तेजेन्द्र शर्मा |
तेजेन्द्र शर्मा का जन्म 21 अक्टूबर जगरांव–पंजाब, भारत में हुआ। आपकी मातृ भाषा पंजाबी और व्यावसायिक भाषा अंग्रेजी होते हुए भी आपने हिन्दी भाषा में विपुल साहित्य सृजन किया है। आपकी प्रकाशित कृतियां- काला सागर (1990) ढिबरी टाईट (1994), देह की कीमत (1999) यह क्या हो गया (2003), बेघर आंखें (2007), सीधी रेखा की परतें – समग्र भाग 1 (2009), क़ब्र का मुनाफ़ा (2010), दीवार में रास्ता (2012)- (सभी कहानी संग्रह); ये घर तुम्हारा है - (2007) (कविता / ग़ज़ल संग्रह); ब्रिटेन में उर्दू क़लम (2010) समुद्र पार रचना संसार (2008), यहां से वहां तक (2006) समुद्र पार हिन्दी ग़ज़ल (2011)- (सभी संपादित कृतियां); पासपोर्ट का रङहरू (नेपाली– कहानी संग्रह), ईंटों का जंगल (उर्दू – कहानी संग्रह), ढिम्बरी टाइट, कल फेर आंवीं (दोनो पंजाबी कहानी संग्रह)- (सभी अनूदित कृतियां); और अंग्रेज़ी में- Black & White (biography of a banker – 2007), Lord Byron - Don Juan (1977), John Keats - The Two Hyperions (1978) । आपने दूरदर्शन के लिये शांति सीरियल का लेखन एवं अन्नु कपूर निर्देशित फ़िल्म अभय में नाना पाटेकर के साथ अभिनय किया। कथा यू.के. संस्था की लंदन में आपने स्थापना की जिसके माध्यम से ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स में प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान एवं पद्मानंद साहित्य सम्मान का आयोजन किया जाता है। पुरस्कार / सम्मान: 1.ढिबरी टाइट को महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार – 1995, 2.सहयोग फ़ाउंडेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार – 1998, 3.सुपथगा सम्मान -1987, 4. कृति यू.के. द्वारा बेघर आंखें को ब्रिटेन की सर्वश्रेष्ठ कहानी का सम्मान, 5.प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान – दिल्ली (2007), 6. तितली बाल-पत्रिका साहित्य सम्मान – बरेली (2007), 7.भारतीय उच्चायोग द्वारा डॉ. हरिवंशराय बच्चन सम्मान (2008)। आपकी एक कहानी अभिशप्त चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल। संपर्कः kahanikar@gmail.com; kathauk@gmail.com दूरभाषः 00-44-7400313433 । आपका एक आलेख यहाँ प्रस्तुत है:-
किसी भी विषय पर बातचीत से पहले आवश्यक है कि हम उस विषय की वस्तुस्थिति को ठीक से समझ लें। वस्तुस्थिति यह है कि एक भाषा के रूप में इंग्लैण्ड में हिन्दी का वर्तमान बहुत संतोषजनक नहीं है और इसके भविष्य के लिए भी बिना अति आशावादी बने हमें केवल कर्म करना सीखना होगा। अतीत में हिन्दी इंग्लैण्ड में स्कूलों में एक एच्छिक विषय के तौर पर पढ़ाई जाती थी, लेकिन हिन्दी स्कूलों से ग़ायब हो गई क्योंकि उन स्कूलों में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी मिल नहीं पा रहे थे। आजकल इंग्लैण्ड में बहुत सी ग़ैर-सरकारी संस्थाएं हिन्दी भाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रचार प्रसार के कामों में जुटी हैं। देश भर में हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिताएं करवाई जा रही हैं, कहानी कार्यशालाएं की जा रही हैं, हिन्दी में कम्प्यूटर में कामकाज पर ध्यान दिया जा रहा है। लेकिन बिना किसी विश्विद्यालय से पंजीकृत हुए बिना यह गतिविधियां आधिकारिक स्वरूप नहीं पा सकती हैं।
हमें भावनाओं को तज कर इस ओर ध्यान देना होगा कि आखिर ऐसा हुआ क्यों। निरपेक्ष रूप से किसी नतीजे पर पहुंचना होगा। जब हम भारत से इंगलैण्ड आए, प्रवासियों पर नजर डालें तो पाएंगे कि भारत से इंगलैण्ड आने वालों में सबसे अधिक संख्या गुजरात एवं पंजाब प्रदेशों से है। पंजाब से आने वालों में भी सिख धर्म के अनुयाईयों की संख्या कहीं अधिक है, जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं पंजाबी है। इसके अतिरिक्त तमिल, बंगाली एवं महाराष्ट्रियन भी काफ़ी संख्या में यहां प्रवासी बन कर आए। इन सभी के लिए हिन्दी बोलचाल की भाषा तो थी, लेकिन कहीं भी लिखने पढ़ने वाली भाषा नहीं थी। इसलिए जब पहली पीढ़ी के प्रवासियों ने पाया कि उन्हें विलायत में सबसे अधिक समस्या उन्हें अंग्रेजी न आने से हो रही है तो उन्होंने अपनी आगामी पीढ़ी से घर में तो अपनी मातृभाषा में बातचीत जारी रखी लेकिन बाहर दुनियां से संघर्ष करने के लिए उन्हें अंग्रेज़ी सीखने के लिए बढ़ावा दिया। यानि कि इंगलैण्ड आने वाले अधिकतर भारतीय मूल के परिवारों के लिए हिन्दी मात्र एक बोली थी जिस के माध्यम से वे दूसरे राज्य के रहने वालों से बातचीत कर सकते थे यानि कि संपर्क भाषा। और संपर्क भाषा भी निम्न मध्य वर्ग के लोगों के लिए। मध्य वर्ग या फिर उच्च मध्य वर्ग की संपर्क भाषा अंग्रेजी ही थी। हमे याद रखना यह होगा कि यह भी प्रवासियों की पहली पीढ़ी तक ही सीमित था। उसके बाद की पीढ़ीयों की अपनी एक जबान बन चुकी थी - अंग्रेज़ी।
हिन्दी बोलने वाले परिवारों में भी बच्चों को यही कहा जाता था, "अरे हिन्दी सीख लो। कल को भारत जाओगे, तो दादी और नानी से कैसे बात करोगे।' मूलभूत समस्या यह है कि जो लोग अपने बच्चों को यह समझाया करते थे, आज वही दादा दादी और नाना नानी बन चुके हैं। और उन सबको अंग्रेज़ी आती है। इसलिए उनके लिए आजके बच्चों को दादी और नानी के हवाले देकर हिन्दी सीखने के लिए कहना भी संभव नहीं।
पहली पीढ़ी के प्रवासियों के पास न तो कोई ज़रिया था और न ही हिम्मत कि वे हिन्दी के लिए समय निकाल पाते। शायद उन्हें इसकी आवश्यक्ता भी नहीं थी। उस समय न तो कोई हिन्दी का रेडियो स्टेशन था औरन ही किसी अंग्रेज़ी के रेडियो अथवा टेलिविज़न सेन्टर से ही कोई हिन्दी के कार्यक्रम प्रसारित होते थे। जीवन इतना संघर्षपूर्ण था कि हिन्दी के लिए समय निकाल पाना बहुत कठिन।
अस्सी के दशक में विडियो रिकॉर्डर की लोकप्रियता और हिन्दी फ़िल्मों की कानूनी और ग़ैर-कानूनी वीडियो केसटों ने इंगलैण्ड में हिन्दी को लोकप्रिय बनने का अचानक एक अभूतपूर्व अवसर प्रदान किया। बच्चे बड़े सभी इकठ्ठे बैठ कर अमिताभ बच्चन की फ़िल्में देखा करते थे। शोले फ़िल्म के डायलॉग याद करके इंग्लैण्ड के बच्चे भारत से आने वाले अतिथियों पर अपने हिन्दी ज्ञान की धाक जमाते थे। प्रवासियों की पहली पीढ़ी को भी अचानक जैसे अपने पैरों तले एक नई ज़मीन का अहसास होने लगा था। डा हरिवंश राय बच्चन अवश्य ही हिन्दी के महान् कवियों में से एक हैं। किन्तु हिन्दी भाषा को लोकप्रिय बनाने के मामले में उनके पुत्र अमिताभ ने उन्हें कहीं पीछे छोड़ दिया।
स्कूलों में हिन्दी पढ़ने की न तो किसी को आवश्यक्ता महसूस होती थी और न ही किसी को इस बात का ख़्याल ही आता था। हिन्दी भाषी परिवारों को इस बात की प्रसन्नता थी कि उनकी संताने कम से कम हिन्दी बोलने तो लगी हैं। वहीं ग़ैर हिन्दी भाषी परिवारों के लिए हिन्दी फ़िल्में भारत से जुड़ने के एक साधन के रूप में उभर कर आई थीं। इंगलैण्ड में भारत से जुड़ाव के लिए हिन्दी फ़िल्मों के अतिरिक्त भारतीय क्रिकेट का भी खासा योगदान रहा। ख़ास तौर पर कपिल देव की टीम द्वारा 1984 में क्रिकेट के विश्व कप विजेता के रूप में उभर कर आने से भी यहां के बच्चों का भारत के प्रति अधिक सकारात्मक रुख पैदा हुआ। यही वह समय भी था जब बीबीसी ने रामायण और महाभारत जैसे विशुध्द भारतीय टेलिविज़न सीरियल अपने चैनल पर दिखाने शुरू किये। भारतीय परिवारों के पास आज भी उन सीरियलों की रिकॉर्ड की गई वीडियो कैसेट मिल जाएंगी। भारतीय मूल के परिवारों में हिन्दी का माहौल पैदा करने में इन दो महत्वपूर्ण सीरियलों का योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता।
ज़ी. टीवी का आगमन इंग्लैण्ड में हिन्दी के लिए एक महत्वपूर्ण घटना माना जा सकता है। अब उन घरों की दीवारें भी हिन्दी सुनी जा सकती थीं जहां पहली व दूसरी या तीसरी पीढ़ी या तो अपनी मातृभाषा में बातचीत करती थीं या फिर अंग्रेजी में। भारत में भी हिन्दी फ़िल्में मुख्यधारा की फ़िल्में मानी जाती हैं तो अन्य भाषाओं की फ़िल्में केवल क्षेत्रीय सीमाओं में बन्ध कर रह जाती हैं। फिर मराठी, गुजराती, पंजाबी, हरियाणवी आदि भाषाओं की आम फ़िल्मों का स्तर भी कुछ विशेष अच्छा नहीं होता। इसलिए भी ज़ी टीवी के लिए यह एक महत्वपूर्ण पल था और उनके सामने कोई प्रतियोगी भी नहीं था। लेकिन एक बात देखी गई कि भारतीय मूल के ब्रिटिश बच्चे बॉलीवुड की फ़िल्मों में तो रूचि रखते हैं वहीं टेलिविजन सीरियल क्योंकि लम्बे खिंचते जाते हैं, यहां के बच्चे उनसे कतराते हैं। जहां एक ओर सनराईज़ रेडियो के रवि शर्मा, सरिता सभरवाल, रिकी लोबो, राम भट्ट इत्यादि तो भारतीय मूल के बच्चों के चहेते बन जाते हैं वहीं हिन्दी टेलिविज़न सीरियल उनके साथ कोई संबन्ध स्थापित नहीं कर पाते हैं।
हिन्दी की मूलभूत समस्या यह भी है कि भारत में ही उसको उसका उचित स्थान नहीं मिल पाया है। विदेशों में अब तक हुए सभी विश्व हिन्दी सम्मेलनों में एकमत से यह प्रस्ताव पारित किया जाता रहा है कि 'हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाया जाए।' किसी भी भाषा के साथ इससे बड़ा मज़ाक हो ही नहीं सकता जो भाषा किसी देश की संसद की भाषा बनने के काबिल भी नहीं मानी जाती, उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा क्यों और किसके लिए बनाया जाए। जब कोई भूतलिंगम या श्रीनिवासन संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व करेगा तो उसे स्वयं ही हिन्दी भाषा समझ नहीं आएगी। तो फिर यह नाटक किसके लिए कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाया जाए। उसे वहां सुनेगा कौन? जब भारतीय मूल के लोग अपने बच्चों को ले कर भारत यात्रा पर ले कर जाते हैं तो बच्चे यह देख कर हैरान हो जाते हैं कि भारत में उनके समव्यस्क हिन्दी बोलना छोटेपन का द्योतक मानते हैं। वहां का युवावर्ग इंग्लैण्ड के युवाओं से अधिक अंग्रेज़ीदां है।
यह पूछना एक फ़ैशन सा भी बन गया है कि यदि जापान और जर्मनी बिना अंग्रेज़ी के आर्थिक ऊंचाईयों तक पहुंच सकते हैं, तो फिर भारत में हिन्दी की इतनी दुर्दशा क्यों। भारत एक विशाल देश है जिसकी एक भाषा कभी भी नहीं रही। हिन्दी कभी भी भारत में राजकाज की भाषा नहीं रही है। यह कभी संस्कृत थी तो कभी फ़ारसी तो कभी उर्दू । और आज यह स्थान अंग्रेज़ी के हिस्से में है। इसलिए यह प्रश्न एक प्रकार से बेमानी सा हो जाता है। जो भाषा कभी भी पूरे भारत की भाषा नहीं रही, वो भला जापानी या जर्मनी भाषा का मुक़ाबला किस प्रकार कर सकती है।
कहीं कहीं ग़लतफ़हमी यह भी है कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है। वास्तविक्ता यह है कि हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित किया गया था और जब तक हिन्दी पूरी तरह से कामकाज के काबिल नहीं बन जाती राजकाज का काम अंग्रेज़ी में भी किया जाएगा। यह 'अंग्रेज़ी में भी' आजतक 'अंग्रेज़ी में ही' बना हुआ है। भारत सरकार आजतक हिन्दी को इतना सक्षम नहीं बना पाई है कि राज काज का काम हिन्दी में किया जा सके। 'अंग्रेज़ी में भी' के स्थान पर सरकारी काम काज 'हिन्दी में भी' करवाया जाता है।
इंग्लैण्ड में जब कभी किसी भी हिन्दी अथवा किसी अन्य भारतीय भाषा के कार्यक्रम में जाने का अवसर मिलता है तो दिल में कहीं एक अन्जाना सा डर बैठने लगता है कि अगले कार्यक्रम से पहले कौन सा पीला पत्ता पेड़ से गिर चुका होगा। उन कार्यक्रमों में आने वालों की औसत आयु पचास वर्ष के उपर ही महसूस होती है। इस देश की नई पीढ़ी को हिन्दी साहित्य के कार्यक्रमों में तो कोई रूचि नहीं है, लेकिन देखने को मिला है कि जब कभी बॉलीवुड के कार्यक्रम होते हैं या फिर ऐसे हास्य नाटकों का मंचन हो जैसे कि शादी एट बरबादी डॉट कॉम, नॉटी एट फ़ॉर्टी, हनीमून इत्यादि तो नई पीढ़ी भी हंसने के लिए पहुंच जाती है।
जिस प्रकार भारतीय उच्चायोग, यू.के. हिन्दी समिति, कथा (यूके), गीतांजलि बहुभाषी समाज, भारतीय भाषा संगम इत्यादि संस्थाएं इंग्लैण्ड में हिन्दी के प्रचार प्रसार में जुटे हैं, नि:स्वार्थ भाव से देश भर में हिन्दी पढ़ाते अध्यापक एवं साथ ही साथ बॉलीवुड की फ़िल्मों को इंगलैण्ड के मुख्यधारा सिनेमाघरों में दिखाने की शुरूआत हुई है, उससे उम्मीद बंधती है कि हमें निराश होने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। मंजिल दूर अवश्य हो सकती है, किन्तु यात्रा में सफलता अवश्य मिलेगी। एक उदाहरण अपने घर से भी देना चाहूंगा। मेरी गुजराती पत्नी मेरे छोटे पुत्र से (जिसका जन्म लंदन में ही हुआ था) गुजराती में बात करती है। मेरा पुत्र उसे हिन्दी में जवाब देता है लेकिन मेरी ओर देखते ही अंग्रेजी में बात करने लगता है। है न ख़ासी दिलचस्प स्थिति !***
Tejendra Sharma
आप इंग्लैंड में हिंदी की उपेक्षा की बात करते हैं.दिल्ली में ही पढ़ा लिखा वर्ग हिंदी पुस्तकें पढ़ना अपनी शान के खिलाफ मानता है.पिछले सप्ताह मैंने अपने डॉक्टर को बताया कि हिंदी में लिखती हूँ तो उसे बड़ा अफ़सोस हुआ.बोला-मैंने तो लोगों को इंग्लिश बुक्स खरीदते देखा है.हिंदी में लिखी किताबें गांववाले ही पढते होंगे.
जवाब देंहटाएंभारत में तो स्थिति यह है कि उच्च तबके के अंग्रेजी दा लोग ही हिंदी बोलना लिखना अपनी कमतरी समझते हैं , अंग्रेजी में बात करना शान समझते हैं अपने बच्चों को हिंदी सिखाने के वजह हिंदी बोलने को मना करते हैं । हिंदी के वजाय इंग्लिश को अपने स्टेटस सिंबल के रुप में देखते हैं । यहां तक कि , जहां तक मेने देखा, समझा है कि , देखा देखी में ही , ग्रामीण और कस्बाई इलाकों के निवासी भी अपने बच्चो को अग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ही पढ़वा ते और गर्व से कहते मेरा बच्चा अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ता है। अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने पर अच्छी नौकरी मिलेगी , लोगों की ये सोच जड़ पकड़ चुकी है। मेरा मानना है ,.. कि पहले तो भारत सरकार हिंदी को राष्ट्रीय राजभाषा हिन्दी को राष्ट्भाषा के तौर संवैधानिक दर्जा दे। दूसरी प्राथमिकता सरकारी काम काज हिंदी में ही हो , और तीसरा हिंदी भाषा की धरातलीय मजबूती के लिए कुकुरमुत्ते की तरह हर जगह गांव शहर उगे अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में हिंदी विषय में बच्चे अनुतीर्ण कदापि न हों, आधिकतम अंक से उत्तीर्ण हों , यदि बच्चे हिंदी में अनुतीर्ण होंगे उस स्कूल की ज़िम्मेदारी तय की जाय, तदनुसार कार्यवाही हो। बच्चों के माता-पिता की जिम्मेदारी भी है कि ,वह अपने बच्चों की मजबूती के लिए , हिंदी बोलना, पढ़ना ,लिखना अच्छी तरह से सिखाएं । इमानसिकता के साथ कि, .. हम भारतीयों के लिए गर्व का की बात है ।
जवाब देंहटाएंडा० तारा सिंह अंशुल