संवेदनशील कथाकार मनीष कुमार सिंह का जन्म 16 अगस्त, 1968 को पटना में हुआ। प्राइमरी के बाद आपकी शिक्षा इलाहाबाद में हुई। स्नातक की परीक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण करने के पश्चात आप भारत सरकार में राजपत्रित अधिकारी हो गए। साहित्य में विशेष अभिरुचि होने के कारण आप हिन्दी में लेखन भी करने लगे। मनीष जी की कहानियों में देशकाल और वातावरण का सजीव चित्रण देखा जा सकता है जिसका प्रमाण आपके तीन कहानी संग्रह- ‘धर्मसंकट’, ‘आखिरकार’ और ‘अतीतजीवी’ भी हैं। साथ ही विभिन्न पत्रिकाओं, यथा-'समकालीन भारतीय साहित्य', 'भाषा', 'साक्षात्कार ','पाखी', 'परिकथा ','लमही, 'परिंदे', 'समय के साखी', 'प्रगति वार्ता', 'अक्षरा', 'भाषा स्पंदन', 'प्रगतिशील आकल्प', 'साहित्यायन', ‘मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद पत्रिका’, 'पुष्पगंधा', 'सुखनवर', 'अक्षर पर्व' ‘पाठ‘, ‘समकालीन सूत्र‘,'शब्द योग', 'कथादेश' इत्यादि में आपकी कई कहानियॉं प्रकाशित हो चुकी हैं। संपर्क: 240-सी,भूतल,सेक्टर-4, वैशाली,गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश), पिन-201012, मो. 09868140022, (0120) 2771654. ई-मेल: manishkumarsingh513@gmail.com. आपकी एक कहानी यहाँ प्रस्तुत है:-
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
सड़कों की सफाई ही नहीं बल्कि डिवाइडर पर गेरुए रंग के नए गमलों में उत्तम प्रजाति के पौधे लगे देखकर कोई अल्पबुद्वि प्राणी भी समझ सकता था कि विशिष्ट अतिथि के आगमन के उपलक्ष्य में ही ऐसा होता है। बरसों से उपेक्षित पड़े इलाके का दिन घूर की तरह फिर आया था। वे सब लोग जो अपने घर के कूड़े को ऑख बचाकर यू ही खुलेआम दो मकान छोड़कर सड़क पर फेंक देते थे आज चार-छह के सुविधाजनक समूह में इकठ्ठा होकर सरकार व प्रशासन के पक्षपातपूर्ण रवैये की बड़ी निर्भीकता से निन्दा कर रहे थे। ''गर्वनमेंट को आम आदमी की सुध कहॉ है। वो तो मिनिस्टर साहब आ रहे हैं इसलिए इतना हो-हंगामा हो रहा है। सुनते हैं कि दो अफसर सस्पेंड कर दिए गए हैं।'' एक अधेड़ उम्र के सज्जन ने बेहद संजीदगी से सरकार की कार्यप्रणाली पर टिप्पणी की। इस पर एक बड़ी उम्र के सज्जन सभ्यता से व्यंग्यपूर्वक मुस्कराने लगे। ''छोडि़ए जनाब! गवर्नमेंट हमारे-आपके कहने से बदल नहीं जाएगी। डिमोक्रेसी हो या जो भी...हाकिम हमेशा हाकिम रहेगा और ताबेदार अपनी जगह रहेगा। मैं पूछता हू कि आखिर इसमें क्या बुरा है? अगर इसी बहाने बरसों से गंदी दीवारें साफ हो जाती हैं। बेकार के नारे मिट जाते हैं तो बुरी बात नहीं है। लोग पब्लिक की जमीन दबाकर दूकान खड़ी कर बैठे हैं। इसी चक्कर में उन्हें हटाया जाता है। आप गौर कीजिए कि कल तक यहॉ कितने भिखारी और आलतू-फालतू के लोग घूमते थे। आज ससुरी चिडि़या भी नहीं फटकती है।...होना चाहिए। साल में एकाध बार ऐसा हो तो बढि़या है।'' वे जिस तन्मयता से बोल रहे थे उससे किसी के मन में इन बातों की गुरुता पर संशय करने का कारण नजर नहीं आया।
इस वार्तालाप में लोग सड़क पर कूड़ा फेंकने की बात गोल कर गए। आखिर देश-समाज की वृहत्तर समस्याओं पर विमर्श के बीच छोटी बातें कहॉ याद रहती हैं।
यहॉ से थोड़ी दूर एक गोलाकार पार्क था। हालॉकि यहॉ व्यवस्था इतनी अच्छी नहीं थी। घास के आच्छादित हिस्से से अधिक धूल से आवृत क्षेत्र थे। बच्चों के झूले और सी-सॉ लगे हुए थे। कहीं एकाध क्यारियों में पौधे में खिले फूल दिख जाते। वहीं एक पगली सी भिखारिन चिथड़े पहने एक पिचके हुए कटोरे में कुद खा रही थी। थोड़ा सा खाकर उसने मिचमिची ऑंखों से इधर-उधर देखना शुरु किया। थोड़ी दूर पर उसका तकरीबन एक-डेढ़ साल का बच्च भूमि पर रेंग रहा था। लोग बैठने योग्य जगहों पर पसरकर ताश खेल रहे थे। बच्चे दौड़कर एक दूसरे को पकड़ने की कोशिश में लगे थे। अधलेटी अवस्था में पड़े एक व्यक्ति ने उस महिला की तरफ कंकड़ उछाला। ''अरी जूठनखोर क्या चाट रही है? चल आज तूझे रबड़ी खिलाता हू।''
दो-तीन बार इस प्रकार के वाक्यों को दुहराते हुए उसने जिन तीन-चार कंकड़ों को उछाला उनमें से एक उसकी पीठ पर लगा। वह तत्काल अपना कटोरा जमीन पर फेंककर उसकी ओर मुड़ी तथा अस्पष्ट वाणी व अपरिचित भाषा में उसे भला-बुरा कहने लगी। चेहरे की भाव-भंगिमा से लगता था कि अपशब्दों का प्रयोग कर रही है। वह व्यक्ति जरा अवाक रह गया। उस भिखारिन से ऐसी तीक्ष्ण प्रतिक्रिया की आशा नहीं कर रहा था। कुछ देर तक बर्दाश्त करने के बाद अपनी जगह से उठा और उसके पास पहुचकर डॉटने लगा। ''तूझे चढ़ गयी है क्या? चुप रह नहीं तो...।''एक अश्लील गाली अर्पित करना व्यक्ति ने आवश्यक समझा। ऐसी हालत में शांत रहना या शिष्ट लहजे का प्रयोग पार्क में उपस्थित लोगों द्वारा दुर्बलता का चिन्ह माना जा सकता था। वह इनमें से कईयों का परिचित था। गाली सुनकर औरत और भड़की और अपना नीचे गिरे कटोरा उठाकर उसपर प्रहार करने को उद्यत हुई। व्यक्ति ने खतरा भॉपते हुए उसका हाथ मरोड़ दिया। जमीन पर गिराकर तबियत से एक लात लगायी। ''अपनी औकात में रह।'' उसे उसकी औकात जताने के लिए इसी प्रकार के कतिपय अन्य वीरोचित उपक्रम करना चाहता था। पर यह मंजर देखकर एकत्रित लोगबाग के कारण इस प्रक्रिया में विघ्न उपस्थित हो गया।
''क्या हो रहा है भाईसाहब?'' एक ने पूछा। उस व्यक्ति के साफ-सुथरे शर्ट-पैंट को देखकर भाईसाहब का सम्बोधन नितांत उपर्युक्त प्रतीत होता था। ''देखिए ना मैं प्यार से समझा रहा हू और यह हाथापाई कर रही है।'' व्यक्ति ने स्वयं को सर्वथा निर्दोष ही नहीं अपितु जीवों पर दया करने वाला भी बताया। लेकिन जमात में शामिल दूसरा आदमी शायद सत्यभाषी और न्यायप्रिय था। उसने कहा,''यह औरत बिना छेड़े किसी से कुछ नहीं कहती है। पहले आपने इससे गलत बाती की और पत्थर मारा। फिर यह कंट्रोल से बाहर हुई। अजी हम भी यहीं हैं। औरों से इसने क्यों कुछ नहीं कहा?'' औरत के साथ उलझने वाला आदमी खुद को घिरा हुआ महसूस करने लगा।
उसे इस कठिन स्थिति से एक परिचित ने निकाला। ''यह औरत मेनटल है। भला इतने पर कोई भड़कता है।'' महिला के गुस्से के अपर्याप्त आधार की चर्चा के बाद उसने आगे कहा,''यहॉ हमारे-आपके बच्चे खेलते हैं। इन सबका उनपर भी असर पड़ेगा। अरे हमारे ढ़ीलेपन के कारण ये लोग पार्को पर कब्जा किए हुए हैं। शहर के जितने भी सबवे हैं वे इन भिखारियों के अड्डे बन गए हैं। कोई भी चौराहा,रेड लाइट इनेस बची हो तो बताइए।'' विषय को यू सामाजिक रुप देने से मामला जम गया। उलझने वाला आदमी अवसर देखकर वहॉ से निकल गया।
अज्ञात नाम व कुल वाली स्त्री पिछले कई वर्षो से इस इलाके के एक हिस्से के रुप में थी। सड़क के किनारे शायद उसकी एक झुग्गी भी प्रतिस्थापित थी। वैसे उसके विषय में किसी ने भी ज्यादा उत्सुकता नहीं प्रदर्शित की थी। यहॉ तक कि फुरसतमंद गृहणियों ने भी नहीं। साधारण श्क्ल-सूरत वाली कृशकाय स्त्री गली-कूचों के मनचलों के लिए आकर्षण बनने की योग्यता नहीं रखती थी। फिर भी अपुष्ट साक्ष्यों के आधार पर कुछ का कहना था कि वह कतिपय अवसरों पर चौराहों पर पान की दूकान से गूजती सीटियों की शिकार हुई थी।
कुछ वष्र पहले तक इस शहर से कई किलोमीटर दूर दूसरे शहर की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग के दोनो तरफ दूर तक खाली जगह थी। थोड़ी दूर पर कहीं-कहीं मजदूरों-रिक्शेवालों के कच्चे मकान व फूस की झोपडि़यॉ दिखती थीं। पगली भिखारिन इन्हीं कच्चे घरों में से किसी एक में रहती थी। वैसे उसे भिखारिन कहना उचित नहीं होगा। किसी ने उसकी दारुण दशा देखकर स्वत: स्फूर्त प्रेरणा से वशीभूत होकर कुछ खाने को दे दिया या एकाध सिक्के थमा दिए तो अलग बात थी। वह पेशेवर न थी। उसका बच्चा प्राय: गोद में चिपका रहता। सर्दी से नाक बहती रहती। देखने से पता नहीं चलता कि लड़का है या लड़की। जो भी कपड़े उपलब्ध होते वह पहना देती। भ्रूणों के लिंग के विषय में अपक्षाकृत सम्पन्न जन ज्यादा सरोकार रखते हैं। उस जैसों के लिए इसकी कोई अहमियत नहीं थी। कारण था-उसे बस जरा सा बड़ा होने पर काम पर लगा देना था। अच्छा और पौष्टिक खाना,अच्छी शिक्षा,रहन-सहन,संस्कार की चिंता शरीफों की तरह कहॉ करनी थी। और नह ही किसी नैतिकता को मानना था। कईयों से उसके सम्बन्ध रहे होगें। अभी जो संतान गोद में दिख रही है उससे पहले भी कुछेक होगें। शायद कुपोषण और चिकित्सा के अभाव में मर गए। यदि और गहरे ततीत में जाए तो पता चलेगा कि उसका मर्द रिक्शा चलाता था और वह घरों में काम करती थी। यानि सब कुछ व्यवस्थित था। बाद में किसी दुर्घटना में मर्द चल बसा और वह भी कालांतर में नियमित रुप से अपना काम ने कर सकी। आगे कईयों के साथ रही। कुछ मालकिनों ने उसे अपने यहॉ से इन्हीं लक्षणों के कारण हटाया। वरना शरीफ लोगों के लिए इस शहर में काम की कोइ कमी नहीं।
उस दिन बेमौसम की जोरदार बारिश हो रही थी। ठंड़ काफी थी हवा अपने साथ लायी कांटेदार ठंडक इंसानों के जिस्म में चुभोकर न जाने कौन सा पैचाशिक आनंद ले रही थी। गर्म लिहाफ में लिपटे घरों में महफूज लोगों के लिए तो फिर भी ठीक था। चाय-कॉफी के गर्म घूट के साथ वे टी.वी. पर मौसम का हाल देखकर चिंता से सर हिला रहे थे। चैनल वाले पूरी तल्लीनता से शहर के जनजीवन पर पड़े प्रभाव को दिखला रहे थे। खासकर ऑधी
के कारण फ्लाइट में विलम्ब की बात वे बड़ी संजीदगी से बयान कर रहे थे। उसी दौरान वह औरत अपने बच्चे को बंदरिया की तरह सीने सक चिपकाकर एक शामियाने के अंदर शरण लेने पहुची। दरअसल सेठ साहब के पोते के प्रथम वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजन हो रहा था। शहर के गणमान्य लोगों की गरिमामय उपस्थिति में माहौल बेहद सुसंस्कृत हो गया था। वरना आजकल के लड़के-लड़कियॉ तो बस डी.जे. पर उछलना-कूदना जानते हैं। ऊचे प्रशासनिक ओहदे पर विराजमान अफसर,पुलिस के आला अधिकारी व सेठजी की ही भॉति धनी लोग बड़े सलीके से स्वल्पाहार करते हुए अच्छी किस्म की मदिरा का पान कर रहे थे। सेठजी की बहू अति सुन्दर व भव्य परिधान में लिपटी कीमती उपहारों की ललित उपेक्षा कर महिलाओं से विहॅस कर परिहास कर रही थी। एक आला अधिकारी सेठजी को यह बता रहे थे कि एक पहुचे हुए ज्योतिषाचार्य के कहने पर आवारा कुत्तों को पूड़ी-खीर खिलाने पर मुझे काफी फायदा हुआ है।
इस बेमौसम की अंधड़ और बारिश ने सारा माहौल बिगाड़ दिया। गनीमत थी कि आयोजन बड़े तरीके से किया गया था। इसलिए अंदर सभी अतिथि पूर्णतया सुरक्षित एवं आरामदायक स्थिति में थेद्य। उस औरत के पहले भी कुछ आवारा किस्म के बच्चे मुफ्त का माल उड़ाने के लिए अंदर घुस गए थे। सतर्क गार्ड उन्हें दो-तीन बार पहले भी भगा चुके थे। इस बार अंदर आने वाले पूर्णतया शरणार्थी सरीखे थे। वे खाने-उड़ाने की नीयत से नहीं धमके थे। परंतु संभ्रांत जनों से दूरी बरकरार रखते हुए खुद को भीगने से बचाने के लिए गेट के निकट खड़े होन की संकीर्ण जगह पर उनमें प्रतिस्पर्द्वा होने लगी। अनपढ़ व असभ्य मनुष्य एक-दूसरे को धक्का देने लगे।
स्त्री अपने बच्चे को चिपकाए चीख उठी। ''अरे हरामियों जरा देख के। ऑख नहीं दी है भगवान ने। बच्चे को लेकर खड़ी हू।'' एक पल के लिए वे लोग उसकी आवाज सुनकर ठिठके। उसके लहजे व तर्क को सुनकर तनिक मुस्कराए व रसिकता पूर्वक ऑख मटकाते हुए चालू गाना गाने लगे। अपने मेहमानों की सेवा में लगे दूर खड़े सेठजी को इस कोलाहल ने आकृष्ट किया। उनके कानों में गंदी बातें धृष्टापूर्वक प्रवेश कर गयीं। उन ध्वनियों को उनके सुबह-शाम के पूजा-कीर्तन का तनिक भी लिहाज न था। वे जरा आवाज चढ़ाकर सात्विक क्रोध से बोले,''देखो भाई ये लोग कैसे घुस आए हैं। जरा बाहर करो इन सबको। यह शरीफों की जगह है।''
वह औरत बच्चा समेत जमीन पर गिर गयी थी। उसके घुटने छिल गए थे। बच्चे के सर पर भी चोट आयी थी। वह जोर से रो-चिल्ला रहा था। महिला उसके जीवन के प्रति आशंकित होकर हाथ उठाकर बिना किसी को लक्ष्य किए बद्दुआऍ दे रही थी। उसके इशारे पर न तो सेठजी के अंगरक्षक थे और न ही उसकी बिरादी के रिक्शे-ठेले वाले। यह असम्बोधित वक्तव्य अधिक देर तक नहीं चला। बारिश में भीगने का कष्ट करके दो गार्डो ने उसे ठेलकर थोड़ी दूर पहुचा दिया। वह अब बारिश में और भीगना नहीं चाहती थी। उसके गीले कपड़े व हथेलियॉ बच्चे को छत्रछाया देने में अपर्याप्त थे। महापुरुषों के मनोविनोद मे उसके प्रलाप से व्यवधान न हो यह सोचकर इन्द्रदेव के मेघ आकाश में ज्यादा निनाद करने लगे। पवन देव अपनी वेगवती धारा से उसके अपशब्दों को सभ्य नागरिकों के कर्णो से दूर भगा कर ले जा रहे थे। वह भी अब उन लोगों से दूर भाग रही थी। आखिर उसे अपने बच्चे को निष्प्राण होने से बचाना था। अच्छे नाक-नक्श का सांवला बच्चा था। दूध के अभाव में कमजोर जरुर था लेकिन उसे पूरी उम्मीद थी कि अंधड़-बारिश में यह मरेगा नहीं। अभी जीएगा। कम से कम बचपन में तो नहीं मरेगा। शहर वालों को अभी भी कई तरह के काम-काज में ऐसे लोगों की जरुरत होती है।
आपकी प्रविष्टि कल के चर्चा मंच पर है
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