"कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो"- दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों से प्रेरणा लेने वाली डॉ संवेदना दुग्गल ने साहित्य और समाज का फ़लसफ़ा अपने पिता दिनेश पालीवाल से जाना-समझा। पिता जाने-माने कथाकार एवं लेखक और माँ समझदार गृहणी। संवेदना जी का जन्म 25 अक्टूबर 1 9 6 9 को इटावा, उ प्र में हुआ। आपने आगरा विश्विद्यालय से पीएच डी की। शीर्षक था "सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में शिल्प, भाषा और कथ्य।" वर्तमान में आप दिल्ली पब्लिक स्कूल, द्वारका, दिल्ली में हिन्दी की प्रवक्ता हैं। फेसबुक: http://www.facebook.com/samvedna.duggal
1. हम दोयम दर्जे की नागरिक
इस पुरुष प्रधान दुनिया में आधी आबादी स्त्रियों की है। लेकिन इस आधी आबादी को क्या वाकई आधे हक भी मिल पाए हैं? फ्रेंच लेखिका और महान अस्तित्ववादी दार्शनिक सार्त्र की महबूबा, लिविंग इन रिलेशनशिप में आजीवन सार्त्र के संग रहने वाली, सायमन द बोउवार की स्त्रियों के अस्तित्व को ले कर लिखी गई आधी दुनिया पर पहली और अत्यंत महत्वपूर्ण किताब--‘द सेकिंड सेक्स’ है, जिसका हिन्दी में अनुवाद प्रभा खेतान जी ने ‘स्त्री उपेक्षिता‘ के नाम से किया है, जिसमें उन्होंने स्त्रियों की उपेक्षा को लेकर बहुत गंभीरता से विचार किया है। हिन्दी साहित्य में और मानवाधिकारों में भी, आजकल महिलाओं को ले कर बहुत कुछ लिखा और कहा जा रहा है। सवाल उठता है, इतना हो-हल्ला मचने के बावजूद क्या हम स्त्रियों मां के गर्भ से ले कर चिता या कब्र में जाने तक सुरक्षित हैं? समाज का हमारे प्रति नजरिया बदला हुआ है? क्या हमें मानवी मान कर चला जा रहा है? हमें हमारे अधिकार और हक दिए जा रहे हैं? हमें दोयम दर्जे का नागरिक क्या अभी भी नहीं माना जा रहा?
हमारी अपनी दुनिया है। जिसे मैं इस कॉलम में ’दूसरी दुनिया’ नाम दे रही हूं। हम महिलाओं की सर्वथा उपेक्षित दुनिया। जिस दुनिया में हमें अपना कहीं कोई नजर नहीं आ रहा। हम कहीं सुरक्षित नहीं हैं। न मां के पेट में, न मां की गोद में, न मां के संग बिस्तर पर उनकी सुरक्षित बाहों में, न बालिका के रूप में, न किशोरी, न नव यौवना के रूप में, न नवेली वधू के रूप में और न मां बनने के बाद भी। न प्रौढ़ा और वृद्धा होने पर भी। हम सारी जिंदगी असुक्षित रह कर ही जीती हैं। यह असुरक्षा हमें सदैव घेरे रहती है। डर हमारा स्थाई भाव है। हम दोयम दर्जे की नागरिक हैं, यह भाव हमारे दिल-दिमाग पर हमेशा तारी रहता है। आत्मछलना, आत्मप्रवंचना, आत्महीनता और आत्मदमन के साथ जीती हमारी पूरी स्त्री जाति, हमारी पूरी औरत जमात गांव से लेकर कस्बों तक, कस्बों से लेकर नगरों और महानगरों तक, पहाड़ों से लेकर रेगिस्तानी इलाकों तक, जंगल वासी, आदिवासी महिलाओं से ले कर पिछड़ी, दलित, दमित स्त्रियों तक हमारी विशाल दुनिया की अपनी अगणित समस्याएँ हैं। अपने दुख, अपनी त्रासदियां हैं। उन सबका जिक्र मैं अपने इस कॉलम में समय-समय पर करती रहूंगी। ऐसा न समझा जाए कि हम कोई पुरुष विरोधी मुहिम छेड़ रहे हैं। हम विचार के लिए कुछ समस्याएं, कुछ सूक्तियां, कुछ बातें निरंतर आपके सामने रखना चाहेंगे। आशा है, वेब पत्रिका पूर्वाभास के पाठकों को यह सब पसंद आएगा और उन विचारों पर आप सब सुधी पाठक गंभीरता से विचार करेंगे।
औरत आज ही नहीं सताई जा रही। सिंधु घाटी सभ्यता, मेसापोटामियन, मिडिल ईस्ट, मिश्र, यूनानियन, मायन, रोमन और चीनी सभ्यता जैसी प्रचीनतम सभ्यताओं के जमाने से स्त्री को यह निर्दयी समाज सताता आ रहा है। समय-समय पर स्त्री के इस दमन और दलन के खिलाफ अनेक महापुरुषों और महान स्त्रियों ने आवाजें उठाई हैं। विरोध किया है। आन्दोलन किए हैं। लेकिन क्या तब से अब तक कहीं कुछ बदला है?
बाल विवाह, विधवा विवाह, पुनर्विवाह, सती प्रथा को लेकर तो हमारे देश में ही महापुरुषों ने लड़ाइयां लड़ीं। आन्दोलन किए। स्थितियों को बदलने का प्रयास किया। संविधान के रचयिता डॉ अंबेडकर ने दलित स्त्रियों की ही समस्याएं नहीं उठाईं, समूची स्त्री जाति की अस्मिता का प्रश्न उठाया। उनके कानूनी हकों को संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए घोर संघर्ष किया। गांधी और नेहरू का भी उन्हें समर्थन हासिल हुआ। सवाल उठता है, इस सबके बावजूद क्या इस आधुनिक, वैज्ञानिक और तकनीकी समाज में स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष अंतर आया? उनका दमन, उनका दलन, उन पर अत्याचार, दुराचार, उनके प्रति हिंसा, नित्य होते अपमान, छेड़छाड़, हमले, एसिड फैंकना, कन्या भू्रण हत्याएं, बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं से ले कर उनके अंग-भंग करना और हत्याएं जैसे अपराध क्या अब तक बंद हुए? जितने कानून बने, जितने रोकने के प्रयत्न किए गए, उतनी ही ये घटनाएं बढ़ीं। इसका मतलब हुआ, हमारे समाज का नजरिया ही स्त्रियों के प्रति अनुदार है। क्रूर और अपराध युक्त है। मानसिक रूप से बीमार समाज की पहचान है यह।
डॉ अंबेडकर ने संविधान में विशेष रूप से दो धाराएं स्त्रियों की सुरक्षा के लिए रखीं--धारा 14 तथा 15 जिनमें स्त्रियों को कानून की नजर में समानता का अधिकर दिया गया है। पन्द्रहवीं धारा में स्पष्ट उल्लेख किया गया है--राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान अथवा इनमें से किसी के भी आधार पर उनमें विभेद नहीं करेगा। राज्य में सबको समान माना जाएगा।
प्राचीन काल में भले भारतीय नारियों की स्थिति कुछ बेहतर रही हो पर मनुस्मृति के संरचना के बाद स्त्रियों के दमन का जो इतिहास भारत में चला, वह अत्यंत दुखद है। महाकाव्यों के काल में भी स्त्री के प्रति मनुष्य का भोगवादी दृष्टिकोण रहा। अग्नि परीक्षाएं लेने के बाद भी स्त्रियों को निर्दोष नहीं माना गया। घर से निकाल कर जंगलों भटकने के लिए छोड़ दिया गया। जुएं में स्त्रियों को पुरुष वस्तु की तरह हार गए। भरी सभा में उन्हें निर्वस्त्र किया गया और सारे आदरणीय, माननीय महापुरुष, सत्ताधीश सिर झुकाए वह सब होता देखते रहे!
इन सब बातों को लेकर मैंने बहुत बार ट्वीट किया- तकलीफदेह बातें हम जितनी जल्दी हो सके, भुला दें। जिससे अच्छी और खुशी देने वाली बातों के लिए दिमाग में जगह खाली हो जाए। लिखा कि कविताओं-कहानियों में ही हम सपनों की रानी न बनें। जिंदगी में भी हम उम्मीदों की किरन बनें। हम दिन-रात सड़कों पर आंखें झुकाए, कंधे डाले, सिर नीचा किए न चलें। सिर उठा कर समाज में हर किसी की आंखों में आंखें डाल कर अपने अस्तित्व की धमक का एहसास कराएं! हम जिंदगी को भार की तरह न जिएं। भरे-पूरे तरीके से, हंसी-खुशी और उत्साह से पूर्ण जिएं। अपने पति या पुरुष साथी का आसमान बनने की कीमत पर हम धरती की धूल न बनें। हम अपने को दमित, दलित, असहाय, निर्बल-दुर्बल मान कर शहीदाना अंदाज न अपनाएं। तन कर खड़े होने का साहस दिखाएं।
सवाल तमाम हैं। समस्याएँ अनेक हैं। चौतरफा षडयंत्रों के चक्रव्यूहों मे हम अभिमन्यु की तरह घिरी स्त्रियां अपने जीवन-मरण का संघर्ष कर रही हैं। क्या समाज हमारे इस दर्द को समझेगा? या हम आजीवन मीरा की तरह करुण गीत गाती रहेंगी--मेरा दरद न जाने कोय!
हाँ मुझे लिखना ही होगा ......संवेदना जी आप धन्यवाद की पात्र हैं ...आपकी विचार धरा के इस प्रवाह ने एक बार फिर से झंझोर दिया है ....बहुत ही कम शब्दों में....... बहूत कुछ स्त्रीयों के बारेमे ..उनकी स्तिथी (पुरा- बर्तमान ) का जो मार्मिक चित्रण किया है ..काबिले तारीफ है ......आशा है आप इस कलम के माध्यम से स्त्रीयो के उत्थान के प्रति समाज के हर तबके को सचेत करती रहेंगी .....मैं इस कलम पर आने वाले हर चिंतन शील मित्र से इस दिशा में डा० संवेदना जी दुगल को प्रोत्साहित करने की अपील करता हूँ ....और इस विषय के परिपेक्ष में हर संभव मदद की भावना रखता हूँ ......जय जय
जवाब देंहटाएंहाँ मुझे लिखना ही होगा ......संवेदना जी आप धन्यवाद की पात्र हैं ...आपकी विचार धरा के इस प्रवाह ने एक बार फिर से झंझोर दिया है ....बहुत ही कम शब्दों में....... बहूत कुछ स्त्रीयों के बारेमे ..उनकी स्तिथी (पुरा- बर्तमान ) का जो मार्मिक चित्रण किया है ..काबिले तारीफ है ......आशा है आप इस कलम के माध्यम से स्त्रीयो के उत्थान के प्रति समाज के हर तबके को सचेत करती रहेंगी .....मैं इस कलम पर आने वाले हर चिंतन शील मित्र से इस दिशा में डा० संवेदना जी दुगल को प्रोत्साहित करने की अपील करता हूँ ....और इस विषय के परिपेक्ष में हर संभव मदद की भावना रखता हूँ ......जय जय
जवाब देंहटाएंसंवेदना जी आप धन्यवाद की पात्र हैं ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार गर्भित लेख है नारी के अस्तित्व को लेकर,ये सच है की नारी कही भी सुरक्षित नहीं .अपने पति या पुरुष साथी का आसमान बनने की कीमत पर हम धरती की धूल न बनें। हम अपने को दमित, दलित, असहाय, निर्बल-दुर्बल मान कर शहीदाना अंदाज न अपनाएं। तन कर खड़े होने का साहस दिखाएं। संवेदना ज़ी को इतना अछे और सटीक शब्दों में अपनी बात कहने के लिए बधाई ..
जवाब देंहटाएंदोनों लेख सामयिक है. स्त्री और उनकी व्यथा कथा... सच है दूसरी दुनिया की तरह ही स्त्रियाँ हो गई हैं, जिसे एक सामान्य मनुष्य नहीं समझा जाता है. जाने क्यों स्त्रियों के प्रति समाज संवेदनशून्य है? दूसरी दुनिया को इस दुनिया में अपनी जगह बनानी ही होगी. अच्छे लेख के लिए संवेदना जी को बधाई.
जवाब देंहटाएंयत्र नारी पूजयन्ते, रमन्त्रे तत्र देवता !
जवाब देंहटाएंडॉ संवेदना को पढ़ा। बहुत अच्छा लगा। फ़ेकबुक से शुरू सिलसिला पूर्वाभास तक खींच लाया। पूर्वाभास का आभार
जवाब देंहटाएं