चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
बचपन की खुशमिज़ाजियॉं ढूढते हो, पागल हो!
बारिश में कागज़ी कश्तियॉं ढूढते हो, पागल हो!
ज़िन्दगी के रास्ते तो ख़ुद ही बनाने पड़ते हैं,
तुम सहरा में पगडण्डियॉं ढूढते हो, पागल हो!
झूठ के हमज़ुबां तलाशोगे तो बहुत मिल जायेंगे,
सच के हक में गवाहियॉं ढूढते हो, पागल हो!
रौशनी के जले हो या जिस्मों से है चोट खाई,
ख़्वाबों में भी जो परछाईयॉं ढूढते हो, पागल हो!
वो तो पत्थरों से टकरा के कब के पथरा चुके,
शहरों में जुगनू, तितलियॉं ढूढते हो, पागल हो!
गनीमत है, होंठों को इक-आध मुस्कां मिल जाये,
इस दौर में तुम खुशियॉं ढूढते हो, पागल हो!
नफ़रतों के खंजर गुज़रे थे सनसनाते ‘सानी’,
सर बच गये, पगड़ियॉं ढूढते हो, पागल हो!
(2)
चेहरे पे धूप पड़े, करवट बदलते हैं, लोग जागते नहीं,
ख्वाब टूटे तो बस ऑंख मलते हैं, लोग जागते नहीं।
ये अजब शहर है, जैसे हर कोई नींद में चलता है,
ठोकर लगे, लड़खड़ाके सम्भलते हैं, लोग जागते नहीं।
वो दरीचे बन्द रखते हैं, जो दिन के मुँह पे खुलते हैं,
कमरों में बोझिल अन्धेरे टहलते हैं, लोग जागते नहीं।
ऑंखे बन्द करके चीखते हैं कि, ‘ये अन्धेरा क्यों है’,
सूरज को पीठ दिखाकर चलते हैं, लोग जागते नहीं।
बस्ती भर की ऑंख में रड़कते हैं, मुद्दत के रतजगे,
हवेली में दिन-रात ख़्वाब टहलते हैं, लोग जागते नहीं।
अन्धेरे से ऐसे मानूस कि उजाले को ख़ारिज कर दें,
बस नींद की ख़ुमारी से बहलते हैं, लोग जागते नहीं।
धूप बन्द दरवाज़ों पे सर पटकती लौट जाती है ‘सानी’,
कितने ही सूरज चढ़ते हैं, ढलते हैं, लोग जागते नहीं।
अप्रतिम! बहुत सुन्दर गज़लें। निश्चित रूप से आपका आभार व्यक्त किया जाना चाहिए आपके इस बेहतरीन कार्य के लिए।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत आभार व साधुवाद!
Nice gazals. I like these gazals
जवाब देंहटाएंVery nice ghazal
जवाब देंहटाएंparmjit14 अप्रैल 2013 3:11 pm
जवाब देंहटाएंVery nice ghazal
nice ghazal
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