02 जुलाई (2012) की शाम प्रबुद्ध नवगीतकार एवं नये-पुराने पत्रिका के यशस्वी सम्पादक दिनेश सिंह का निधन उनके पैतृक गाँव गौरारूपई में हो गया। जब यह दुखद समाचार कौशलेन्द्र जी ने दिया, तो मेरा हृदय काँप उठा। यद्यपि वे लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे थे— वे न तो बोल सकते थे न ही ठीक से चल-फिर सकते थे, फिर भी अभी उनके जीवित रहने की उम्मीद हम सभी को थी। किन्तु, होनी को कौन टाल सकता है— आज उनकी कमी उनके सभी चाहने वालों को खल रही है।
दिनेश सिंह का जन्म 14 सितम्बर 1947 को रायबरेली (उ.प्र.) के एक गाँव गौरारुपई में हुआ था। इनके दादा अपने क्षेत्र के जाने-माने तालुकदार थे। पिता चिकित्सा अधिकारी थे, जिनकी मृत्यु इनके जन्म के पाँच वर्ष बाद ही हो गई। इनकी शिक्षा स्नातक तक हुई। आगे चलकर उन्होंने उत्तर प्रदेश शासन के स्वास्थ्य विभाग में कार्य किया।
दिनेश सिंह का नाम हिंदी साहित्य जगत में बड़े आदर से लिया जाता है। सही मायने में कविता का जीवन जीने वाला यह नवगीतकार अपने निजी जीवन में मिलनसार एवं सादगी पसंद रहा। गीत-नवगीत साहित्य में इनके योगदान को एतिहासिक माना जाता है। दिनेश जी ने न केवल तत्कांलीन गाँव-समाज को देखा-समझा और जाना-पहचाना था, बल्कि उसमें हो रहे आमूल-चूल परिवर्तनों, और अपनी संस्कृति में रचे-बसे भारतीय समाज के लोगों की भिन्न-भिन्न मनःस्थितियों को भी बखूबी जाँचा-परखा था। इनके गीतों में लयात्मकता देखते बनती है।
अज्ञेय द्वारा संपादित ‘नया प्रतीक’ में आपकी पहली कविता प्रकाशित हुई थी। ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ तथा देश की लगभग सभी बड़ी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, नवगीत तथा छन्दमुक्त कविताएं, रिपोर्ताज, ललित निबंध तथा समीक्षाएं नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं। ‘नवगीत दशक’ तथा ‘नवगीत अर्द्धशती’ के इस नवगीतकार की रचनाओं को कई चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत गीत/नवगीत/कविता संकलनों में सम्मिलित किया जा चुका है।
‘पूर्वाभास’ (1975), ‘टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर’ (2002), ‘समर करते हुए’ (2003), ‘मैं फिर से गाऊँगा’ (2012) आदि आपके नवगीत संग्रह प्रकाशित हैं। इसके अतिरिक्त आपके द्वारा रचित ‘गोपी शतक’, ‘नेत्र शतक’ (सवैया छंद),‘परित्यक्ता’ (शकुन्तला-दुष्यंत की पौराणिक कथा को आधुनिक संदर्भ देकर मुक्तछंद की महान काव्य रचना) चार अन्य नवगीत तथा छंदमुक्त कविताओं के संग्रह तथा एक गीत और कविता से संदर्भित समीक्षकीय आलेखों का संग्रह अभी अप्रकाशित हैं।
टेढ़े मेढ़े ढाई आखर में कविवर दिनेश सिंह प्रेम की उद्दात्ता को जिस प्रकार से गीतायित करते हैं, उससे प्रेम की गहराई, पवित्रता एवं गरिमा का तो पता चलता ही है, वर्तमान में पाश्चात्य जगत् से प्रभावित प्रेम की प्रचलित प्रणालियों से प्रेम मूल्यों में जो गिरावट आयी है उससे प्रणयधर्म का बेड़ा गर्क हो रहा है— यह बात भी सामने आती है। इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि वे प्रणय प्रणाली के धुर विरोधी हैं, बल्कि वह तो प्रेम की मूलभूत संवेदना एवं संस्कार को सँजोये-सँवारे रखकर प्रीति की साफ-सुथरी धारा को सतत प्रवाहित रखना चाहते हैं, जिससे इस स्वस्थ एवं सुंदर कला के माध्यम से जीवन को सार्थक बनाया जा सके। वह नहीं चाहते कि आज बाजारवाद एवं विज्ञापनवाद की लहर में प्रेम भी व्यापारिक अनुबंधों की भेंट चढ जाए और विलासिता और ऐश-ओ-आराम के लिए दैहिक आग को शांत करने में अपने आपको होम कर दे।
दिनेश सिंह का गीत संग्रह ‘समर करते हुए!‘ कलम के प्रयोग एवं बुद्धि कौशल के बल पर अदम्य साहस एवं अटूट विश्वास से परिपूर्ण होकर, उन सभी विडंबनापूर्ण स्थितियों एवं असंगत तत्वों से, जोकि समय के साँचे में अपना आकार लेकर मानवीय पीड़ा का सबब बनी हुई हैं, युद्धरत दिखाई पड़ता है। लगता है कि ये रचनाएँ अपनी जगह से हटतीं-टूटतीं चीजों और मानवीय चेतना एवं स्वभाव पर भारी पड़ते समय के तेज झटकों को चिन्हित कर उनका प्रतिरोध करने तथा इससे उपजे कोलाहल एवं क्रंदन के स्वरों को अधिकाधिक कम करने हेतु नये विकल्पों को तलाशने के लिए महासमर में जूझ रही हैं।
इस प्रकार से वैश्विक फलक पर तेजी से बदलती मानवीय प्रवृत्तियों एवं आस्थाओं और सामाजिक सरोकारों के नवीन खाँचों के बीच सामंजस्य बैठाने की अवश्यकता का अनुभव करती इन कविताओं में जहाँ एक ओर नए सिरे से नए बोध के साथ जीवन-जगत के विविध आयामों को रेखांकित करने की लालसा कुलबुलाती है, तो वहीं आहत मानवता को राहत पहुचाने और उसके कल्याण हेतु सार्थक प्रयास करने की मंशा भी उजागर होती हैं। साथ ही उद्घाटित होता है कवि का वह संकल्प भी, जिसमें समय की संस्कृति में उपजे विशांकुरों के प्रत्यक्ष खतरों का संकेत भी है और इन प्रतिकूल प्रविष्टियों के प्रति घृणा एवं तिरस्कार की भावना को जगाने की छटपटाहट भी।
चर्चित व स्थापित कविता पत्रिका ‘नये-पुराने’(अनियतकालीन) के माध्यम से गीत (गीत अंक- 1, 2, 3, 4, 5, 6) पर किये गये इनके कार्य को अकादमिक स्तर पर स्वीकार किया गया है। स्व. कन्हैया लाल नंदन जी लिखते हैं— ” बीती शताब्दी के अंतिम दिनों में तिलोई (रायबरेली) से दिनेश सिंह के संपादन में निकलने वाले गीत संचयन ‘नये-पुराने’ ने गीत के सन्दर्भ में जो सामग्री अपने अब तक के छह अंकों में दी है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं रही। गीत के सर्वांगीण विवेचन का जितना संतुलित प्रयास ‘नये-पुराने’ में हुआ है, वह गीत के शोध को एक नई दिशा प्रदान करता है। गीत के अद्यतन रूप में हो रही रचनात्मकता की बानगी भी ‘नये-पुराने’ में है और गीत, खासकर नवगीत में फैलती जा रही असंयत दुरूहता की मलामत भी। दिनेश सिंह स्वयं न केवल एक समर्थ नवगीत हस्ताक्षर हैं, बल्कि गीत विधा के गहरे समीक्षक भी।” आपके साहित्यिक अवदान के परिप्रेक्ष्य में आपको राजीव गांधी स्मृति सम्मान, अवधी अकेडमी सम्मान, पंडित गंगासागर शुक्ल सम्मान, बलवीर सिंह 'रंग' पुरस्कार से अलंकृत किया जा चुका है।
कम लोग ही जानते होंगे कि परम श्रद्देय गुरुवर दिनेश सिंह जी संजय गाँधी जी के विशेष सलाहकार, राजा संजय सिंह (अमेठी) के अभिन्न मित्र-सलाहकार और राजीव गाँधी जी के 24 प्रमुख सलाहकारों में से एक रहे। और जब संजय गाँधी जी के नेतृत्व में उ.प्र. विधान सभा चुनाव के लिए कोंग्रेस पार्टी से टिकट बांटे गए थे तब पहला टिकट दिनेश सिंह जी को दिया गया था; लेकिन उन्होंने यह कहकर टिकट लेने से इंकार कर दिया था कि वे पार्टी के एक कार्यकर्ता हैं एवं पार्टी के लिए कार्य करना चाहते हैं और यह कार्य बिना चुनाव लड़े भी किया जा सकता है। उस समय टिकट के लिए पार्टी में काफी खीचतान चल रही थी। संजय गांधी जी ने जब दिनेश सिंह जी के ये शब्द सुने तो वे उनका हाथ पकड़कर स्टेज पर ले गए और कांग्रेसियों से कहा कि उ.प्र. के भावी शिक्षा मंत्री दिनेश सिंह होंगे। दिनेश सिंह जी ने संजय गाँधी जी की मृत्यु के बाद सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया था। बाद में दिनेश सिंह जी ने कभी भी सत्ता पक्ष से लाभ उठाने की चेष्टा नहीं की। वे बड़ी ईमानदारी से साहित्य सृजन में लग गए और उन्होंने गीत-नवगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया। नवगीत के इस महान शिल्पी को विनम्र श्रद्धांजलि—
रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई।
तुम जैसे गये वैसे तो जाता नहीं कोई।।चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
हमने-तुमने
जब भी चाहा
द्वापर-त्रेता सब चले गये!
हम छले गये!
रथ नहीं रहे
ना अश्व रहे
ना दीर्घ रहे
ना ह्र्स्व रहे
मुट्ठी में तनी हुईं वल्गाओं के
छूटे वर्चस्व रहे
उनकी पीठों से
छिटके हम
अपनी ही पीठें मले गये
हम छले गये!
ना छंद रहे
ना मंत्र रहे
जो यावत रहे
स्वतंत्र रहे
चुप्पी में रहे आग बनकर
आहट पर मारक यन्त्र रहे
'कुरु स्वाहा'
दूजे पर हिम-सा गले गये
हम छले गये!
२. दिन घटेंगे
जनम के सिरजे हुए दुख
उम्र बन-बनकर कटेंगे
जिन्दगी के दिन घटेंगे
कुंआ अँधा बिना पानी
घूमती यादें पुरानी
प्यास का होना वसंती
तितलियों से छेड़खानी
झरे फूलों से पहाड़े-
गंध के कब तक रटेंगे?
जिन्दगी के दिन घटेंगे
चढ़ गये सारे नसेड़ी
वक्त की मीनार टेड़ी
'गिर रही है-गिर रही है'-
हवाओं ने तान छेड़ी
मचेगी भगदड़ कि कितने स्वप्न
लाशों से पटेंगे
जिन्दगी के दिन घटेंगे
परिंदे फिर भी चमन में
खेत-बागों में कि वन में
चहचहायेंगे
नदी बहती रहेगी उसी धुन में
चप्पुओं के स्वर लहर बनकर
कछारों तक उठेंगे
जिन्दगी के दिन घटेंगे
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
खिड़कियों से
झाँकती है धूप
उठ जाएँ।
सुबह की ताजी हवा में
हम नदी के साथ
थोड़ा घूम-फिर आएँ!
चलो, देखें,
रात-भर में ओस ने
किस तरह से
आत्म मोती-सा रचा होगा!
फिर जरा-सी आहटों में
बिखर जाने पर,
दूब की उन फुनगियों पर
क्या बचा होगा?
चलो
चलकर रास्ते में पड़े
अंधे कूप में पत्थर गिराएँ,
रोशनी न सही,
तो आवाज ही पैदा करें
कुछ तो जगाएँ!
एक जंगल
अंधेरे का-रोशनी का
हर सुबह के वास्ते जंगल।
कल जहाँ पर जल भरा था
अंधेरों में
धूप आने पर वहीं दलदल!
चलो,
जंगल में कि दलदल में,
भटकती चीख को टेरें, बुलाएँ,
पाँव के नीचे,
खिसकती रेत को छेड़ें,
वहीं पगचिह्न अपने छोड़ आएँ।
४. भूल गए!
जाने कैसे हुआ
कि प्रिय की पाती पढ़ना भूल गए
दाएँ-बाएँ की भगदड़ में
आगे बढ़ना भूल गए
नित फैशन की
नए चलन की
रोपी फसल अकूते धन की
वैभव की खेती-बारी में
मन को गढ़ना भूल गए
ना मुड़ने की
ना जुड़ने की
जिद ऊपर-ऊपर उड़ने की
ऊँचाई की चिंताओं में
सीढ़ी चढ़ना भूल गए
हम ही हम हैं
किससे कम हैं
सूर्य-चन्द्र अपने परचम हैं
फूटी ढोल बजाते रहते
फिर से मढ़ना भूल गए।
कुछ तो जगाएँ!
एक जंगल
अंधेरे का-रोशनी का
हर सुबह के वास्ते जंगल।
कल जहाँ पर जल भरा था
अंधेरों में
धूप आने पर वहीं दलदल!
चलो,
जंगल में कि दलदल में,
भटकती चीख को टेरें, बुलाएँ,
पाँव के नीचे,
खिसकती रेत को छेड़ें,
वहीं पगचिह्न अपने छोड़ आएँ।
४. भूल गए!
जाने कैसे हुआ
कि प्रिय की पाती पढ़ना भूल गए
दाएँ-बाएँ की भगदड़ में
आगे बढ़ना भूल गए
नित फैशन की
नए चलन की
रोपी फसल अकूते धन की
वैभव की खेती-बारी में
मन को गढ़ना भूल गए
ना मुड़ने की
ना जुड़ने की
जिद ऊपर-ऊपर उड़ने की
ऊँचाई की चिंताओं में
सीढ़ी चढ़ना भूल गए
हम ही हम हैं
किससे कम हैं
सूर्य-चन्द्र अपने परचम हैं
फूटी ढोल बजाते रहते
फिर से मढ़ना भूल गए।
५. फिर कली की ओर
हम यहाँ हैं
और उलझी कहीं पीछे डोर
फूल कोई लौट जाना चाहता है
फिर, कली की ओर !
इस तरह भी कहीं होता है?
इस तरह तो नहीं होता है
सिर्फ होता है वही, जो सामने है ,
पीठ पीछे कौन होता है?
पीठ पीछे
सामने के बीच हम केवल
बहुत कमजोर!
फूल कोई लौट जाना चाहता है
फिर, कली की ओर !
मुश्किलों की याद आती है
यात्रा तो भूल जाती है
भूलने की बात भी तो भूलती है
भूल ही सब कुछ भुलाती है
जो भुलाये
भूल जाये जिन्दगी को
वही सीनाजोर!
फूल कोई लौट जाना चाहता है
फिर, कली की ओर !
Five Navgeet of Dinesh Singh (Raebareli)
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १०/७/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आप सादर आमंत्रित हैं |
जवाब देंहटाएंभाव व कथ्य की अस्पष्टता सभी नवगीतों का मूल शब्द-भाव है ... इस प्रकार के नव-गीतों व रचनाओं ने ही जन-सामान्य को कविता से दूर किया .... ये जन सामान्य की बातें तो कहती हैं परन्तु उसी जन सामान्य की समझ से परे होती हैं ....पहेलियों की भांति ...आजा के इब्र चाल के जमाने में पहेलियाँ बुझाने का समय किस के पास है ...इसे कवियों को ...कविताओं को ..प्रश्रय के कारण ...साहित्य हाशिए पर चलता गया....
जवाब देंहटाएं---यदि कविता सीधे सीधे अभिधात्मक-भाव में होगी तो जन सामान्य की समझ में आये और उसे पढ़ा जाए...
डॉ श्याम गुप्ता जी, नमस्कार। किन्तु आप नमस्कार का अर्थ भी समझ पाएंगे कि नहीं, पता नहीं। क्या अब भी आपका इलाज आगरा से चल रहा है? - डॉ विनय
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