राकेश चक्र |
हाल ही में चर्चित साहित्यकार श्रद्देय राकेश चक्र जी की कुण्डलियाँ छंद में अनूठी पुस्तक 'चाचा चक्र के सचगुल्ले' प्रकाशित हुई। मन हुआ कि इसमें से कुछ कुण्डलियाँ प्रकाशित की जाएँ। 14 नवम्बर 1955 को ग्राम- सजाबाद-ताजपुर, जनपद-अलीगढ़ (उ.प्र.) में जन्मे राकेश 'चक्र' की अब तक लगभग 60 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी बाल साहित्य पर लिखी कई पुस्तकें कई विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मलित की जा चुकी हैं। आपकी लघुकथाओं का अंग्रेजी में 'द एक्जामिनेशन' शीर्षक से अनुवाद किया जा चुका है। रस्किन बोंड ने लिखा है- "राकेश चक्र एक संवेदनशील रचनाकार हैं और इनकी कहानियाँ मानवीय मूल्यों को प्रस्तुत करती हैं।" संपर्क: 90 बी, शिवपुरी (डबल फाटक) मुरादाबाद- 244001, दूरभाष- 945620185
चेहरे पर चेहरे मिलें, अद्भुत इनके जाल।
गैंडे की सी हो गई, मोटी इनकी खाल।।मोटी इनकी खाल, स्वयं को धोखा देते।
लेते देते खूब, ऐंठ में वे हैं रहते।।
कहें चक्र कविराय हुए हम अंधे बहरे।।
असली चेहरे छिपे आज चेहरे पर चेहरे।।
(2)
नस-नस में है भर गया, विष-सा भ्रष्टाचार।
सिंहासन पर बैठ कर, बढ़े पाप-कुविचार।।
बढ़े पाप-कुविचार कि सीना खोले चलते।
सीधे साधे लोग देख, हाथों को मलते।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, मुट्ठियां भिंचती कस-कस।।
टूटे भ्रष्टाचार की, भइया, अब तो नस-नस।।
(3)
अपनी-अपनी गा रहे, दूध धुला न कोय।
चौराहे जनता खड़ी, लालच मक्खन होय।।
लालच मक्खन होय, भ्रमित है जनमत सारा।
प्रत्याशी को जाति-धर्म की आड़ उतारा।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, जुगत है लगे पटकनी।
छल, प्रपंच में सभी, गा रहे अपनी-अपनी।।
(4)
अन्ना जी के साथ हम, अन्ना जनमत साथ।
भूखे को रोटी मिले, बेरोजी को हाथ।।
बेरोजी को हाथ, देश खुशहाल बनायें।
जाति धर्म के बन्धन, टूटें प्यार बढ़ायें।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, शुद्ध हो, फिर गंगाजी।
हम सबका हो साथ, तो जीतेंगे अन्ना जी।।
(5)
जीवन ये रंग मंच है, नहीं समझते लोग।
अपना-अपना धर्म है, अपने-अपने भोग।।
अपने-अपने भोग, नहीं कोई साथ निभाता।
मुट्ठी बांधे आया मानव, हाथ पसारे जाता।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, मोह से लगता बन्धन।
बिना मोह के जिये सदा, क्या बढ़िया जीवन।।
(6)
मानव को मैं खोजता, लिये दीप को हाथ।
भू अम्बर मिलता नहीं, सहज प्यार का साथ।।
सहज प्यार का साथ, डंक बिच्छू-सा मारें।
दम्भ-स्वार्थ में डूब गए, सब गेह उजाड़ें।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, हर जगह बाढ़े दानव।
प्रभु भेजो अपनी दुनियां में मानव-मानव।।
(7)
अपनी-अपनी मत कहो, गैरों की सुन यार।
प्रेम बढ़ेगा नित सदा, कभी न होगी रार।।
कभी न होगी रार, रोज गलबहियां होवें।
द्वेष, कपट, हिंसा सारे, सिर पकड़ के रोवें।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, बजाओ प्रेम की ढपली।
रोज करो उपकार, करो ना अपनी-अपनी।।
Rakesh Chakra
वाह .. जोरदार, धारदार मस्त हैं सभी कुण्डलियाँ ...
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया ...