देश-भर में तमाम लोग यह कहते हुए मिल ही जाते हैं कि अब हिंदी में सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, रामधारी सिंह 'दिनकर' आदि और अंग्रेजी में स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्री अरविंदो, आर. के. नारायण, मुल्कराज आनंद, राजा राव आदि जैसे समर्पित एवं सहृदय साहित्यकार नहीं रहे। कई लोग यह भी कहते मिल जाएंगे कि साहित्य में अब वैसा रस नहीं रहा जैसा पुराने साहित्य में हुआ करता था। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। अब भी ऐसे तमाम रचनाकार हमारे बीच मौजूद हैं। अब भी रसवंती साहित्य रचा जा रहा है। आवश्यकता बस खोजने, जानने एवं समझने की है— "जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।"
5 दिसंबर 1968 को मुरादाबाद, उ.प्र. में जन्मे सुधीर कुमार अरोड़ा, जिनकी अंग्रेजी कविता— "मदर" का हिंदी रूपांतरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, ऐसे ही विलक्षण व्यक्तित्व हैं। महाराजा हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद, उ.प्र. में सह आचार्य एवं विभागाध्यक्ष (अँग्रेजी) और ऑनलाइन शोध पत्रिका— "क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज्म" के प्रधान सम्पादक डॉ अरोड़ा अँग्रेजी साहित्य के समर्थ आलोचक तो हैं ही, एक कवि के रूप में भी उनकी विशिष्ट पहचान है। वह स्वाभाव से कर्मठ, जिज्ञासु, सहज, विनम्र, मितभाषी एवं मिलनसार हैं। लिखने-पढ़ने के शौक़ीन हैं। जागरूक अध्येता हैं। यथार्थवादी एवं संवेदनशील रचनाकार हैं। अंग्रेजी कविता संग्रह— "ए थर्स्टी क्लाउड क्राइज" सहित अब तक उनकी अँग्रेजी में डेढ़ दर्जन से अधिक आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उनकी दो किताबें— "लिटररी टर्म्स" एवं "ए हैंडबुक ऑफ़ लैंग्वेज एण्ड लिट्रेचर इन इंग्लिश" प्रकाश बुक डिपो, बरेली से प्रकाशित होने वाली हैं। एक कवि के रूप में उनकी रचनाएँ मनुष्य के मनोवैज्ञानिक आयाम एवं जीवन की मूलभूत समस्याओं को उजागर करती हैं। कुलमिलाकर उनकी विद्वता भावकों को पूरी तरह से आकर्षित एवं आश्वस्त करती है। संपर्क : बी-72, दीनदयाल नगर, फेज़-2, साईं मंदिर के पास, मुरादाबाद- 244001 (उ.प्र.), ई-मेल: drsudhirkarora@gmail.com
माँ
मैं और यह सर्द हवा
आग और बर्फ की तरह
खुले आसमान के नीचे
रहते हैं खुलकर।
एक समय था
जब यह सर्द हवा
अपने नुकीले दातों से
मुझे काटती थी।
समय का चक्र बदला
प्रकृति बदली
आग बर्फ हो गई
बर्फ आग।
आज यह बफीर्ली आग
मुझे काटती नहीं
बल्कि
मेरा चुम्बन करती है
अपने प्यार का इजहार
करने के लिए
मेरे आस्थिपंजर में
प्रवेश कर जाती है।
मैंने भी एक सच
जान लिया है
कि
हम एक दूसरे के बिना
अधूरे हैं।
मैं ही दर्शक हूँ
मैं ही कलाकार
चल पड़ा हूँ,
बस चल पड़ा हूँ
बिना जाने
कि कहाँ होगा पड़ाव
बस चल पड़ा हूँ
इस वृत्ताकार पथ पर
जो
मुझे बार-बार ला देता है
जहाँ पर मुझे मिलता है
एक भिखारी।
मैंने पूछा
तुम यहाँ क्यों आते हो
यहाँ तो भीख भी नहीं मिलती
यह जगह लोगों को
दुखी बना देती है
एहसास कराते हुए
कि
एक दिन तुम्हें भी
यहाँ आना है।
वह मुस्कराया
बोला
न मैं बुद्धिमान
न मैं दुखी
मैं तो बस आता हूँ
सिर्फ सर्द हवाओं से
बचने के लिए
ये चिताएँ मुझे गर्माहट देती हैं
मेरे अस्तित्व को
बरकरार रखती हैं
हालांकि
यह बात दूसरी है
कि
जब ये चिताएँ चिताएँ नहीं थीं
तब भी आग में जलती थीं
फर्क सिर्फ इतना है
कि तब अन्दर से जलती थीं
अब बाहर से।
चिंता की आग
किसी काम की नहीं होती
वह अपनों को ही
ठंडा कर देती है
लेकिन
चिता की आग
काम को जलाती है
और
पंछी को मुक्त कराती है।
मुझ स्वार्थी के लिए तो बस
इतना है कि
कम से कम मुझे यह आग
बचाती है
अपनी गर्माहट से
मैं जिन्दा हूँ
चिता से
चिंता तो मुझे मार ही डालती।
काम आग है
आग ही मेरा काम
और
मैं भलीभांति जान गया हूँ
कि
इस आग का अस्तित्व
बर्फ में छिपा है
इसलिए
ये सर्द हवाएँ
मुझे सताती हुई नहीं लगती
क्योंकि
मैं इन्हें अब प्यार करता हूँ
और यह भी सच है
कि
बर्फ और आग के बीच ही
मैं जिन्दा हूँ।
एक चिता मेरे अपने की
देख रहा था
निहार रहा था
उस पवित्र आत्मा को
जिसने मुझे जन्म दिया
मुझे लगा
वह आत्मा
मुझे आशीर्वाद दे रही थी।
बेटे, हरहाल में खुश रहना
चिता की वो लपटें
मुझे झुलसा नहीं रही थीं
बल्कि ममता का
गर्म स्पर्श दे रही थीं।
मैं जान गया
एक सच-
सच उस भिखारी का
उसके बार-बार मिलने का
एक चिता जो मेरे लिए
मेरी माँ की चिता थी
लेकिन
भिखारी के लिए
अस्तित्व की वजह।
मैं उसके सामने
नतमस्तक हो गया
सभी चिताएँ
ममता का स्पर्श दे रहीं थीं
इसलिए वह खुश था।
मैं सोचने लगा
कि
भिखारी कौन है
वह जिसके पास कुछ नहीं,
फिर भी खुश है
या मैं
जिसके पास सब कुछ है,
फिर भी खुश नहीं हूँ।
Dr Sudhir Kumar Arora
Very touching and nice poem indeed!
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