विजय सिंह मीणा |
चर्चित कथाकार विजय सिंह मीणा का जन्म 01 जुलाई 1965 को ग्राम- जटवाड़ा, तहसील- महवा, जिला-दौसा, राजस्थान में हुआ। शिक्षा: एम. ए. (हिंदी साहित्य), राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर। आप केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो, नई दिल्ली एवं केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली में अपनी सेवायें दे चुके हैं और वर्त्तमान में उप निदेशक (राजभाषा) के पद पर विधि कार्य विभाग, विधि एवं न्याय मंत्रालय, शास्त्री भवन, नई दिल्ली में कार्यरत। आपके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे कहानी, कविता व लेख प्रकाशित तथा विभिन्न साहित्यिक व सम-सामयिक विषयों पर आकाशवाणी एवम दूरदर्शन से वार्तायें प्रसारित हो चुकी हैं। प्रकाशन : सिसकियां (कहानी संग्रह)। सम्मान: संस्कार सारथी सम्मान 2013। संपर्क: ई-30-एफ, जी- 8 एरिया, वाटिका अपार्टमेट, एम आई जी फ्लेट, मायापुरी , नई दिल्ली 110078। ई-मेल: vijaysinghmeenabcas@gmail.com
चुनाव के समय उपेक्षित से उपेक्षित व्यक्ति भी आम से खास बन जाता है । प्रत्येक उम्मीदवार में उसे ईश्वर का अंश दिखाई देने लगता है । दोनों के बीच ईश्वर जीव अंश अविनासी का सम्बन्ध स्थापित होने लगता है। ग्राम पंचायत स्तर के चुनाव का तो कहना ही क्या ? चुनाव प्रचार के दौरान प्रत्येक उम्मीदवार फौरी तौर पर अपने समर्थको के लिये शराब और धन का दान इस प्रकार करता है मानो चुनाव आयोग का उसके लिये ऐसा करने का विशेष आदेश हो । पंचायत विधेयक में बाकायदा कमजोर वर्ग और महिलाओं के लिये सुरक्षित सीटों का भी प्रावधान किया गया है । इसके लिये किसी प्रकार की शैक्षिक योग्यता की भी जरूरत नहीं ।
सरकार चाहे इसके पक्ष में कितने ही फायदे गिनवाये लेकिन ग्राम पंचायत चुनावों के कुछ कुप्रभाव भी है जिनसे गांव वालों में हिंसा और वैमनस्य की भावना को बल मिला है । जिन गांवों में लोग परस्पर मिलजुल कर रहते थे आज वहां एक -एक गांव में लोग कई गुटों में बटे हुए हैं । इसके कारण यहां हिंसा , बलात्कार , लूटपाट ,झगड़े , नारी शोषण और प्रतिहिंसा के मामलों में अप्रत्याशित बढोतरी हो गई है । जिन लोगों में भाई चारा रग रग में भरा था वे ही एक दूसरे के रक्त पिपाषु हो रहे हैं । ऐसे ही एक चुनाव में मेरे एक नजदीकी के खड़े होने के कारण मुझे भी इन्हें गहराई से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ । इस दौरान जो घटनाएं मैंने नज़दीक से देखी उन्हीं घटनाओं ने मुझे यह कहानी लिखने को बाध्य कर दिया ।
जयगढ़ ग्राम पंचायत में कुल चार गांव आते हैं । ये है जयगढ़ , नवलपुरा,शेरपुर और सुमेंरपुर। इनमें सबसे बड़ा गांव जयगढ़ है सो हमेंशा से सरपंच पद इसी गांव के पास रहा है। इस बार चुनाव मैंदान में मुख्य प्रतिद्वंदी के रुप में जयगढ़ की राजन्ती और सुमेंरपुर की शकुन्तला ही मुख्य उम्मीदवार थी । इससे पहले राजन्ती दो पन्चायतो की सदस्य भी रह चुकी है । दोनों ही उम्मीदवार धनबल में एक से बढ़कर एक हैं ।
राजन्ती उम्र के पचासवें पड़ाव को पार चुकी थी और शकुन्तला एक अधेड़ आयु महिला थी । शकुन्तला कई बार इस चुनाव को हार चुकी थी परन्तु इस बार उसने साम ,दाम ,दंड़ , भेद से इसे जीतने की ठान ली थी । यही रणनीति अपनाकर वो अपना चुनाव प्रचार कर रही थी ।
असल में हुआ युं कि इस बार राजन्ती चुनाव नहीं लड़ना चाहती थी ।राजन्ती का ससुर धन सिंह जो कि भूतपूर्व सरपंच था , ने इस बार चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था । इसी समय कौशल्या के पति हरिराम और उसके दोनों बेटे राम सिंह व जल सिंह वहां पहुंचे । उन्होंने धन सिंह से कहा कि इस बार हम चुनाव लड़ना चाहते है , हमारी मदद करो । धन सिंह ने सहर्ष कह दिया कि मेरा सपोर्ट तुम्हारे साथ है तुम चुनाव लडो ।सभी खुश थे कि चलो इस बार गांव से कोई और उम्मीदवार नहीं है सो हम आसानी से जीत जांएगे । वे खुशी खुशी प्रचार में लग गये । कई बार कहने पर भी धन सिंह उनके साथ प्रचार करने नहीं गये तो एक दिन राम सिंह व जल सिंह तथा उनके कुछ समर्थक स्थिति जानने धन सिंह के पास पहुंचे । उन्होंने कहा कि सरपंच आप हमारे साथ प्रचार करने क्यों नहीं चल रहे हो ? धन सिंह ने ज़वाब दिया कि मेरा वोट और सपोर्ट तुम्हारे साथ है लेकिन मैं किसी के आगे हाथ जोड़ने कहीं नहीं जाऊंगा । यह सुनते ही राम सिंह नाराज़ हो गया । उसने आव देखा ना ताव और तैश में आकर कह दिया -'' तुम्हारे सपोर्ट को अपनी------- में भर लो , हमें जरूरत नहीं है इसकी । और कान खोलकर सुनलो अब तुम भी मैंदान में आ जाओ , तुम्हें भी पता लग जायेगा ।'' कहकर वे चले गये । प्रतिष्ठा का सवाल मानकर धन सिंह ने अपनी पुत्रवधू राजन्ती को भी चुनाव मैंदान में उतार दिया । अब इसी गांव से धीरे धीरे कई उम्मीदवार मैंदान में आ चुके थे सो वोटों का बिखराव तो होना ही था ।
जयगढ़ का कुन्जी लाल मास्टर बड़ा ही धूर्त और कामुक प्रवृति का व्यक्ति था । अपनी इन्हीं हरक़तों की वजह से वह पहले से ही बदनाम था । उसने एक बार पास के गांव नवलपुरा की नई ब्याहता मुनिया को देख लिया था । उसी समय से वह उस पर लट्टू हो गया था । उसे वह पाने के सपने मन ही मन देखने लगा पर उसे कुछ सूझ नहीं रहा था । मुनिया दो साल पहले ही शादी होकर नवलपुरा में आई थी । बड़ी‑बड़ी कजरारी आंखें , गोल और उन्नत ललाट, गुलाब से सुर्ख होंठ और गदराई देह से उसका सौंदर्य कंचन सा दमकता था । उसका पति रामप्रसाद निहाहत सीधा साधा अनपढ़ किसान था । कुन्जीलाल गांव में ब्याज पर पैसे भी देता था । एक बार उसने मुनिया के पति को भी पैसे दिये थे सो वे लोग उसका अहसान भी मानते थे ।
कुन्जी सरकारी सेवा से निवृत्त हो चुका था परन्तु उसका कामी मन अभी सेवानिवृत नहीं हुआ था । कन्जूस व्यक्ति को जैसे धन और कामी को जैसे नारी ही प्यारी लगती है कुछ यही स्थिति कुन्जी मास्टर की भी थी । इस चुनाव में वह न तो राजन्ती के साथ था और न ही शकुन्तला के खेमें में , उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था । चुनाव होने में अभी एक सप्ताह का समय था । एक दिन सुबह सुबह वो मुनिया के घर जा पहुंचा । वहां उसका पति रामप्रसाद भी था ।राम राम करने के बाद कुन्जी खाट पर बैठ गया और कुछ गम्भीर सी मुद्रा बना ली । उसे देखकर रामप्रसाद ने पूछा-''क्या बात है मास्टरजी कुछ चिंता में दिखाई दे रहे हो ।''
'' यार रामप्रसाद मुझे चिंता इस चुनाव की हो रही है। मैंने काफ़ी दिनों से लोगों से चुनाव के सम्बन्ध में राय ली है। इस बार तो मामला गड़बड़ लग रहा है । यह दोनों ही उम्मीदवार ठीक नहीं है। लोग बाग मुझसे आकर कह रहे हैं अपना कोई उम्मीदवार खड़ा कर दो सारे वोट उसी को दे देंगे ।'' कुन्जी ने सर पर हाथ फेरते हुए कहा ।
'' तो फिर इसमें देर किस बात की है मास्टरनी को खड़ा कर दो । हम सब जी जान लगा देंगे।'' रामप्रसाद ने खुश होते हुए कहा ।
'' अरे यार तुम तो जानते ही हो कि मेरा एक लड़का हमेंशा बीमार रहता है उसे ही संभालने से फुर्सत नहीं मिलती मास्टरनी को ।''
'' तो फिर किसी और को खड़ा कर दो ।'' पास ही बैठे भजनी ने कहा ।
''इसीलिये तो तुम्हारे पास आया हू, मुझे कोई ऐसा उम्मीदवार चाहिये जो नोजवान हो , होशियार भी हो क्योंकि यह सीट महिलाओ के लिये है सो सहज ही योग्य महिला मिलना इतना आसान नहीं है । मैंने इस पर काफ़ी विचार किया और इस नतीजे पर पहुंचा कि मुनिया इसके लिये योग्य है। इन लोगों पर अभी कोई ज्य़ादा बाल बच्चों की भी जिम्मेदारी नहीं है ।'' कहकर कुन्जी ने रामप्रसाद की ओर देखा । रामप्रसाद ने हुक्के को जोर से गुड़गुड़ाया और कहा-'' अरे मास्टरजी हमारी कहां हैसियत है चुनाव लड़ने की ।''
''तुम सारी जिम्मेदारी मुझपर छोड़ दो । हमें इसमें ज्य़ादा पैसे की भी जरूरत नहीं है । वोट आजकल पैसे से नहीं मिलते व्यवहांर से मिलते है । मैंने पूरा हिसाब लगा रखा है तकरीबन 1200 वोट तो मेरे निजी मान कर चलो । तुम्हारे जैसा इमानदार और नेक नियत उम्म्मीदवार खड़ा होने पर तो 500 वोट तो वैसे ही बढ़ जायेगे , जबकि हार जीत तो 1000 वोट पर ही हो लेगी ।'' चतुर राजनीतिज्ञ की भांति कुन्जी ने पासा फेंका । चूल्हे पर काम करती मुनिया ने जब यह बातें सुनी तो वो भी घूंघट निकाले उधर ही आ गई ।
'' नहीं हमें चुनाव नहीं लड़ना ।'' मुनिया ने घूंघट की ओट से कहा ।
'' देख मुनिया तुझे इस बात का अभी पता ही नहीं है कि इस बार कोरी सरपंची नहीं है। सरकार सरपंचों को विकास कार्यों के लिये 10 करोड़ रुपया देगी । इसमें ईमानदारी का 10 पेर्सेन्ट सरपंच का कमीशन होता ही है। जानती हो कितना कमीशन बनेगा ।कुल मिलाकर एक करोड़ रुपये ।पांच साल में करोड़पति बन जाओगी । सारी गरीबी भाग जायेगी।''
सारी बात सुनकर मुनिया और रामप्रसाद सन्न रह गये । उन्होंने तो कभी एक लाख रुपये भी इकट्टे नहीं देखे । थोड़ी देर मौन छाया रहा । पास में ही भजनी बैठा था सो राम प्रसाद खुलकर कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं था और यही स्थिति मुनिया की थी । कुन्जी ने स्थिति को भांपते हुए कहा-'' भजनी तुम घर चलो मैं तुम्हारे ही पास आ रहा हूं, तुमसे भी इस सम्बन्ध में कुछ बातें करनी है ।'' सुनकर भजनी अपनी तिबारी की ओर चला गया ।
कुन्जी की बात रामप्रसाद के गले तो उतर गई परन्तु मुनिया अभी ना नुकर ही कर रही थी ।
''देख मुनिया मैं तुमसे दूर थोड़े ही हूं ,जी जान लगा दूंगा और तुम्हें जिताकर ही दम लूंगा ।'' कुन्जी ने मुनिया के सर पर हाथ रखकर कहा । भोले‑भाले दोनों कुन्जी की बातों में आ गये और चुनाव के लिये तैयार हो गये । वहीं बैठकर वो तीनों रणनीति तय करने लगे ।
कुन्जीलाल ने कहा-'' रामप्रसाद तुम सुमेंरपुर और शेरगढ़ में एक एक घर में जाकर प्रचार करोगे । मुनिया और मैं बाकी दोनों गांवों में सारी महिलाओं से सम्पर्क करेंगे । कल सुबह से ही काम शुरू कर दो ।'' कुन्जी ने योजना को अंतिम रुप देते हुए कहा ।
अगले दिन मुनिया और कुन्जी मुंह अंधेरे ही चुनाव प्रचार के लिये निकल पड़े । दिन भर उन्होंने प्रचार किया । कुन्जी जहां भी जाता मुनिया से पहले ही मतदाताओ के पैर पकड़कर मुनिया के पक्ष में वोट ड़ालने की अपील कर देता । एक ही दिन में उसने मुनिया के दिल में जगह बना ली । मुनिया सोचने लगी की वास्तव में कुन्जी मेरे लिये जी जान एक कर रहा है । कई बार रास्ते में चाय पानी का खर्चा भी कुन्जी ने ही उठाया । मुनिया को उसने बिलकुल पैसे देने ही नहीं दिये । जैसी कि आजकल के मतदाताओं की आदत बनी हुई है , उनके पास जो भी जाता है वो सभी से उसके पक्ष में वोट देने की हां करते है ।दूसरे मुनिया का रुप लावण्य भी थोड़ी देर के लिये हर व्यक्ति को आंख सेकने का जरिया मिल रहा था सो वे लोग प्रचार में उसके साथ भी हो लेते थे । मुनिया की इस प्रकार गलतफहमी बढ़ती ही जा रही थी । वो इस सबका श्रेय कुन्जी को दे रही थी । शाम को मुनिया और कुन्जी वापिस घर पहुचे।
एकांत पाकर कुन्जी ने कहा - ' देखा मुनिया, यह सारे लोगों से मैं तेरे पक्ष में कई दिन पहले से ही प्रचार कर रहा हूं , तभी तो सारे तेरे पास दोड़े चले आ रहे है।''
''यह तो सही बात है, तुम्हारे बिना हमें कौन जानता है।'' मुनिया ने घूंघट की ओट से कहा ।
'' मुनिया अब थोड़े दिन बाद ही तुम सरपंच बन जाओगी । तुम्हें यह घूंघट नहीं करना चाहिए। खासकर मेरे सामने किस बात का घूंघट । मुझमें और तुझमें अब क्या दूरी ।'' कहते कहते कुन्जी ने मुनिया का घूंघट अपने हाथो से हटा दिया । मुनिया का दमकता चेहरा और सुर्ख गालो ने कुन्जी के कामी मन को झकझोर कर रख दिया । कुन्जी ने कहा कि मैं दो घंटे बाद वापस आता हू जब तक राम प्रसाद भी आ जायेगा फिर आगे की तैयारी करते हैं । कहकर कुन्जी अपने गांव की ओर चल दिया ।
रामप्रसाद के आते ही मुनिया ने सारे दिन का घटनाक्रम सुनाया । वो बार बार कुन्जी की तारीफ के पुल बांध रही थी । रामप्रसाद भी इससे काफ़ी खुश था । एक ही दिन में दोनों चुनाव के रंग में पूरी तरह रंग गये थे ।
रात नौ बजे कुन्जी ब्यालू कर उनके पास आ गया । वे दोनों उसी की राह देख रहे थे। आते ही कुन्जी ने आगे की रणनीति का खुलासा किया -'' चुनाव में जो सबसे ज्य़ादा वोट इधर उधर होते हैं वो रात के समय के चुनाव प्रचार से ही होते हैं । रामप्रसाद आज रात तुम भजनी को लेकर सुमेंरपुर में ही रहो और नज़र रखो की कौन कौन उम्मीदवार वहां किन किन से मिलता है । उसकी सारी खबर सुबह मुझे आकर दो ताकि हम उनका इलाज कर सकें ।'' सुनते ही रामप्रसाद बिना देर किये सुमेंरपुर के लिये रवाना हो गया । उसके जाते ही मुनिया दूध का गिलास भर लाई और कुन्जी से कहने लगी -'' मास्टरजी आज दिनभर तुमने बहुत दौड़ धूप की है । काफ़ी थक गये हो लो यह दूध पी लो ।'' कुन्जी ने एक ही सांस में दूध का गिलास खाली कर दिया । थोड़ी देर इधर उधर की बातें होती रही फिर कुन्जी ने कहा-'' मुनिया इसमें अब कोई शक नहीं कि तू सरपंच बनेगी। यह मेरी भी प्रतिष्ठा का सवाल है । तुम्हें भी अब थोड़ा बदलना पड़ेगा ।''
'' मैं कुछ समझी नहीं मास्टरजी ।'' मुनिया ने चूल्हे पर हाथ सेंकते हुए कहा ।
''इस पद को पाने के लिये कुछ दान भी करना पड़ता है । मैं जी जान लगाकर तुझे जितवाकर ही दम लूंगा । मुझे भी तो इसके बदले कुछ चाहिए।''
'' बताओ मास्टरजी मैं तुम्हारे लिये क्या कर सकती हूं?'' मुनिया ने भोलेपन से कहा ।
सुनते ही कुन्जी ने मुनिया को अपनी बांहों में दबोच लिया।एक पल तो मुनिया कुछ समझ ही नहीं पाई परन्तु दूसरे ही पल वह छटपटाते हुए बोली - '' यह क्या करते हो मास्टरजी?''
''अब यह दूरी मिटा ही दो मुनिया, जब मैं सब कुछ तुम्हारे लिये कर रहा हूं तो इतनी तो मेंहरबानी मुझपर भी कर दो ।''कहकर कुन्जी ने मुनिया को पूरी तरह दबोच लिया । लाचार मुनिया की स्थिति सांप छछुन्दर जैसी थी । यदि मना करती है तो चुनाव हारने का ड़र और हा करती है तो इज्ज़त,,,,,,,,। आख़िरकार वो विवश हो गई । कुन्जी ने उसकी इज्ज़त को तार तार कर दिया ।
'' देख मुनिया राजनीति में यह सब चलता है , तभी तो तू आगे बढेगी ।'' इस प्रकार की चिकनी चुपड़ी बात कर कुन्जी ने मुनिया का दिल साफ कर दिया। अब उसे भी कोई गिला शिकवा नहीं रहा था । अब तो आये दिन कुन्जी दिन में इधर उधर चुनाव प्रचार के बहाने जाता और जब भी मौका मिलता मुनिया के साथ रंगरेलिया मनाता ।
इधर जयगढ़ से एक चौथा उम्मीदवार भी मैंदान में कूद पड़ा , वो भी कुन्जी के परिवार से ही था । यह थी सुरजन की बहू कल्याणी । सुरजन इस चक्कर में था कि कोई अन्य उम्मीदवार मेरे पास आयेगा और मुझे बैठने के लिये कहेगा तो अच्छी खासी रकम ले लूंगा । यह सारी चाल कुन्जी की ही थी । उसी ने इसे खड़ा किया था ।कुन्जी प्रचार तो कल्याणी का करता था और मुनिया को झांसे में लेकर उसके साथ रंगरेलिया मनाता था । सुरजन ने भी जोर शोर से चुनाव प्रचार शुरू कर दिया । गांव में शाम होते ही उम्मीदवार अपने‑अपने समर्थकों को दारु की नदियों में डुबो देते थे । इसी आस में जब दिन भर प्रचार करने के बाद सुरजन के समर्थक उसके पास शराब के लिये आये तो सुरजन घर से गायब खो जाता। उन्होंने उसे सब जगह तलाश किया परन्तु वह कहीं नहीं मिला। समर्थकों ने सोचा शायद दूसरे गांव में चुनाव के लिये चले गये हों। ऐसा ही सोचकर उन्होंने उस दिन अपने पैसे से खरीदकर शराब पी ली। सुरजन जैसे ही शाम होती वो दूसरे उम्मीदवारों के घर जाकर बैठ जाता ताकि वहां उससे कोई शराब मागने न आये । आख़िरकार उसके कई समर्थक उससे नाराज़ हो दूसरे खेमों में चले गये।
एक दिन मुनिया अपने पति के साथ शेरपुर में प्रचार करने जा रही थी । अचानक रास्ते में उनकी मुलाकात शेरपुर के ही चालीस वर्षीय चन्दू से हो गई ।चन्दू से मुनिया के पति ने अपने पक्ष में वोट की अपील की । चन्दू ने कहा मुझे मुनिया से अकेले में चुनाव के सम्बन्ध में कुछ बात करनी है । मुनिया और चन्दू सड़क के दूसरी ओर चले गये । चन्दू भी कुन्जी की तरह लम्पट किस्म का आदमी था ।
''मेरे पास 115 वोट हैं ,वो सारे वोट मेरी मुट्ठी में हैं ,मैं जहां कहूंगा वही जायेंगे। तुम चाहो तो यह सारे वोट तुम्हें दिलवा सकता हूं ।'' घाघ चन्दू ने कहा ।
'' मैं ज़िंदगी भर यह अहसान नहीं भूलूगी । इस बार मैं बड़ी उम्मीद लेकर चुनाव लड़ रही हूं।'' मुनिया ने याचक स्वर में कहा ।
'' देख मुनिया सीधी सी बात है इस हाथ ले और उस हाथ दे । बस एक रात अपने साथ गुजार लेने दो । जी जान लगा दूंगा तेरे लिये । चुनाव में तो यह सब कुछ चलता है ।'' चन्दू ने गिध्द दृष्टि ड़ालते हुए कहा ।
''रात दस बजे के बाद मेरे घर आ जाना, रामप्रसाद उस समय दूसरे गांव प्रचार के लिये चला जायेगा । लेकिन देख ले विश्वासघात मत करना ।'' मुनिया ने नजरे झुकाते हुए कहा ।
'' कैसी बात करती हो मुनिया, मैं अपने इकलोते बेटे की कशम खाकर कहता हूं कभी तुमसे दूर नहीं जाऊंगा।'' चन्दू ने चेहरे पर कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कहा । फिर दोनों अपने अपने रास्ते चले गये।
चन्दू का गांव मुनियां के गांव से एक कोस की दूरी पर था । आज चन्दू का दिल बल्लियो उछल रहा था । शाम होते ही उसने अपने ढोर जल्दी से घर के अंदर बांधे ब्यालू की और अपनी पिछोड़ी ओढकर घर से निकल पड़ा । शीतकाल की अंतिम अवस्था थी और बसंत के आने में अभी समय था ।रात का सर्द धुधलका और ठंडी हवा ने मौसम में अज़ीब सनसनी फैला रखी थी । चन्दू सरसों के खेत से गुजरने वाली पगडंडी से सरपट चला जा रहा था । बीच‑बीच में उसे इक्के दुक्के लोग भी मिल जाते थे जो शायद चुनाव प्रचार के लिये जा रहे थे । मुनिया का घर गांव के आख़िरी छोर पर था । वहां पहुचने के लिये सारा गांव पार करना पड़ता था । चन्दू गांव में नहीं घुसा और खेतों से ही होकर गांव के आख़िरी छोर पर पहुंच गया । उस समय गांव में बिजली गुल थी सो सारा गांव अंधेरे के आगोश में सिमटा पड़ा था। दबे पांव चन्दू ने मुनिया की चोखट खड़काई । मुनिया चूल्हे पर बैठी थी ।उसका पति प्रचार के लिये गया हुआ था । दरवाजा मुनिया ने ही खोला और चन्दू अंदर चूल्हे पर जाकर बैठ गया । मुनिया ने फिर उसे आगाह किया -'' देख मैं अपनी इज्ज़त भी दाव पर लगा रही हू, तू अब भी सोचले कहीं धोखा दे दे ।''
'' नहीं, कभी दोखा नहीं दूंगा । मैं इस अग्नि की सौगंध खाकर कहता हूं।'' चन्दू ने अपनी सांसो को संयत करते हुए कहा । कहते कहते चन्दू ने मुनिया को बांहों में भरकर अंदर के कमरे में ले गया जहां घुफ्फ अंधेरा था । यह लोग अभी बात ही कर रहे थे कि अचानक उसी वक्त़ कुन्जी मास्टर भी अपनी हवस मिटाने वहां पहुंच गया । दरवाजा खुला रह गया था सो वो सीधे अंदर कमरे में घुस आया । उसे आया देखकर चन्दू के हाथ पैर पएूलने लगे । अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था , वह अंदाजे से ही बाहर निकलकर भागने की पिएराक में था परन्तु अंधेरे में कुन्जी से जा टकराया। दोनों ही एक दूसरे से भयभीत हो आक्रमण करने लगे। कुन्जी ने अपने पैर से जूती निकाली और चन्दू के सिर और पीठ पर तड़ातड़ मारने लगा । चन्दू भी कहां पीछे रहने वाला था उसने भी लात और घूंसे बरसाना शुरू कर दिया । दोनों लड़ते लड़ते घर के बाहर आ गये , तभी अचानक बिजली आ गई । रास्ते में कुछ प्रचारी लोग भी आ जा रहे थे सो सभी ने यह तमासा देखा। कुन्जी ने ललकारते हुए कहा-''क्यों बे हरामी तेरी हिम्मत कैसे हुई इसके घर में घुसने की ?''
'' तू कौन होता है इसका ? मैं वोटो के चक्कर में कुछ बात करने आया था ।'' चन्दू ने हकलाते हुए कहा । शोर सुनकर काफ़ी लोग जमा हो गये । सभी पूछने लगे क्या बात है? परन्तु दोनों चुप थे ।दोनों ही कुकर्मी थे सो क्या कहते ? बात कुन्जी ने सभाली। कुछ नहीं मैं प्रचार के लिये रामप्रसाद को बुलाने आया था तो यह चोरी से इसके घर में घुसने की कोशिस कर रहा था । इसी बात पर तू‑तू मैं‑मैं हो गई । चन्दू वहां से खिसक लिया । इतने में मुनिया भी इधर आ गई । उसने आते ही कहा -'' यहां क्या शोर शराबा मचा रखा है,मास्टरजी तुम्हें तो इस वक्त़ सुमेंरपुर में होना चाहिए ,वहां सभी विरोधी उम्मीदवार जुटे हुए है ।?''
'' मैं वहीं जा रहा हूं, रामप्रसाद को बुलाने आया था ।'' कुन्जी ने बात सभालते हुए कहा ।
इन चुनावो में उम्मीदवार अपने मतदाताओं को भावनात्मक रुप से भी ब्लेकमेल करने से नहीं चूकते ।इसमें फिर चाहे उनकी कितनी भी किरकिरी क्यों न हो? इसका ज्वलन्त उदाहरण कौशल्या का पति हरिराम था । कौशल्या भी इस बार चुनाव मैंदान में थी । हरिराम जीवन के आख़िरी वर्षों में आंखों की ज्योति से विहीन हो चुका था । उसने अब तक के जीवन काल में कई असफल चुनाव लड़े । हर बार उसे हार मिली तो उसने इनसे दूर रहना ही उचित समझा , मगर इस बार अपने दोनों बड़े बेटों के आगे उसकी एक न चली और चुनाव लड़ बैठे । इस गांव में दलित जाति के करीब पचास घर है सो उनके वोट भी काफ़ी तादाद में थे । हरिराम के दोनों बेटों ने रणनीति बनाई की पिताजी द्वारा एक भिखारी की भांति इनसे वोट मांगे जांए तो यह लोग जरूर पसीजेंगे और वोट हमें ही देगे । अगले दिन ऐसा ही किया , हरिराम ने लाख मना किया कि वे किसी के आगे झोली नहीं पसारेंगे मगर दोनों वेटे अपनी इज्ज़त की दुहाई देने लगे । कहने लगे यह चुनाव हमारी प्रतिन्नठा का प्रश्न है । आख़िरकार मन मारकर हरिराम अपने स्वाभिमान को खूंटी पर रखकर तैयार हो गया ।दोनों लड़के हरिराम को बांहों से पकड़े हुए थे । हरिराम झोली पसारे दलित मोहल्ले में अपनी अंधी आंखों में अश्रुजल लेकर वोट मांग रहा था । बीच‑बीच में दोनों लड़के जो भी दलित मिलता उसके पैर पकड़ लेते और तब तक नहीं छोड़ते जब तक वो उन्हें वोट का आश्वासन नहीं दे देता । पीछे‑पीछे उसके समर्थक भी चल रहे थे । उनमें से कुछ लोग कहते जाते कि -'' भाईयो तुम हमारे भाई ही हो, हमने तुम्हें कभी अलग नहीं समझा । आज यह अंधा आदमी झोली बनाकर तुमसे भीख मांग रहा, इसे निराश मत करना । अंधे की मक्खी तो भगवान ही उड़ाता है ।'' आज हर दलित राजा बलि से कम दिखाई नहीं दे रहा था और हरिराम बामन अवतार की तरह साम दाम सभी आजमा रहा था ।
कैसा अनोखा दृश्य था । ब्रिटिस सरकार से लेकर आज तक कितने ही कानून दलितों के लिये बने ,मगर सारे ही नाकाम रहे थे । सवर्णों ने हर बार उन कानुनो की धज्जियां उड़ाई थी । कभी भी दलितो से सीधे मुंह बात नहीं की , उन्हें अपने सामने कभी भी खाट पर बैठने नहीं दिया , हमेंशा उन्हें अछूत कहकर दुत्कारते रहे । आज वही सवर्ण झोली पसारे भिखारी की तरह उनके आगे मिमियां रहे थे । वाह रे लोकतन्त्र, जो काम बड़े बड़े कानून नहीं कर पाये आज वोट रूपी इस हथियार ने कर दिखाया ।
सभी उम्मीदवार यहां आते , मिन्नते करते और यह दलित भी उन्हें झूठा ही सही परन्तु आश्वासन दे देते । रात में इस मोहल्ले में शराब का अम्बार लग जाता । कई लोगों ने तो साल भर का कोटा इन चुनावो में जमा कर लिया था । कई उम्मीदवारों ने तो गांव में कच्ची शराब की भट्टी ही शुरू करवा दी थी । चुनावो की जितनी खुशी शराबियो को होती है शायद उतनी जीतने वाले उम्मीदवार को भी नहीं होती होगी । कोई हारे या जीते इससे दूर‑दूर तक इनका कोई सरोकार नहीं होता,इन्हे सिर्फ सरोकार होता है शराब से । जब यह लोग रात को पीने के लिये इकट्ठा होते है तो चुनाव के बजाय सिर्फ यही बातें करते है कि अमुक उम्मीदवार ने आज अंग्रेजी पिलाई, फलां उम्मीदवार ने आज शराब के साथ गोश्त को भी पैसे दिए । पीते पीते कई बार यह लोग आपस में लड़ पड़ते है । फिर कोई कम पिया हुआ शराबी उन्हें समझाता है -'' हमें किसी के जीतने या हारने से क्या मतलब , जो भी आये सबसे कुछ न कुछ ऐंठो । यही राजनीति है। हमारी तरफ से कोऊ नृप होई हमें का हानि।'' सभी शराबी ऐसी बातें सुनकर वाह वाह कर उठते ।
इन सबसे भिन्न शकुन्तला के पति हरिया की रणनीति सबसे अलग थी । उसने चारों गांवों में जमकर रुपये बांटे और ज्य़ादातर मतदाताओं को अपने साथ मिलाने में कामयाब रहा । इस बार वो जीत के लिए आश्वस्त था । इसके अलावा दूसरा कारण यह भी था कि इस बार जयगढ़ से तीन उम्मीदवार खड़े थे और वो सुमेंरपुर से अकेला ही खड़ा था । साथ ही हरिया की ससुराल भी जयगढ़ में ही थी , इसका भी उसे फ़ायदा मिलना निश्चित था।
जयगढ़ के चरण सिंह में वो सारे गुण थे जो राजनीति में चाहिए ।शेरपुर और सुमेंरपुर में अधिकांश लोगों से उसके प्रगाढ रिश्ते थे । एक तरह से चरणसिंह उन पर आंख मींच कर भरोसा करता था । पिछले कई चुनावों में चरण सिंह के कहने पर इन दोनों गांवों से वोट भी अच्छे मिले थे जिसकी बदौलत धन सिंह सरपंच के चुनाव में सफल रहे थे । चरन सिंह और धन सिंह दोनों गहरे दोस्त थे , या दूसरे शब्दो में कहें तो धन सिंह का मुख्य राजनैतिक सलाहकार चरण सिंह ही था । धन सिंह यदि चन्द्रगुप्त था तो चरण सिंह उसका चाणक्य था। शराब के दोनों शौकीन थे क्योंकि पिछले कई वर्षों से गांव की राजनीति में उनका दखल था सो शराब का शौक अनिवार्य सा ही बन गया था । रोज़ चुनाव प्रचार के बाद जब धन सिंह के घर पर दिन भर के घटनाक्रम की परिचर्चा होती तो इसकी शुरूआत चरण सिंह ही करता ।
'' शेरपुर और सुमेंरपुर में तो किसी को अपनी तरफ से प्रचार करने की जरूरत ही नहीं है।सब मेरी मुट्ठी में हैं । वहां के 90 प्रतिशत वोट अपने हैं । वहां से तो हम जीते ही पड़े है ।'' कहते कहते हाथ में रखे जाम को खाली करने लगा। इतने में ही बीच में राजन्ती का पति रतन बोल पड़ा-''पर काका मुझे इस बार सुमेंरपुर में कुछ गड़बड़ लग रही है । हमारे इतने वोट नहीं है वहां ।'' इस बात को सुनकर चरन सिह तैश में आ गया और कहने लगा-
'' अरे वाह रे बावड़ी बूच ,मेरे तो अंगुलियों पर रखे हैं सारे वोट ,ले अभी गिनवाता हूं, कम से कम शेरपुर से 200, सुमेंरपुर से 300, जयगढ़ से 600 और नवलपुरा से 250 वोट तो आज की तारीख़ में हमारे हैं। इनमें तो किसी प्रकार का रोड़ा ही नहीं हैं । अब कुल मिलाकर 1350 वोट हमारे पास है जबकि हार जीत तो 1000 वोट पर ही हो लेगी । हमें जीतने की अब कोई चिंता नहीं है, हम तो जीते ही पड़े है पर सवाल इस बात का है कि थोड़ा नवलपुरा में ओर जोर लगाओ फिर देखो बाकी सारे उम्मीदवारो की जमानत जब्त हो जायेगी ।'' इस बात का समर्थन धन सिंह भी बड़े जोर से करता ओर फिर दोनों नया पैग बनाकर बात को आगे बढ़ाते।
इन चुनावों में एक ही गांव में लोग कई कई धडों में बट जाते हैं । जो लोग दिन रात साथ साथ बैठकर हुक्का पीते थे , आज वे एक दूसरे से नजरे चुराते फिर रहे हैं । भूलवश: यदि वे आपस में बात भी करते हैं , तो केवल छल कपट और प्रपंच का मुखौटा पहने हुए ही बात करते हैं ।जहां तक वोट देने की बात आती है, वो वहीं खड़े खड़े ईमान धरम उठा जाते हैं और एक दूसरे को इस प्रकार आश्वस्त करते हैं मानो कृष्ण और सुदामा बातें कर रहे हों ।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो एक उम्मीदवार के पास जाकर दूसरे उम्मीदवार की बेबाक बुराई करते है । सामने वाले को यह यकीन दिलाने में कोई कशर नहीं छोड़ते कि वही उसका सर्वेसर्वा है । लेकिन इन लोगों का असली मन्तव्य उसकी रणनीति को समझना होता है।
आख़िरकार चुनाव का वो दिन आ ही गया जिसका सब को बेसब्री से इंतजार था । लोग प्रात: 8 बजे से कतारो में लग गये । दिन के 12 बजे तक शकुन्तला के अलावा बाकी उम्मीदवारो के गांवों की कतारे समाप्त हो गई । शकुन्तला के गांव की पोलिंग शाम 5 बजे तक भारी भीड़ के साथ शुरू रही ।
मतगणना का परिणाम रात बारह बजे घोषित किया गया । कौशल्या और मुनिया दोनों की जमानत जब्त हो गइ थी । राजन्ती को 550 वोट मिले और वो दूसरे स्थान पर रही । आख़िरकार शकुन्तला की भारी बहुमत से जीत हुई । यह जीत एक तरह से धनबल की थी, लोकतन्त्र की सारी मर्यादाएं धनबल के सामने पराजित हो गई ।
परिणाम जानते ही मुनियां की आंखों में अंगारे दहकने लगे । उसने कुन्जी पर आंख मूंदकर विश्वास किया था तथा कुन्जी ने जीत के प्रति उसे इतना आश्वस्त कर रखा था कि उसे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि वो पराजित हो गई है ।जैसे ही वह मतगणना कक्ष से बाहर निकली , सामने ही कुन्जी सिगरेट के कश लगा रहा था और हारने वाले उम्मीदवारो की हंसी उड़ा रहा था । उसे देखकर मुनिया का खून खौल गया । मुनिया ने अपने पैर से चप्पल निकाली और सबके सामने कुन्जी मास्टर के ऊपर चप्पलो की बरसात शुरू कर दी । किसी को भी इस यह माज़रा समझ में नहीं आ रहा था । लोगों ने आकर बीच बचाव किया । बीच बचाव का फ़ायदा उठाकर कुन्जी जैसे ही वहां से भागा , तो मुनिया ने झपट्टा मारा और उसकी धोती का छोर उसके हाथों में आ गया । कुन्जी धोती को वहीं छोड़कर भीड़ का फ़ायदा उठाकर भाग गया । मुनिया की ड़बड़बाई आंखों से अविरल अश्रुधार बह रही थी । अभी भी उसके हाथ में चप्पल थी और उसकी अंगारे उगलती आंखें भीड़ में कुन्जी को ढूंढ़ रही थीं ।
चुनाव तो कब का खत्म हो चुका था किन्तु मुनिया की आंखों में अभी भी बदहवासी और नफरत की चिंगारी सुलग रही थी ।
इन चुनावों में एक ही गांव में लोग कई कई धडों में बट जाते हैं । जो लोग दिन रात साथ साथ बैठकर हुक्का पीते थे , आज वे एक दूसरे से नजरे चुराते फिर रहे हैं । भूलवश: यदि वे आपस में बात भी करते हैं , तो केवल छल कपट और प्रपंच का मुखौटा पहने हुए ही बात करते हैं ।जहां तक वोट देने की बात आती है, वो वहीं खड़े खड़े ईमान धरम उठा जाते हैं और एक दूसरे को इस प्रकार आश्वस्त करते हैं मानो कृष्ण और सुदामा बातें कर रहे हों ।
जवाब देंहटाएंबधाई विजय सर
आभार मोईन खान भाई....
जवाब देंहटाएं