युवा रचनाकार राहुल यादव का जन्म 10 नवम्बर 1985 को भवानीपुर, जौनपुर, उ.प्र. में हुआ। आपने भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान-इलाहाबाद से सूचना प्रौद्योगिकी में बी.टेक. एवं कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय-पिट्सबर्ग से इन्फार्मेशन नेटवर्किंग में एम.एस. किया। तत्पश्चात आप कैलिफोर्निया में एक सॉफ्टवेर इंजिनियर के तौर पर कार्य करने लगे| सिनेमा, खास तौर पर भारतीय समान्तर सिनेमा में रूचि रखने वाले राहुल को संगीत सुनना भी बहुत पसंद है। आजकल वे कॉलेज से जुड़े हुए कुछ सस्मरणों पर अंग्रेजी और हिन्दी भाषा में ब्लॉग लेखन कर रहे हैं। ई-मेल: rahuljyadav1@gmail.com। सो यहाँ पर आपका एक संस्मरण प्रस्तुत है:-
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
रेडियो जी से मेरी पहली मुलाक़ात मेरे गाँव में हुई थी| मेरे पापा को शादी में मेरे नाना जी ने तीन मुख्या चीजें दी थी| एक काले रंग की १८ इंच की एटलस साइकिल जिसे मेरे चचेरे भईया लोगों ने गाँव में जम के इस्तेमाल किया| दूसरी चाभी भरकर चलने वाली एक एच.एम.टी. घडी जिसे मेरे पापा आज भी पहनते हैं| और तीसरा एक रेडियो, जिसकी मैंने अभी चर्चा की| काले रंग का रेडियो जिसके ऊपर भूरे रंग का एक चमड़े का कवर भी लगा हुआ था जो की चिपुटिया बटन से बंद होता था| मेरे दादा जी (जिन्हें हम बब्बा कहते थे) के बार बार डांटने पर भी मेरे भैया लोग रेडियो से चिपके रहते थे, जो की उस समय मेरी समझ से परे था| वो तो बाद में जब मैं क्रिकेट के लिए दीवाना हुआ तो लगा की क्रिकेट विश्व कप (१९९२) की कमेंट्री सुनने के लिए रेडियो से चिपके रहना बड़ा लाजिमी था|
फिर १९९४ में जब गर्मी की छुट्टियों में गाँव में आनद भैया की शादी हुई तो वड़ोदरा से ताऊ जी एक बड़ा रेडियो ले आये| था तो वैसे वो टेप रेकॉर्डर या कैसेट प्लयेर , लेकिन हम सब उसे रेडियो ही बोलते थे| तभी मैंने जिंदगी में पहली बार कैसेट भी देखा| टेप रेकॉर्डर बहुत बड़ा था, बिजली तो थी नहीं गाँव में तो उसमें एक के पीछे एक बड़े साइज़ की ६ बैटरी लगानी पड़ती थी| एक बटन दबाओ तो हौले से कैसेट डालने वाला खांचा खुलता था, फिर उसमें कैसेट डाल के उसे बंद करके दूसरा बटन दबाओ तो गाना बजने लगता था| वैसे कक्षा ४ का बच्चा छोटा तो नहीं बोला जायेगा, लेकिन फिर भी मुझे टेप रेकॉर्डर छूने की सख्त मनाही थी|
फिर जब हम फ़तेहपुर आये तो टेप रेकॉर्डर हर बर्थ-डे पार्टी का एक अहम् किरदार था| केक, समोसे वगरह खा के पेप्सी ख़तम करने के बाद टेप रेकॉर्डर का बजाना तय था| कुछ बच्चे जो बचपन से ही नाचने गाने में शौक़ीन थे वो तो खुद अपना जौहर दिखा देते थे| और कुछ जो थोडा शर्मीले किस्म के थे उन्हें कालोनी की आंटी लोग नाचने पर मजबूर कर देती थी| "अरे अपना मंटू तू चीज बड़ी मस्त मस्त पर बहुत अच्छा नाचता है, बेटा जरा नाच के दिखा दो ", फिर कालोनी के कोई एक बड़े भईया कैसेट को आगे पीछे भगा के गाना लगाते थे और मंटू चालू हो जाते थे| अच्छी बात ये रही की मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ|
लेकिन इन सब के बाद भी टी.वी. के आ जाने के कारण हमें कभी टेप रेकॉर्डर या रेडियो की जरूरत नहीं महसूस हुई, या यूं कहिये की हमने कभी सोचा ही नहीं इस बारे में| फिर एक दिन हम स्कूल से आये तो देखा की एक सफ़ेद रंग का डब्बा रखा हुआ है फ्रिज के पास| उत्सुकतावश मम्मी से पुछा तो उन्होंने ये कहकर बात टाल दी की कोई अंकल का कुछ सामान पड़ा हुआ है| बात आई गयी हो गयी| लेकिन अगली सुबह जब हम जागे तो घर में भजन बज रहा था| सामने देखा तो टी.वी. बंद थी| लगा की ये आवाज कहाँ से आ रही है| बेड के बगल में देखा तो हमारे सनमाईका वाले स्टूल पर टेप रेकॉर्डर बज रहा था| ये सब ऐसे अचक्के में हुआ की टेप-रेकॉर्डर के लिए खुश होने का मौका ही नहीं मिला|
टेप रेकॉर्डर फिलिप्स कम्पनी का टू-इन-वन टेक्नोलोजी वाला था| टू-इन-वन बोले तो आप उस पर कैसेट भी बजा सकते हो और रेडियो भी चला सकते हो| काले रंग का टेप रेकॉर्डर जिसके सामने के आधे भाग में स्पीकर था और दूसरे आधे भाग में कैसेट डालने वाला खांचा| उसी के ऊपर हर रेडियो की पहचान, चैनल वाला रुलेर था जिसमें फ्रीक्वेंसी सफ़ेद रंग से लिखी हुई थी और एक लाल रंग की डंडी स्पीकर के बगल में लगे गोल पहिये को घुमाने से रूलर पर इधर उधर सरकती थी| ऊपर की तरफ एक बड़ा गोल पहिया था जिसे घुमाने से आवाज कम तेज़ होती थी| उसी के बगल में एक खिसकने वाली बटन थी जिसे खिसककर एक किनारे ले आओ तो कैसेट बजता था और दूसरे किनारे ले जाओ तो रेडियो| ऐसी ही एक दूसरी बटन रेडियो का ए.एम./एफ.एम./एस.एम. बदलने के लिए थी| पीछे की तरफ एक ढक्कन था जिसे खोलो तो चार बड़े साइज़ की बैटरी डालने की जगह थी|
रूलर के ऊपर की तरफ ही कैसेट को कण्ट्रोल करने वाली बटनें लगी थी| पहली बटन गाना रोकने (पॉस करने) की थी जिसे आधा दबाकर रखने से गाना बहुत पतली से आवाज में तेज़ तेज़ भागता था, पॉस करने से ज्यादा हमने उस बटन का इस्तेमाल इसी काम के लिए किया हालाँकि हमें इसके कारण डांट बहुत पड़ी| आगे की बटनें गाना चलाने और, आगे पीछे करने की थी| आखिरी बटन आवाज रिकॉर्ड करने वाली थी| अब चूंकि उस बटन के दबाने से कैसेट में अगड़म बगड़म चीजें रिकॉर्ड करके कैसेट के ख़राब होने का खतरा था, इसलिए हमें पापा ने ये बताया की इस बटन को दबाने से रेडियो जल जायेगा और सब ख़राब हो जायेगा और इसलिए इस बटन को कभी नहीं छूना है| जब तक हमें उस बटन की असलियत नहीं पता चली तब तक मेरा भाई इसी से यही समझता था की बड़े बेवकूफ है रेडियो वाले, आखिर ऐसी बटन की जरूरत ही क्या थी|
रेडियो के साथ ही पापा जी तीन कैसेट लाये थे| एक तो भजन वाली, दूसरी लता मंगेशकर जी के बहुत पुराने गानों की कैसेट| डिस्को सोंग्स का जमाना था और बचपन में लता जी के सभी धीर धीरे बजने वाले गाने थकेले बकवास लगते थे| तीसरी कैसेट थी राजा हिन्दुस्तानी की| अब न तो हमें भजन में कोई इंटेरेस्ट था न ही लता जी के पुराने गानों में तो हमने हमारे चहेते मामा से रिक्वेस्ट करी| मामा जी इलाहबाद में रहते थे और अक्सर हमारे घर आया करते थे| मामा जी ने ४-५ कैसेट गोविंदा, करिश्मा, रवीना के गानों से रिकॉर्ड करवा के हमको दे दी| कैसेट आने पर सबसे पहला काम तो हमने ये किया की सभी गाने बजा बजा के गानों ली लिस्ट एक सफ़ेद कागज पर लिखकर हर कैसेट के कवर के ऊपर चिपका दी ताकि पता रहे की किस कैसेट में कौन सा गाना है| फिर हम सब वही गाने सुना करते थे, रेडियो हमने अब भी सुनना स्टार्ट नहीं किया था और टी. वी. की वजह से रेडियो जी की पूछ वैसे भी बहुत कम थी|
फिर जब हम प्रतापगढ़ आये तो १ साल के लिए एंटेना न होने की वजह से टीवी नहीं चला| फिर तो रेडियो जी की चाँदी हो गयी| सुबह से शाम तक हमारे घर में विविध भारती बजता रहता था| सुबह सुबह "चित्रलोक" जैसे गानों वाले ढेर सरे प्रोग्राम और शाम को "हवा महल" जैसे श्रव्य नाटक| एक साल के बाद टी.वी. लगाने के बाद भी टेप और रेडियो से हमारा मोह नहीं छूटा|
मेरे छोटे भाई ने तब तक गाने रिकॉर्ड करने वाली रहस्यमयी बटन की सच्चाई भी खोज कर ली थी| और साथ ही साथ लखनऊ से पकड़ने वाले एक दूसरे FM चैनल की भी खोज कर ली गयी थी जिस पर ढेर सारे काँटा लगा टाइप रीमिक्स गाने आते थे| जैसे ही कोई अच्चा गाना आता था मेरा भाई उसे लता जी के पुराने गानों वाली कैसेट पे रिकॉर्ड कर लेता था| अब चूंकि गाना रिकॉर्ड करते समय इस बात का ख्याल रखना पड़ता था की गाना सही जगह पर रिकॉर्ड हो इसलिए वो पेंसिल या नीले रंग वाली रेनोल्ड्स पेन को कैसेट के दांतों वाले छेद में डाल के घुमा फिरा के ठीक जगह पर ले आता था और पहले से सब फिट करके रखता था| और तो और गाना रिकॉर्ड करते समय इधर उधर की फालतू आवाज न रिकॉर्ड हो इसलिए वो पंखा भी बंद कर देता था|
रेडियो के साथ एक अच्छी बात ये थी की बिजली न होने पर भी इसे बैटरी डाल कर चलाया जा सकता था| किसी ने बता दिया था की बैटरी को धूप में रखने से फिर से थोड़ी सी चार्ज हो जाती है, तो जब एवर-रेडी की वो चार बैटरियां रेडियो नहीं चला पाती थी तो उन्हें धूप में रख देते थे| और अगर धूप में रखने पर भी काम न चले तो नयी बैटरी आने तक इमरजेंसी टोर्च की रिचार्जेबल बैटरी रेडियो के साथ तार जोड़-जाड कर फिट कर लेते थे और काम चलाते थे|
फिर एक दिन पापा जी के एक एक मित्र राजबिहारी अंकल रेडियो मांग कर ले गए| राज बिहारी अंकल बहुत फक्कड़ स्वाभाव के थे, मुहं में हमेश गुटखा या पान ठुसा रहता था और उन्हें किसी भी चीज के लिए ना करना मुश्किल था| रेडियो जी गए तो चुस्त तंदरुस्त अवस्था में लेकिन दो महीना बाद वापस आये फटेहाल अवस्था में| कैसेट बजने पर खर्र खर्र की आवाज आती थी | कैसेट को आगे पीछे करने वाली बटन ने काम करना बंद कर दिया था| और साथ ही रेडियो का एफ.एम./एस.एम. बदलने वाला बटन गायब हो गया था|
फिर धीरे धीरे हम सभी घर से पढाई के लिए इधर उधर निकल लिए| मम्मी बिजली चली जाने पर जब टीवी नहीं चलती थी, तो कभी कभी रेडियो पर गाने सुन लिया कराती थी| आधी कैसेट्स तो ख़राब हो गयी, कुछ खो गयी और कुछ जो बची उनमें छोटे भाई के रिकॉर्ड किये हुए रीमिक्स गाने थे जो की मम्मी को पसंद नहीं थे| फिर जब पापा का ट्रान्सफर सीतापुर से हुआ तो टेप रेकॉर्डर मम्मी ने किसी को ऐसे ही दे दिया|
मेरे भेतीजे को गाने सुनने का बहुत शौक़ है| एक दिन ऐसे ही बात चली तो बोला की चाचा मुझे भी रेडियो सुनना बहुत पसंद है| मुझे सुन कर अच्छा लगा, मैंने कहा अपना रेडियो तो दिखाओ| तो उसने झट से अपना चमचमाता स्मार्ट फोन निकला और रेडियो का एक अप्प्लिकेशन खोल कर दिखा दिया| मैंने मन ही मन कहा, लो ये है इनका रेडियो| शायद इसे ही जनरेशन गैप कहते हैं और पता ही नहीं चला की कब हम जनरेशन गैप के उपरी पायदान पर पहुँच गए| बाकी का तो पता नहीं लेकिन आज भी जब मैं रेडियो का नाम सुनाता हूँ तो खर्र खर्र की आवाज, रेडियो का स्टेशन वाला वो रूलर , कैसेट का दांतों वाले दो सफ़ेद पहिये और काले रंग की फिल्म अनायास ही याद आ जाती है।
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