ये हवा से बोल देना
आसमॉं बौना बहुत है / आज मेरे हौंसलो से
बिजलियॉं भी कॉंपती हैं,/ स्वप्न के इन घोंसलों से
ऑंधियॉं तक चाहती हैं,/ इस दिये का मोल देना
भागता हूँ तेज मैं भी /ये हवा से बोल देना।
स्वयं पर अटूट विश्वास,जीवन के प्रति अगाध आस्था का आचमन करती आवाज है ‘ये हवा से बोल देना’ के गीत। प्रेम निश्चित रुप से सार्वभोमिक सत्य है किन्तु सामाजिक विद्रूपताएँ उससे भी बड़ा कड़वा सच, कोई भी संवेदनशील मन उससे अछूता नहीं रह सकता। ‘ये हवा से बोल देना’ उसी संवेदनशील उर्वरा धरती पर खिला शिरीष का फूल है। दिनेश प्रभातजी मूलतः प्रकृति, प्रेम और श्रृंगार के कवि है। ये मालवा की मिट्टी की मिठास का ही असर है कि चुनौतियों को स्वीकारते, ऑंधियों से लड़ते हुए भी ये हवा से बोल देना के गीत अपनी मधुरता नहीं छोड़ते। विषय पर्वत से कठोर हो या रेगिस्तान से रेतीले, प्रभातजी के गीत अपने अंतर की नमी को बनायें रखते हैं। कोमल भावनाओं की नम जमीन,माधुर्य के निर्झर को सूखने नहीं देती।
जहॉं तक विषय वैविध्य का प्रश्न है, दो चार शिकायती गीतों को छोड़ दें तो उनकी कलम समस्त सामयिक विषयों पर संचालित हुई है। स्वार्थी सियासत हो, सामंती सत्ता, दहलती दिल्ली, या मरती मुम्बई, सुप्त संवेदनायें, या विकृत विभिषिकाएँ, प्रभात जी ने सभी विषय ‘ये हवा से बोल देना की गीत गागर में भरे हैं। बात बेटी की सुरक्षा की हो या हिन्दी की, दोनों ही के दर्द प्रभातजी ने छुये हैं।
रहों तुम व्यस्त चौके में
मगर ऑंगन न ओझल हो
अगर हैं बेटियॉं घर में
सुरक्षा भी मुकम्मल हो।
या
आज निराला के बेटो ने
कांवेट की राह पकड़ ली
हिन्दी की कोमल टांगे
अंग्रेजी ने आज जकड़ ली।
प्रभात जी की कलम जहॉं गोधरा बड़ोदरा कांड जैसे विषय पर मुखर हो उठती है तो रिश्तों की रिसन भी उतनी ही तीव्रता से महसूस करती है।
दीवारों से ज्यादा शायद
पानी बैठ गया रिश्तों में।
दिन ब दिन कायर होते मनुष्य जीवन के लिये ठंड को प्रतीक बना कर रचा गया गीत ‘ठंड के आगोश में’ बहुत ही सटीक है। प्रभात जी के गीतों के काव्यशिल्प पर उंगली उठाना, शिल्प की विषेषताओं पर उंगली उठाना है। संग्रह के समस्त गीत अपने कलापक्ष में चन्द्रमा की सोलह कलाओं से भी अधिक सम्पन्न हैं। संग्रह का एक गीत मुझे सबसे उत्कृष्ट जान पड़ता है ‘दर्द नहीं चुप रहने वाला’ इस गीत की प्रत्येक पंक्ति अपने आप में विशिष्ट है। पीड़ा के लिये उपयोग में लाये गये प्रतीक एकदम नये व मर्मस्पर्शी हैं ‘जितना मॉंज रही है पीड़ा, उतना उजला निकल रहा हूँ । इस गीत में दर्द के साथ कर्मयोग की बात कही गई हैं, जिसमें पीड़ा उभरती तो है किन्तु स्वाभिमान के साथ।‘ संचय कर के जल रखता हूँ / अपने पॉंवों के छालों में, एक ही पंक्ति में जीवन के दो यथार्थ प्रस्तुत किये हैं । एक तो कि कर्म प्रर्वृत्त व्यक्ति के पॉंवो में ही छाले हो सकते हैं और दूसरा ये कि वही जीवन में नम्रता रुपी जल के महत्व को भी समझ सकता है। अद्भुत प्रयोग है। इसी तरह के कुछ और भी गहन और सटीक प्रयोग संग्रह में देखने को मिलते हैं। जैसे-विकास के नाम पर की जाने वाली राजनीति को दर्शाती हुईं ये पंक्तियॉं ‘छावॅं से ज्यादा जरूरत/ आज सबकों है सड़क की/छातियॉं तक चीर देंगे/ देखना पर्वत तलक की/ वोट का चौड़ीकरण है/ रास्ते से सब हटेंगें। आत्मअवलोकन कराती ये पंक्तियॉं कि ‘खुद को कोई नहीं देखता रोटी जैसा उलट-पुलट कर या संस्कारों की क्षति दर्शाती ये पंक्ति ‘पॉंवो मे झुक जाने वाली/ पावन रीत कहीं पर गुम है या पीड़ा के लिये किया गया ये प्रयोग, कि जितनी धीमी ऑंच मिली है उतने अच्छे, घाव सिकें है एकदम नया प्रयोग है।
‘ये हवा से बोल देना’ का अंतिम गीत हम समीक्षकों के नाम किया गया है। प्रभात जी समीक्षकों को निशाना बनाते हुए कहते हैं कि ‘आकलन के नाम पर/ कविता पड़ी है उलझनों में’ या वाणियों में कथ्य की तो/ दूर तक चर्चा नहीं है, या ये कि सत्य फंस कर रह गया है झूठ के आलिंगनों में, आदरणीय दिनेश प्रभात जी से मैं कहना चाहती हूँ कि समीक्षक की आसंदी पर बैठतें ही अंतरआत्मा में पंच परमेश्वर जागृत हो जाता है तब सिर्फ सत्य का संवरण किया जाता है झूठ का आलिंगन नहीं। आपके इसी गीत की पंक्तियॉं आपको समर्पित करते हुए अपनी बात को विराम देती हूँ कि-
शक्ल की मासुमियत से / दिग्भ्रमित होते नहीं हम
पत्थरों का बोझ सिर पर/ देर तक ढोते नहीं हम
क्या रखा है,जानते हैं कांच के इन बर्तनों में।
प्रभात जी को बहुत बहुत बधाइयॉं।
समीक्षक:
सम्पर्क : ई-2 / 346
अरेरा कॉलोनी, भोपाल
अरेरा कॉलोनी, भोपाल
दूरभाष: 0755-2421384, 9993707571
ईमेल:dr.sadhnabalwate@yahoo.in
Ye Hawa Se Bola Dena- Dinesh Prabhat, Bhopal, M.P.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: