन्तन और समय के प्रति सतर्क दृष्टि कविता-विद्या के लिए जरूरी तत्व है।

इन्हीं तत्वों को साधकर हिन्दी- ग़ज़ल आज अपनी विशिष्ट पहचान से पाठकों और साहित्य के सरोकारियों को रिझा रही है और अपनी ओर आकर्षित कर रही है। हिन्दी ग़ज़ल अपनी कविता-गीत की परम्परा को नजर-अन्दाज करके कारगर नहीं होगी। परम्परा की स-विवेक जानकारी को हासिल करके ही अभिनव प्रयोग साहित्य की दिशा में संभव है। परम्परा को वही काटता है जो परम्परा का जानकार हो। महाप्राण 'निराला' अपनी छान्दसिक कविता से लगायत छन्द-मुक्त कविता तक एक सघन छान्दसिक तात्विकता से लैस है। उनकी आन्तरिक लयात्मकता में छन्द जैसे जज्ब हो गये हैं। कबीर, निराला, केदारनाथ अग्रवाल की हुनरवरी को हिन्दी ग़ज़ल में साधने की जरूरत सतर्क दृष्टि वाले महसूस कर रहे हैं। हिन्दी ग़ज़ल पर यह भी आरोप गैर वाजिब नहीं है कि 'हिन्दी ग़ज़लकार कचरा परोस रहे है।' अति उत्साह में ऐसा महसूस भी हो रहा है किन्तु कुछ प्रस्तुतियों की स्तरीयता को देखते हुए संदर्भित आरोप स्वयमेव खारिज होते गये हैं। हिन्दी में नवगीत के साथ जो घटित हुआ वह कहीं हिन्दी ग़ज़ल के साथ पेश न आये, इससे आशंकित भी हूँ। डॉ. शम्भुनाथ सिंह और राजेन्द्र प्रसाद सिंह का प्रयास 'नवगीत' के उत्थान में मील का पत्थर साबित हुआ किन्तु इनसे जुड़े हुए नवगीतकार अपने को नवगीत का पुरोधा साबित करने के प्रयास में इसकी जड़ में दीमकों की भूमिका में हो गये । ऐसे ही आज हिन्दी ग़ज़ल में एक से बढ कर एक चिंतक हो गये हैं जो विद्या की प्रगति में बाधक सिद्ध हो रहे हैं। कोई किसी को हिन्दी ग़ज़ल का पाणिनि कह रहा तो कोई किसी को हिन्दी ग़ज़ल का मसीहा। यह तथाकथित विशेषण विद्या को आघातित कर रहा है। इससे विद्या की प्रगति में बाधाएं आयेंगी। हिन्दी ग़ज़ल अपनी आस्था और निष्ठा में गीत की कोख से जन्मी है। गीतात्मकता और गीति तात्विकता को छोड़कर हिन्दी ग़ज़ल का कोई वजूद नहीं है। यह तात्विकता ग़ज़ल को साधने से, अनुभव सम्पन्नता से आयेगी। डॉ. शम्भुनाथ सिंह और राजेन्द्र प्रसाद सिंह के बाद जो नवगीत की स्थिति सामने आयी है वह विचारणीय है। इन दोनो ही पुरोधाओ के बाद का मंजर विद्या के लिये सांघातिक है। 

कुछ ऐसी ही स्थितियों की ऑक्टोपसी पकड़ में हिन्दी ग़ज़ल आज महसूस हो रही है। हिन्दी ग़ज़ल के लिये नये नये शिल्प सूत्र तलाशे जा रहे हैं। कोई चाहता है कि किसी दूसरी भाषा का एक शब्द भी हिन्दी ग़ज़ल में न आये। कोई संस्कृत की कठिन शब्दावली का पक्षधर है तो कोई ग़ज़ल के मानक व्याकरण से छेड छाड कर रहा है। हिन्दी- ग़ज़ल को किसी पुरोधा की जरूरत नहीं है । पुरोधाओ ने विद्या को तहस नहस भी किया है। हॉ, वाजिब दिशा का संकेत करते रहना विद्या के हित में है। पुरोधाओ और ग़ज़ल के कच्चे समीक्षको के मददेनजर अपना निम्नस्थ शेर संभवतः गैर मुनासिब नहीं होगा - ''असरदार हिन्दी की गज़लें हैं लेकिन-/ जो सरदार हैं वो भी हैं राह भटके। कलमकार का हाल क्या है न पूछो -/ हुए बे-हकीकत गिरोहों में बॅट के॥''

गिरोहबन्दी से ग़ज़ल की अस्मिता आघातित होगी। यह खुशी की भी बात है कि हिन्दी ग़ज़ल की पहचान अपनी-अपनी सीमाओं में हो रही है। ''अपने-अपने जर्फ से लोगों ने पहचाना मुझे'' हादी आजमी की ग़ज़ल का यह मिसरा हिन्दी ग़ज़ल या किसी भी विद्या के सरोकारियों के लिए एक नसीहत है । सभी आग्रहों-दुरावों को भूलकर हिन्दी ग़ज़लकारों को एक वैचारिक प्लेटफार्म पर जुड़ना होगा। इस जुड़ाव से विद्या संबलित होगी। समालोचना किसी भी विद्या के अन्तःपरिपाक को रेखांकित करती है। उस विद्या विशेष मे समाहित निहितार्थ को भी उदभासित करती है । वरिष्ठ समालोचक डॉ. धनंजय वर्मा ने किसी समीक्षक के इस अभिमत ''हर साहित्य में इस प्रकार के समालोचक रहे हैं जिनसे सर्टिफिकेट पाये बिना कभी कोई लेखक लेखन के क्षेत्र मे जम ही नही पाया...'' को खारिज करते हुए और अपनी ओर से अपनी हक बात कहते हुए समीक्षा के बरक्स रचनाशीलता की दमदारी पर बल दिया है ''नहीं दोस्त ! यह सच नही है। सच यह है कि सार्थक रचना अपनी मान्यता और प्रतिष्ठा के लिए कभी किसी आलोचक के सर्टिफिकेट की मोहताज नही होती। वह मान्य और प्रतिष्ठित होती है अपनी समृद्ध रचनाशीलता से । वह जादू ही क्या जो सिर चढ कर न बोले ? वह रचनाशीलता ही क्या जो आलोचक पर भी हावी न हो जाये ? आलोचना तो महज समय के न्याय को रेखांकित करती है ....'' (पाण्डुलिपि विमर्श अप्रैल-जून २०११) समालोचना की सारगर्भित तत्वदर्शिता से साहित्य अनुशासित और संस्कारित है। बशर्ते समीक्षित रचनाकार के प्रति समीक्षक का रूख ईमानदाराना हो। इस पैटर्न की समीक्षाओ का आज साहित्य में अकाल सा है। कुछ समीक्षक रचनाशीलता को ही 'मीटर' मानकर समीक्षा लिखते हैं। धीरेन्द्र वर्मा साहित्य के ऐसे ही विरल समालोचक है । हिन्दी- ग़ज़ल का भाषाई दयार विराट है। उसकी 'विराटता' शैल्पिक स्तर पर भले ही कम आश्वस्त करती हो किन्तु कथन और कहन के स्तर पर अन्य भाषाओं की ग़ज़लों से 'सरपासिंग' होने का एहसास जरूर दे रही है। चाहे जिस जाविया-नजरिया से विचार करें, एक नवता (नुदरत) की आहट उसमें समाहित है। हिन्दी- ग़ज़ल अपनी कथन-भंगिमा और शैल्पिक रचाव में भी अपना अक्स पाठकों और ग़ज़ल के सरोकारियों पर छोड जाती है। उदाहरण के तौर पर कुछ ग़ज़लों के नमूने प्रस्तुत हैं - 

१. आंगन-आंगन बिखरे मंजर मिलते हैं 
घर के भीतर भी कितने घर मिलते हैं। - अनिरूद्ध सिन्हा 

२. आज जो हंसकर मिला कल उसका तेवर और हो 
ये न हो मंजर के पीछे कोई मंजर और हो। - मनोज अबोध 

३. अंधेरा है तो क्यूं गहरा नहीं है
उजाला है तो क्यूं दिखता नहीं है। - स्व० अशोक शर्मा 

४. कुछ और अब सुनाई नहीं दे रहा
पहनी है जब से आपकी आवाज कान में। - मीनाक्षी जिजीविषा 

५. जमीं चल रही है लगातार चालें
समझ-सोचकर घर की बुनियाद डालें। - डॉ. मधुर नज्मी

६. मेरी आखें चली गयीं जब से 
मैने दुनिया को कान से देखा।- जहीर कुरैशी

७. कुछ लेने की जिद मत करना
पापा मेला दिखला देंगे। - दीक्षित दनकौरी 

८. आधी सदी काट दी उसने खाकर चना चबैना जी 
मेहनत उसकी, मौज तुम्हारी, यह अब और चले ना जी। - डॉ. वेदप्रकाश 'अमिताभ'

९. मसालिहत के लिए दुश्मनों के घर भी गये 
जिधर कभी नहीं जाते थे हम उधर भी गये। - आरिफ सिकन्दर 

१०. रहो तो वक्त के सीने पे दस्तखत कर दो
ये क्या हुआ कि रहे भी तो हाशियों की तरह। - रामबाबू रस्तौगी 

उपरोक्त गज़लें जिन्दगी के विविध रंगो की नक्कासी अपने अपनी तरीके से करती है। हर नयी परम्परा अपनी पूर्व स्थापित परम्परा से ही सोखती है। आज की ग़ज़ल के खयालात-अहसासात अपनी परम्परा में ही गुणात्मक हुए है। संदर्भित ग़ज़ल से हिन्दी उर्दू का भाषाई फर्क मिटता हुआ नजर आता है। हमारी सामाजिक संस्कृति बलवती-फलवती होती है। दोनों ही की भाषाई संस्कृति एकाकार हुई है। हिन्दी- ग़ज़ल में कहानीपन की दरकार मैं महसूस करता हूँ । भारतीय भाषाओं, परम्पराओं और भारतीय संस्कारो से स-विवेक, स-शर्त, जुडना होगा। मिथकों, नये बिम्बो, प्रतीकों, ऐतिहासिक आधारों की तलाश करनी होगी। रूमानियत के भाव-भीने संस्पर्शो की नर्मियो, कबीर का अन्दाज लहजा, सधुक्कड ी मुद्रा को साधना होग। जबान के शेर से हिन्दी-ग ज ल का कायिक कलेवर निखरेगा। मनःस्थितियों की मनोवैज्ञानिकता को उकेरने-उरेहने से हिन्दी ग ज ल असरदार होगी। दूसरी भाषाओं के मर्मी शब्दों को वाजिब तरीके से, उनके मूल में स्वीकारने से हिन्दी ग़ज़ल के ''बॉकपन'' को अभिनव आयाम हासिल होगा। ये सारी प्रवृतियॉ कमोवेश हिन्दी- ग़ज़ल में किसी न किसी रूप में हिन्दी के ग़ज़लकार अपने कथ्य और शिल्प में साथ रहे हैं। रदीफ के तौर पर अभी हिन्दी- ग़ज़ल में पर्याप्त कमियॉ हैं। जैसे-जैसे हिन्दी ग़ज़लकारों में पुखतगी आयेगी, रदीफ भी सधती जायेगी।

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