डॉ अनुज कुमार |
मुजफ्फरपुर, बिहार में जन्मे (22 जून 1979) युवा कवि डॉ अनुज कुमार ने हैदराबाद विश्वविद्यालय से पीएच.डी की। तदुपरान्त नागालेंड विश्वविद्यालय में हिन्दी अधिकारी के रूप में इनकी नियुक्ति हो गयी। कविता लेखन में रूचि होने के कारण इन्होने दो चिट्ठे- नम माटी एवं कागज का नमक बनाए और इनके माध्यम से अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं। संपर्क: anujkumarg@gmail.com। कुछ दिन पहले जब इनकी रचनाएँ मेरे पास आयी तो पढ़कर लगा कि अपने प्रारम्भिक दौर में यह रचनाकार बहुत अच्छा लिख रहा है। मुझे इनकी रचनाएँ बहुआयामी एवं प्रेरक लगीं। लगा कि इनकी रचनाएँ प्रकृति और मानवता के प्रति प्रेम और समर्पण को व्यंजित तो करती ही हैं, आज के कठिन जीवन को भी बखूबी रेखांकित करती हैं। मन हुआ कि इनको प्रकाशित किया जाना चाहिए। सो यहाँ पर इनकी तीन कविताएँ प्रस्तुत हैं: -
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
चावल,
बोरे में बचा था कुछ चावल,
चावल- जिससे मिटाते हैं भूख,
चावल बस एक समय का
इंतज़ार,
रात का इंतज़ार,
स्याह होने का इंतज़ार,
इंतज़ार-तारों का नहीं, सिगरेट के टुकड़ों का
उम्र,
मोमबती सी पिघलती उम्र,
उम्र के जाने के साथ जाती नौकरियाँ,
उम्र की कैद में सिमटी नौकरियाँ
उम्मीदें,
कूड़े के हवाले हैं उम्मीदें
उम्मीदें-जिनपर खड़ा है आदमी,
उम्मीदें-जिनपर लगे हैं संशय के जाले.
सवाल,
सब पूछते सवाल दर सवाल,
सवाल-जिसके लच्छे छोड़ चटखारे लेते आदमी,
सवाल- पढ़ाई खूब, नौकरी छोटी-मोटी?.
पूछता,
मुझसे कोई तो पूछता-
पूछता- कैसा लगता है
अर्जियों के जवाब में बंद, सपनों का इंतज़ार?
पूछता- कैसे कर सकता है
सपनों से थका आदमी किसी भी गुलामी का इंतज़ार?
पूछता- मुझ युवा पर दंभ भरती सरकार
कैसे कर सकती है योग्यताओं को तार-तार?
कैसे दे सकती है क्रूर दिलासों का व्यापार?
कि कोई तो जाए, गुहार दे, चीखे-चिल्लाए,
कि हमारे वोट पर ऐंठती सरकार!
टूट-फूट गए हैं हम,
अब और न होता इंतज़ार।
2. सफलता का गर्व
स्मृति का सहारा ले,
देख रही हूँ मैं,
जिंदगी के उस हिस्से को
जिसमें ताज़ी सांसों के एवज़ में
सुबह-सुबह लोग
अपने घोंसलों से निकला करते थे
और मैं-
किया करती थी साफ
शहर-भर का चेहरा
इतना खौफ, इतना भय भर गया था
कि सुहाग रात के दिन
घंटों खुद को सूंघती रही
मेरी पोती का आइसक्रीम के लिए झूठमूठ रोना
मुझे ले आता है आज में,
मैं लेती हूँ अपने पति का,
झुर्रियों भरा हाथ,
खुश्क मजदूर के हाथ,
हमेशा स्नेह से नम रहे,
लुढकते आंसुओं को पोंछते हुए,
दूर देखती हूँ अपनी बेटी का मुस्कराता चेहरा
उसके कंधे पर स्टेथेस्कोप है,
और मेरी छाती में कूट-कूट कर समाहित है,
एक अधेड़ दंपत्ति की सफलता का गर्व।
3. एक गाँव : दो चित्र
2. सफलता का गर्व
स्मृति का सहारा ले,
देख रही हूँ मैं,
जिंदगी के उस हिस्से को
जिसमें ताज़ी सांसों के एवज़ में
सुबह-सुबह लोग
अपने घोंसलों से निकला करते थे
और मैं-
किया करती थी साफ
शहर-भर का चेहरा
इतना खौफ, इतना भय भर गया था
कि सुहाग रात के दिन
घंटों खुद को सूंघती रही
मेरी पोती का आइसक्रीम के लिए झूठमूठ रोना
मुझे ले आता है आज में,
मैं लेती हूँ अपने पति का,
झुर्रियों भरा हाथ,
खुश्क मजदूर के हाथ,
हमेशा स्नेह से नम रहे,
लुढकते आंसुओं को पोंछते हुए,
दूर देखती हूँ अपनी बेटी का मुस्कराता चेहरा
उसके कंधे पर स्टेथेस्कोप है,
और मेरी छाती में कूट-कूट कर समाहित है,
एक अधेड़ दंपत्ति की सफलता का गर्व।
3. एक गाँव : दो चित्र
एक
जैसे हटा हो कोई पर्दा,
वैसे छँट चुका है कोहरा,
आँखों के विस्तार की सीमा तक,
पसरी है हरियाली
आँखे भर लेना चाहती हैं हरियाली
साँसे भर लेना चाहतें हैं हरापन
ओस से लदे खेत,
सुबह की रौशनी में सन कर,
हीरे हुए जा रहे हैं.
आम के गाछ इधर
ताड़ के पेड़ उधर
कर रहे तैयार एक मनोरम कैनवास।
दो
कैनवास में हैं वे भी शामिल,
जो मेरी मस्तिष्क के व्यर्थ विस्तार से अजान,
मफलर का मुरैठा बाँधे,
आग तापते, चुस्कियाँ लेते,
आँख मिलने पर मुस्की छोड़ते
शहर की कलाई मरोड़ते
कर रहे बतकही का प्रचार-प्रसार
कि उनके लिए तो धरी पड़ी है,
सारी सुंदरता, सारे विचार, सारा विस्तार।
Three Hindi Poems of Dr. Anuj Kumar
Three Hindi Poems of Dr. Anuj Kumar
bahut badiya......
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कृति जी
हटाएंबहुत ही प्रभावित करती हैं ये कवितायें.....बड़े कम लोगों के यहाँ कैनवास पर भी बचा है गाँव ....
जवाब देंहटाएंbahut acchi kavitaaye aapko ek kitab chapwayiye apni thoda naam bhi chhaiye hota hain gar rachan sab ke samne lani hain to vaise ek dam nay aayaam chuaa hain aapne
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