'तुझको हों मुबारक़ ये तेरी मेहरबानियाँ, होगा भले दुनिया का तू मेरा ख़ुदा नहीं।' ये पंक्तियाँ हैं वरिष्ठ साहित्यकार देवेन्द्र कुमार पाठक जी की। मुझे ये पंक्तियाँ उनके फेसबुक अकाउंट से मिलीं, वह भी अपनी ही फोटो पर कमेन्ट के रूप में। कम ही रचनाकार हैं जो अपने बारे में इतनी तल्ख़ बात कह देते हैं। उनका यह कबीराई अंदाज़ उनके अपने जीवन दर्शन का द्योतक है। शायद तभी उनकी सभी कृतियों के शीर्षक भी इसी विशिष्ट दर्शन की और संकेत करते हैं- 'दुनिया नहीं अंधेरी होगी' (गीत-नवगीत संग्रह, 2008), 'विधर्मी' (उपन्यास, 1983), 'अदना सा आदमी' (औपन्यासिक कथा, रिपोर्ताज, 1986), 'कुत्ताघसीटी' (व्यंग्य संग्रह, 1990), 'मुहिम' (कहानी संग्रह, 1990), 'मरी खाल: आख़िरी ताल' (कहानी संग्रह, 2003), 'धरम धरे का दंड' (कहानी संग्रह, 2010), चनसुरिया का सुख' (कहानी संग्रह, 2011), 'दिल का मामला है' (व्यंग्य संग्रह, 2012)। और यह दर्शन है- जीवन क्या है, क्यों हैं और इसका वास्तविक उद्देश्य क्या है। और इसको रूपायित/व्यंजित करने के लिए वे लोकजीवन और लोकसंवेदना के मुहावरे का प्रयोग करते हैं। वह मानते भी हैं कि उनका समूचा लेखन कमोबेश ग्राम्य जीवन, खेतिहर-मजूर, दलित, पिछड़े स्त्री-पुरूषों पर केन्द्रित है। कुलमिलाकर उनके लेखन का स्वर आशा और विश्वास से लैस है- "मुझसे शुरू हुई थी, मुझ पर ख़त्म कहानी मेरी होगी/ एक चिराग बुझे, बुझ जाये, दुनिया नहीं अंधेरी होगी।"- यह है भारतीय दर्शन ...और भगवद गीता में कृष्ण का सन्देश भी बहुत कुछ यही कहता है। देवेन्द्र कुमार पाठक का जन्म (27 अगस्त 1956) छोटी महानदी ग्राम्यांचल के ग्राम भुड़सा, कटनी, मध्य प्रदेश में हुआ। शिक्षा: एम् ए बी टी सी। आप हिन्दी के अध्यापक हैं। देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में 1981 से आपकी रचनाओं का प्रकाशन और आकाशवाणी से प्रसारण होता रहा है। आपने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में कलम चलाई है। आपने 'महरूम' तखल्लुस' से गज़लें कहीं हैं। 'केंद्र में नवगीत: महाकौशल के सात नवगीतकार' पुस्तक का सम्पादन (चर्चित गीतकवि आनंद तिवारी के साथ) किया है। सम्मान: 'स्व बाबू पदुमलाल-पुन्नालाल बख्शी स्मृति सम्मान, बारडोली साहित्य रत्न आदि। संपर्क: प्रेमनगर, खिरहनी (दक्षिण), साइंस कालेज डाकघर, कटनी, मप्र- 483501, चलित दूरभाष: 08120910105। ई-मेल- devendra.mahroom@gmail.com ।
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
1. टहनी जैसे तनकर देख
गुस्सा-गाली, थप्पड़-घूँसा,
लाठी बनकर देख
झुकते-झुकते टूट न ऐसे
टहनी जैसे तनकर देख
एक कदम पीछे हटकर
तू बदल पैंतरा
फिर कर वार
ठेल-पेल कर दिशा-
बदल दे, जो उल्टी
बह रही बयार
यूँ मनमार, न बैठ हार
तू बारम्बार जतन कर देख
हाथों को हल
पैरों को कर पहिया
चल बस, चलता चल
धरती के-पन्ने पन्ने पर
लिख श्रम के तू
गीत-ग़ज़ल
स्वेद-गंग में अवगाहन कर
कर्म-कीच में सन कर देख।
2. हाथ हवा में
रात-रात भर मन-चमगादड़
भटका पीर-पहार, त्रास-वन
खीज तोड़ती खाट, अवशता
झूल रही अल्गनियों पर
मकडजाल बुनती कुंठाएं
दुधमुंह शाख-टहनियों पर
झाँक रहा चेहरे की हर
दरकन से घर का नंगापन
निःश्वासों में खून खांसती
दीर्घ दुराशायें खांसी-सी
जीना मानो जुर्म हो गया
लगे जिन्दगी गलफांसी-सी
हाथ हवा में लाठी भांजे
पाँव -पिडलियाँ भुगतें भटकन।
गुस्सा-गाली, थप्पड़-घूँसा,
लाठी बनकर देख
झुकते-झुकते टूट न ऐसे
टहनी जैसे तनकर देख
एक कदम पीछे हटकर
तू बदल पैंतरा
फिर कर वार
ठेल-पेल कर दिशा-
बदल दे, जो उल्टी
बह रही बयार
यूँ मनमार, न बैठ हार
तू बारम्बार जतन कर देख
हाथों को हल
पैरों को कर पहिया
चल बस, चलता चल
धरती के-पन्ने पन्ने पर
लिख श्रम के तू
गीत-ग़ज़ल
स्वेद-गंग में अवगाहन कर
कर्म-कीच में सन कर देख।
2. हाथ हवा में
रात-रात भर मन-चमगादड़
भटका पीर-पहार, त्रास-वन
खीज तोड़ती खाट, अवशता
झूल रही अल्गनियों पर
मकडजाल बुनती कुंठाएं
दुधमुंह शाख-टहनियों पर
झाँक रहा चेहरे की हर
दरकन से घर का नंगापन
निःश्वासों में खून खांसती
दीर्घ दुराशायें खांसी-सी
जीना मानो जुर्म हो गया
लगे जिन्दगी गलफांसी-सी
हाथ हवा में लाठी भांजे
पाँव -पिडलियाँ भुगतें भटकन।
3. सीधी बात समझ यह आती
लबरी-जबरी नूरा-कुश्ती
अब जनमन को नहीँ सुहाती
क्यों उपमेय नहीं हैं आश्रित
जबर-जटिल उपमानों के
क्यों होते हैं पुनर्परीक्षित
मिथक आज भगवानों के
फेंको गुठली चूस चुके रस
सीधी बात समझ यह आती.
लबरी-जबरी नूरा-कुश्ती
अब जनमन को नहीँ सुहाती
क्यों उपमेय नहीं हैं आश्रित
जबर-जटिल उपमानों के
क्यों होते हैं पुनर्परीक्षित
मिथक आज भगवानों के
फेंको गुठली चूस चुके रस
सीधी बात समझ यह आती.
क्या अभिप्राय-अर्थ बूझें जब
है सब कुछ ही खुल्लमखुल्ला
संत-महंत हुए बाजारू
छली-फ़रेबी काज़ी-मुल्ला
मार-मार पुरखों की पनहीं,
मूछ मरोड़ें पोते-नाती।
Three Hindi Poems of Devendra Kumar Pathak
है सब कुछ ही खुल्लमखुल्ला
संत-महंत हुए बाजारू
छली-फ़रेबी काज़ी-मुल्ला
मार-मार पुरखों की पनहीं,
मूछ मरोड़ें पोते-नाती।
Three Hindi Poems of Devendra Kumar Pathak
हाथों को हल
जवाब देंहटाएंपैरों को कर पहिया
चल बस, चलता चल
धरती के-पन्ने पन्ने पर .........
निःश्वासों में खून खांसती
दीर्घ दुराशायें खांसी-सी
जीना मानो जुर्म हो गया
लगे जिन्दगी गलफांसी-सी
क्यों होते हैं पुनर्परीक्षित
मिथक आज भगवानों के..
SABHI NAV GEET BAHUT SUNDAR BHAVON SE SAJEY ....BADHAAI RACHNAAKAR KO .!!
भाई देवेन्द्र पाठक मेरे अग्रज हैं,इनका अपना एक निराला अंदाज है, जीने का
जवाब देंहटाएंबिलकुल मौलिक, सहज, सरल----इनका यही अंदाज इनकी सभी रचनाओं में
मिलता है----इनका कहन,प्रतीक,बिम्ब और शिल्प तो अपने आप में अनूठा
होता है--------
सार्थक,सुंदर और गहन अर्थपूर्ण गीतों के लिये बधाई
अवनीश भाई का आभार
बहुत ही सुन्दर गीत .....समाज को प्रतिबिंबित भी करते हैं ...और उत्साहवर्धन भी .....बेहद सरल भाषा में ....अंतस तक उतरने वाले गीत ....
जवाब देंहटाएंगुस्सा-गाली, थप्पड़-घूँसा,
लाठी बनकर देख
झुकते-झुकते टूट न ऐसे
टहनी जैसे तनकर देख ....ऊर्जा बिखेरते शब्द
फेंको गुठली चूस चुके रस
सीधी बात समझ यह आती.....दो पंक्तियों me कडुवा सच .....नमन मेरा ...देवेन्द्र कुमार पाठक जी को
आदरणीय देवेन्द्र पाठक जी उन लोगों में है, पिछले कई बरसों से मैं जिनके बेहद करीब रहा हूँ। देवेन्द्र पाठक नवगीतों में आमजन की पीड़ा और संत्रास को अभिव्यक्त ही नहीं करते बल्कि वे आमजन के पक्ष में लाठी,घूँसा भी बन जाना चाहते हैं। वे अपने रचना संसार के विविध रूपों के साथ नवगीतों में भी बाज़ारू, राजनीतिक ,तथाकथित धार्मिक छल-छद्मों को बेनकाब करते हैं। अबनीश जी ने सच ही कहा है कि उनका अंदाज़ कबीराई है।मैं उन के इसी कबीराई अंदाज़ का पिछले 26 वर्षो से साक्षी हूँ।
हटाएंसुन्दर व् सार्थक नवगीतों के लिए देवेन्द्र पाठक जी को बधाई और अबनीश जी को धन्यवाद।
मेरे अपने सभी सुधि पाठक ,सुधि श्रोता और नवोदित, वरिष्ठ,तथा मेरे समय साथ के सभी गीतकार,नवगीतकार और साहित्यिक मित्रों को समर्पित आज का यह नया गीत विद्रूप यथार्थ की धरातल पर सामाजिक व्यवस्था और प्रबंधन की चरमराती लचर तानाशाही के कुरूप चहरे की मुक्म्मल बदलाव की जरूत महसूस करता हुआ नवगीत !
जवाब देंहटाएंसाहित्यिक संध्या की सुन्दरतम बेला में निवेदित कर रहा हूँ !आपकी प्रतिक्रियाएं ही इस चर्चा और पहल को सार्थक दिशाओं का सहित्यिक बिम्ब दिखाने में सक्षम होंगी !
और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्तिकरण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु !आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुश हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्पर है!.....
लौटेंगे
फिर से
खोखल में पांखी
बैठेंगे उड़ उड़
अमुआं की डारी !
मादक रसीले
टपकेंगे
कूँची के महुये
नचती गिलहरी
पतझर से हारी !
बरगद की फुनगी
कोंपल सजेगी
कानों की लटकन सी
इमली की फलियाँ,
फूलेंगी फूलों की
बगिया गुलाबी
गायेंगे भौंरे
मधुबन की गलियाँ,
उजड़े
वनों की
उजड़ी आजादी
अँखुओं सजेगी
कुल्हारियों की मारी !
लौटेंगे
फिर से
खोखल में पांखी
बैठेंगे उड़ उड़
अमुआं की डारी !
मादक रसीले
टपकेंगे
कूँची के महुये
नचती गिलहरी
पतझर से हारी !
सरफरोसी धोबिन
धोएगी मल मल
अपने जिगर के लहू से
दामन का काजल,
किया नालों ने
नदियों को आहत
दूषित किया है
दंभों ने पोखर का जल,
विस्तार पाकर
तलैयाँ
तलबा बनेंगी
हांथों में
थाँमकर कुदारी !
लौटेंगे
फिर से
खोखल में पांखी
बैठेंगे उड़ उड़
अमुआं की डारी !
मादक रसीले
टपकेंगे
कूँची के महुये
नचती गिलहरी
पतझर से हारी !
भूलना नहीं है
हाँकना है
शतरंगी अजगर
बगईचों की छाँव से,
दहशत में तितली
सहमी चिरैया
चापलूस गिरगिट
हाँकना है गाँव से,
सहगान
चुनगुनिया
निर्झर झरेंगे
संगीत सरिता
बहायेगी कोयल दुलारी !
लौटेंगे
फिर से
खोखल में पांखी
बैठेंगे उड़ उड़
अमुआं की डारी !
मादक रसीले
टपकेंगे
कूँची के महुये
नचती गिलहरी
पतझर से हारी !
भोलानाथ
डॉराधा कृष्णन स्कूल के बगल में
अन अच्.-७ कटनी रोड मैहर
जिला सतना मध्य प्रदेश .भारत
संपर्क – 8989139763
आपका नवगीत आज के परिवेश मेँ हताशा से उबारकर जनजीवन और हमारी धरती को सुँथर बनाने के लिए प्रेरित करता है
जवाब देंहटाएंआभार कहता हूँ पाठक जी !
जवाब देंहटाएं