विख्यात साहित्यकार श्रद्धेय विजयदान देथा (1 सितम्बर 1926 - 10 नवम्बर 2013) को बिज्जी के नाम से भी जाना जाता है। राजस्थानी लोक कथाओं एवं कहावतों का अद्भुत संकलन करने वाले पद्मश्री देथा जी की कर्मस्थली उनका पैतृक गांव बोरूंदा ही रहा तथा इसी छोटे से गांव में रहकर उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के साहित्य का सृजन किया। पद्मश्री पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य चुड़ामणी पुरस्कार जैसे अति महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित देथा जी का 87 वर्ष की आयु में रविवार को निधन हो गया। ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व को पूर्वाभास की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।
यहाँ आपकी एक लोककथा प्रस्तुत है:
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एक बार...
एक बार भोले शंकर ने दुनिया पर बड़ा भारी कोप किया। पार्वती को साक्षी बनाकर संकल्प किया कि जब तक यह दुष्ट दुनिया सुधरेगी नहीं, तब तक शंख नहीं बजाएंगे। शंकर भगवान शंख बजाएं तो बरसात हो। बरसात रुक गई। अकाल-दर-अकाल पड़े। पानी की बूंद तक नहीं बरसी। न किसी राजा के क्लेश व सन्ताप की सीमा रही और न किसी रंक की। दुनिया में त्राहिमाम-त्राहिमाम मच गया। लोगों ने मुंह में तिनका दबाकर खूब ही प्रायश्चित किया। पर महादेव अपने प्रण से तनिक भी नहीं डिगे।
संयोग की बात ऐसी बनी कि एक दफा शंकर-पार्वती आकाश में उड़ते जा रहे थे तो उन्होंने एक अजीब ही दृश्य देखा कि एक किसान भरी दोपहरी जलती धूप में खेत की जुताई कर रहा है। पसीने में सराबोर, मगर अपनी धुन में मगन। जमीन पत्थर की तरह सख्त हो गयी थी। फिर भी वह जी-जोड़ मेहनत कर रहा था, जैसे कल-परसों ही बारिश हुई हो। उसकी आंखों और उसके पसीने की बूंदों से ऐसी ही आशा चू रही थी।
भोले शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पानी बरसे तो बरस बीते। तब यह मूर्ख क्या पागलपन कर रहा है। शंकर पार्वती आकाश से नीचे उतरे। उससे पूछा, “अरे बावले! क्यों बेकार कष्ट उठा रहा है? सूखी धरती में केवल पसीने बहाने से ही खेती नहीं होती। बरसात का तो अब सपना भी दूभर है।”
किसान ने एक बार आंख उठा कर उनकी ओर देखा और फिर हल चलाते-चलाते ही जवाब दिया, “हां, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। मगर हल चलने का हुनर भूल न जाऊं, इसलिए मैं हर साल इसी तरह पूरी लगन के साथ जुताई करता हूं। जुताई करना भूल गया तो केवल वर्षा से ही गरज सरेगी क्या! मेरी मेहनत का अपना आनंद भी तो है। फ़कत लोभ की खातिर ही मैं खेती नहीं करता।”
किसान के ये बोल कलेजे को पार करते हुए शंकर भगवान के मन में ठेठ गहरे बिंध गए। सोचने लगे,”मुझे भी शंख बजाए बरस बीत गए। कहीं शंख बजाना भूल तो नहीं गया! बस, उससे आगे सोचने की जरूरत ही उन्हें नहीं थी। खेत में खड़े-खड़े ही झोली से शंख निकला और जोर से फूंका। चारो और घटाएं उमड़ पडी। मतवाले हाथिओं के सामान आकाश में गडगडाहट पर गडगडाहट गूंजने लगी और बेशुमार पानी बरसा। बेशुमार जिसके स्वागत में किसान के पसीने की बूंदें पहले ही खेत में मौजूद थीं।
देथा जी से मेरा परिचय 1984-85 में मास्को में हुआ था। तब वे केन्द्रीय साहित्य अकादमी के सदस्य थे और एक परियोजना के तहत तीन बार मास्को आए थे। पहली ही मुलाक़ात में इतनी घनिष्ठता हो गई थी कि फिर वे जितने दिन मास्को में रहे, मैं उनके साथ-साथ रहा। यहाँ तक कि सरकारी बैठकों में भी वे मुझे अपने साथ ले जाते थे। जाते-जाते अपने बिल्कुल नए तीन राजस्थानी कुर्ते मेरे लिए छोड़ गए थे, वे कुर्ते आज भी मेरे पास रखे हैं। उन्हीं दिनों उनकी पुस्तक ’रुंख’ आई थी। उसकी दो अलग-अलग प्रतियाँ भी उनके हस्ताक्षरों के साथ मेरे पास हैं। उन्हें अपनी कहानी ’दाँत’ बहुत पसन्द थी। उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं सबसे पहले ’दाँत’ पढूँ। मैंने ’दाँत’ पढ़ी और मैं वह मेरी सर्वप्रिय कहानियों में से एक बन गई है। उसके बाद ’दाँत’ को मैंने बार-बार पढ़ा है, पढ़ाया भी है। जितनी बार उस कहानी को पढ़ता हूँ कहानी का एक नया आयाम मेरे सामने खुल जाता है। आप लोगों को भी ’दाँत’ ज़रूर पढ़नी चाहिए। अब उनके जाने की सूचना पाकर मैं बेहद आहत हुआ हूँ। - अनिल जनविजय, मास्को, रूस
Vijaydan Detha
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