समीक्षित पुस्तक: सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया लेखक: माधव हाड़ा प्रकाशक: आधार प्रकाशन, पंचकूला पृष्ठ: 140 मूल्य - रु. 250/- प्रकाशन वर्ष: 2012 |
वर्तमान समय में मीडिया, हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। सम्भवतः जीवन का कोई भी हिस्सा आज ऐसा नहीं जिसके विषय में मीडिया मौन हो। अनेक स्थानों पर यह भी कह दिया जाता है, कि अब मीडिया से बाहर कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ दशकों में तो मीडिया एक सामाजिक, राजनीतिक शक्ति के रूप उभर कर आया है। इसका प्रभाव समाज पर भी व्यापक रूप में पड़ा है। पर आज मीडिया पर भी सर्वातिशायी होने के आरोप लगने लगे हैं, यह माना जा रहा है कि मीडिया निरंकुश और दिशाहीन होता जा रहा है। इलैक्ट्राॅनिक मीडिया अपनी टी. आर. पी. और प्रिंट मीडिया रीडरशिप बढ़ाने के चक्क्र में निरंतर सामाजिक महत्त्व के मुद्दों की अनदेखी कर रहा है और सनसनीखेज़ पत्रकारिता मुख्यधारा की पत्रकारिता बन चुकी है। ऐसे समय में आलोचक माधव हाड़ा अपनी पुस्तक ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ के माध्यम से एक बेहद ज़रूरी हस्तक्षेप करते हैं। उनकी यह पुस्तक बारह अध्यायों में बंटी है। जिनमें भूमंडलीकरण के दौर में मीडिया के विभिन्न आयामों पर वे विचार करते हैं। पुस्तक का अंत कथाकार स्वयं प्रकाश से लिए गये एक विस्तृत साक्षात्कार से होता है। इस पुस्तक में माधव हाड़ा मीडिया और भूमंडलीकरण, मीडिया और नया मध्यवर्ग, मीडिया और स्त्री, मीडिया और साहित्य, मीडिया की भाषा जैसे गम्भीर विषयों का विश्लेषण करते हैं।
इस पुस्तक का पहला लेख है ‘ग्लोब के चाक पर’। इस लेख में माधव हाड़ा ग्लोबलाइज़ेशन की प्रक्रिया की पड़ताल करते हैं, तथा इस प्रक्रिया के पूरे विश्व पर हुए प्रभाव की व्यापक समीक्षा करते हैं। पूंजीवादी, मुक्त बाज़ार ग्लोबलाइजे़शन का आधार है। वैसे तो यह प्रक्रिया उन्नीसवीं सदी में भी थी परंतु बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इस इस प्रक्रिया ने नये रूपों में पूरी दुनिया में अपने कदम रखे। तकनीक और संचार व्यवस्था में आये क्रांतिकारी परिवर्तनों के रथ पर चढ़ कर अवारा पूंजी देश-देशांतरों को जीतने के लिए निकल पड़ी। पूरे विश्व में लिबरलाइजे़शन, प्राइवेटाइज़ेशन और ग्लोबलाइजे़शन के मंत्र को समस्त दुनिया की गरीबी और असमानता को दूर करने वाला मंत्र बताया गया। पूंजीवादी यूरो-अमेरिकी वैश्विक वित्त संस्थानों और बड़े काॅरपोरेट्स ने दुनिया के तमाम विकासशील और पिछड़े देशों को यह अपने बाज़ारों को यूरो-अमेरिकी कम्पनियों के खोलने के लिए तैयार किया। 1980 के आस-पास यूरोप और अमेरिका में विश्व-व्यापार और मुद्रा परिवर्तन को सराकारों का भारी समर्थन मिला। सोवियत रूस के पतन के बाद तो जैसे पूंजीवाद ही एकमात्र विचारधारा रह गयी। माधव हाड़ा इस प्रक्रिया का कारण बताते हुए लिखते हैं, “बाज़ार के निर्णायक और सर्वोपरि हैसियत में आ जाने का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण ग्लोबल अर्थव्यवस्था में आया संरचनात्मक परिवर्तन है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रेटनवुड्स में 44 देशों में विश्व व्यापार औैर मुद्रा परिवर्तन के लिए जो समझौता हुआ, वो 1980 के आसपास ब्रिटेन और अमरीका में मुक्त बाज़ार समर्थक सराकारों के उदय और बाद में रूस में राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था के बिखर जाने से ढह गया। अब यहां की अर्थव्यवस्थाएं राज्य के नियंत्रण से मुक्त हो गयीं। यहां कम्पनियों को उत्पादन की लागत कम करने और निवेशकत्र्ताओं को अधिकतम लाभांश देने के लिए विश्व में कहीं भी जाने की छूट मिल गयी।”(वही-पृ़. 11) इस दौर में पूरी दुनिया में जैसे होड़ सी मच गयी थी कि कौन पहले अपने बाज़ार को दुनिया भरी की कम्पनियों के खोलता है। यह पूरा दौर जहां एक ओर एक नये आशावाद को लेकर आ रहा था वहीं दूसरी ओर सन् 1997 के आर्थिक संकट ने इस बात को भी उजागर कर दिया कि सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है।
इस पूरे दौर में मीडिया ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। माधव हाड़ा लिखते हैं, “ ग्लोबलाइजे़शन के दूसरे चरण में जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अस्तित्त्व में आईं, उन्होंने इस मीडिया की ताकत को पूरी तरह से अपने व्यापारिक हितों के पोषण में झोंक दिया है।” (पृष्ठ. 11) इस दौर में मीडिया के बाज़ार में बेतहाशा वृद्धि हुई। इससे पूरी दुनिया में एकरूपीकरण की प्रक्रिया चल पड़ी। इसका असर देशों की संस्कृति पर भी हुआ। चूंकि ‘साहित्य भी एक संास्कृतिक उत्पाद है’(पृ. 12) अतः यह लाज़िमी था कि मीडिया के इस ग्लोबल रूप का प्रभाव साहित्य पर भी होता। मीडिया ने ग्लोबलाईज़ेशन के प्रारम्भिक दौर में अविकसित और अल्पविकसित देशों में यूरोप और अमेरिका के ग्लैमर को बेचा। एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि इन देशों में से अधिकांश कभी न कभी यूरोपीय दासता को झेल चुके थे। परंतु विदेशी दासता से भले ही वे राजनीतिक रूप से मुक्त हो चुके हों परंतु ये देश सांस्कृतिक रूप से अभी भी पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो पाये थे। उदाहरण के लिए भारत में जब सैटेलाइट चैनल शुरु हुए तो उन पर यूरो-अमेरिकी दबाव था। तो ऐसे समय में साहित्य पर किस प्रकार का प्रभाव होगा इस समझना भी आवश्यक हैै। माधव हाड़ा इसकी पड़ताल करते हुए लिखते हैं कि ‘साहित्य अभी भी हाशिए पर है या फिर सांस्कृतिक संक्रमण और एक रूपीकरण के साथ तालमेल बिठाने में पिछड़ रहा है। (पृ. 12 ) इसके कारणों की समीक्षा वास्तव में उदारवाद के समय की समीक्षा भी है। इसी समय में भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन आ रहे थे। भारतीय मध्यवर्ग एक शक्तिशाली वर्ग के रूप में उभरकर आ रहा था। यह वर्ग अपनी बढ़ती हुई क्रय शक्ति के कारण विश्व पूंजीवाद के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ग बन चुका था। इसलिए हम देखते हैं कि वैश्विक पूंजीवाद ने अपने प्रसार के लिए मीडिया का भरपूर उपयोग किया।
इस पूरी प्रक्रिया ने साहित्य को भी एक सांस्कृतिक उत्पाद के रूप बाज़ार के सामने प्रदर्शित कर दिया। इससे साहित्य का बाज़ार भी तैयार हुआ है। पूरी दुनिया में अंग्रेजी साहित्य तो बहुत अधिक धन कमा रहा है वहीं हिंदी में भी साहित्य को एक अन्य उपभोक्ता सामान की भांति बेचने की बात कही जा रही है। इसने एक तरफ तो हिंदी साहित्य के लिए बाज़ार तैयार कर दिया है वहीं दूसरी ओर हिंदी साहित्य को भी बाज़ार के लिए लुभावना बनाने के लिए कई प्रकार के लुभावने मसालेदार प्रयोग भी किये जा रहे हैं। वे लिखते हैं,‘ हिंदी की श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं में भी जाने-अनजाने मनोरंजन और उत्तेजना पैदा करने वाले तत्त्वों की मात्रा पिछले दस बारह सालों में बढ़ी है’ (पृ. 10) इसका कारण वे मानते हैं कि,‘ साहित्य में साधारण की जगह असाधारण का आग्रह बाज़ार की मांग के कारण निरंतर बढ़ रहा है।(पृ. 10) इस प्रकार यह साफ है ग्लोब के चाक पर न सिर्फ आर्थिक परिवर्तन आ रहे हैं बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक क्षेत्र में भी व्यापक बदलाव आ रहे हैं। इससे न केवल साहित्य के स्वरूप और विषयों में परिवर्तन आया है बल्कि भाषाओं पर भी संकट के बादल गहराते जा रहे हैं। भाषाओं का यह संकट एक प्रकार से विभिन्न विचारधाराओं के समाजांे के लिए भी संकट है। इसीलिए वे मानते हैं कि फिलहाल तो साहित्य हाशिए पर ही है।
इस पुस्तक का अन्य लेख मीडिया और साहित्य की विविध विधाओं रिश्तों की पड़ताल करते हैं। जैसे ‘कहानी-मीडिया में आपसदारी’, ‘मीडिया की हुकूमत में कविता’ और किताब से कट्टी इसी प्रकार के लेख हैं। ‘कहानी-मीडिया में आपसदारी’ नामक लेख में माधव भारतीय मीडिया के विकास और समस्याओं से हमें रू-ब-रू तो कराते ही हैं, साथ ही साथ माधव हाड़ा मीडिया की तकनीक और प्रविधि में आए बदलाव के प्रभाव को साहित्य की तकनीक और प्रविधि पर भी दिखाते हैं। वे मानते हैं कि मीडिया विशेषतः इलैक्ट्राॅनिक मीडिया ने तीन प्रकार से कहानी को प्रभावित किया पहला ‘इसने अपनी नयी प्रविधि और चरित्र के अनुसार कहानी का सर्वथा नया रूप आविष्कृत किया है। दूसरे इसने इसने कुछ साहित्यिक कहानियों की, दृश्य-श्रव्य रूप देकर, पुनर्रचना की है। तीसरे इसने पारंपरिक साहित्यिक कहानी को अपने सरोकार, रचना प्रक्रिया और शिल्प तकनीक बदलने के लिए मजबूर किया है। पृष्ठ-20 यही नहीं जिस प्रकार से मीडिया ने पाठकों तक इतनी सूचनाएं पहुंचा दी हैं कि ऐसा लगता है कि हिंदी कहानी का पाठक अब पहले से अधिक सब कुछ जानता है। हाड़ा जी हिंदी कहानी में बढ़ते हुए मितकथन को इसी प्रवृति का परिणाम मानते हैं।
‘मीडिया की हुकूमत’ में कविता नामक लेख में माधव हाड़ा आज के समय मंे कविता की आवश्यकता और उसकी वर्तमान दशा पर टिप्पणी करते हैं। आजादी के बाद की हिंदी कविता ने अपने समय के इतिहास को, संघर्षों को और जनता की आकांक्षाओं को वाणाी दी। लगभग आठवें दशक तक हिंदी कविता अपने सामाजिक,राजनीतिक दायित्वों को निभाने में सफल रहती है परंतु नब्बे के दशक के बाद आयी कविता का दायरा सीमित होता चला गया।माधव हाड़ा इस बात की ओर भी संकेत करते हैं कि किस प्रकार लघु पत्रिकाओं का दायरा भी पिछले कुछ दशकों में सीमित हुआ है। यहां सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या साहित्य आज मात्र साहित्य की दुनिया तक सीमित होकर रह गया है? और क्या साहित्य से बाहर की दुनिया में साहित्य कट चुका है? वह मात्र अब पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग तक सीमित हो चुका है? हाड़ा तो और अधिक बढ़कर इस बात को लिखते हैं,‘‘ अब तक जो पढ़ा-लिखा अभिजात तबका कभी-कभी कला-विनोद के लिए ही सही कविता पढ़ लेता था अब पूरी तरह मास-मीडिया और मास-कल्चर का मुरीद है।’’(पृष्ठ 38) अब ऐसे में रास्ता क्या बचता है? साहित्य की विविध विधाओं के सामने उत्पन्न हुए अभूतपूर्व संकट का। साफ है कि साहित्य को मास मीडिया के व्यापक क्षेत्र में कदम रखना होगा। यह मान लेने से कि सारा का सारा मीडिया पूंजीवादी है तो उससे दूरी बनाकर रखना जरूरी होगा। हाड़ा जी मानते हैं कि ‘‘हमारे आस-पास अब ऐसा क्या रह गया है जो पूंजीवाद के दायरे में न आता हो।’’(पृष्ठ.39) इसीलिए वह मानते हैं कि कविता को अपने वर्तमान स्वरूप में परिवर्तन करते हुए उसे ‘गेयता और लय’ हासिल करना होगा। साथ ही साथ अपने बुनियादी गुण-धर्म के साथ समझौता न करते हुए व्यापक समाज के साथ अपना रिश्ता गहरा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। तभी वह कविता मनुष्य के रंज,असमंजस, असुरक्षा और विकल्पहीनता की बिल्कुल नयी तस्वीर पेश करेगी।’’(पृ.41) माधव हाड़ा यहां तक तो ठीक कहते हैं कि कविता का रिश्ता समाज से, जनता से कट गया है, पर उसका एकमात्र कारण कविता का गद्यात्मक होना ही नहीं है। इसके अन्य कारण भी हैं। पहला, समाज की गति में आया महत्वपूर्ण परिवर्तन। दूसरा, पाॅपुलर,सस्ते मनोरंजन के सर्वातिशयी साधनों की सहज उपलब्धता, तीसरे जनता के बीच कविता की उपस्थिति को सुलभ बनाने वाले साधनों की कमी। सवाल उठता है कि जिस प्रकार का मीडिया उपलब्ध है उसमें सार्थक,गंभीर कविता या साहित्य की कितनी जगह उपलब्ध है? इस लेख की सीमा यह है कि इसमें हाड़ा जी कविता की दुर्बाेधता, कवियों की आत्ममुग्धता और मीडिया के लिए उनकी हिकारत को कविता की वर्तमान स्थिति के लिए दोषी ठहराते हैं पर वे प्रिंट मीडिया या संपूर्ण मीडिया जगत के चरित्र और उद्देश्य में आए व्यापक बदलावों को नजरअंदाज कर देते हैं। यहां यह सवाल भी उठना चाहिए कि क्या मीडिया टी.आर.पी. और रीडरशिप को बढ़ाने के लिए जिस प्रकार की प्रस्तुति को लेकर आ रहा है उसमें साहित्य विशेषकर कविता के लिए कितना स्थान बचा है?
‘किताब से कुट्टी’ नामक लेख में लेखक किताबों से कटे बचपन पर एक वाजिब चिंता व्यक्त करता है। टी.वी. के लिए दिया गया वाक्यांश ‘प्लग इन ड्रग’ इस संदर्भ में एकदम उचित है। इस ड्रग का परिणाम घातक होता जा रहा है। इससे बच्चों की रचनात्मकता और असीम कल्पनाशीलता प्रभावित होने लगी है। आज बच्चे जो कुछ भी टी.वी. परद देखते हंै उसे सही मान लेते हैं। टी.वी. ने जहां एक ओर बच्चों के लिए देश-दुनिया की जानकारी में वृद्धि की है वहीं बच्चों की दुनिया सीमित भी हो गयी है। लेखक ने माना है कि टी.वी. पूरे तौर पर कभी बच्चों का मित्र नहीं बन सकता जबकि किताबें हमेशा से ये काम करती आयी हैं।
समाजशास्त्री धीरूभाई शेठ ने अपने लेख ‘बाजारोन्मुख या सहभागी लोकतंत्र’ में लिखा है,‘‘ पूरी दुनिया के संसाधनों तक अपनी निर्बाध और एकाधिकारी पहुंच बनाए रखने के लिए विश्व पूंजीवादी व्यवस्था महानगरीय जीवन शैली को बढ़ावा देने में लगी रहती है।यह ऐसी राजनीतिक संस्कृति है, जिसमें उपभोक्तावाद नागरिकों पर हावी रहता है। नागरिकता को उपभोक्तावाद के मातहत बनाकर यह व्यवस्था अपनी सत्ता का आधार स्थापित करती है।’’( भारत का भूमंडलीकरण पृ. 110 सम्पादक अभय कुमार दुबे)एक सचेत नागरिक का उपभोक्तावाद के मातहत आना गंभीर चिंता का विषय है।‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ के कई लेख जैसे-‘ग्लोब के चाक पर’,‘मध्यवर्ग के ताबेदार’,‘बदलता नजरिया’,‘यू हैव कम ए लांग वे बेबी’ इसी चिंता के परिचायक हैं। इनमें हाड़ा ग्लोबलाइजेशन के दौर में बदलते हुए मीडिया के स्वरूप पर विचार करते हैं। इस बदलाव को रेखांकित करते अपने लेख ‘मध्यवर्ग के ताबेदार’ में वे लिखते हैं,‘‘ यह वर्ग पहले की तरह दकियानूसी और जड़ होने की बजाए पर्याप्त शिक्षित,गतिशील और महत्वाकांक्षी है।’’( पृ.47) यह खाता-पीता मध्यवर्ग ही आज के हिंदी दैनिकों का लक्ष्यवर्ग है। यदि आप अंग्रेजी दैनिकों पर निगाह डालें तो जिस प्रकार की चमक-दमक वहां मिलती है लगभग वैसी ही चमक-दमक आज के हिंदी दैनिकों में भी मिलने लगी है। अखबारों के काॅर्पोरेटाइजेशन का ही यह परिणाम है कि दैनिकों का उद्देश्य इस मध्यवर्ग को प्रसन्न रखना है। इस मध्यवर्ग के चरित्र की सही पहचान को हाड़ा जी कोका-कोला के उपाध्यक्ष के कथन के जरिए उजागर किया है-‘‘हमारी व्यूह-रचना में मध्यवर्ग जो सतह पर पाश्चात्य और मूल में भारतीय है, का हदय प्रतिबिम्बित होना चाहिए।’’(पृ.50) पर यह भारतीयता विचित्र है जिसमें आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर पश्चिमीकरण है और भारतीयता के नाम पर अंधविश्वास और रूढ़िवाद। यह सही है कि धार्मिक कर्मकांडों और रीति-रिवाजों के साथ मध्यवर्ग का रिश्ता अब पहले जैसा आत्मीय और सघन नहीं है...पुनरुत्थानवादी आंदोलनों में सक्रियता बढ़ी है।’’(पृ.100) ‘‘इन दोनों ही प्रवृत्तियों को आज का काॅरपोरेट अखबार भी बढ़ावा देता है।’’(पृ.76)
इस प्रकार की प्रवृत्ति को माधव हाड़ा इलैक्ट्रानिक मीडिया में भी रेखांकित करते हैं। वे सैटेलाइट चैनलों के उभार के समय में ‘कहानी घर-घर की’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ जैसे धारावाहिकों की मध्यवर्ग ़द्वारा अभूतपूर्व स्वीकृति पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं। ये सब धारावाहिक उदारीकरण के दौर में ‘सशक्त स्त्री’ की छवि को पोषित करने वाले पात्रों की कहानियां बताकर परोसे गये थे। इनमें कहानी को संयुक्त परिवार,प्राचीन भारतीय मूल्य व्यवस्था,शादी-विवाह और वर्ष भर चलने वाले तीज-त्यौहारों से इस प्रकार जोड़ा कि दर्शक वर्ष भर ही नहीं बल्कि कई वर्षों तक इनसे जुड़ा रह सकता था।
परंतु जिस प्रकार की सजी-धजी स्त्री छवि को इन धारावाहिकों ने गढ़ा वे अपने वैचारिक गढ़न में पूर्णरूपेण पितृसत्ता और पुरुष वर्चस्ववाद की पोषक थीं। माधव हाड़ा लिखते हैं कि इन स्त्री चरित्रों की वापसी और प्रतिष्ठा के पीछे दरअसल मध्यवर्ग की विभक्त मनोदशा काम कर रही है। परंपरा इसके जीवन का हिस्सा नहीं है, लेकिन इसकी परंपरानिष्ठा अभी भी कायम है।अपने यथार्थ से भागकर यह परंपरा की शरण लेता है और बाजार इसी पलायनवृत्ति को भुना रहा है। इसके अतिरिक्त समाचार आधारित कार्यक्रमों में स्त्री एंकर का कार्य मात्र दिखावटी ही रहा है। इनका प्रयोग फैशन शोज़,फिल्म और सौंदर्य प्रतियोगिताओं के कार्यक्रमों की एक रूढ़ि जैसा बन गया है।
स्त्री छवि को एक खास ढांचे में ढालकर देखने की विवेचना माधव हाड़ा अपने लेख ‘मीडिया में मीरा का छवि निर्माण’ में करते हैं। भारतीय सिनेमा में अनेक सशक्त स्त्री चरित्रों को प्रस्तुत किया है। मीरा मध्यकालीन भारतीय साहित्य में विद्रोही और चुनौती देती स्त्री की सशक्त छवि हैं। उसका जिस प्रकार का उपयोग मीडिया में हुआ है वह मीरा की रोमानी छवि को ही स्थापित करता है। माधव हाड़ा पाॅपुलर मीडिया के क्षेत्र में मीरा की छवि को गढ़ा जाता हुआ देखते हैं। गीताप्रेस गोरखपुर से लेकर गुलज़ार साहब की मीरा तक वे प्राचीन हिंदू नारी की छवि और स्वतंत्रचेता रोमानी विद्रोही स्त्री छवि को पाठकों के सामने रख देते हैं। यहां पर ये संघर्ष वास्तविक नहीं। ये संघर्ष एक सीमा तक तो आगे बढ़ते हैं फिर उसके बाद पितृसत्तात्मक समाज का अंग बन जाते हैं। हाड़ा उचित ही लिखते हैं ‘‘धार्मिक साम्प्रदायिक चरित्र-आख्यानों और उपनिवेशकालीन इतिहासकारों ने मीरा का संत-भक्त रूप गढ़ने के लिए उसके विद्रोह और संघर्ष को अनदेखा कर दिया।...’’(पृष्ठ-110) और जब इसके बाद जब संत भक्त रूप प्रचलन में आ गया तो बाज़ार ने इसका अपने व्यावसायिक हितों के लिए प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया।
स्त्री अस्मिता और उसके रूपांतरण के साथ-साथ इक्कीसवीं सदी में मीडिया का प्रसार और विस्तार माधव हाड़ा के विश्लेषण का प्राथमिक क्षेत्र है। इस क्षेत्र का बाजार जिस प्रकार से बढ़ा है और जिस प्रकार के व्यावसायिक रूझान इस क्षेत्र में आए हैं, उनका एक गंभीर विश्लेषण किताब के कई लेखों में है। है। पुस्तक का अंतिम लेख ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ एक आधार लेख की भांति दिखाई देता है। लेखक का मानना है ‘‘गत सदी के अंतिम दशकों में हुए आर्थिक सुधारों और ग्लोबलाइज़ेशन के बाद तो इसके पंख लग गए हैं।’’(पृष्ठ 111) इलैक्ट्रानिक मीडिया ने सूचनाओं के प्रसार से न केवल विश्व भर में पूंजीवादी बाजार को बढ़ाया है बल्कि ‘‘ प्रभुत्वशाली देशों ने इसके माध्यम से अविकसित और विकासशील देशों में अपनी संस्कृति और जीवन-शैली को प्रचारित कर नए प्रकार के आर्थिक साम्राज्यवाद की नींव रखी।’’(पृष्ठ-112) इसके लिए शक्तिशाली देशों ने टेलिविजन ,इंटरनेट और सिनेमा का जमकर प्रयोग किया है, जिसका परिचय इस लेख में है।यह बात रेखांकित करने योग्य है कि भारत आज विश्व के बड़े काॅरपोरेट्स के लिए बड़े बाज़ार के रूप में उभरकर आया है। इसलिए नयी सूचना-प्रोैद्योगिकी का प्रयोग कर बाज़ार भारत में अपने पांव पसार रहा है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के प्रारंभ के बाद एक बड़ा परिवर्तन प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के स्वरूप में आया । यह परिवर्तन वैश्विक भी था और स्थानीय भी। इसने मात्र शहरी समाचार-पत्रों के स्वरूप को ही प्रभावित नहीं किया बल्कि इसने कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्र के अखबारों को भी प्रभावित किया। पूरे तौर पर वैश्विक पूंजीवाद का इस पर प्रभाव देखा जा सकता है। कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्र की पत्रकारिता का बड़ा विशद् विश्लेषण माधव हाड़ा ने ‘गाँव कस्बों के अखबार’, बेगानी शादी में, तथा गांव कस्बों में दैनिक जैसे लेखों में किया है।
मार्शल मैक्लुहान ने कहा था कि श्डमकपनउ पे जीम उंेेंहमश् तो इसका अर्थ मात्र अभिव्यक्ति के माध्यम भर से नहीं था, बल्कि इसका गहरा अर्थ उस भाषा से भी था जिसमें संदेश भेजे जा रहे हैं। मीडिया एक भाषा आधारित माध्यम है। अतः बाज़ार के लिए यह लाज़िमी हो जाता है कि वह माध्यम की भाषा को भी अपने अनुसार परिवर्तित करे। बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में मीडिया की भाषा बदल गयी है। ‘हिंदी की पीठ पर अंग्रेजी’ लेख में इसी सवाल को उठाते हुए माधव जी ने लिखा है‘‘ कोई भाषा अपने पांवों पर खड़ी होकर दूसरी भाषा का बोझ उठाए-यहां तक तो ठीक है, लेकिन इधर हिंदी दैनिकों के नगरीय परिशिष्टों में अंग्रेजी हिंदी की पीठ पर सवार है। उसके बोझ से हिंदी का अपना बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है। (पृष्ठ-77) अखबार को चलाने वाले यह मानते हैं कि अखबार आज की जनता की भाषा में निकाले जा रहे हैं परंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। जिस पाठक वर्ग को सम्बोधित कर ये अखबार हिंग्रेजी का प्रयोग करते हैं, वह पाठक वर्ग तो पहले से ही अंग्रेजी पर फिदा है। अतः उसके लिए हिंग्रेजी का अखबार बेमानी हो जाता है। विचार और कृत्रिमता को बढ़ावा देने वाले इन अखबारों का एक ही उद्देश्य है वह है बाज़ार की सेवा करते हुए विज्ञापनों के माध्यम से अपना मुनाफा बढ़ाना।
इस पूरी पुस्तक में माधव हाड़ा अनेक स्थानों पर मीडिया और साहित्य के रिश्ते की पड़ताल करते हैं। उनके द्वारा लिया गए वरिष्ठ कथाकार स्वयं प्रकाश के साक्षात्कार को इसी क्रम में देखा जा सकता है। इसमें स्वयं प्रकाश साहित्य और मीडिया, मीडिया और भूमंडलीय बाज़ार, भारतीय मध्यवर्ग और मीडिया, साहित्य और सिनेमा जैसे बड़े प्रश्नों पर अपनी राय रखते हैं। वे तकनीक और विज्ञान के प्रसार के साथ-साथ विकसित हो रहे पुनरुत्थानवाद की जटिलता में जाते हैं। एक तरफ तो यह स्वीकार करते हैं कि देश ही नहीं पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी रुझान बढ़े हैं वहीं वे यह भी रेखांकित करते हैं कि जनता में विवेक भी आया है। माधव हाड़ा कहानी की तकनीक पर पड़े मीडिया के प्रभाव की विवेचना करते हुए बताते हैं कि आज की कहानी पर मीडिया का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ रहा है। स्वयं प्रकाश भी मीडिया ़़द्वारा साहित्य को दी जा रही चुनौती की बात स्वीकारते हैं।
माधव हाडा़ की यह पुस्तक वास्तव में एक बड़े वितान की पुस्तक है जिसमें मीडिया और समाज, मीडिया और साहित्य, मीडिया और भाषा, मीडिया और स्त्री, तथा मीडिया और संस्कृति के सवालों को बहुत ही गम्भीरता से उठायाहै। माधव हाड़ा बहुत ही बारीकी से इन क्षेत्रों के उन कोनों की भी खोज कर लेते हैं जिनमें अभी रोशनी पहुंचनी बाकी है। उनकी यह पुस्तक अनेक मायनों में मीडिया के अध्ययनकत्र्ताओं, शोधकत्र्ताओं तथा आम पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
समीक्षक:
राकेश कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी एवं पत्रकारिता विभाग
रामलाल आनंद महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
Seediyan Chadhata Media by Madhav Hada
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जवाब देंहटाएंपुस्तक की जानकारी और समीक्षा साझा करने हेतु आपका हार्दिक आभार !
जवाब देंहटाएं“नव-वर्ष 2014
आपके और आपके समस्त परिवार के लिए
सुखद और समृद्धिशाली हो”
Wishing You and Your Family
a Very Happy & Prosperous
New Year 2014.
सादर/सप्रेम,
सारिका मुकेश
http://sarikamukesh.blogspot.com
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