सुधीर कुमार सोनी |
सुधीर कुमार सोनी छत्तीशगढ़ के उन युवा कवियों में शामिल हैं जिन्हें पाठकों ने खूब सराहा है। सोनी जी का जन्म 26 मई 1960 को रायपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ। अब तक आपकी कविताएँ अनेक समाचार पत्रों में प्रकाशित हो चुकी हैं। 'सृष्टि एक कल्पना' नाम से आपका एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन। कादम्बिनी साहित्य महोत्सव में आपकी कविता पुरस्कृत। ब्लॉग: srishtiekkalpna.blogspot.in. ई मेल: sudhirkumarsoni1960@gmail.com. मोबा: 09826174067
1. सृष्टि एक कल्पना
गूगल सर्च इंजन से साभार |
हम सभी अचम्भित हैं
कि इस नीले आसमान के ऊपर क्या होगा
किस पर टिकी है यह धरती
हलचल है कब से इन समुन्दरों में
सब कुछ बंद किताब-सा है
वह बंद किवाड़ है
जो फिर न खुल सकेगा
सोचता हूँ
कब पहली बार लाल सुबह
पँख फड़फड़ाती धरती पर उतरी होगी
कैसा लगा होगा धरती को
जब पहली बार
उसने धूप को ओढ़ा होगा
कब पहली बार
हवा के किताब के पहले पन्ने खुले होंगें
और धरती के पोर-पोर में
गुनगुनायी होगी हवा
कब पहली बार
आकाश से मोतियों की तरह
नन्हीं -नन्ही बूंदे गिरी होंगी
कैसा लगा होगा
किसी नन्हें पौधे को
मिट्टी के भीतर से उगना पहली बार
आँख भर आई होगी धूप की
जब पहली बार अगले दिन के लिए
शाम की लालिमा के साथ वह लौटी होगी
कब पहली बार
मानव की रचना कर
पृथ्वी पर उतारा गया होगा
कब पहली बार
किसी कन्या ने गर्भ धारण किया होगा
और कहलाई होगी माँ
कब पहली बार
आदमी का मौत से हुआ होगा
साक्षात्कार
जो उसकी सोच में भी नहीं था
कब पहली बार
अस्तित्व में आई होगी लकीरें
और आदमी के माथे की परेशानियां बनी होगी
कब पहली बार
लकीरें उठ खड़ी हुई होंगी
और आदमी ने धरती को बाँटा होगा
जिसका बाँटा जाना बंद होने के अब सारे बंद हैं
2. दिन रात के
दिन रात के
अँधेरे-उजाले
और जीवन के अँधेरे उजाले में
कोई समानता नहीं है
तय नहीं
कि अँधेरे के बाद उजाला आएगा
जीवन में रात का अँधेरा होना ही
अँधेरे का होंना नहीं होता
जीवन के उजाले
और
रात के अँधेरे साथ-साथ हो सकते हैं
साथ-साथ हो सकते हैं
जीवन के अँधेरे और दिन के उजाले
काश
जीवन में उजाला ही होता
क्योंकि रात का अँधेरा तय ही है
3. भाषा
मजबूरी
भाषा बदल देती है
अभिमान
बहुत सी परिभाषा बदल देते हैं
4. पेड़
मैंने
कागज पर लकीरें खीचीं
डाल बनायीं
पत्ते बनाये
अब कागज पर
चित्र लिखित-सा पेड़ खड़ा है
पेड़ ने कहा
यह मैं हूँ
मुझ पर काले अक्षरों की दुनिया रचकर
किसे बदलना चाहते हो
मैंने
रंगों से कपड़ों में
कुछ लकीरें खींचीं
डाल बनायीं
पत्ते बनाये
अब
कपड़े पर छपा पेड़ है
पेड़ ने कहा
यह मैं हूँ
मुझे नंगाकर
किसे ढंकना चाहते हो
यह जो तुम हो
पेड़ ने कहा
यह भी मैं हूँ
साँसों पर रोक लगाकर
किसे जीवित रखना चाहते हो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: