०१ जुलाई १९४७ को अलीगढ़ (उ.प्र.) में जन्मे डॉ. वेदप्रकाश 'अमिताभ' का नाम हिंदी साहित्य जगत में स्थापित रचनाकारों में शुमार है। आपकी रचनाएँ प्रत्येक दृष्टि से अमानवीयकरण का विरोध दर्ज करतीं हुईं मनुष्यता की पक्षधर दिखाई पड़तीं हैं । आपके द्वारा सृजित 'बसंत के इंतजार में', 'कितनी अग्नि परीक्षाएं' आदि प्रमुख काव्य-संग्रह, 'दूसरी शहादत', 'दुःख के पुल से', आदि कहानी-संग्रह, 'तीसरी आजादी का सपना' व्यंग-संग्रह, 'उपन्यासकार जेनेन्द्र एवं उनका त्यागपत्र', 'हिंदी कहानी: एक अंतर्यात्रा', 'हिंदी साहित्य: विविध प्रसंग', ''राजेंद्र यादव: कथा यात्रा', 'हिंदी कहानी के सौ वर्ष', 'नयी कहानी: प्रतिनिधि हस्ताक्षर', 'समकालीन काव्य की दिशाएं', 'रामदरश मिश्र:रचना समय','समकालीन कविता का परिदृश्य','हिन्दी उपन्यास की दिशाएं','हिंदी कहानी का समकालीन परिदृश्य' आदि समीक्षात्मक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । आपने लगभग दो दर्जन कृतियों का संपादन किया है । आकाशवाणी के मथुरा, आगरा, रांची, जलगाँव, रीवा, दिल्ली आदि के केन्द्रों से आपकी वार्ताएं प्रसारित हो चुकी हैं । दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में आपकी भागीदारी रही है । चर्चित व स्थापित पत्रिका 'अभिनव प्रसंगवश' के आप संपादक हैं । आपके साहित्यिक अवदान के परिप्रेक्ष्य में आपको ब्रजसाहित्य संगम मथुरा द्वारा ब्रजविभूति, विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा विद्यासागर की उपाधि, साहित्य श्री सम्मान (अलीगढ़), तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत किया जा चुका है। संपर्क - डी १३१, रमेश विहार, निकट ज्ञान्सरोवर, अलीगढ़ (उ.प्र.)- २०२००१, मो: ०९८३७००४११३। इस विख्यात रचनाकार की एक ऐसी कहानी यहाँ पर दी जा रही है जोकि कलमकार की पीड़ा को तो उकेरती ही है, कलमकार के सन्दर्भ में आज के समय का क्रूर व्यंग भी प्रस्तुत करती है:-
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
अभी तो चार ही बजे हैं। उन्हें निराशा भी हुई । रात भर नींद नहीं आयी थी। बार-बार हिलते-डुलते रहने से एक बार सावित्री की नींद कमजोर पड़ी थी और वह भुनभुनायी थी ...... रात में भी चैन नहीं लेने देते, क्या आफत है ......
वे तभी उठकर ड्राइंग रूम के तखत पर आ लुढके थे। और कोई दिन होता तो वे इतने परेशान न होते, ऑख-मुंह धोते । एक कप चाय बनाते और पढने लिखने की मेज पर जम जाते । लेकिन कल रात ही तो संकल्प लिया था कि अब लिखना-पढना बंद । वे भी कल सुबह देर तक पार्क में जमेंगे । हाहा हाहा हू हू करेंगे और वही सब करेंगे जो और बड़े-बूढ़े करते हैं। एकाध घंटा पूजा-पाठ में काटेंगे। सस्ती सब्जी लेने दो किलोमीटर दूर क्वार्सी चौराहे तक जाएंगे। बिजली रही तो 'आस्था' और 'संस्कार' चैनल हैं ही वक्त काटने के लिए। एक अरसा हुआ बाबाओं - देवियों के प्रवचन सुने। अब परलोक सुधारने में जुटेंगे। क्या करना है कविता-कहानी और व्यंग्य लिखकर? कई पांडुलिपियॉ पड़ी हैं कोई प्रकाशक हाथ नहीं रखने देता । 'छाप तो दूंगा, कागज के पैसों की व्यवस्था आपको करनी होगी' - यह प्रवचन वे बार-बार सुन चुके हैं ।
उन्होंने कसम ले रखी है, किताबें छपें ना छपें, अब पैसे देकर नहीं छपवानी। जो तीन-चार पुस्तकें जैसे-तैसे छप गयी हैं, काफी हैं। ऐसे लिखने का क्या फायदा, जब लिखने का कोई पारिश्रमिक न मिले, कागज-स्याही-टाइप का खर्च भी खुद उठाना पड़े।घर के लोगो की नाराजगी अलग से । ठीक कहते हैं, पत्नी और बच्चे कि फालतू और वाहियात काम है लिखिते रहना । इतना समय और बुद्धि शेयर के उतार-चढ़ाव में लगाते तो कुछ कमा लिया होता । बहुत शोर है 'बाजारवाद' का, निजीकरण का। साहित्य को कौन सा बाजार मिला। मिला भी तो मुनाफा प्रकाशकों की जेब में गया । कभी नहीं सुना कि अमुक बड़ा प्रकाशन बंद हो रहा है । पत्रिकाएं एक-एक कर जरूर बंद होती गयीं प्रकाशन क्षेत्र में तो शुरू से ही निजीकरण है ।
फिर लेखकों की हालत बदतर क्यों हुई है ? तीस साल से कलम घिस रहे है, क्या मिला आपको ?
'थोड़ा-बहुत यश और सम्मान तो मिला है' मन का एक बेचैन कोना प्रतिवाद के लिए फड़कता है ।
हॉ ......... सम्मान । कल उनका सम्मान-समारोह था। संस्था छोटी सी थी तो क्या हुआ ? सम्मान की धनराशि अधिक नहीं थी किन्तु बड़ी बात यह थी कि बिना किसी जुगाड़ के वे सम्मान के लिए चुने गये। वे जानते नहीं है क्या कि चाहे लखटकिया पुरस्कार हो या कोई टुटपुंजिया, सबके लिए व्यूह-रचना होती है, संबंधो के टेंडर भरे जाते हैं तब नीलामी हाथ लगती है । यह क्या बहुत बड़ी बात नही थी कि वे सर्वसम्मति से पुरस्कार योग्य माने गए। शहर के सौ-डेढ सौ लोगों के बीच उनकी तारीफ हुई, उनका सम्मान हुआ। यह कोई मामूली उपलब्धि थी क्या ? वे जानते हैं कि ऐसे अवसरों पर जो भाषा बोली जाती है, वह अनेक विशेषणों के शव पर आरूण होती है।
चार कविताएं लिखने वाले को 'महाकवि' कह दिया जाता है, दो कहानियॉ लिखकर कोई अफसर कहानीकार 'कालजयी' बन जाता है। उस दिन भी कहा गया कि पाटल जी परसाई और शरद जोशी की श्रेणी के व्यंग्यकार है, कि इन्होंने व्यंग्य के क्षेत्र में एक नयी जमीन तोडी है.....
वे जानते थे कि बोलने वाले उनकी रचनाओं को बिना पढ़े बोल रहे हैं। किसी ने न परसाई को पढ़ा है न शरद जोशी को, लेकिन उस क्षण उनके उद्गार बुरे नहीं लगे।
क्या वे नहीं जानते कि उनसे अच्छे व्यंग्यकार इसी कस्बेनुमा शहर में ही मौजूद हैं?
'शहर में क्यों, उनके घर में ही एक जर्बदस्त व्यंग्यकार है- उनकी पत्नी सावित्री। उन्हें कभी-कभी आश्चर्य होता है कि महिला व्यंग्यकारों की संख्या इनीं-गिनीं क्यों है ? महिलाएं तो नैसर्गिक व्यंग्यकार होती हैं। सोचते-सोचते
उनकी स्मृति में कई घरेलू प्रसंग कौंध उठे थे और एक कडुवाहट-सी मुँह में घुल गयी थी। उन्होंने बांयीं ओर करवट लेते हुए सोचा, सावित्री कहीं व्यंग्य लिखती तो उसका व्यंग्य-साहित्य कितना मारक और बहुआयामी होता। वे या अन्य व्यंग्यकार जब कोई रचना लिखते हैं तो वह व्यंग्य ज्यादा से ज्यादा दुधारा होता है। 'स्कूल' पर लिख रहे हैं, संकेतों में 'देश' की अव्यवस्था पर भी चोट होती चलती है, उन्हें दुख है कि इतने वर्ष साथ रह कर भी वे सावित्री से कुछ नहीं सीख पाए। सावित्री का व्यंग्य तो चौतरफा मार करता है। एक साधारण सा वाक्य अनेक व्यंजनाओं से भरा होता है ।वे कुछ लिख रहे होते हैं तो सावित्री का तीखा स्वर कानों से टकराता - 'कुछ कर रहे हैं क्या ?' वह अच्छी तरह जानती है कि सुबह दो-एक घंटे वे नियम से लिखने-पढ़ने का काम करते हैं। इसलिए इस वाक्य में यह जिज्ञासा तो होती नहीं कि आप क्या कर रहे हैं ? इस वाक्य की पहली व्यंजना यह
होती है कि क्या सबेरे-सबेरे कागज-कलम लेकर बैठ जाते हो ? व्यंग्य का दूसरा सिरा होता है, करना है तो कुछ सार्थक काम किया करो। दूध लेने जाया करो, सब्जी ला दिया करो। तीसरी चोट होती है कि लिख कर कौन सी फर्द फाड ली ? पेंशन के रूपये भी टाइप-लिफाफे में स्वाहा कर रहे हो। और कोई तुम्हारा लिखा पढता भी है, कोई तुम्हें लेखक मानता भी है ? तो 'कुछ कर रहे हैं क्या' की अन्तिम व्यंजना यह होती है कि चटपट खड़े हो जाइए और दरवाजे पर जो शनि देवता के पुजारी खड़े हैं, उन्हें तेल और पैसे दे आइये । शनि देवता प्रसन्न रहे तो तुम्हारे लिखने-पढ ने की साढ़े साती से घर-परिवार को कोई खास नुकसान नहीं होगा ।
उन्होंने जब अपने सम्मान-समारोह का उल्लेख किया था तो पत्नी की दृष्टि में अविश्वास, उपहास और उपेक्षा की त्रिवेणी प्रवाहित हो उठी थी। 'सम्मान और आपका ?' यह प्रश्नवाचक प्रतिक्रिया कितनी तेजाबी थी, वे ही जान सकते हैं। व्यंग्य साफ था कि शहर के सभी साहित्यकार मर गए क्या तुम जैसे निखटू का सम्मान होने लगा? कौन सी संस्था है जिसकी अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं ? पहले से वे ऐसे उद्गारों पर उखड जाते थे और जबाबी मोर्चा खोल बैठते थे। लेकिन वे धीरे-धीरे इस सत्य को समझ गए थे कि सावित्री के मुँहफट और अशिष्ट होने के बहुत से ठोस कारण हैं तो वे सीधी मुठभेड से बचने लगे थे ।
सावित्री हमेशा से ऐसी कटखनी थोड़े ही थी। जब विवाह हुआ था, तब वह सुकुमार, विनीत, सलज्ज किशोरी उनके जीवन में एक मादक सुगन्ध की तरह दाखिल हुई थी। तब उस नशे में उन्होंने चार-पॉच रोमानी गीत लिख मारे थे। पत्नी को विवाह के पहले से पता था कि पति एक फर्म में क्लर्क होने के साथ-साथ कुछ लिखने का शौक भी रखता है । विवाह के बाद एक अवसर ऐसा आया जब उसने अपने पति के लेखक होने की विशिष्टता और गौरव का स्वाद भी चखा था। उस समय की लाजवंती और छुईमुई, अर्द्धागिंनी ने किन्हीं भावुक क्षणों में उस प्रसंग का बखान स्वयं किया था । जब विवाह हुआ था तब सावित्री एम०ए० के आखिरी साल में थी। बाद में उसे परीक्षा देने के लिए कुछ दिन पीहर में गुजारने पड़े थे। उन्ही दिनों वह कालिज की लाइब्रेरी गयी तो वहॉ पति देव का नाम एक किताब पर दिखाई दे गया। नाम पढ़कर और पीछे छपे फोटो से संतुष्ट होकर उसने सहेली को 'तिरिछे नैनिन' और 'सैननि' से अवगत कराया था कि ये किताब उन्होंने लिखी है। उन दिनों छपे हुए शब्दों का कुछ और ही रूतबा था। थोड़ी देर में हिन्दी पढ़ने वाली मैडम वहॉ आ गयी थी। उन्होंने किताब उल्टा-पुल्टा था, कुछ जानकारियॉ प्राप्त की थीं और 'वैरी लकी' कहकर पीठ थपथपा गयी थी। 'सच्ची कितना तो अच्छा लगा था....।'
लेकिन धीरे-धीरे वह गौरव बासी होता गया था और लगाव की खुशबू झरती चली गयी थी। लेखन से थोडा-बहुत नाम तो हुआ, नामा हासिल नहीं हुआ। कविता-संग्रह खुद के पैसो से ही छपवानी पडी थी। अवांछित लोगों की आवाजाही सावित्री के घर के काम-काज में बाधा बनने लगी थी। पति तो साहित्यकार के आसन पर बैठा था, वह घर के काम-काज में हाथ क्या बंटाता। दूसरे सहकर्मियों के विलास-भवन बनने लगे थे और सावित्री का पति आदर्शो को ओढ ने-बिछाने में लगा रहता था। बच्चों के लिए कुछ खास नहीं कर पाया। बच्चे तो आज तक ताना देते हैं, कहानी-कविता लिखने के बजाय लेडी फातिमा कांवेंट में 'एडमीशन' की जुगत भिड़ा दी होती तो आज हम भी कुछ बन गए होते ।
जब दोनों लड़के छोटी-मोटी नौकरियों से लग गए हैं तो घर में खुशहाली की चमक है; लेकिन पति-पत्नी के बीच आत्मीयता का जो कल्पवृक्ष सूख गया है, उसके हरियाने की शायद कोई गुंजाइश नहीं बची है। आठों पहर उपाधि में कविता-कहानी ने स्वयं उनका साथ भी कब का छोड दिया और वे अपने क्षोभ और तल्खी को व्यंग्य-रचनाओं में परोसने लगे हैं।
'तो क्या पत्नी की अवज्ञा और परिवार की बेरूखी के चलते तुमने कल न लिखने का फैसला लिया था' - उनके व्यंग्यकार - मन ने उन्हें सुबह ही सुबह कोंचना शुरू कर दिया। अगर ऐसा था तो कल तक क्यों लिखते रहे । बरसों पहले ही लेखन की अंत्येष्टि कर देनी थी। क्यों अपने को धोखा दे रहे हो, व्यंग्यकार जी ? सही बात उगल जाइये न कि कल सम्मान के बहाने आपका जो अपमान हुआ था, उसे आप बर्दाश्त नहीं कर पाये और उसी तिलमिलाहट में कल न लिखने का फैसला कर लिया......'
सचमुच बात यही थी। वे उस क्षण को शायद कभी नहीं भूल पायेंगे जब उन्हें सम्मानित किया गया। पहले एक वयोवृद्ध रचनाकार उन्हें अंगवस्त्रम सम्मान-राशि भेंट करने वाले थे । वे किसी कारणवश आ नहीं पाए थे। आयोजकों ने एक बड़े पूंजीपति को, जिनकी ख्याति दो नम्बर के धंधे चलाने वाले की हैं, उन्हें शॉल ओढाने का दायित्व सौंपा। सम्मान-राशि भेंट की नगर के पुलिस अधीक्षक ने जो 'एकाउंटर' के लिए चर्चित थे। वाह, क्या सीन है - एक ओर स्मगलर और दूसरी ओर एनकाउंटर विशेष, बीच में 'वे' । यही चित्र कल के अखबारों में छपेगा। स्थिति का क्रूर व्यंग्य जिन विकृतियों-विडम्बनाओं के विरूद्ध वे लिखते रहे, उन्हीं के प्रतिनिधि उनके दांये-बायें थे। वे उस क्षण स्तब्ध रह गये थे। वे चाहकर भी प्रतिवाद नहीं कर पाए थे। बहुत सी बधाइयों के शोरगुल में उन्होनें तभी यह सोच लिया था कि लिखना फिजूल है। सिर्फ कागज पर प्रतिवाद दर्ज कराने का क्या फायदा?
उनके व्यंग्यकार मन ने उन्हें करवट बदलने से रोक दिया था। 'उस सम्मान-समारोह पर ही क्यों नहीं लिखते, क्यों नहीं बताते लोगों को कि वह वास्तव में अपमान-समारोह था।'
उनकी बरसों की आदत को इस सोच ने मजबूती प्रदान की और वे उठ बैठे थे। अपनी लिखने की मेज की ओर बढ़ते हुए उन्होंने देखा कि बाहर पौ फट चुकी थी और अंधेरा धीरे-धीरे कम हो रहा था।
वे तभी उठकर ड्राइंग रूम के तखत पर आ लुढके थे। और कोई दिन होता तो वे इतने परेशान न होते, ऑख-मुंह धोते । एक कप चाय बनाते और पढने लिखने की मेज पर जम जाते । लेकिन कल रात ही तो संकल्प लिया था कि अब लिखना-पढना बंद । वे भी कल सुबह देर तक पार्क में जमेंगे । हाहा हाहा हू हू करेंगे और वही सब करेंगे जो और बड़े-बूढ़े करते हैं। एकाध घंटा पूजा-पाठ में काटेंगे। सस्ती सब्जी लेने दो किलोमीटर दूर क्वार्सी चौराहे तक जाएंगे। बिजली रही तो 'आस्था' और 'संस्कार' चैनल हैं ही वक्त काटने के लिए। एक अरसा हुआ बाबाओं - देवियों के प्रवचन सुने। अब परलोक सुधारने में जुटेंगे। क्या करना है कविता-कहानी और व्यंग्य लिखकर? कई पांडुलिपियॉ पड़ी हैं कोई प्रकाशक हाथ नहीं रखने देता । 'छाप तो दूंगा, कागज के पैसों की व्यवस्था आपको करनी होगी' - यह प्रवचन वे बार-बार सुन चुके हैं ।
उन्होंने कसम ले रखी है, किताबें छपें ना छपें, अब पैसे देकर नहीं छपवानी। जो तीन-चार पुस्तकें जैसे-तैसे छप गयी हैं, काफी हैं। ऐसे लिखने का क्या फायदा, जब लिखने का कोई पारिश्रमिक न मिले, कागज-स्याही-टाइप का खर्च भी खुद उठाना पड़े।घर के लोगो की नाराजगी अलग से । ठीक कहते हैं, पत्नी और बच्चे कि फालतू और वाहियात काम है लिखिते रहना । इतना समय और बुद्धि शेयर के उतार-चढ़ाव में लगाते तो कुछ कमा लिया होता । बहुत शोर है 'बाजारवाद' का, निजीकरण का। साहित्य को कौन सा बाजार मिला। मिला भी तो मुनाफा प्रकाशकों की जेब में गया । कभी नहीं सुना कि अमुक बड़ा प्रकाशन बंद हो रहा है । पत्रिकाएं एक-एक कर जरूर बंद होती गयीं प्रकाशन क्षेत्र में तो शुरू से ही निजीकरण है ।
फिर लेखकों की हालत बदतर क्यों हुई है ? तीस साल से कलम घिस रहे है, क्या मिला आपको ?
'थोड़ा-बहुत यश और सम्मान तो मिला है' मन का एक बेचैन कोना प्रतिवाद के लिए फड़कता है ।
हॉ ......... सम्मान । कल उनका सम्मान-समारोह था। संस्था छोटी सी थी तो क्या हुआ ? सम्मान की धनराशि अधिक नहीं थी किन्तु बड़ी बात यह थी कि बिना किसी जुगाड़ के वे सम्मान के लिए चुने गये। वे जानते नहीं है क्या कि चाहे लखटकिया पुरस्कार हो या कोई टुटपुंजिया, सबके लिए व्यूह-रचना होती है, संबंधो के टेंडर भरे जाते हैं तब नीलामी हाथ लगती है । यह क्या बहुत बड़ी बात नही थी कि वे सर्वसम्मति से पुरस्कार योग्य माने गए। शहर के सौ-डेढ सौ लोगों के बीच उनकी तारीफ हुई, उनका सम्मान हुआ। यह कोई मामूली उपलब्धि थी क्या ? वे जानते हैं कि ऐसे अवसरों पर जो भाषा बोली जाती है, वह अनेक विशेषणों के शव पर आरूण होती है।
चार कविताएं लिखने वाले को 'महाकवि' कह दिया जाता है, दो कहानियॉ लिखकर कोई अफसर कहानीकार 'कालजयी' बन जाता है। उस दिन भी कहा गया कि पाटल जी परसाई और शरद जोशी की श्रेणी के व्यंग्यकार है, कि इन्होंने व्यंग्य के क्षेत्र में एक नयी जमीन तोडी है.....
वे जानते थे कि बोलने वाले उनकी रचनाओं को बिना पढ़े बोल रहे हैं। किसी ने न परसाई को पढ़ा है न शरद जोशी को, लेकिन उस क्षण उनके उद्गार बुरे नहीं लगे।
क्या वे नहीं जानते कि उनसे अच्छे व्यंग्यकार इसी कस्बेनुमा शहर में ही मौजूद हैं?
'शहर में क्यों, उनके घर में ही एक जर्बदस्त व्यंग्यकार है- उनकी पत्नी सावित्री। उन्हें कभी-कभी आश्चर्य होता है कि महिला व्यंग्यकारों की संख्या इनीं-गिनीं क्यों है ? महिलाएं तो नैसर्गिक व्यंग्यकार होती हैं। सोचते-सोचते
उनकी स्मृति में कई घरेलू प्रसंग कौंध उठे थे और एक कडुवाहट-सी मुँह में घुल गयी थी। उन्होंने बांयीं ओर करवट लेते हुए सोचा, सावित्री कहीं व्यंग्य लिखती तो उसका व्यंग्य-साहित्य कितना मारक और बहुआयामी होता। वे या अन्य व्यंग्यकार जब कोई रचना लिखते हैं तो वह व्यंग्य ज्यादा से ज्यादा दुधारा होता है। 'स्कूल' पर लिख रहे हैं, संकेतों में 'देश' की अव्यवस्था पर भी चोट होती चलती है, उन्हें दुख है कि इतने वर्ष साथ रह कर भी वे सावित्री से कुछ नहीं सीख पाए। सावित्री का व्यंग्य तो चौतरफा मार करता है। एक साधारण सा वाक्य अनेक व्यंजनाओं से भरा होता है ।वे कुछ लिख रहे होते हैं तो सावित्री का तीखा स्वर कानों से टकराता - 'कुछ कर रहे हैं क्या ?' वह अच्छी तरह जानती है कि सुबह दो-एक घंटे वे नियम से लिखने-पढ़ने का काम करते हैं। इसलिए इस वाक्य में यह जिज्ञासा तो होती नहीं कि आप क्या कर रहे हैं ? इस वाक्य की पहली व्यंजना यह
होती है कि क्या सबेरे-सबेरे कागज-कलम लेकर बैठ जाते हो ? व्यंग्य का दूसरा सिरा होता है, करना है तो कुछ सार्थक काम किया करो। दूध लेने जाया करो, सब्जी ला दिया करो। तीसरी चोट होती है कि लिख कर कौन सी फर्द फाड ली ? पेंशन के रूपये भी टाइप-लिफाफे में स्वाहा कर रहे हो। और कोई तुम्हारा लिखा पढता भी है, कोई तुम्हें लेखक मानता भी है ? तो 'कुछ कर रहे हैं क्या' की अन्तिम व्यंजना यह होती है कि चटपट खड़े हो जाइए और दरवाजे पर जो शनि देवता के पुजारी खड़े हैं, उन्हें तेल और पैसे दे आइये । शनि देवता प्रसन्न रहे तो तुम्हारे लिखने-पढ ने की साढ़े साती से घर-परिवार को कोई खास नुकसान नहीं होगा ।
उन्होंने जब अपने सम्मान-समारोह का उल्लेख किया था तो पत्नी की दृष्टि में अविश्वास, उपहास और उपेक्षा की त्रिवेणी प्रवाहित हो उठी थी। 'सम्मान और आपका ?' यह प्रश्नवाचक प्रतिक्रिया कितनी तेजाबी थी, वे ही जान सकते हैं। व्यंग्य साफ था कि शहर के सभी साहित्यकार मर गए क्या तुम जैसे निखटू का सम्मान होने लगा? कौन सी संस्था है जिसकी अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं ? पहले से वे ऐसे उद्गारों पर उखड जाते थे और जबाबी मोर्चा खोल बैठते थे। लेकिन वे धीरे-धीरे इस सत्य को समझ गए थे कि सावित्री के मुँहफट और अशिष्ट होने के बहुत से ठोस कारण हैं तो वे सीधी मुठभेड से बचने लगे थे ।
सावित्री हमेशा से ऐसी कटखनी थोड़े ही थी। जब विवाह हुआ था, तब वह सुकुमार, विनीत, सलज्ज किशोरी उनके जीवन में एक मादक सुगन्ध की तरह दाखिल हुई थी। तब उस नशे में उन्होंने चार-पॉच रोमानी गीत लिख मारे थे। पत्नी को विवाह के पहले से पता था कि पति एक फर्म में क्लर्क होने के साथ-साथ कुछ लिखने का शौक भी रखता है । विवाह के बाद एक अवसर ऐसा आया जब उसने अपने पति के लेखक होने की विशिष्टता और गौरव का स्वाद भी चखा था। उस समय की लाजवंती और छुईमुई, अर्द्धागिंनी ने किन्हीं भावुक क्षणों में उस प्रसंग का बखान स्वयं किया था । जब विवाह हुआ था तब सावित्री एम०ए० के आखिरी साल में थी। बाद में उसे परीक्षा देने के लिए कुछ दिन पीहर में गुजारने पड़े थे। उन्ही दिनों वह कालिज की लाइब्रेरी गयी तो वहॉ पति देव का नाम एक किताब पर दिखाई दे गया। नाम पढ़कर और पीछे छपे फोटो से संतुष्ट होकर उसने सहेली को 'तिरिछे नैनिन' और 'सैननि' से अवगत कराया था कि ये किताब उन्होंने लिखी है। उन दिनों छपे हुए शब्दों का कुछ और ही रूतबा था। थोड़ी देर में हिन्दी पढ़ने वाली मैडम वहॉ आ गयी थी। उन्होंने किताब उल्टा-पुल्टा था, कुछ जानकारियॉ प्राप्त की थीं और 'वैरी लकी' कहकर पीठ थपथपा गयी थी। 'सच्ची कितना तो अच्छा लगा था....।'
लेकिन धीरे-धीरे वह गौरव बासी होता गया था और लगाव की खुशबू झरती चली गयी थी। लेखन से थोडा-बहुत नाम तो हुआ, नामा हासिल नहीं हुआ। कविता-संग्रह खुद के पैसो से ही छपवानी पडी थी। अवांछित लोगों की आवाजाही सावित्री के घर के काम-काज में बाधा बनने लगी थी। पति तो साहित्यकार के आसन पर बैठा था, वह घर के काम-काज में हाथ क्या बंटाता। दूसरे सहकर्मियों के विलास-भवन बनने लगे थे और सावित्री का पति आदर्शो को ओढ ने-बिछाने में लगा रहता था। बच्चों के लिए कुछ खास नहीं कर पाया। बच्चे तो आज तक ताना देते हैं, कहानी-कविता लिखने के बजाय लेडी फातिमा कांवेंट में 'एडमीशन' की जुगत भिड़ा दी होती तो आज हम भी कुछ बन गए होते ।
जब दोनों लड़के छोटी-मोटी नौकरियों से लग गए हैं तो घर में खुशहाली की चमक है; लेकिन पति-पत्नी के बीच आत्मीयता का जो कल्पवृक्ष सूख गया है, उसके हरियाने की शायद कोई गुंजाइश नहीं बची है। आठों पहर उपाधि में कविता-कहानी ने स्वयं उनका साथ भी कब का छोड दिया और वे अपने क्षोभ और तल्खी को व्यंग्य-रचनाओं में परोसने लगे हैं।
'तो क्या पत्नी की अवज्ञा और परिवार की बेरूखी के चलते तुमने कल न लिखने का फैसला लिया था' - उनके व्यंग्यकार - मन ने उन्हें सुबह ही सुबह कोंचना शुरू कर दिया। अगर ऐसा था तो कल तक क्यों लिखते रहे । बरसों पहले ही लेखन की अंत्येष्टि कर देनी थी। क्यों अपने को धोखा दे रहे हो, व्यंग्यकार जी ? सही बात उगल जाइये न कि कल सम्मान के बहाने आपका जो अपमान हुआ था, उसे आप बर्दाश्त नहीं कर पाये और उसी तिलमिलाहट में कल न लिखने का फैसला कर लिया......'
सचमुच बात यही थी। वे उस क्षण को शायद कभी नहीं भूल पायेंगे जब उन्हें सम्मानित किया गया। पहले एक वयोवृद्ध रचनाकार उन्हें अंगवस्त्रम सम्मान-राशि भेंट करने वाले थे । वे किसी कारणवश आ नहीं पाए थे। आयोजकों ने एक बड़े पूंजीपति को, जिनकी ख्याति दो नम्बर के धंधे चलाने वाले की हैं, उन्हें शॉल ओढाने का दायित्व सौंपा। सम्मान-राशि भेंट की नगर के पुलिस अधीक्षक ने जो 'एकाउंटर' के लिए चर्चित थे। वाह, क्या सीन है - एक ओर स्मगलर और दूसरी ओर एनकाउंटर विशेष, बीच में 'वे' । यही चित्र कल के अखबारों में छपेगा। स्थिति का क्रूर व्यंग्य जिन विकृतियों-विडम्बनाओं के विरूद्ध वे लिखते रहे, उन्हीं के प्रतिनिधि उनके दांये-बायें थे। वे उस क्षण स्तब्ध रह गये थे। वे चाहकर भी प्रतिवाद नहीं कर पाए थे। बहुत सी बधाइयों के शोरगुल में उन्होनें तभी यह सोच लिया था कि लिखना फिजूल है। सिर्फ कागज पर प्रतिवाद दर्ज कराने का क्या फायदा?
उनके व्यंग्यकार मन ने उन्हें करवट बदलने से रोक दिया था। 'उस सम्मान-समारोह पर ही क्यों नहीं लिखते, क्यों नहीं बताते लोगों को कि वह वास्तव में अपमान-समारोह था।'
उनकी बरसों की आदत को इस सोच ने मजबूती प्रदान की और वे उठ बैठे थे। अपनी लिखने की मेज की ओर बढ़ते हुए उन्होंने देखा कि बाहर पौ फट चुकी थी और अंधेरा धीरे-धीरे कम हो रहा था।
A Hindi Story- 'Samman' by Dr. Vedprakash Amitabh
मेरे लिय इसको पढ़ कर कुछ लिख कर कह पाना मुश्किल है ,फिर भी प्रभाव इतना तीष्ण है की मैं वंदना करती हूँ आदरणीय डॉ. वेदप्रकाश 'अमिताभ' जी के लेखन की , ये त्रासदी है हर लेखक की कि लिख कर सिवाय आत्म संतुस्ती के उसे इस समाज से कुछ नहीं मिलता....archana thakur
जवाब देंहटाएंहिंदी के औसत लेखक की स्थिति और नियति यही है !उसके परिश्रम का सारा प्रतिफल प्रकाशकों को मिल रहा है जो दिनोंदिन अमीर हो रहे हैं और लेखक स्वयं फटेहाली में जीने के लिए अभिशप्त है.समर्थ लोग भी इस स्थिति के प्रति उदासीन बने हुए हैं.
जवाब देंहटाएं