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बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

गीति काव्य में वसंत की अनुभूति और उसका सौंदर्य- समीर श्रीवास्तव

समीर श्रीवास्तव

प्रतिभा, परिश्रम और लक्ष्य को साधने की क्षमता मेरे अग्रज समीर श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व की विशेषताएं हैं। यही कारण रहा कि जब उन्होंने साप्ताहिक पत्र 'प्रेस मेन' एवं बाद में 'साहित्य समीर' का सम्पादन किया तो उनकी चर्चा लगभग सभी छंदधर्मी रचनाकारों और महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में हुई। एक समय था जब पाठक इन पत्रों को पढ़ने के लिए लालायित रहते थे और जब कभी भी इन पत्रों के डाक से पहुँचने में विलम्ब होता तब वे इसके बारे में समीर जी से कहे बिना नहीं रह पाते थे। कहा जाने लगा था कि समीर जी का यह सुन्दर साहित्यिक अनुष्ठान उनके सफल नेतृत्व और बड़ी सोच का प्रतिफल है। इन पत्रों में उनके द्वारा लिखे आलेख और सम्पादकीय संग्रहणीय होते थे। मैंने उनसे कई बार कहा कि आप अपने आलेखों आदि को पुस्तकाकार करवा लीजिये, लेकिन वे मेरे सुझाव को टाल गए। कई बार मैंने कहा कि आप इंटरनेट पर इन्हें प्रकाशित करने के लिए मुझे दे दीजिये पर उन्होंने मेरी बात को अनसुना कर दिया। मैं जानता था कि वे अपने आप को-प्रचारित प्रसारित करवाने के इच्छुक कभी नहीं रहे, यदि कोई पत्र-पत्रिका उन्हें स्वयं प्रकाशित कर दे तो अलग बात है। अन्य रचनाकारों को छापना और उन पर चर्चा करना ही उनका मुख्य ध्येय रहा। तब मैंने भाभीजी (कीर्ती श्रीवास्तव जी) से आग्रह कर वसंत पंचमी पर यह विशेष आलेख 'गीति काव्य में वसंत की अनुभूति और उसका सौंदर्य' प्रकाशनार्थ मंगवाया। सो इसे यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ। शिक्षा: एम.कॉम.,भोपाल विश्वविध्यालय, भोपाल, म प्र। सम्प्रति: दैनिक भास्कर- औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में वरिष्ठ उप संपादक। प्रकाशन: देश की समस्त प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविता, आलेख, लघुकथा, लोक कथा, बाल कथा एवं कहानियों का प्रकाशन, आकाशवाणी, दूरदर्शन से प्रसारण। विशेष: साप्ताहिक ‘प्रेस मैन’ का 8 वर्षों तक साहित्यिक सम्पादन। संपर्क: दैनिक भास्कर औरंगाबाद (महाराष्ट्र), मो.- 07385090214, 08600186342. ई-मेल- sahityasameer@yahoo.in 

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
ऋतुराज वसंत निश्चय ही मादकता का पर्याय है, बसन्त सम्पूर्ण सृष्टि में आनन्द, उमंग और मधुरता का रस घोल देता है। वसंत ऋतु में जीवन उल्लसित होकर थिरकता है, भाव-विभोर होकर नॄत्य करने लगता है। प्रकृति और मानव के जीवन के अटूट सम्बंधों को दर्शाता हुआ महाकवि निराला ने बसन्त का कितना मधुर चित्रण किया है-

‘‘सखि बसन्त आया/ भरा हर्ष वन के मन,/किसलय-वसना नवमय लतिका/ मिली मधुर प्रिय उर तरु पतिका/ मधुप-वृन्द्र-/ पिक स्वर नभ सरसाया।’’ 

प्रकृति बसन्त ऋतु में मादकता के रंग भर देती है, मन मस्तिष्क मुग्ध होकर झूमने लगता है। वरिष्ठ नवगीतकार विद्यानंदन राजीव की यह पंक्तियां देखिए-

‘‘उमड़ी कादम्बिनी, पखेरू/कोहर से बाहर निकले। पहन लिये परिधान सुरमई/ बदला- बदला नील गगन, / और मयूरी के होठों पर / उगे सरस अनमोल वचन/ हिलें- डुलें, बल खायें शाखें/पुरवा ताने मारे चले।’’ (हरियल पंखी धान) 

हर तरफ पुष्पों की बहार है, मदमस्त भ्रमर चहुं ओर मंडरा रहे है। भंवरा हर कुसुम का रस पी लेना चाहता है, बयार सुगंधमय हो उठती है। प्रतिष्ठित नवगीतकार कुमार रवीन्द्र ने कितना मोहक वर्णन किया है-

‘‘सुनो-सुनो तो / दस्तक अंदर से आती है। देखो, शायद फिर बसन्त आया है घर में/ ऐसी ही दस्तक आई थी/ बरसों पहले / देख तुम्हारी हंसी हुए थे। धुंध सुनहले / और तुम्हारी कनखी से/ बरसा गुलाल था/ वहीं रंग, लगता है, फिर छाया है घर में/ सुनो- सुनो तो....’’ (और हमने संधियां की)

ऋतुराज बसन्त वस्तुत: जीवन में आनंद, उल्लास एवं मधुरता का द्योतक है। बसन्त में आम बौर से लद जाते हैं आमों के बौर को देखकर मन प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। रुमानी संवेदनाओं के साथ- साथ प्रेम का प्रकृति के साथ तदात्म्य स्थापित करता हुआ एवं बौर की मादकता भरी गंध में वरिष्ठ गीतकार मयंक श्रीवास्तव का कवि मन कह उठता है -

‘‘किसको न अपना मन दिया आमों के बौर ने/ किसका नहीं छुआ हिया, आमों के बौर ने।  तथा 
कितनों की प्यास बढ़ गयी, कितनों की बुझ गयी/ कितनों का दर्द पी लिया, आमों के बौर ने"

बसन्त ऋतु में चारों ओर फैली मादकता से तरुण-तरुणियों का चचंल मन हिलोरे लेने लगता है। उनका मन मयूर नाच उठता है वरिष्ठ गीतकार बटुक चतुर्वेदी ने अपनी बुंदेली रचना में इसका बहुत ही खूबसूरत वर्णन किया है- 

‘‘मैं तो सुध-बुध भूली अंगना, में/ जो आ गए बसन्ती सांवरिया/ चंपा ने जूही से धीरे से पूछी/ कौन रंग डूबी हो बाबरिया/ फूलन के ऊपर भ्रमर झुक· आए/ रै गई ठगी सी जा बगिया नटखट पवनियां ने बंशी बजा के / मों लये घर - घर के सांवरिया ’’ (बरखा बसंत)

टेसू के फूलों से हर शाख नव परिवर्तन का रंग भरती है। कोकिल पंचम स्वर में गाती है ऐसे में प्रियतमा का मन बार- बार कह उठता है, ऐसे मद भरे मौसम में मन भटक रहा है कैसे इस भातकन को दूर करू? इस उधेड़बुन को बुन्देली कवयित्री डॉ. प्रेमलता नीलम ने बड़ी खूबसूरती से बयां किया है-

‘‘लाल-लाल टेसू फूले/सब लाल भओ है वन/ संजा बिरियां लाल मांग-सी/दमकत है दरपन।/जाने कैंसी खिंची लकीरें/मिटै न करें जतन/जो लो देहरी एक बंधे ने/कैसे मिटे भटकन।’’

धरित्री/ बासन्ती चूनर ओढ़ इठलाने लगती है। लाल-लाल टेसू बल खाने लगे, वन-उपवन महकने लगे। बसन्त के मदिर-मधुर आकर्षण से सम्मोहित लोगों के साथ प्रकृति भी विभोर होकर खुशी से झूम उठती है। वरिष्ठ नवगीतकार श्रीकृष्ण शर्मा कहते हैं -

‘‘अब सरसों के फूलों का जादू/हरियाली के सिर चढ़ बोल रहा/ यौवन अपनी बांह बढ़ाकर अब/ कलियों का छवि-घूंघट खोल रहा/मधुवन में उर्वशी उतर आयी/ ब्रह्मचर्य डोला पतझरों का/ जागा अब नया भोर बहारों का’’
(फागुन के हस्ताक्षर )

बसन्त ऋतु के पदापर्ण के साथ ही सब वृक्ष पल्लव-फूलों से लद गये है, जल में कमल दल छटा बिखेर रहे हैं, मंद-मंद मधुरिम सुगंधित बयार चल रही है। पलाश के फूल हर ओर दिखाई दे रहे हैं वातावरण मोहक हो उठता है, ऐसे में नवगीतककर बृजनाथ श्रीवास्तव हते हैं-

‘‘बासन्ती समझौते/ दस्तखत पलाश के/गंधों के दावों का/ बाग रहा फूल/कलियों पर/ कांटो की दृष्टि रही झूल/ हवा हुए कोमल के/ गीत मन हुलास के।’’ (दस्तखत पलाश के)

पतझर की समाप्ति पर खुशी प्रकट करते हुए, बसन्त के आगमन के साथ ही कोयल कूक उठती है, पक्षी चहकने लगते है, हर मन पर बसन्त का प्रभाव गहरा जाता है। नवगीतकार प्रो. प्रेमशनकर रघुवंशी ने इसका खूबसूरत चित्रण किया है-

‘‘हरी देह पर/लाल हंसी है/दृष्टि सृष्टि की/यहीं फंसी है/कल था जोगी/पूर्ण दिगंबर मस्ती उसमें आज बसी है।’’ तथा ‘‘भूत पछाड़ा/जब पतझर का/रूप सिंगारा/तब बसन्त का।’’ (सतपुड़ाके शिखरों से)

नवगीतकार श्यामनारायण श्रीवास्तव ‘श्याम’ बसन्त के आगमन पर प्रफुल्लित मन से कह उठते हैं-

‘‘भीनी-भीनी महक बसाये क्वांरी सासों में/ मधुऋतु आई, किल्ले फूटे शाखों में/ कितनी बड़ी धरा है/ कितना घेरा अम्बर का/ बाहों में भरने की/ चाहत जागी पाखों में।’’ (मंदाकिनी बहती रहे)

युवा गीतकार राजा अवस्थी ने बसन्त ऋतु का अपने गीत में इतना सुन्दर प्रयोग किया है, वह कहते है -

‘‘अमराई महकी अबके भी/ स्वागत में मधुमास के/ कितनों के मन दहक उठे अंगारे चिर प्रिय आस के। ’’ 
(जिस जगह वह नाव है)

बसन्त में सरसों के फूल लहलहा उठते है चारों और हरियाली के मध्य पीली-पीली सरसों बड़ी ही मन-मोहक छटा बिखेरती है नवगीतकार यश मालवीय के शब्दों में-

‘‘सरसों पर सहसा/ मन बरस गया बादल का/ हे बसन्त फिर से मन फूल हुआ सेमल का।’’ 

बसन्त में महुए की भीनी - भीनी मादइकता भरी गंध वातावरण को काम-मय कर देती है, ऐसे में नवगीतकार मधुकर अष्ठाना का अन्दाज देखें - 

‘‘अधरों पर प्रीति मुहर/ महुआ -महुआ हुए अनछुए प्रतीकों के दिशा बोध जागे/ मृदुल परस के सारे अनुक्ररम अनुरागे/ लगता मधु पल गये ठहर। ’’ 
(न जाने क्या हुआ मन को)

बसन्त आनंद और उल्लास की ऋतु है, ऐसे में बरबस ही कवि मन प्रणय गीत लिखने को आतुर हो उठता है, वरिष्ठ नवगीतकार अवधबिहारी श्रीवास्तव ने कितना खूबसूरत चित्रण किया है: 

‘‘मधु ऋतु ने चाहा फिर / रजनी को अंक मंस / प्रात: काल की लाली में/ डूब गई भरसिनी/ लहर गया चैता का/ मादक स्वर प्यार भरा/ मटियारे खेतों में / बिखर गई चांदनी ।’’ (हल्दी के छापे)

नवगीतकार डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ ने बसन्त ऋतु के आगमन पर बसन्त की शोभा का वर्णन कुछ इस तरह किया है- 

‘‘केसर चन्दन पानी के दिन/ लौटें चूनर धरती के दिन/ मंजरी, कोकिला अमलतास/ ऋतुपति के अगबरनी दिन / गांव, गाली, चौबारों में/ खुशियों की मेहमानी के दिन।’’ (मेले में यायावर)

बसन्त में मानव मन प्रफुल्लित हो उठता है। मौसम में आया यह मदभरा परिवर्तन समूचे वातावरण में उल्लास का संचार करता है। बसन्त में प्रत्येक वृक्ष की डाली-डाली नर्तन करने लगती है। प्रकृति का सौन्दर्य अपने पूरे शबाब पर होता है। हर तरफ बहार छायी रहती है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. हुकुमपाल सिंह ‘विकल’ का खुशी में विकल मन बरबस ही कह उठता है-

‘‘फगनौटे आंगन में/रोप दिए मौसम ने/अनजाने अल्हड़ से/रस बिरवे गंध के।/ मधुऋतु ने मधुमय बसन्ती/चूनर जो पहनी/ महक उठी अमराई मह मह/बहकी हर टहनी/पुरवा ने हर रूप देह पर/डोरे डाल दिए/मधुर मिलन के अन्तस अन्तस/उठा सवाल दिए/कनकीली किरणों ने/लिख डाले शाखों पर/केशरिया धूप सने/गीत नए छन्द के।

धरित्री बसन्ती चूनर पहन इतरा उठी है, समूचे वातारण में बसन्त का प्रभाव छा गया है, ऐसे मद भरे वातावरण में प्रसिद्घ नवगीतकार दिवाकर वर्मा कहते हैं-

‘‘छूकर गंध/ तुम्हारी महके/ महकाये पुरवाई,/ आंगन के/ कोने -कोने की/ छाया तक गंधियाई/ पवन देव स्वागत को आतुर/ कब वे विजन डुलायें।" (और उलझते गये जाल में)

वरिष्ठ नवगीतकार वीरेन्द्र आस्तिक ने बसन्त की खुशियों में एक माली की पीड़ा को अपने नवगीत में दर्शाया है -
‘’वसन्त/बगिया में हर दिन है/रानी के हंसने से।/रानी को कोयल की/बोली मन भाए/माली, दिनभर कोवों को/मार भगाए। / वसन्त/माली के घर में है/रानी के खिलने से।’’

तरुवर हरिया गये हैं, आमों के वृक्ष बौर से लद गये हैं, कोयल कूक·ने लगी है, ऐसे में डॉ. देवेन्द्र आर्य का मन बसन्त में झूम उठता है, वह कहते हैं- 

‘‘मन रे, हम बसन्त बन जाएं/ पतझर की सूनी डालों पर/ नव चेतन, नव रस सरसाएं।"
(आग लेकर मुट्ठियों में)

खेतों में सरसों फूली हैं। लगता है जैसे ऋतुराज के स्वागत में पीली चादर ही ओढ़कर नई अंगड़ाई लेना शुरू कर दी है। लेकिन अपने प्रिय  के बिना सब रंगहीन लगता है। गीतकार अवनीश सिंह चौहान की ये पंक्तियाँ देखें-

‘‘मंगल पाखी/ वापस आओ/ सूना नीड़ बुलाए/ फूली सरसों खेत हमारे/ रंगहीन है बिना तुम्हारे/ छत पर मोर /नाचने आता/ सुगना शोर मचाए।’’ (टुकड़ा कागज़ का)

बसन्त ऋतु प्राय: समस्त कवियों की प्रिय ऋतु रही है, लगभग सभी कवियों ने बसन्त ऋतु पर अपनी सार्थक लेखनी चलाई है, परन्तु इस संक्षिप्त आलेख में सबको सम्मिलित कर पाना सम्भव नहीं था। अत: मैं वरिष्ठ नवगीतकार प्रो. देवेन्द्र शर्मा इन्द्र की बसन्त पर इन खुबसूरत पंक्तियों के साथ इसका समापन करना चाहूंगा-

‘‘रंग रंग के सपने/ तैर उठे पलकों में/ मलयज की गंध उठी/ नागिन सी अलकों में/ चम्पक-अंकवार वह निमिष भर का/ मन न सका भूल। ‘‘ (पहनी है चूड़ियां नदी ने)

बसन्त की यह अप्रतिम छटा कवियों का मन उल्लास से भर देती है, उनको प्रेरित करती है। बासन्ती छंद रचनाओं का हिन्दी साहित्य में श्रेष्ठ इतिहास रहा है व भविष्य में भी श्रेष्ठ बासन्ती छंद गीत/ नवगीत लिखे जाते रहेंगे।...

 An Article on Hindi Geeti Kavya by Sameer Shrivastava

17 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद अवनीश सिंह चौहान जी और समीर श्रीवास्तवजी
    ऋतुराज बसंत पर मधुर काव्य रस की मधुर अनुभूति हुई -
    ऋतु बसंत का आगमन,खुशियों का उन्माद,
    खुशबु है मन भावन सी,मधुर-मधुर सा स्वाद।- लक्ष्मण लडीवाला

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    1. लक्ष्मण लडीवाला जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका

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  2. MAN BHAVAN LEKH ..BAHUT PRRETIKAR LAGAA ...BADHAI PRAKASHIT KARNE KE LIYE AUR RACHNAKAAR KO ...!!

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  3. भावना तिवारी जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका

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  4. प्रिय अवनीश जी
    मेरे आलेख को आपने अपनी प्रतिष्ठित पत्रिका 'पूर्वाभास' में स्थान दिया. इसके लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया...आभार...धन्यवाद.
    मै अभिभूत हूँ.

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  6. बहुत बहुत शुक्रिया दिलबाग विर्क जी

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  7. वसंत पर नवगीतों के अंश देकर लिखा गया समीर श्रीवास्तव का यह लेख पबहुत अच्छा लगा, हिन्दी गीतों और नवगीतों में वसंत को अनेक दृष्टियों से रचनाकारों ने देखा, महसूसा और रचनाओं में प्रस्तुत किया है, समीर जी ने बहुत सुन्दर उद्धरण खोज कर इस लेख को रचा है, वधाई, अवनीश चौहान को भी वधाई वसंत पंचमी पर लेख प्रकाशित करने के लिये।

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  9. रचनात्मक सौन्दर्य को उद्घाटित करता हुआ आलेख स्वयं में एक रचना है। — महेंद्रभटनागर / 0751-4092908 / ई-मेल drmahendra02@gmail.com

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  10. काव्य में वसंत का चित्रण न हो यह असंभव है।
    समीर जी ने उत्कृष्ट आलेख लिखा है।
    - किसलय

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  11. बहुत गहन अध्ययन और पारखी दृष्टि का ही परिचय नही कराता यह आलेख, बल्कि लेखक -सम्पादक श्री समीर श्रीवास्तव जी की अपूर्व रस मर्मज्ञता के भी दर्शन कराता है । बाहर प्रकृति में बिखरा बसंत हम अपने भीतर न भी आने दें, किन्तु यह आलेख पढ़ते हुए पूरा का पूरा बसंत भीतर उतर आता है ।
    यह आलेख अब तक लिखे गए आलेखों से इस मायने में भी अलग है कि यहाँ अपने समय के रचनाकारों की चर्चा की गई है, यानी अपने समय की नब्ज को टटोलते हुए भी बसंत का वर्णन है । इस आलेख को पढ़ते हुए बसंत पर केन्द्रित श्रेष्ठ गीत संकलन पढने का भी आनन्द आता है । लेखक आदरणीय समीर जी को हार्दिक बधाई इस सुन्दर आलेख के लिए ।
    भाई अवनीश जी को साधुवाद । वे तो रत्नों के पारखी हैं, चुन-चुनकर हीरे लाते है । लाते रहिए । समीर जी के और भी आलेख पढ़वायें, अच्छा लगेगा ।
    राजा अवस्थी, कटनी

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