वरिष्ठ साहित्यकार मुहम्मद तारिक असलम 'तस्नीम' का जन्म 03 अप्रैल 1962 को ग्राम- धनगाईं, बिक्रमगंज, जिला- रोहतास, बिहार में हुआ। आप लेखन एवं पत्रकारिता में सन 1974 से सक्रिय। आप मूलतः कहानीकार, व्यंग्यकार, लघुकथाकार एवं कवि हैं। कृतियां: आदमीनामा-1985, सिर उठाते तिनके- 2000, शब्द इतिहास नहीं रचते- 2003, प्रतिनिधि लघुकथाएं- 2006, स्पॉट लाईट (मराठी लघुकथा संग्रह)- 2007, खुदा की देन- 2008, पत्थर हुए लोग (कहानी संग्रह)- 2013 में प्रकाशित। अनेक रचनाएं उर्दू, सिंधी, पंजाबी,बंगला, मगही, अंगिका ,निमाड़ी एवं मराठी भाषाओं में अनुदित। जनवरी, 2000 से दिसम्बर, 2000 के बीच सांगली, महाराष्ट्र से प्रकाशित ’लोकमत‘ दैनिक के प्रत्येक रविवासरीय साहित्य पेज पर बहुचर्चित लघुकथा संग्रह 'सिर उठाते तिनके' से नियमित लघुकथाएं प्रकाशित। संपादनः मासिक हमसफर(1980), मासिक नई शिक्षा संदर्भ पत्रिका (1981), साप्ताहिक भारतीय राजनीति और लोकसत्ता (1991) एवं कथा सागर त्रैमासिक (2000)। आपके विविध विषयक आलेख मीडिया केयर नेटवर्क/ मंथन फीचर्स/ युवराज व आदिति फीचर्स/ हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा द्वारा प्रसारित। प्रसारण: 1975-1985 तक आकाशवाणी पटना के अनेक कार्यक्रमों से संबद्ध। संप्रतिः कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार विभाग तथा राजभाषा विभाग, झारखंड सरकार अन्तर्गत वरिष्ठ अनुवादक कार्यरत। संपर्कः संपादक /कथा सागर, त्रैमासिक प्लाट-6,सेक्टर-2, हारून नगर कालोनी, फुलवारीशरीफ, पटना-801505, बिहार। मोबाईलः 9576661480/9570146864/ ई-मेल: kathasagareditor@gmail.com.
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
सच!
किसी को कोई चिंता नहीं
मेरे जीने-मरने की...
मेरे समय पर खाने-पीने की
जबकि जीवन गुजार दिया मैंने
बच्चों की खातिर
बच्चों की खातिर
अनगिनत सपने-बुनते
सबकी राहों में बिछे कांटे-किरचें चुनते
अपनी तमाम खुशियां
सबकी राहों में बिछे कांटे-किरचें चुनते
अपनी तमाम खुशियां
होम कर दीं मैंने
जिस घर के लिए
आज उसी घर के एक कमरे में
मानसिक रोगी बनी बैठी
जिस घर के लिए
आज उसी घर के एक कमरे में
मानसिक रोगी बनी बैठी
बुत सी पत्नी
जो कभी प्रत्येक सदस्य का
जो कभी प्रत्येक सदस्य का
रखती थी ख्याल
मेरी बिंदनी उसे अपने ही घर-परिवार,
चूल्हे -चौके का होश नहीं
सबको एकजुट रखने का
मेरी बिंदनी उसे अपने ही घर-परिवार,
चूल्हे -चौके का होश नहीं
सबको एकजुट रखने का
मन में कोई जोश नहीं
पल-पल
बहू रानी के कारनामे दिखते निराले हैं।
’बेड टी‘ के नाम पर
पल-पल
बहू रानी के कारनामे दिखते निराले हैं।
’बेड टी‘ के नाम पर
किचन में नजर आते
उसे अब तो दो ही प्याले हैं
मिटटी के माधव सरीखा
मूक दर्शक बन गया हूं मैं
कभी यह घर लगता था मेरासब मुझ में देखते थे
अपना चेहरा
कहा न!
आज भी
मैं वही हूं ...
बस कामकाजी नहीं हूं
शरीर बिन सहारे उठता नहीं
पैर जमीं पर घिसटता है
उसे अब तो दो ही प्याले हैं
मिटटी के माधव सरीखा
मूक दर्शक बन गया हूं मैं
कभी यह घर लगता था मेरासब मुझ में देखते थे
अपना चेहरा
कहा न!
आज भी
मैं वही हूं ...
बस कामकाजी नहीं हूं
शरीर बिन सहारे उठता नहीं
पैर जमीं पर घिसटता है
चलता नहीं !
किसी को रोकटोक सकता अगर
मैं फिर बसाता
सपनों का
इक शहर
चूंकि मेरा वजूद
किसी को रोकटोक सकता अगर
मैं फिर बसाता
सपनों का
इक शहर
चूंकि मेरा वजूद
बेमायने नहीं हुआ है
बच्चे चाहे
जितनी अनदेखी करें
मेरा हृदय
मीठे जल से भरा इक कुंआ है
सब के लिए मेरे दिल में
अब कालोनियों से
बच्चे चाहे
जितनी अनदेखी करें
मेरा हृदय
मीठे जल से भरा इक कुंआ है
सब के लिए मेरे दिल में
सिर्फ और सिर्फ दुआ है।
2. तलाश
2. तलाश
अब कालोनियों से
आबाद होते हैं शहर
जमीं पर कम
जमीं पर कम
आकाश में टंगे नजर आते घर
नजरें उठाकर देखिए ...
जरा आसमां की ओर
गगनचुम्बी इमारतें देखते हुए
कितना लगता है डर
प्रत्येक फ़्लैट में रहते लोगबाग
फिर भी न जाने क्यों ?
बंद रखते हमेशा
सबके सब अपने दर
आसपड़ोस के बीच
नजरें उठाकर देखिए ...
जरा आसमां की ओर
गगनचुम्बी इमारतें देखते हुए
कितना लगता है डर
प्रत्येक फ़्लैट में रहते लोगबाग
फिर भी न जाने क्यों ?
बंद रखते हमेशा
सबके सब अपने दर
आसपड़ोस के बीच
नहीं दिखाई देती
दोस्ती-प्यार
न किसी को होता
किसी के आने का
इंतेजार !
कहीं इक आंगन भी नहीं होता
दोस्ती-प्यार
न किसी को होता
किसी के आने का
इंतेजार !
कहीं इक आंगन भी नहीं होता
कमरों के दरमियाँ
कि औरतें मिल-बैठकर
कि औरतें मिल-बैठकर
कर लें गंवई अंदाज में
दो पल
अपने दुख-सुख पर विचार
बच्चों को पढ़ाई से फुर्सत नहीं
न मम्मी को आफिस से मिलती छुट्टी
पापा से भी
दो पल
अपने दुख-सुख पर विचार
बच्चों को पढ़ाई से फुर्सत नहीं
न मम्मी को आफिस से मिलती छुट्टी
पापा से भी
हो गई हो जैसे सबकी कुट्टी!
उन्हें रहती बस कमाने की धुन
हर पल सबको उलझाए रखती
उन्हें रहती बस कमाने की धुन
हर पल सबको उलझाए रखती
एक अजीब सी उधेड़बुन
एक ही छत के नीचेकौन किससे कितना होता परिचित
कह नहीं सकते
कोई सामने आता
किसी को
अचानक करता तलाश
एहसास होता कभी-कभी
कि हम बनकर रह गए हैं
एक जिंदा लाश!गौरतलब सवाल है यह कि
कंक्रीट के इस जंगल से
एक ही छत के नीचेकौन किससे कितना होता परिचित
कह नहीं सकते
कोई सामने आता
किसी को
अचानक करता तलाश
एहसास होता कभी-कभी
कि हम बनकर रह गए हैं
एक जिंदा लाश!गौरतलब सवाल है यह कि
कंक्रीट के इस जंगल से
निकलकर लोग
जाएं किधर
जिंदगी बनकर रह जाए
जब
एक फ्लाई ओवर!
Two Hindi Poems of Tarik Aslam 'Tasnim'
जिंदगी बनकर रह जाए
जब
एक फ्लाई ओवर!
बहुत सुन्दर दमदार प्रस्तुति के लिए धन्यवाद ...
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी ... शसक्त प्रस्तुति ....
जवाब देंहटाएंअवनीश जी
जवाब देंहटाएंपूर्वाभास के पेज पर कविताएँ देखी . बहुत बहुत धन्यवाद .अशोक कोचर और दिगम्बर जी के विचारों के लिए भी शुक्रगुजार हूँ .आशा है की आगे भी आप का समर्थन प्राप्त होगा .एक कहानी भेज रहा हूँ ....
बहुत उम्दा, मर्म को छूती हुई सुन्दर रचनाएँ. यथास्थिति के साथ भीतर की कुछ कर गुजरने की आग भी दिखाई पड़ी. रचनाकार भाई तस्नीम जी को साधुवाद.
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