लंबोधरन पिल्लै. बी |
लंबोधरन पिल्लै. बी का जन्म 20 मई 1965 को कोट्टारकरा, कोल्लम, केरल में हुआ। पिता- कृष्ण पिल्लै एवं माता- भगीरथि अम्म। शिक्षा: एम.ए. हिन्दी, एम.फिल एवं करपगम विश्वविद्यालय (कोयम्बटूर) से पी.एच.डी (शोधरत)। सम्प्रति: प्रोफसर (हिंदी), एम.ए.एस. कालेज, मलप्पुरम, केरल। ई-मेल: blpillai987@gmail.com
हिन्दी उपन्यास यात्रा का एक पडाव है- श्री कमलेश्वर का 'अनबीता व्यतीत' नामक उपन्यास। इसमें वर्तमान सांसारिक जीवन की एक बडी भयानक सामाजिक समस्या, पर्यावरण– प्रदूषण एवं मनुष्य और अन्य जीव-जन्तुओं के बीच संपर्क की अनिवार्यता का वर्णन सुन्दर ढंग से किया गया है।
उपन्यासकार कमलेश्वर का 'अनबीता व्यतीत' का प्रकाशन २००५ में हुआ था। इससे पहले हिन्दी उपन्यासों में इस विषय को बडा स्थान नहीं मिला था।
6 जनवरी 1932 में मैनपुरी में जन्मे कमलेश्वर आधुनिक हिन्दी के बहुआयामी व्यक्तित्व वाले कलमकार है। एम.ए. उत्तीर्ण करने के पश्चात कमलेश्वर ने कहानी, उपन्यास, निबन्ध, संपादन, कथा-पटकथा लेखन आदि क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा की परिचय दिया। भारतीय दूरदर्शन के ऍडिशनल डायरेक्टर जनरल के पद पर कुशलतापूर्वक कार्य किया। विराट, वेताल पच्चीसी, बिखरे पन्ने, युग और चन्द्रकांता आदि अनेक महत्वपूर्ण धारावाहिकों का चयन और सारा आकाश, अमानुष, मिस्टर नटवरलाल, उसके बाद, राम बलराम, शैतान, मौसम, पति- पत्नी आदि का कथा-पटकथा लेखन-निर्देशन भी कमलेश्वर ने किया।
कमलेश्वर ने अपनी लम्बी साहित्य-यात्रा के दौरान ग्यारह उपन्यास लिखे: १९६१ में प्रकाशित एक सडक सत्तावन गलियाँ, १९६२ में प्रकाशित डाक बंगला, १९६३ में प्रकाशित लौटे हुए मुसाफिर एवं तीसरा आदमी, १९७४ में काली आँधी, १९८० में आगामी अतीत और वही बात, १९८२ में सुबह दोपहर शाम, १९८८ में रेगिस्तान और कितने पाकिस्तान, २००४ में प्रकाशित अनबीता व्यतीत। उनका अनबीता व्यतीत हिन्दी उपन्यास-जगत को अनुपम देन है।
कितने पाकिस्तान और अनबीता व्यतीत विषय-वस्तु और रचना पद्धति की दृष्टि से अलग तरीका व्यक्त करने वाले उपन्यास है। कितने पाकिस्तान में उन्होंने भारतीय राजनीति, आपातकालीन परिस्तिथियाँ एवं उनके परिणामों का वर्णन किया है, अनबीता व्यतीत में एक नया विषय- पर्यावरण-प्रदूषण, पक्षी-जानवरों का जीवन चित्रित करने का प्रयास किया है। पुराने नैतिक मूल्यों एवं आधुनिक जीवन संघर्षों का वर्णन इस उपन्यास को एक अलग कोटि का बना देता है।
विवेच्य रचना- अनबीता व्यतीत पर्यावरण प्रदूषण की समस्या केंद्र में है, जिसमें पशु-पक्षी भी सम्मिलित है। यह वास्तव में हिन्दी उपन्यास जगत में एक नयी परीक्षणात्मक प्रणाली है। दूसरे जीव-जन्तुओं के प्रति दया, करुणा और ईश्वरीय दृष्टिकोण अंकित करनेवाला हिन्दी का पहला अनूठा उपन्यास है अनबीता व्यतीत। मनुष्य में जन्म से यह अहंकार भाव पैदा होता है कि वह सबसे ऊँचा है, उसे जीतने वाला और कोई नही है। सृष्टि-स्थिति और संहार का अधिकार उन पर सीमित है, दूसरे जीव-जन्तुओं के ऊपर उनका परमाधिकार है। मनुष्य, प्रकृति की लाखों-करोडों जीवों में एक होकर भी अन्य सबों के ऊपर अधिकार जमाकर उसे निष्कासित करने का प्रयास कर रहा है। मिट्टी और जल-वायु उनके हाथों का खिलौना है। प्रकृति की सारी विपत्ति का कारण यह दुर्विचार है। अनबीता व्यतीत इस समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। भारतीय परंपरा में वेदों और पुराणों में ही नहीं, बौद्ध और जैन दर्शन में भी मनुष्य और प्रकृति के अन्य जीव-जन्तुओं से जीवन समरसता का उपदेश मिलता है। हर नीति-नियमों का उल्लंघन करना अपना ध्येय मानने वाला मनुष्य हर समय और हर करतूत में सृष्टि के अन्य जीवों का ही नहीं, वरन सृष्टा को भी चुनौती दे रहा प्रतीत होता है। मनुष्य दिन-प्रति दिन, क्षण-प्रतिक्षण अपनी सुख-सुविधाएँ बढाने के लिए जो कुछ करता है,वह सब स्वयं अपने अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न कर डालता है। अनबीता व्यतीत उपन्यास में अत्यंत मासूम जीव-जन्तुओं के दर्दनाक जीवन एवं मानव का व्यवसायिक मनोभावों की वास्तविकता उद्घाटित होती है।
अनबीता व्यतीत उपन्यास की प्रस्तावना (दो शब्द) में स्वयं कमलेश्वर ने लिखा है- 'करुणा, दया और सह-अस्तित्व का भारतीय सिद्धांत सदियों पुराना है। यह कोई आज का राजनैतिक सिद्धाँत नहीं है, बल्कि भारतीय सभ्यता ने इसे जीव और जीवन, प्रकृति और पर प्रकृति के लिए सदियों पहले स्वीकार किया था। जीवन और वनस्पति के, वनस्पति और जीव-जन्तुओं के आपसी सन्तुलन को खोजा था। इसी सर्वमंगलिक निष्ठा ने बौद्धकालीन और जैनकालीन अहिंसा को जन्म दिया था।'
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को उजागर करना कमलेश्वर का एक और लक्ष्य है। हमारी प्रकृति में तरह-तरह के जीव है। इनमें से सबसे मासूम और सुन्दर है वे पंछी, जो हमारी वन्य-संस्कृति की संपदा भी है। अपने मखमली पंखों को लहराते, अपनी मधुर आवाज़ से संगीत पैदा करते ये पंछी बरसों बरस मन को शाँती, जीवन देते है। और इन्हीं पंछियों से आ मिलते है वे परदेसी पंछी, जो सर्दियों से सायबेरिया और उत्तरी गोलार्द्ध से उडकर भारत आ जाते है, यहाँ बसेरा करते है। ये सुन्दर और मासूम पंछी लगभग ११,००० वर्षों से भारत आते रहे है, हज़ारों मील का सफ़र तय करते है, हिमालय को पार करते है, और सर्दियों में भारत को अपना घर बना लेते है। लेकिन इन मासूम पंछियों के पीछे भी मृत्यु पडी रहती है। जगह-जगह इन्हें पकड़ा या मारा जाता है और व्यापार किया जाता है।वास्तव में इस उपन्यास का लक्ष्य इतने में सीमित नहीं है। इतना ही नहीं इसमें अहिंसा की विस्तृत भाव-भूमि को निरखा-परखा जा सकता है।
स्वतंत्रता के पश्चात् अनेक छोटे-बडे राज्य भारत संघ में मिला लिए गए। वैसे ही एक छोटा राज्य- सुमेरगढ़ , अरावली पर्वत की तराई का सुन्दर प्रदेश भी भारत संघ में जोड़ा गया। इस राज्य की महारानी है राजलक्ष्मी। एक दिन दीवानखाने की ज़मीन पर पक्षियों का खून और हिरणी की लाश देखकर महारानी का ह्रदय दुखी हो जाता है। वे भगवान से प्रार्थना करती है कि 'हे भगवान, जब तूने इन जीव-जन्तुओं को जीवन दिया था तो इन्हें अपनी शक्ति भी देता ताकि ये बेचारे अपने जीवन की रक्षा कर पाते' - यह है इस उपन्यास की मुख्य संवेदना। राजलक्ष्मी की नातिन समीरा भी चिडियों को पालती है, उनका दुःख अपना दुःख समझती है। समीरा हर दिन झील के किनारे पर जाकर पंक्षियों का निरीक्षण करती है।
महारानी राजलक्ष्मी एक विदेशी के हाथ से अफ्रीकी काकतूआ को खरीदती है। वे उसे बहुत प्यार करती है। एक दिन सभी चिड़ियाँ अभय के लिए दीवानखाने पर आ गए। तब महाराजा वहाँ आकर अपनी बन्दूक से काकतुआ का हत्या कर देता है। इस पर दुःखी होकर महारानी मर जाती है।
प्रकृति रक्षा, पक्षी पालन और पर्यावरण संरक्षण का दायित्व राजकुमारी समीरा ले लेती है। दिव्या, पंडित दीनानाथ की बेटी और समीरा की सहेली है। उसका व्यक्तित्व भी समीरा के समान है।
गौतम भारतीय पुरातत्व विभाग में काम करने वाला एक कर्मचारी है। सुमेरगढ का पुरातत्व प्रधान चीज़ों का व्यौरा लेने के लिए सुमेरगढ आता है। उसकी भेंट दिव्या से होती है। धीरे-धीरे दिव्या के माध्यम से समीरा से संपर्क कर गौतम का प्यार परवान चढ़ने लगता है। इससे व्यथित दिव्या अपने कपड़े तथा चप्पल झील के किनारे छोडकर आत्महत्या की शंका पैदा कर अप्रत्यक्ष हो जाती है। समीरा की तरह गौतम भी प्रकृति को मानता एवं पूजता है। समीरा के पिता नरेन्द्रसिंह चिडियों का माँस खाने का शौक़ीन है। वह अपनी बेटी समीरा द्वारा पाले गए पंछी को मार कर खा जाता है। इस बात पर पुत्री एवं पिता के बीच मतभेद हुए, परिणामस्वरुप रतनपुर के युवराजा जयसिंह से उसकी शादी करवा दी जाती है। फलस्वरूप समीरा और गौतम की मुलाकात संभव नहीं हो सकती। बाद में समीरा को मालुम होता है कि उसके पिता की भाँती पति जयसिंह भी पक्षियों का माँस खाने वाला है। समीरा यहाँ से अपने बेटे विक्रम को लेकर सुमेरगढ लौट आती है। एक दिन उसका पति उसे मनाने के लिए आता है। दोनों में मतभेद बढता है।
समीरा के बेटे विक्रम का जन्मोत्सव मनाते समय भजन मंडली के सदस्य बनकर सन्यासिनी की वेशभूषा में दिव्या प्रासाद आती है। समीरा और दिव्या परस्पर जानने पर भी बातें नहीं करती है। गौतम और समीरा के मध्य संबंध तोडने के बारे में जयसिंह समीरा से कहता है। वास्तव में गौतम-समीरा संबंन्ध वासनात्मक न होकर पर्यावरण विषय पर आधारित है। इस सत्य को मानने के लिए जयसिंह तैयार नहीं है। एक सायंकाल गौतम और समीरा झील के किनारे बैठकर पक्षी-निरीक्षण कर रहे होते हैं तभी जयसिंह गौतम को लक्ष्य कर गोली चला द॓ता है। गोली समीरा को लगती है और वह झील में गिर पडती है। थोडी देर बाद उसकी मृत्यू हो जाती है।
गौतम पुरातत्व विषय संबंन्धी अपनी ऱिपोर्ट भारत सरकार को भेजता है। उस पर प्रसन्न होकर सरकार उसे आदिवासी जाति का खोज कार्य सौंप देती है। किन्तू सुमेरगढ जैसा प्रकृति संपन्न, रमणीय और मनोरम प्रदेश छोडकर वह जाना नहीं चाहता। वह उसकी माँ द्वारा जोड़े गये धन से सुमेरगढ की झील और प्रकृति प्रधान जगहों को खरीद लेता है, जोकि मरने से पहले उसकी माँ की इच्छा थी। तब वह झील के पास पक्षियों के लिए एक आश्रय स्थल स्थापित करता है। उपन्यास का अंतिम वाक्य भी प्रकृति संरक्षण की ओर इशारा करता है।
और उस मुख्य सडक पर, जहाँ से झील की सरहद शुरु होती थी, वहाँ पर वह एक बडा सा बोर्ड़ लगा रहा था-
पंछियों की धर्मशाला,
यहाँ शिकार करना मना है
हिन्दी में ही नहीं, अन्य भाषाओं के उपन्यासों में भी आजकल स्त्री-पुरुष प्रेम और सौंदर्य के वर्णन को ज़्यादा स्थान दिया जा रहा है। अधिकाँश उपन्सकारों के लिए प्रकृति का अस्तित्व एक विषय नहीं है- ऐसा प्रतीत होता है, किन्तू कमलेश्वर द्वारा प्रकृति संरक्षण हेतु रचा गया यह उपन्यास प्रशंसनीय है।
हिन्दी में पर्यावरण संरक्षण विषय पर रचा गए कुछ उपन्यासों में विवेच्य रचना अपने विशिष्टतम स्थान पर रहती है। इस उपन्यास क॓ पात्र अपने से अधिक पशु-पक्षियों की मुक्ति और प्रकृति के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए संघर्ष करते है। इस उपन्यास की नायिका समीरा इसका अच्छा उदाहरण है। वह पक्षियों की संरक्षण केलिए अपना जीवन न्योछावर कर देती है। 146 पन्नों वाला 'अनबीता व्यतीत' नामक उपन्यास हिन्दी का एक विरल उपन्यास है जो काल की पुकार सुनकर रचा गया है। शायद इसीलिए यह उपन्यास कालजयी बन गया है।
Written by Lembodharan Pillai.B, Research Scholar of Prof. (Dr.) K.P.Padmavathi Amma, Karpagam University, Coimbatore, Tamil Nadu, South India.
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