5 अगस्त 1970, कानपुर नगर, उत्तर प्रदेश, भारत में जन्मे अजय तिवारी जी एक बहुमुखी प्रतिभा संपन्न युवा रचनाकार हैं। बचपन से ही कवितायें लिखने और सुनाने में आपकी अभिरुचि रही। समय-समय पर विद्यालय तथा उसके पश्चात अनेक राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में मुक्तक, गीत, कवितायें तथा नवगीत प्रकाशित होते आए हैं। वेब पर 'कविता-पुस्तक' में आपकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। आपका पहला काव्य-संग्रह प्रकाशनाधीन है। मेधावी विद्यार्थी के रूप में आपने उत्तर प्रदेश बोर्ड की हाई स्कूल परीक्षा में द्वितीय तथा इंटरमीडिएट में प्रथम स्थान प्राप्त किया। तत्पश्चात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई आई टी) कानपुर से विद्युत अभियांत्रिकी (1990) में स्नातक, तत्पश्चात वित्त प्रबंधन में स्नातकोत्तर किया। सन 1993 में आई ए एस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) में आपका चयन हो गया। तब से आप निरंतर असम तथा मेघालय के विभिन्न स्थानों में प्रशासन के उच्च पदों पर रहकर राष्ट्रसेवा में समर्पित हैं। वर्तमान में आप गुवाहाटी- असम के राज्यपाल के आयुक्त-सचिव के पद पर कार्य निर्वाहन कर रहे हैं। पुरस्कार व सम्मान: सन 2003 में अमेरिका के अमेरिकन बायोग्राफ़िकल इंस्टीट्यूट द्वारा सामाजिक उन्नयन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए “मैन ऑफ द ईयर” के पुरस्कार से सम्मानित| सन 2004 में कैम्ब्रिज इंग्लैंड के अंतर्राष्ट्रीय बायोग्राफ़िकल केन्द्र द्वारा प्रकाशित इक्कीसवीं शताब्दी के “2000 उत्कृष्ट बुद्धिजीवियों” की तालिका में नाम शामिल| विदेश यात्राएं: अमेरिका, कनाडा, थाइलैंड, भूटान व नेपाल की यात्राएं। संपर्क: 14, एल पी स्कूल लेन, लाराय नगर, भंगागढ़, गुवाहाटी-781032 असम, भारत। दूरभाष:+91-361-2469848. मोबाइल: +91-9678001977. ई-मेल : ajaytewari93@gmail॰com। आपके चार समकालीन गीत यहाँ प्रस्तुत हैं:-
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
मृदु, मीठी संदेश भरी
वाणी के लद गए दिन,
कर्कशता में हुई विलय
कहाँ गए सुर, कहाँ गई लय?
नवयुग का यह गीत नहीं
यह बस एक कोलाहल है
शब्दों का एक बेतुक मिश्रण
निरा प्रलाप अनर्गल है
तबले सहमे,
दुबकी बांसुरी
बस कंकड़-पत्थर सी ध्वनि है,
कोयल अब नहीं गाती निर्भय
कहाँ गए सुर, कहाँ गई लय?
कहने को तो रेल बहुत हैं
भेड़-बकरियों सी लद जातीं
कहने को तो तेज बहुत हैं
पर दुर्दशा करके पहुंचातीं।
सहयात्री उत्कट,
दुर्दांत गिरहकट
बस नर्क-यातना सी यात्रा है,
न वृक्ष बचे, न पथिक-निलय
अब कहाँ छांव है, कहाँ मलय?
कहते इसको कि प्रजातंत्र है
जहां जन की आवाज़ दबी,
संसद की गरिमा तार हुई
नाहक शोर-शराबे में डूबी।
भागे तर्क,
डरे विधान
जोड़-तोड़ का यह बना अखाड़ा है,
अब कहाँ बचे नेता ओजमय
कहाँ विचार, कहाँ विनिमय?
2. कैसे कह दूँ
“मत नीर बहा”,
कैसे कह दूँ
प्यारी
दुखियारी अँखियों से।
जिसके कंधों पर सवार
आसमान मैं
छूकर आई,
लौट दुबारा आने का
वादा भी
मैं कर आई,
“मत उड़ान दिखा”
अब कैसे कह दूँ
कल्पनाओं की
अधकटी पखियों से।
उनके आने की तारीखें
आईं और
कितनी बार गईं,
मैं सपने जीती रही सदा
सदियों पे सदियाँ
पार हुईं,
“मत स्वप्न दिखा”
अब कैसे कह दूँ
उम्मीदों की
पथराई अँखियों से।
प्रियतम-वियोग में
भरती रही
गमगीन सिसकियाँ,
अपने हिस्से की अनगिनत
जो लेती रही
बेदर्द हिचकियाँ,
“मत दर्द बंटा”
अब कैसे कह दूँ
अन्तर्मन की
उधड़ी बख़ियों से।
3. जीवन-संध्या
सूर्यास्त को देखो समझो,
जीवन बहुत अभी है शेष।
लौट रहीं गइयाँ घर को
गोधूलि के मेघ बनातीं,
उत्फुल्लित और आनंदित
कैसे रंभा-रंभा बतियातीं|
कलरव करते पंछी आएँ
शामों को चहकाने,
है गहमागहमी का परिवेश।
शैशव सुंदर सुप्रभात सा
यादें सुखद दिलाता,
यौवन थोड़ा निष्ठुर निकला
दोपहर सा तपाता।
खट्टी-मीठी, भली-बुरी
बातों में दिन बीते,
पर संध्या है विशेष।
ढलते सूरज की लाली में
देह-दुर्ग है दमक रहा,
जर्जर-तन में छुपी विरासत
युग जीवन का चमक रहा।
अनुभवों का गढ़ विशाल था
थे अनमोल खजाने
बोलेंगे भविष्य में भग्नावशेष।
4. बचपन
नयनों के आँगन में
खेल रहा मेरा बचपन,
कितनी सोंधी मिट्टी थी
कितना मीठा अपनापन।
बाहों के घेरे हैं
सखियाँ नाच रहीं,
छोटे-छोटे हाथों से
खुशियाँ बाँट रहीं|
ऐसी भोली चंचलता को
सोख रहा प्यासा
कण-कण।
चूड़ियों के रंगीन टुकड़े
दामन में भर बटोरना,
पहली बारिश में हमेशा
आँगन से पहले भीगना।
रिमझिम-रिमझिम यादों से
भीग रहा है
तन-मन।
बाँका छोरा गुड्डा है
सुहृद गुड़िया दुल्हन,
ब्याह रचा दें इनका
मिले खुशी का जीवन।
इन मासूम इरादों में
अलमस्त नहा रहा
प्रति क्षण।
दबे पाँव कब निकल आई
ज़िंदगी दूर बहुत निर्मम,
भीड़ भरे फुटपाथों पर
फिरती मारी-मारी हरदम।
गुड्डे-गुड़ियाँ कबके छूटे,
बींध रहा है पोर-पोर को
एकाकीपन।
achche geet hai ,geeto ko awaz bhi de
जवाब देंहटाएंआपको गीत पसंद आए, इतनी सी बात हौसला बढ़ाने के लिए काफ़ी है| सुनाने का अवसर भी दें| आपका बहुत बहुत धन्यवाद|
हटाएंअजय तिवारी जी के गीत पढ़े मष्तिष्क को सुकून मिला,आज जब समकालीन कविता चारों तरफ
जवाब देंहटाएंमंडरा रही है,ऐसे में गीत जब अपना अस्तित्व कायम करने में सफल हो जाते हैं तो बहुत ख़ुशी होती है
आपके गीतों ने मन को सुख दिया है--सुंदर कहन,नये प्रतीक,और समकालीन बिंम्ब
सुंदर गीतों के लिये बधाई-----
पूर्वाभास का आभार गीतों को पढवाने का
आदरणीय ज्योति जी, आपकी अति सुंदर प्रतिक्रिया/ टिप्पणी के लिए आपका आभारी|
जवाब देंहटाएंअजय जी के गीत वर्तमान में नई खुशबू की तरह मन में उतर जाते हैं ... माए बिम्ब रचना को ओर सुन्दर बना रहे हैं ..
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद
हटाएंAjay ji aur awnish ji aap dono ko sundar, sarthak, abhinav aur sachmuch samkaaleen geeton ke liye saadhuwaad.
जवाब देंहटाएंराजा जी, आपकी टिप्पणी साभार स्वीकार|
हटाएंबहुत बडियां सभी कविताएं सराहना के योग्य है... बधाई आपको
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कीर्ति जी
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