वरिष्ठ कथाकार जय राम सिंह गौर का जन्म 12 जुलाई1943 को ग्राम रेरी, जनपद कानपुर (देहात) में हुआ। आपने डाक विभाग को आपनी सेवाएँ दीं और सेवानिवृत्ति के बाद वर्तमान में आप पूर्णकालिक अध्ययन एवं लेखन कार्य कर रहे हैं। आपने न केवल कहानियाँ लिखी, बल्कि कविता, गीत एवं दोहे भी लिखे हैं। आपका एक कहानी संग्रह-‘मेरे गाँव का किंग एडवर्ड’ प्रकाशित हो चुका है। संपर्क:180/12, बापू पुरवा कालोनी, किदवई नगर, कानपुर (नगर)- 208023. मो:09451547042। ईमेल: jrsgaur@gmail.com । लोकजीवन से जुडी आपकी एक मार्मिक कहानी यहाँ प्रस्तुत है:-
हमेशा घूँघट के भीतर, दो अँगुलियों के बीच से झाँकती-नाचती आँखें नटिन भौजी की पहचान थी।
उसकी चपलता बस महसूस करने की बात थी। चाल-चलन में उस पर कभी कोई उँगली नहीं उठा पाया। समय के साथ चल कर भी वह अकेली ही चलती और गाँव-टोले के संबन्धों का वह बखूबी निर्वाह भी करती। जिसे जो प्यार-आदर मिलना चाहिए, खुले हाथों सबको बाँटती।...गाँव जाने पर, मिलते ही राम-राम कहती फिर घर-गृहस्थी के न जाने कितने सवाल कर डालती, ‘बड़ी बहू ठीक है? उनके बच्चा भा कि नाहीं?, चाची की तबियत अब ठीक रहत है?...आदि-आदि। उसकी फिक्र या मुस्कराहट बस दो आँखें ही छलकातीं, होंठ तो ‘शायद ही कभी किसी ने देखे हों। उसकी प्रसन्नता का अंदाजा बस उसकी आखों से ही लगाया जा सकता था। आँखें भी पास से ही देखी जा सकती थीं। उसके घूँघट का कोण रास्ता देखने तक ही बना रहता। उसके चलने और रास्ता देख्ने को यदि एक त्रिभुज में व्यक्त किया जाय तो निश्चय ही समकोण त्रिभुज बनेगा। उसके सवालों के जचाब देने के बाद ही हम आगे घर की ओर बढ़ पाते। वह अपने भी हाल-चाल एक सांस मे सुना डालती कि रज्जन की नौकरी लागि गै, वो जयपुर मा है, वहिकै सादी हुइ गै, भगवान की किरपा से दुई पोता हैं, बहू हेईं हमरे पास रहति है।’ फिर पूछ बैठती,‘ अब तौ त्यौहार करि के जहिहो?’
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
‘ अरे नाहीं कल जाँय का है।’
‘ नाहीं यह तो गलत बात है, आए हौ तौ त्यौहार करिके जाव।’
‘ त्यौहार पर फिर आ जइबे, अबै तो काफी दिन हैंै’
‘ तब फिर ठीक है, हाँ आएव जरूर, सब लरिका-बच्चन के साथ।’ वो कहती और उसकी आँखें अपनी स्वाभाविक हँसी से भर जातीं।
लेकिन आज नटिन भौजी को देखा तो सहसा विश्वास नहीं हुआ कि यह वही नटिन भौजी हैं। मुँह खोले बैठी थी। धोती का पल्लू जरूर सिर पर था। दोनो हाथो की कुहनियाँ पैर की गाँठ पर टिकी और मुँह हथेलियों पर रखे सूने रास्ते की तरफ ताक रहीं थीं। अब न पहले सी लाज न कोई डर, न किसी के आने की खबर न जाने की।
उसकी यह उदास मुद्रा देख कर, मैने उन्हें टोकना ठीक न समझा, आगे बढ़ गया। पर मन में तमाम सवाल सर उठाने लगे। घर पहुँच कर छोटे भाई से पूछा,-‘क्यों छोटे नटिन भौैजी बीमार हैं क्या?
‘हाँ उसका दिमाग कुछ चल गया है। ’
‘क्या हुआ है उन्हें ?’
‘उसका बेटा, रज्जन हरामी निकला। एक दिन किसी बात पर उसने भौजी पर हाथ उठा दिया और अपने बीबी-बच्चे लेकर जयपुर चला गया।
‘तुम लोगों ने कुछ नही किया ?’ मैने पूछा।
‘जब तक मालूम पड़ा वह जा चुका था। ’
लगा, यह तो बड़ा अजीब हुआ।... क्या हो सकता है, बेटे ने माँ पर हाथ क्यों उठाया होगा! मन कुछ बोझिल सा होने लगा तो सोचा चलो खेतों की तरफ टहल चलें, वहाँ कुछ और लोग मिलेंगे।अपने चक पर गया। ट्यूबवेल के कमरे के बाहर चारपाई पड़ी थी। उसी पर बैठ गया। अप्रैल का महीना था, मटर-चना पकने पर थे। गेहूँ की बालियाँ भी गदरा गईं थीं। हार भरा-पूरा दिख रहा था। गाँव मे इस तरह के अपने खेत देख कर सब अपने भविष्य का ताना-बाना बुन लेते हैं। दूसरे चक पर कुछ लोग होरा भून रहे थे। उनमे से किसी की निगाह मेरे ऊपर पड़ी। राम-राम हुई और होरा खाने के लिए मुझे बुला लिया। खेत पर होरा भून कर खाने का मजा ही कुछ और होता है। काफी दिनो बाद इस तरह का मौका सामने था। मुझे ‘शहर गए दसियों साल बीत चुके थे और इस तरह की मस्ती की तो ‘शहर में कल्पना ही नही की जा सकती। गया, होरा चबाए और फिर अपने चक पर आ गया। लेटा ही था कि ‘बबुआ राम-राम, कबै आए ?’
‘ बबुआ होरा खाएव की नाही ?’
‘ हाँ भइया,थोड़ी दर पहिले ही खाए हैं। ’
‘ अच्छा रुकेव, अभईं आएन।’ कह कर भोला चले गए। तनिक देर में चार-पाँच गन्ने लेकर आ गए। बोले,‘ होरा के बाद ऊँख न चुही जाय तौ का मजा।’
और गन्ने चूसे गए। भोला गाँव भर की खबर रखते थे, कुछ इधर-उधर की बातों के बाद चल पड़ी बातें नटिन भौजी की। भोला का चेहरा कुछ उदास हो गया बोले,‘नटिन बहू बड़ी अभागी आय।’
‘ काहे ?’ मेरे मुँह से निकला।
‘ अरे बिचारी न जवानी मा सुख पाएस न बुढ़ापा मा।’ भोला ने गहरी साँस लेकर कहा। बात आगे बढ़ती पर तभी दूर से एक आवाज आई, ‘भोला पानी फूटिगा, जल्दी आव।’ और वह फरुहा उठा कर चले गए।
मै चारपाई पर फिर लेट गया, और गाँव के खलवे मे बसे उस नट परिवार की जैसे फिल्म सी मेरे भीतर चलने लगी।
याद आया वह दिन जब नटिन चाची अपने लड़के की ‘शादी का निमंत्रण देने घर आई थी। न्योते की सुपारी उन्होने ताऊ जी के पैरों के पास रखते हुए अपना माथा जमीन पर टिका दिया था। इस न्योते का मतलब था कि हमारा परिवार इस ‘शादी में उनकी मदद करे। ताऊ जी ने सुपारी फौरन उठा कर मुस्कराते हुए कहा था,‘यह तो बड़ी खुशी की बात है, जाव पटे भाई को भेज देना।’
‘अच्छा मालिक।’ कह कर नटिन चाची टोले के अन्य घरों में न्यौता देने चली गई थी।
‘शाम को पटे बाज आए थे।
‘जोहार मालिक।’
‘आव भाई, लरिका की ‘शादी कहाँ तय किए हो ?’ ताऊ जी ने उससे पूछा था।
‘ मालिक सरगाँव मा।’ और फिर ताऊ जी के पूछने पर उसने बताया था कि लड़की और उसका परिवार ठीक-ठाक है।
‘ अच्छा अब बताव तुम्हे का चही ?’
‘ मालिक बाग मा डेरा लगावैं का हुकुम मिल जाय, जलावन की लकड़ी, आटा-तेल बस।’ पटे बाज ने अपनी फर्माइस ताऊ जी के सामने रखी।
‘ सब हो जाएगा।’ ताऊ जी ने कहा, तो वह जमीन पर माथा टिका, जुहार करके चला गया था। इसी तरह के अश्वासन उसे ऊँचे टोले के हर घर से मिले थे। विवाह के तीन-चार दिन पहले ताऊ जी ने उसे फिर बुलवाया। पटे बाज आया। उसी तरह जुहार करके बोला था,‘का हुकुम मालिक ?’
‘ अरे हुकुम नाही, पूछे का बुलावा रहय कि सब इंतजाम हुइगा ? ’
‘ हुइगा मालिक सब आपै के चरनन का परताब आय।’ पटेबाज ने आसमान की ओर, जैसे दुआ के लिए हाथ उठा कर कहा था।
‘ ध्यान राख्यो कउनौ कमी न रहि जाय, गाँव की इज्जत का सवाल है।’
‘ अरे मालिक अइस इंतजाम होई कि सब देखत रहि जइहैं।’ कहते हुए उसका चेहरा जो कह रहा था, उसे ‘शब्दों में नही पिरो सकते। जुहार करके वह चला गया।
‘शादी की चहल-पहल तीन पहले ही पटेबाज के घर पर दिखने लगी थी। आस-पास के गाँवों के उसके रिस्तेदार जुटने लगे थे। सुबह ‘शाम वे हमारे देवी-देवताओं के साथ अपने देवी-देवताओं की पूजा करते थे। उनके एक ही देवता याद रह गए हैं, ‘शायद वही थे भी नटों के एक मात्र देवता ‘जखई बाबा।’ जिनका गाँव के बाहर एक स्थान नियत था। जिसे यह लोग थान कहते थे। ‘शादी एक दिन पहले बड़े से हरे बाँस में लाल झंडा बाँध कर थान के प्रांगण मे गाड़ा गया, फूल, खीर चढ़ाई गई और धूप भी सुलगाई गई। औरतों ने अपनी भाषा में देव-गीत गाए, जिनके अर्थ तो हमारी समझ मे बिल्कुल नही आए पर इस बहाने यह देखने को जरूर मिला कि उनकी आस्था किसी अदृश्य के प्रति कितनी प्रगाढ़ है।
अब ‘जखई बाबा’ केवल नटों के देवता नहीं रह गए थे।वे गाँव-जवार सबके देवता हो गए थे। गाँव-जवार में जब किसी की भैंस बीमार होती या दूध कम कर देती, सब ‘जखई बाबा’ के थान पर खीर चढ़ाते थे। यह पूजा हम बच्चों के लिए बड़ी रोचक थी। भैंस-गाय के एक समय के पूरे दूध की खीर बनाई जाती थी। ‘थान’ पर दो चम्मच चढ़ाके, जितने लोग साथ जाते थे सब वहीं बैठ कर खाते थे, खीर वापस घर नहीं लाई जाती थी। यह हम बच्चों के लिए वादान बन गया था। मुहल्ले का कोई भी खीर चढ़ाने जाता हम बच्चे भी साथ हो लेते और खीर की दावत उड़ाते।
नटों की पूजा में लड़की और लड़के वालों के दोनो परिवार शामिल हुए थे। ढोल, थाली और कुछ पारम्परिक वाद्य-यंत्र नटों ने बजाए थे, औरतें-आदमी सब नाचे थे। गाँव भर इस उत्सव में जुट गया था। कुछ लोग नाचने वाली औरतों पर रुपए भी न्योछावर कर रहे थे जिन्हे नटों के बच्चे लूट रहे थे।
इसी तरह तीन दिन तक कार्यक्रम चलते रहे और पटेबाज के लड़के कलाबाज की ‘शादी हो गई। ‘शादी के रस्मो-रिवाज, जो हम अपने घरों मे देखते, वैसा कुछ नही दिखा। अगले दिन मण्डप उखाड़ा गया। औरतें उसमे बंधा फूस और कलश के पास अँकुरा आए धान के पौधों को उखाड़ टोकरे में रख कर उसे सिरवाने गाँव के बड़े तालाब की ओर चल दीं। सिर पर मौर रखे आगे-आगे कलाबाज, पीछे उसकी नवविवाहिता(नटिन भौजी ) कपड़े को ऐंठ कर बनाया कोड़ा लिए। विवाह-गीत गाती औरतों का झुन्ड साथ में। यह शायद उनके यहाँ की कोई रस्म रही होगी कि वधू, वर को कोड़ा मारते हुए ताल तक ले जाती है और फिर वर, वधू को कोड़ा मारते हुए घर तक लाता है। तो नटिन भौजी कोड़े मारते हुए कला बाज को तालाब तक ले गई। जल की पूजा हुई। और कोड़े खाती हुई घर आ गई। औरतें घड़ों में तालाब से पानी-कीचड़ भर लाई थीं। लौटते हुए जो मिला उसी पर, होली जैसा उल्लास जीते-दिखाते, वो कीचड़ उसी पर डाल देतीं। इसी दिन बकरे की बलि दी गई, देवी पूजी गई, जखई बाबा पूजे गए। फिर पटे बाज के घर से बचे-खुचे मेहमान भी विदा हो गए।
फिर एक दिन कि जब नटिन चाची, जतन से सँवार कर, अपनी बहू लेकर मुँह दिखाई करवाने मेरे घर आई थी। बेल-बूटे दार घाँघरा, फूलों वाला जम्पर पहने और कढ़ाई वाली चटक लाल चूनर ओढ़े थी, नटिन भौजी। पाँवों मे चाँदी के मोटे-मोटे खड़ुए साँवले रंग पर अलग चमक रहे थे। नटिन चाची और बहू ने जमीन पर माथा टेक कर अम्मा को प्रणाम किया। अम्मा ने कहा,‘अब बहू का मुँह तो दिखाओ।’
नटिन चाची ने दोनो हाथों की दो-दो उँगलियों से बहू का घँूघट कुछ चैड़ा किया, मै छोटा था इस लिए अम्मा के कंधे पर सर रखे उनके पीछे खड़ा था। नटिन चाची ने अपनी बहू से यह भी कहा था, ‘ यो लाला तुम्हार देवर लागी।’ याद है कि सुरंग के भीतर जैसे हल्की रोशनी मे किसी देवी की मूर्ति की आँखें चमक रही हों। अजंता-एलोरा की गुफाओं मे जिस प्रकार पार्वती अपनी छटा विखेरती हैं। या राम गढ़ की गुफाओं मे पाली या किसी अन्य भाषा मे लिखे नाट्य-सूत्र और भित्त-चित्र। नटिन भौजी ने हौले से पुतलियाँ नचा कर मेरी ओर निहारा था। घूँघट के भीतर से नटिन भौजी की वो चमकती आँखें कभी नही भूलीं। अम्मा ने भी तनिक झाँक कर नई बहू का मुँह देखने के बाद उसके आँचल में एक भेली गुड, चावल और एक रुपया चाँदी का डाला था। चाची-भौजी दोनो ने फिर उसी तरह अम्मा को प्रणाम किया और दूसरे घर की ओर चल पडी। इन लोगों के पीछे-पीछे अपने टोले के तीन-चार घरों मे मै गया कि ‘शायद पूरा चेहरा दिख जाय,पर नहीं, एक बार जितना देखा उस दिन उतना ही हर घर में देखने को मिला।
पटे बाज और उसकी पत्नी अपनी बहू की तारीफ करते अघाते नहीं थे। वो थी ही ऐसी सुशील, सुन्दर, कमेसुर और प्यारी गुड़िया जैसे। तितली जैसी फुर्र उड़ते हुए काम करती। मेरी तब तक तो मसें भी नही भीगीं थीं, लेकिन मेरे गोल में कुछ बड़ी उम्र के लड़के भी थे। एक था किसना। उसने ‘ाायद किसी दिन भौजी को कहीं देख लिया होगा, वह एक दिन अपने गोल में बोला,‘ अबे यार, नटिन भौजी है बहुत टनाटन माल, मिल जाय तौ मजा आ जाय। ’ मुझे उसका हाथ और आँखें मटका कर यह कुछ बताना अच्छा न लगा। क्यों, नही जानता। घर आकर ताऊ जी को बता दिया कि किसना ऐसा कह रहा था। बस किसना की उसके घर में वो गत बनाई गई कि अगले दिन उसने मुझे धमकाते हुए कहा कि, ‘कि तुमका देखि लेबे।’
अब मैं डरा कि यह तो मेरी कुटम्मस करेगा। घर भाग आया और ताऊ जी से फिर बताया कि किसना हमको मारने के लिए कह रहा है। उस दिन किसना का घर में फिर इलाज किया गया। ‘शाम को खाना नही मिला और जब तक उसने हमसे माफी नही मागी उसे घर में नहीं घुसने दिया गया।
नटों का परिवार सीमित था। ये चार प्राणी और इनके पास अपने खाने-पीने की व्यवस्था के लिए चार भैंसे, दो गाय और दो साँड़ भैंसा। बकरन भैंसे वो ‘शहर के चट्टोंं से खरीद लाते। जब तक दूध देतीं दूध-घी बेंचते और बियाने के समय फिर ‘ाहर के चट्टों मे बेच आते। इससे उन्हे मजे की कमाई हो जाया करती। साँ़ड़ भैसों से आस-पास के गावों से भी गर्भाधानके लिए लोग अपनी भैंसे लाते और बदले में इन्हे पैसा या आनाज दे जाते। इसके अतिरिक्त साल मे दो बार ज्यौरा मिलता। इस तरह इनके परिवार को खाने-पीने की कोई परेशानी नही होती। यह लोग अपनी पारम्परिक जानकारी के अनुसार जड़ी-बूटियों से जानवरों का इलाज भी करते थे।
गाँव मे कतकी का मेला औरतों और बच्चों के लिए विशेष महत्व रखता था। हालाँकि बड़े-बूढ़े भी शा म को सज-धज कर कुछ देर आपसी मिला-भेंटी करने आ जाते थे। इस अवसर पर नटों का तमाशा भी होता। जिसे पटेबाज आस-पास के गावों मे रहने वाले नटों के साथ मिल किया करते थे। खेल की तैयारी दो दिन पहले से शुरू हो जाती थी। चैक मे बड़े-बडे बाँस गाड़े जाते, उनके ऊपरी सिरे पर एक मचिया बाँधी जाती और मोटे रस्से से भी ऊपर उन्हे जोड़ा जाता, जिस पर चल कर नट लोग अपने अजीब-अजीब करतब दिखाते।इस बार का यह सालाना खेल आस-पास के गाँवों के लिए इस कारण भी विशेष आकर्षण का केन्द्र था, क्यों कि पटे बाज की नई बहू भी अपने करतब दिखाने वाली थी। यह नटों के यहाँ की परम्परा थी कि घर आई नई बहू अपने करतब दिखाती थी। इस बार कला बाज के लिए विशेष करतब दिखाने का इंतजाम भी किया गया था। नीम की ऊची डाल से,जमीन मे खूँटा गाड़ के एक रस्सा बाँधा गया था।
होते करते अगला दिन आया। मतलब नटों के तमाशे का दिन। जमींदारी गए वैसे तो सालों बीत चुके थे लेकिन गाँव में अभी भी पुराने जमींदारों का पूरा मान-सम्मान बरकरार था। इस लिए हम लोगों के परिवार के सदस्यों के बैठने के लिए अलग वी.आई.पी. इंतजाम था।
खैर पटे बाज ने ढोल बजाना शुरू किया। वो बूढ़ा हो चला था, कहा करता था कि,‘ बाबू ढोल मा नटन केर जिउ बसत है जो नट ढोल न बजा सकै वह नट कइस! ’ साथ मे नटिन चाची लकड़ी की चोपों से थाली बजा कर संगत देनी ‘ाुरू की। इसका मतलब था कि अब नटों का खेल शुरू होने वाला है। लेकिन क्या कमाल का ढोल बजाता था पटे बाज, कितनी तन्मयता थी उसमे कि सुनने वालों के दिल धड़कने लगते और बच्चे अपनी सांस साधे, कौतूहल से खेल शुरू होने का इंतजार करते।
हम लोग अपने धराऊ कपड़े पहने ताऊ जी के साथ तमाशे में मौजूद थे। पटे बाज ने ढोल बजाना रोका, ताऊ जी के सामने आकर जुहार किया और तमाशा शुरू करने की अनुमति माँगी। फिर अपने कुल-देवता का स्मरण कर पटे बाज ने ‘जय बजरंग बली’ का जयकारा लगाया।
बाजे बजना फिर शुरू हुआ। पटे बाज, कला बाज और उसके साथी नट अनेक प्रकार के वाद्य बजा रहे थे। नटिन चाची वही थाली लकड़ी की चरेपों से बजा कर सब यंत्रों का साथ दे रही थीं। पुनः जयकारा लगा, बाजे बजने बन्द हुए।
नटिन भौजी उठी। आज के लिए नटिन चाची ने अपनी बहू को बिल्कुल गुड़िया की तरह सजाया था। रंगीन घाँघरा, जम्पर, ओढ़नी ओढ़े वह बाँस पर चढ़ी। चढ़ने पहले उसने धरती माता को सिर टिका कर प्रणाम किया। बाँस पर चढ़ कर मचिया पर चढ़ी और फिर दोनो हाथ फैला कर शरीर का संतुलन बनाते हुए रस्से पर चल कर एक छोर से दूसरे छोर पहुँच गई। कला बाज बड़ी तन्मयता से ढोल बजा रहा था, कि उसे दीन-दुनिया का कुछ होश ही न हो जैसे। उसके सधे हाथ ढोल पर थाप दे रहे थे और निगाहें रस्से पर चलती हुई अपनी बीबी पर अपलक टिकी हुईं थीं। भौजी दो बार रस्से पर इधर से उधर गई। फिर वो सर पर दो खाली घड़े रख कर रस्से पर इस छेार से उस छोर चली गई। तालियाँ गूँज उठ। भौजी नीचे उतरी। नटिन चाची ने आगे बढ़ कर उसकी बलैंयाँ लीं और गले से लगा लिया। शायद कला बाज भी ऐसा ही कुछ करना चाह रहा हो, पर उसका खिला हुआ चेहरा ही भीड़ ने देखा।
एक के बाद एक नटों ने बड़े अद्भुत करतब दिखाए। बाँसों के ऊपर बँधी मचिया पर इलायची बाज ने जो कलाबाजी-करतब दिखाए वो बेहद हैरत-अंगेज थे। एक कलाबाजी के बाद लगता कि इस बार जरूर नीचेे गिरेगा और अपने हाथ-पैर तोड़ लेगा। लेकिन बाह इलायची बाज! उसके संतुलन में जरा भी कमी नही आई और उसने उसके बाद तीन भालों को जोड़ कर बनाए त्रिभुज को एक बाँस मे फंसा कर ऊपर उठाया और उसे हवा मे उछाल कर खुद पैर फैला कर जमीन पर लेट गया। भाले ऊपर से गिरे। एक उसके बाएं,एक दाएं और एक दोनो टांगो के बीच गिर कर जमीन मे धंस गए। वह बिल्कुल महफूज। लोगों ने तालियाँ बजा कर उसकी तारीफ की और वह सबको अभिवादन कर एक तरफ बैठ गया।
अब बारी आई कला बाज की। शरीर पर केवल लँगोट पहने खड़ा हुआ। उसकी छाती पर एक चमड़े का टुकड़ा बाँधा गया। वह अपने इष्ट का ध्यान कर नीम के पेड़ पर चढ़ा और जिस डाल पर रस्सा बँधा था उस पर पहुँच गया। तो नटिन भौजी के घूँघट मे फंसी दो उँगलियों के बीच झाँकती आँखें अपने पति पर जा टिकीं। कला बाज दोनो हाथों से पकड़ कर रस्से पर लेट गया। उसने दोनो हाथ हवा में पंछियों की तरह फैलाए और तूफानी गति से सरकता हुआ जमीन पर आ लगा। हम सब खड़े हो गए और नटिन भौजी भी खड़ी हो गई। उसके घूँघट में फँसी दोनो उँगलियाँ हटीं, दोनो हाथ जुड़े और आसमान की ओर उठ गए थे। कला बाज सीधा भागता हुआ ताऊ जी के पास आया और अपना सर उनके पैरों पर रख दिया। ताऊ जी ने उसके सर पर हाथ फेरा और ग्यारह रुपए उसे ईनाम के तौर पर दिए।
पटे बाज ने चैक में एक चादर फैला दी थी। सब लोगों ने उसमे कुछ न कुछ धन डाला। मुझे आज तक याद है कि मेले में खर्च करने को दी गई एक अठन्नी की पूँजी को मैने उस चादर में डाल दिया था। ताऊ जी यह देख रहे थे। जब मै वापस उनके पास आया तो उन्होने मेरी पीठ पर हाथ फेरा था।
नट परिवार का जीवन बड़े आराम से चल रहा था। नटिन भौजी के आजाने से परिवार की खुशियाँ और बढ़ गईं थीं। समय पंख पसार कर उड़ रहा था।
एक दिन मुझे नटिन चाची के यहाँ घी लाने के लिए भेजा गया। घर के बाहर कोई नही दिखा। सोचा ‘ाायद पटे बाज भैंस चराने गए होंगे सो अंदर चला गया। देखा कि कला बाज और नटिन भौजी एक चटाई पर आमने-सामने पत्थर की मूर्ति-से बैठे हैं। कला बाज के कपड़ों से लग रहा था कि अभी कहीं बाहर से लौटा है। उनके बीच एक दोने मे मिठाई रक्खी थी जिसमे से ‘ाायद किसी ने भी कुछ खाया नही था। दोनो की दृष्टि एक-दूसरे मे ऐसी गुम्फित हो गई थी कि किसी की पलक भी नही झपक रही थी।
मेरे कहने पर कि ‘भौजी हमार घी! ’ उनकी एकाग्रता टूटी। भौजी उठ कर धत्त कहती हुई भीतर भागी। कला बाज ने हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ना चाहा पर उसके आँचल को भी न छू पाया। इतनी फुर्तीली थी भौजी। तनिक देर में उसने घी की भड़िया ला कर मुझे थमा दी, और मेरे गाल में चिकोटी काटते हुए बोली,‘ लाला कोउ ते कहेव ना।’
कला बाज बोला,‘अरे बबुआ समझदार हैं कोउ ते न कहियैं।’
घी लेकर मैं लौट पड़ा और रास्ते भर सोचता रहा क्या किसी से न कहना!
जाड़े के दिन थे। अगले दिन घी के पैसे देने फिर भौजी के घर जाना पड़ा। बाहर किसी को न देख कर भीतर चला गया। मुझे यह तो पता था कि घर का कोई बड़ा जब घर के भीतर आता है तो खाँसता है पर छोटों पर यह नियम लागू नहीं होता। मैं कमरे के सामने पहुँचा तो देखा कि चटाई के ऊपर एक रजाई पड़ी है। फिर लगा कि उसके भीतर दो बिल्लियाँ फँसी हैं और लड़ रही हैं। डर गया, फिर जोर से पुकारा ‘भौजी! ’ दिखा कि कोई रजाई के भीतर से निकल कर भागा। और रजाई के भीतर की उथल-पुथल जो समुद्र की सुनामी लहरों जैसी लग रही थी शात हो गई। थोड़ी देर सन्नाटा रहा फिर भौजी घूँघट काढ़े बाहर आई, मुझसे पैसे लिए, फिर गालों में चुटकी काटते हुए बोली,‘ तुम बड़े वो हौ।’ और खिलखिलाते हुए भाग गई। तब इन बातों का मतलब कुछ नही समझ पाया था। जब समझा तो सारे दृ‘य आज भी आँखों मे तैर जाते हैं।
भौजी और कला बाज का प्यार परवान चढ़ा। वो बेटे की माँ बनी। नट परिवार की खुशियों में चार चाँद लग गए। लेकिन ऊपर वाले को क्या मंजूर है कोई नही जानता।
कला बाज को ‘हाइड्रोफोबिया’ हो गया। तमाम झाड़-फूँक कराई गई, सब बेकार। गाँव के कुछ समझदार लागों ने कहा भी कि इसे शहर ले जाओ, पर नटों के अन्धविश्वास अपने थे। वो चल बसा।
बेटे के अचानक चले जाने का दःुख पटे बाज और नटिन चाची नही झेल सकी। एक महीने के अंतर से यह दोनो भी भगवान को प्यारे हो गए। बस नटिन भौजी और उसकी गोद में रज्जन। भौजी के मायके वालों ने गाँव आकर उसे बहुत समझाया कि अभी उम्र ही क्या है, दूसरी शादी कर ले पर उसने किसी की एक न मानी। एक दिन घर मे सुना अम्मा से कह रही थी ‘ चाची किस्मत के आगे तौ कउनौ जोर चलत नाईं। मेहनत करके रज्जनवा का पढ़इबे, जित्ता यो पढ़ा चाही। ’
अम्मा ने भी उसकी हिम्मत बढ़ाई थी। भौजी घरों-घरों जाकर आटा पीसने से लेकर दाल-धान कूटने का काम करके रज्जन की पढ़ाई के लिए अतिरिक्त आय करने लगी। धीरे-धीरे उसकी जिंदगी रेंगने लगी। रज्जन स्कूल, स्कूल से कॉलेज गया फिर बी.ए. पास करते ही उसकी जयपुर में सरकारी नौकरी लग गई। भौजी के सारे दुख काफूर हो गए। रज्जन की शादी हुई। डेढ़ दो साल के अंतर पर उसकी बहू ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। रज्जन हर महीने घर खर्च के लिए अच्छी रकम भेज देता। होते करते भौजी का घर पक्का बन गया।
रज्जन अपनी बहू को जयपुर नही ले गया था। शायद इसलिए कि कोई बता रहा था कि वहाँ जा कर वह राम सिंह चैहान हो गया है। बरहाल इन चैहान साहब को जयपुर की हवा लगी तो वह पीने के आदी हो गए।
इस बार होली पर रज्जन घर आया हुआ था। गाँव के रीत-रिवाज भूला नही था। सब घरों में जाकर पैलगी की अपने और जयपुर के हाल बताए। होली पर भाँग और शराब का चस्का तो जोर मारता ही है। त्यौहार पर रज्जन के चाचा भी पास के गाँव से मिला-भेंटी करने आए थे। रज्जन अपने साथ अग्रेंजी की बोतल लाया था। वही उसने चाचा के सम्मान मे पेश की। दोनो ने पी। रज्जन शायद औकात से ज्यादा पी गया था। भौजी ने कहा, ‘ बस करो तुम लोग चलो खाना लगा दीन है, खाओ चलै। ’
पीना रोक दिया गया। दोनो लोग खाने बैठे। होली का त्योहार छेड़-छाड़ का, हँसी-ठिठोली का, उस पर देवर-भाभी का रिस्ता। रज्जन के चाचा ने अपनी भौजी से कुछ ठिठोली कर दी। भौजी ने भी उसी तरह से जवाब दे दिया। जो रज्जन को बहुत नागवार गुजरा। चाचा के चले जाने के बाद उसने माँ से पूछा, ‘ तुम चाचा से मजाक काहे करती रहौ?’
‘ तौ का हुइगा। ’
‘ए सब कब से चल रहा है ? ’
‘का कब से चल रहा है ? ’ भौजी ने सहजता से कहा।
इस बार रज्जन की आवाज कड़क के साथ गरजी, ‘ बताओ ए कब से चल रहा है ? ’
‘ अरे का कब से चलि रहा है? ’ भौजी भी खीजते हुई बोली थी।
बस रज्जन ने उठ कर भौजी को एक करारा थप्पड़ जड़ दिया। थप्पड़ इतना करारा था कि वह फर्श पर लुढ़क गई। और विधवा होने के बाद की जिंदगी की रील जैसी उसके अंदर चल गई। किस हौसले से पाला था इसे! क्या-क्या अरमान सँजोए थे। भौजी के सामने वह दिन भी घूम गया जब किसना ने उसे एक खेत में पकड़ लिया था, जीवन भर सहारा देने का वादा किया था और उसने किस तरह उससे विनती करके स्वयं को गिरने से बचाया था।.......अक्सर जाड़े की रातों में अगिन उठने पर वो ठंडे पानी से नहा कर खुद को शांत करती थी।.....उसे लगा कि किसना तो उस दिन से सम्हल गया पर मेरा बेटा ?........रज्जन ने नशे मे न जाने भौजी को कितना मारा। वो बेहोश हो गई थी। सुबह जब उसे होश आया तो कराहते हुए उसने देखा कि वह घर में अकेली है। रज्जन अपने बीबी-बच्चे लेकर जा चुका था। घर के बाहर चबूतरे पर अपना सर पकड़ कर भौजी बैठ गई। और एक टक स्टेशन जाने वाली सड़क को सूनी आँखों से निहारती रही।..
भावपूर्ण कहानी
जवाब देंहटाएंसुंदर कहानी हेतु कथाकार को बधाई
अच्छी कहानी पढ़वाने का
पूर्वाभास का आभार
बहुतै नीक कहानी लिखा गवा है.. यथार्थ सूचक, मार्मिक घटनाये..
जवाब देंहटाएं"नटिन भौजी 'श्री राम सिंह गौर की यह कहानी दिल को छू गई ।एक बार में पूरी पढ़ गया ।घर -गाँव के रिश्तों की मिठास के साथ आपसी सहयोग के चित्रण को बड़ी सहज भाषा में कथाकार ने उकेरा है .शिक्षा पाकर और अपने पैरों खड़े होने के बाद अपने माता -पिता एवम् दूसरे सगे सम्बन्धों के लिरस्कार का मार्मिक चित्रण है । कथाकार को साधुवाद एवम् पूर्वाभास को अच्छी कहानी पढ़वाने के लिए धन्यवाद ।।
जवाब देंहटाएंदिल को छू जाने वाली कहानी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
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