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मंगलवार, 17 सितंबर 2013

ज्ञान के माध्यम की भाषा और गांधी का पाठ - अमरनाथ

प्रो॰ (डॉ.) अमरनाथ


चर्चित लेखक एवं शिक्षाविद डॉ अमरनाथ शर्मा का जन्म 1 अप्रैल 1954 को गोरखपुर जनपद (संप्रति महाराजगंज), उ. प्र. के रामपुर बुजुर्ग नामक गाँव में हुआ था। शिक्षा: एम.ए., पीएच. डी.(हिन्दी) गोरखपुर विश्वविद्यालय सेभाषा : हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला। पारिवारिक परिचय: माता : स्व. फूला देवी शर्मा, पिता : स्व. पं. चंद्रिका शर्मा, पत्नी : श्रीमती सरोज शर्मा, संतान : हिमांशु , शीतांशु एवं शिप्रा शर्मा। प्रकाशित कृतियाँ : ‘हिन्दी जाति’, ‘हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’, ‘नारी का मुक्ति संघर्ष’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और परवर्ती आलोचना’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काव्य चिन्तन’,‘समकालीन शोध के आयाम’(सं॰), ‘हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र’(सं॰), ‘सदी के अंत में हिन्दी’(सं॰),‘बांसगांव की विभूतियाँ’(सं॰) आदि। ‘अपनी भाषा’ संस्था की पत्रिका ‘भाषा विमर्श’ का सन् 2000 से अद्यतन संपादन। सम्मान व पुरस्कार : साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा का ‘संपादक रत्न सम्मान’, भारतीय साहित्यकार संसद का ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान’, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद का ‘प्रवासी महाकवि हरिशंकर आदेश साहित्य चूड़ामणि सम्मान’, मित्र मंदिर कोलकाता द्वारा सार्वजनिक अभिनंदन आदि। संप्रति : कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर, 'अपनी भाषा' के अध्यक्ष और भारतीय हिन्दी परिषद् के उपसभापति। संपर्क : ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091, फोन : 033-2321-2898, मो.: 09433009898, ई-मेल : amarnath.cu@gmail.com. 

मारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने आजाद भारत का जो सपना देखा था और उस सपने को साकार करने के लिए जो मार्ग सुझाया था हम उस मार्ग से भटकते –भटकते विपरीत दिशा की ओर मुड़ गए और धीरे –धीरे चलते हुए इतनी दूर पहुँच चुके हैं कि अब तो उधर लौटना एक सपना देखना भर रह गया है. अज हम गाँधी जी की उस शैतानी सभ्यता की ओर बेतहासा भाग रहे हैं जिससे दूर रहने के लिए उन्होंने हमें बार-बार आगाह किया था. 

गांधी जी ने हिन्दी के आन्दोलन को आजादी के आन्दोलन से जोड़ दिया था. उनका ख्याल था कि देश जब आजाद होगा तो उसकी एक राष्ट्रभाषा होगी और वह राष्ट्रभाषा हिन्दी ही होगी क्योंकि वह इस देश की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा है. वह अत्यंत सरल है और उसमें भारतीय विरासत को वहन करने की क्षमता है. उसके पास देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि भी है. जो फारसी लिपि जानते हैं वे इस भाषा को फारसी लिपि में लिखते हैं. इसे हिन्दी कहें या हिन्दुस्तानी. 

आरंभ से ही गांधीजी के आन्दोलन का यह एक मुख्य मुद्दा था. अपने पत्रों ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ में वे बराबर इस विषय पर लिखते रहे. हिन्दी-हिन्दुस्तानी का प्रचार करते रहे. जहां भी मौका मिला खुद हिन्दी में भाषण दिया. गांधी जी के प्रयास से 1925 ई. के कानपुर अधिवेशन में कांग्रेस का काम काज हिन्दुस्तानी में करने का प्रस्ताव पारित हुआ इस प्रस्ताव के पास होने के बाद गाँधी जी ने इसकी रिपोर्ट अपने पत्रों ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ दोनो में दी थी. उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था, “हिन्दुस्तानी के उपयोग के बारे में जो प्रस्ताव पास हुआ है, वह लोकमत को बहुत आगे ले जाने वाला है. हमें अबतक अपना काम काज ज्यादातर अंग्रेजी में करना पड़ता है, यह निस्संदेह प्रतिनिधियों और कांग्रेस की महा समिति के ज्यादातर सदस्यों पर होने वाला एक अत्याचार ही है. इस बारे में किसी न किसी दिन हमें आखिरी फैसला करना ही होगा. जब ऐसा होगा तब कुछ वक्त के लिए थोड़ी दिक्कतें पैदा होंगी, थोड़ा असंतोष भी रहेगा. लेकिन राष्ट्र के विकास के लिए यह अच्छा ही होगा कि जितनी जल्दी हो सके, हम अपना काम हिन्दुस्तानी में करने लगें.”( यंग इंडिया 7.1.1926 ) इसी तरह उन्होंने ‘नवजीवन’ में लिखा, “जहां तक हो सके, कांग्रेस में हिन्दी –उर्दू ही इस्तेमाल किया जाय, यह एक महत्व का प्रस्ताव माना जाएगा. अगर कांग्रेस के सभी सदस्य इस प्रस्ताव को मानकर चलें, उसपर अमल करें तो कांग्रेस के काम में गरीबों की दिलचस्पी बढ़ जाय.” ( नवजीवन, 3.1.1928 ) 

भाषा के बारे में अपनी साम्राज्यवाद विरोधी एवं सामासिक दृष्टि का परिचय देते हुए गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा, ‘प्रत्येक पढ़े लिखे भारतीय को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फारसी का और हिन्दी का ज्ञान सबको होना चाहिए. .... सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होगी. उसे उर्दू या देवनागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए. हिन्दू और मुसलमानों में सद्भाव रहे, इसलिए बहुत से भारतीयों को ये दोनों लिपियां जान लेनी चाहिए.” ( सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खण्ड- 10, पृष्ठ-56 ) यहाँ उल्लेखनीय है कि गाँधी जी ने हिन्दी को किसी धर्म विशेष की भाषा न मानकर सभी भारतीयों की भाषा के रूप में उसे पहचाना. यह प्रकारान्तर से हिन्दी के धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय चरित्र की स्वीकृति थी. गाँधी जी का उक्त कथन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उस भाषाई षड्यंत्र का जवाब भी था जिसके तहत उन्नीसवीं सदी में फोर्ट विलियम कालेज के द्वारा हिन्दी को हिन्दुओं और उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रचारित करके हिन्दू- मुस्लिम अलगाववाद की नींव तैयार की गयी थी. 

गाँधी जी ने 20 अक्टूबर 1917 ई. को गुजरात के द्वितीय शिक्षा सम्मेलन में दिए गए अपने भाषण में राष्ट्रभाषा के कुछ विशेष लक्षण बताए थे, वे निम्न हैं— 

1. वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए. 

2. उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज शक्य होना चाहिए. 

3. उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों. 

4. वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चहिए. 

5. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जोर न दिया जाये. 

उक्त पाँच लक्षणों को गिनाने के बाद गाँधी जी ने कहा था कि हिन्दी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं और फिर हिन्दी भाषा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा, “हिन्दी भाषा मैं उसे कहता हूँ, जिसे उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी (उर्दू) लिपि में लिखते हैं. ऐसी दलील दी जाती है कि हिन्दी और उर्दू दो अलग -अलग भाषाएं हैं. यह दलील सही नहीं है. उत्तर भारत में मुसलमान और हिन्दू एक ही भाषा बोलते हैं. भेद पढ़े लिखे लोगों ने डाला है. इसका अर्थ यह है कि हिन्दू शिक्षित वर्ग ने हिन्दी को केवल संस्कृमय बना दिया है. इस कारण कितने ही मुसलमान उसे समझ नहीं सकते है. लखनऊ के मुसलमान भाइयों ने उस उर्दू में फारसी भर दी है और उसे हिन्दुओं के समझने के अयोग्य बना दिया है. ये दोनो केवल पंडिताऊ भाषाएं हैं और इनको जनसाधारण में कोई स्थान प्राप्त नहीं है. मैं उत्तर में रहा हूँ, हिन्दू मुसलमानों के साथ खूब मिला जुला हूँ और मेरा हिन्दी भाषा का ज्ञान बहुत कम होने पर भी मुझे उन लोगों के साथ व्यवहार रखने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई है. जिस भाषा को उत्तरी भारत में आम लोग बोलते हैं, उसे चाहे उर्दू कहें चाहे हिन्दी, दोनो एक ही भाषा की सूचक है. यदि उसे फारसी लिपि में लिखें तो वह उर्दू भाषा के नाम से पहचानी जाएगी और नागरी में लिखें तो वह हिन्दी कहलाएगी.” ( सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खण्ड- 10, पृष्ठ-29 ) 

गाँधी जी चाहते थे कि बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सब कुछ मातृभाषा के माध्यम से हो. दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान ही उन्होंने समझ लिया था कि अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा हमारे भीतर औपनिवेशिक मानसिकता बढ़ाने की मुख्य जड़ है. ‘हिन्द स्वराज’ में ही उन्होंने लिखा कि, “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी मे डालने जैसा है. मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी. उसने इसी इरादे से वह योजना बनाई, यह मैं नहीं कहना चाहता, किन्तु उसके कार्य का परिणाम यही हुआ है. हम स्वराज्य की बात भी पाराई भाषा में करते हैं, यह कैसी बड़ी दरिद्रता है? ....यह भी जानने लायक है कि जिस पद्धति को अंग्रजों ने उतार फेंका है, वही हमारा श्रृंगार बनी हुई है. वहां शिक्षा की पद्धतिया बदलती रही हैं. जिसे उन्होंने भुला दिया है, उसे हम मूर्खता वस चिपटाए रहते हैं. वे अपनी मातृभाषा की उन्नति करने का प्रयत्न कर रहे हैं. वेल्स, इंग्लैण्ड का एक छोटा सा परगना है. उसकी भाषा धूल के समान नगण्य है. अब उसका जीर्णोद्धार किया जा रहा है....... अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है. अंग्रेजी शिक्षण से दंभ द्वेष अत्याचार आदि बढ़े हैं. अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी. भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं. जनता की हाय अंग्रेजों को नहीं हमको लगेगी.”( संपूर्ण गांधी वांग्मय, खण्ड-10, पृष्ठ-55 ) अपने अनुभवों से गाँधी जी ने निष्कर्ष निकाला था कि, “अंग्रेजी शिक्षा के कारण शिक्षितों और अशिक्षितों के बीच कोई सहानुभूति, कोई संवाद नहीं है. शिक्षित समुदाय, अशिक्षित समुदाय के दिल की धड़कन को महसूस करने में असमर्थ है.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-164) 

गाँधी जी नें इंग्लैण्ड में रहकर कानून की पढ़ाई की थी और बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी. अपने देश के संदर्भ में अंग्रेजी शिक्षा की अनिष्टकारी भूमिका को पहचानने में उनकी अनुभवी दृष्टि धोखा नहीं खा सकती थी. दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही वे अच्छी तरह समक्ष चुके थे कि भारत का कल्याण उसकी अपनी भाषाओं में दी जाने वाली शिक्षा से ही संभव है. भारत आने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक उद्घाटन समारोह में जब लगभग सभी गणमान्य महापुरुषों नें अपने अपने भाषण अंग्रेजी में दिए, एक मात्र गाँधी जी ने अपना भाषण हिन्दी में देकर अपना इरादा स्पष्ट कर दिया था. संभवत: किसी सार्वजनिक समारोह में यह उनका पहला हिन्दी भाषण था. उन्होंने कहा, ‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यंत अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है . .... मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा. हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिंब है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है. क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? फिर राष्ट्र के पावों में यह बेड़ी किसलिए ? यदि हमें पिछले पचास वर्षों में देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गयी होती, तो आज हम किस स्थिति में होते ! हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-765 ) 

संभव है यहां कुछ लोग मातृभाषा से तात्पर्य अवधी, ब्रजी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका आदि लें क्योंकि आजकल चन्द स्वार्थी लोगों द्वारा अपनी-अपनी बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए उन्हें मातृभाषा के रूप में प्रचारित किया जा रहा हैं और इस तरह हिन्दी को टुकड़े टुकड़े में बांटने की कोशिश की जा रही है. ऐसे लोग न तो अपने हित को समझते हैं और न इतिहास की गति को. वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं खुद हिन्दी की रोटी खाते हैं और भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी तथा राजस्थानी आदि को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि इन क्षेत्रों की आम जनता को जाहिल और गँवार बनाये रख सके और भविष्य में भी उनपर अपना आधिपत्य कायम रख सके. ऐसे लोगों को गाँधी जी का निम्नलिखित कथन शायद सद्बुद्धि दे. गाँधी जी ने 1917 ई. में हिन्दी क्षेत्र के एक शहर भागलपुर में भाषण देते हुए कहा था, ”आज मुझे अध्यक्ष का पद देकर और हिन्दी में व्यख्यान देने और सम्मेलन का काम हिन्दी में चलाने की अनुमति देकर आप विद्यार्थियों ने मेरे प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया है......इस सम्मेलन का काम इस प्रान्त की भाषा में ही— और वही राष्ट्रभाषा भी है --- करने का निश्चय करके आप ने दूरन्देशी से काम लिया है. इसके लिए मैं आप को बधाई देता हूँ. मुझे आशा है कि आप लोग यह प्रथा जारी रखेगे.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-5 ) 

स्पष्ट है कि सम्मेलन का काम इस प्रान्त की भाषा में ही –और वही राष्ट्र भाषा भी है –कहकर गाँधी जी ने यह अच्छी तरह स्पष्ट कर दिय था कि बिहार प्रान्त की भाषा और मातृभाषा भी राष्ट्रभाषा हिन्दी ही है, न कि कोई अन्य बोली या भाषा. गाँधी जी का विचार था कि मां के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है. हम ऐसी शिक्षा के वशीभूत होकर मातृद्रोह करते है. 

विदेशी भाषा में शिक्षा देने के जो नुकसान गाँधी जी ने बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में बताए उनसे आज भी असहमत होना असंभव है. 

पिछले दिनों हमारे देश के प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा गठित ज्ञान आयोग ने शिक्षा के संबंध में जो सिफारिशें की हैं वे गाँधी जी के सपनों के ठीक विपरीत है. अपनी सिफारिशों में ज्ञान आयोग का मानना है कि अंग्रेजी भाषा की समझ और उसपर मजबूत पकड़ उच्च शिक्षा और रोजगार की संभावनाओं और सामाजिक अवसरों की सुलभता तय करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है. इसलिए आयोग ने सुझाव दिया है कि “अब समय आ गया है कि हम देश के आम लोगों को स्कूलों में भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ाएं और अगर इस मामले मे तुरंत कार्यवाही शुरू कर दी जाए तो एक समाहित समाज की रचना करने और भारत को ज्ञानवान समाज बनाने मे मदद मिलेगी.” ( राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का प्रतिवेदन, पृष्ठ-28) 

आयोग ने सुझाव दिया है कि पहली कक्षा से सभी बच्चों को अंग्रेजी की शिक्षा दी जाय. आयोग के सुक्षाव के पूर्व देश के नौ राज्यों ( पूर्वोत्तर के छ: राज्यों सहित ) में पहली कक्षा से अंग्रेजी की शिक्षा दी जाती थी. किन्तु आयोग के सुक्षाव के बाद देश के सभी राज्यों में पहली कक्षा से अंग्रेजी की शिक्षा दी जा रही है. संप्रति केन्द्र और राज्य सरकारों में यह आम सहमति बनती दिखायी दे रही है कि भारतीय भाषाओं में अध्ययन करने के कारण बच्चे पिछड़ते जा रहे हैं, जबकि पिछड़ेपन के मूल कारण कहीं और हैं. 

विगत लोक सभा चुनाव के ठीक पहले आयी अर्जुन सेनगुप्त आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के 87 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में ही सरकारी स्कूल हैं और इनमें से एक लाख सरकारी स्कूलों के पास सिर्फ एक ही कमरा है. औसत 42 छात्रों पर एक शिक्षक हैं. 80 हजार स्कूलों में ब्लैक बोर्ड तक नहीं हैं. 10 प्रतिशत के पास पीने का पानी तक नहीं है. इसके बरक्स दूसरी ओर देखें तो पब्लिक स्कूलों की वह दुनिया है जिसमें बेतहासा पूँजीनिवेश हो रहा है क्योंकि वहां अकूत मुनाफा है. भविष्य भी वहां उज्जवल दिखायी दे रहा है. छोटे छोटे शहरों में ऐसे पब्लिक स्कूल बड़ी संख्या में खुल रह हैं. महानगरों में तो पाँचसितारा संस्कृति वाले ऐसे स्कूल बड़ी संख्या में हैं जहां एडमीशन के लिए लाखों का डोनेशन देना पड़ता है. जहां देखा जाता है कि अभिभावक के पास गाड़ी है या नहीं. जहां एडमीशन तो बच्चे का होता है कितु इंटरव्यू माँ –बाप का होता है. 

परिस्थितियां ऐसी बना दी गयी हैं कि इस देश की किसी भी भाषा में पारंगत होने पर आप को कोई नौकरी नही मिल सकती. किन्तु आप भले ही इस देश की कोई भी भाषा न जानते हों और सिर्फ एक विदेशी भाषा अंग्रेजी जानते हों तो आप को बड़ी से बड़ी नौकरी सम्मान के साथ मिल सकती है. ऐसी दशा में अपने बच्चों को अंग्रेजी न पढ़ाने की मूर्खता भला कोई कैसे कर सकता है ? इस देश के शासक वर्ग ने सारे नियम कानून ऐसे बना रखे हैं कि अंग्रेजी के बगैर न तो आप को रोजी-रोटी मिलेगी और न सम्मान के साथ जीवन. 

विगत कुछ वर्षों से हिन्दी की कई बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए आन्दोलन चलाया जा रहा है. संसद के पिछले सत्र में हमारे गृहमंत्री माननीय पी. चिदंबरम साहब ने सांसदों को इस आशय का एक आश्वासन भी दे रखा है कि अगले मानसून सत्र में इससे संबंधित एक बिल संसद में लाया जाएगा. 

अस्मिताओं की राजनीति आज के युग का एक प्रमुख साम्राज्यवादी एजेंडा है. साम्राज्यवाद यही सिखाता है कि थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली. जब संविधान बना तो मात्र 13 भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल थीं. फिर 14, 18 और अब 22 हो चुकी हैं. अकारण नहीं है कि जहाँ एक ओर दुनिया ग्लोबल हो रही है तो दूसरी ओर हमारी भाषाएं यानी अस्मिताएं टूट रही हैं और इसे अस्मिताओं के उभार के रूप में देखा जा रहा है. हमारी दृष्टि में ही दोष है. इस दुनिया को कुछ दिन पहले जिस प्रायोजित विचारधारा के लोगों द्वारा गलोबल विलेज कहा गया था उसी विचारधारा के लोगों द्वारा हमारी भाषाओं और जातीयताओं को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट करके कमजोर किया जा रहा है. 

वस्तुत: साम्राज्यवाद की साजिश हिन्दी की शक्ति को खण्ड-खण्ड करने की है क्योकि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी, दुनिया की सबसे बड़ी दूसरे नंबर की भाषा है. इस देश में अंग्रेजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिन्दी ही है. इसलिए हिन्दी को कमजोर करके इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता को, इस देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है. अस्मिताओं की राजनीति के पीछे साम्राज्यवाद का यही एजेंडा है. 

अगर बोलियों और उसके साहित्य को बचाने की सचमुच चिन्ता है तो उसके साहित्य को पाठ्यक्रमों में शामिल कीजिए, उनमें फिल्में बनाइए, उनका मानकीकरण कीजिए. उन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करके हिन्दी से अलग कर देना और उसके समानान्तर खड़ा कर देना तो उसे और हिन्दी, दोनो को कमजोर बना देना और उन्हें आपस में लड़ाने की जमीन तैयार करना है. 

वस्तुत: हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो वह हिन्दी ही है. हिन्दी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द का रिश्ता है. हिन्दी इस क्षेत्र की जातीय भाषा है जिसमे हम अपने सारे औपचारिक और शासन संबंधी काम काज करते हैं. यदि हिन्दी की तमाम बोलियां अपने अधिकारों का दावा करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो हिन्दी की राष्ट्रीय छवि टूट जाएगी और राष्ट्रभाषा के रूप में उसकी हैसियत भी संदिग्ध हो जाएगी. 

इतना ही नहीं, इसका परिणाम यह भी होगा कि मैथिली, ब्रजी, राजस्थानी आदि के साहित्य को विश्वविद्यालयों के हिन्दी पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए हमें विवश होना पड़ेगा. विद्यापति को अबतक हम हिन्दी के पाठ्यक्रम में पढ़ाते आ रहे थे. अब हम उन्हें पाठ्यक्रम से हटाने के लिए बाध्य हैं. अब वे सिर्फ मैथिली के कोर्स में पढ़ाये जाएंगे. क्या कोई साहित्यकार चाहेगा कि उसके पाठकों की दुनिया सिमटती जाय़ ? 

अंतत: हम फिर कहना चाहते हैं कि हम गाँधी जी के दिखाए गए रास्ते की उल्टी दिशा में चलते –चलते बहुत दूर जा चुके हैं. गाँधी जी ने जिस आजादी का सपना देखा था वह आज भी अधूरा ही है. मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में कुर्सी पर ‘जॉन’ की जगह ‘गोविन्द’ बैठ गए हैं. हमें सच्ची आजादी के लिए फिर से एक दूसरी लड़ाई लड़नी होगी. आज हमारी अपनी भाषाओं को जिस सीमा तक सम्मान और अधिकार मिला हुआ है उसी सीमा तक हम आजाद हैं


Hindi, India and Gandhi

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