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शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

कथाकार राजेन्द्र यादव का जाना

राजेंद्र यादव

नयी कहानी विधा के पुरोधा कथाकर और प्रसिद्ध कथा-त्रयी मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव के मजबूत स्तंभ राजेन्द्र यादव का आज रात अस्पताल जाते वक्त सांस की तकलीफ और हृदय की समस्या के कारण निधन हो गया। यह समाचार सुनते ही हिन्दी साहित्य जगत में शोक छा गया। मोहन राकेश और कमलेश्वर का तो निधन बहुत पहले हो गया था पर हंस कथा-पत्रिका को यशस्वी संपादक और अपने संपादकीयों तथा बयानों के कारण हिन्दी साहित्य-जगत में हमेशा विवाद खड़े करते रहने वाले महान कथाकर को हम सभी साहित्यकार अपने श्रद्धा सुमन सअर्पित करते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उनका नाम साहित्य जगत में जिस तरह छाया रहा, उसी तरह सदैव छाया रहे। ईश्वर उनके परिवार को और हिन्दी जगत को यह आघात सहने का क्षमता प्रदान करे। उनका नाम इसी तरह अमर रहे। अपनी हंस पत्रिका जिसके पहले महान संपादक प्रेमचंद थे, फिरसे आठवें दशक में उन्होंने जिसका संपादन शुरू किया तो जैसी लोगों को उम्मीद थी, वह कथा-साहित्य के केन्द्र में सदैव रही। या तो लोग राजेन्द्र यादव के घोर विरोधी रहे या फिर घोर समर्थक। उनसे जहां सहमत लोगों की संख्या करोड़ों में है वहीं उनसे असहतों की संख्या भी लाखों में है। हिन्दी साहित्य में उन्हें डाॅन नाम दिया गया। नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव बिना आज के साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। एक आलोचना के पुरोधा हैं तो दूसरे कथा-साहित्य और संपादन-कला के पुरोधा।

राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त, 1929 को आगरा में हुआ था। सारा आकाश, प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, अनदेखे-अनजान पुल, और एक इंच मुस्कान --अपनी श्रेष्ठ कथाकर पत्नी मन्नू भंडारी के साथ मिल कर लिखे उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। सारा आकाश उपन्यास पर प्रसिद्ध फिल्म भी बनी। टूटना, हासिल, छोटे-छोटे ताजमहल, जहां लक्ष्मी कैद है जैसी कालजयी कहानियों के रचनाकार यादव ने हंस पत्रिका के माध्यम से स्त्री विमर्ष और दलित साहित्य को केन्द्र में स्थापित किया । अब कोई भी साहित्यिक आयोजन बिना इन दो की चर्चा किए पूर्ण नहीं होता। यह राजेन्द्र यादव का साहित्य को योगदान है। बीसियों कहानी संग्रह , नाटक, कविताओं के अलावा अनेकानेक चर्चित साहित्य पुस्तकों का उन्होंने संपादन किया। चेखव और तुर्गनेव जैसे महान रूसी कथाकारों की किताबों के श्रेष्ठ अनुवाद किए। कामू-काफ्का, सात्र्र , कीर्केगार्द, जेम्स जायस जैसे महान अस्तित्ववादी दार्शनिकों का उनकी रचनाओं पर गहरा प्रभाव था। बाद में वे समाजवादी विचारधारा से जुड़ कर कार्ल माक्र्स की घ्वजा के वाहक बने। हमेशा दलितों, शोषितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, आदिवासिया, गरीबों-बेराजगारों की तकलीफों को हंस में कहानियांे के माध्यम से उठाते रहे। वे लोकतंत्र के छद्म को भी उजागर करते रहे। धर्म-निरपेक्षता में उनका गहरा विश्वास था इसलिए धर्मांधता का विरोध और अंधविश्वासों की पोल जीवन भर खोलते रहे। ऐसे बहसों के केन्द्र और समाज में एक-रसता, भाईचारा और समभाव के समर्थक का जाना हिन्दी साहित्य और समाज की बहुत बड़ी क्षति है। नजर उठा कर देखता हूं तो अब इन समस्याओं को साहित्य में उठाने वाला कोई दूर-दूर तक नजर नहीं आता। इन पंक्तियों के लेखक ने उन्हें इटावा प्रदर्शनी में दो-तीन बार पत्रकार सम्मेलनों में शैलेश मटियानी और गिरिराज किशोर जी के साथ बुंलवाया था और उनका ओजस्वी भाषण प्रबुद्ध जनों के बीच करवाया था। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे! राजेन्द्र यादव जी को शत-शत नमन। 
 
लेखक : 
दिनेश पालीवाल
राधकृष्ण भवन, 
न्यू कालानी, इटावा, उ.प्र.। 
 
 



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