पंकज त्रिवेदी |
पंकज त्रिवेदी से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत
अवनीश सिंह चौहान : पंकज जी, सबसे पहले मैं आपको बधाई देना चाहूँगा कि आपका निबंध संग्रह ‘झरोखा’ हाल ही में गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हुआ है | आपको चाहने वाले हिन्दी के पाठकों के लिए यह सुखद सन्देश है | किन्तु गुजराती भाषा में भी आपने काफ़ी कुछ लिखा है | संप्राप्तकथा (लघुकथा-संपादन-गुजराती), भीष्म साहनीनी श्रेष्ठ वार्ताओ (भीष्म साहनी की श्रेष्ठ कहानियाँ-हिंदी से गुजराती अनुवाद), अगनपथ (लघुउपन्यास-हिंदी), आगिया (जुगनू-रेखाचित्र संग्रह-गुजराती), दस्तख़त (सूक्तियाँ-गुजराती), माछलीघरमां मानवी (मछलीघर में मनुष्य-कहानी संग्रह-गुजराती), झाकळना बूँद (ओस के बूंद-लघुकथा संपादन-गुजराती), कथा विशेष (कहानी संग्रह संपादन गुजराती), सामीप्य (स्वातंत्र्य सेना के लिए आज़ादी की लड़ाई में सूचना देनेवाली उषा मेहता,अमेरिकन साहित्यकार नोर्मन मेलर और हिन्दी साहित्यकार भीष्म साहनी के साक्षात्कार पर आधारित संग्रह), मर्मवेध (निबंध संग्रह-गुजराती) तथा झरोखा (निबंध संग्रह-हिन्दी) आदि कृतियाँ काफ़ी चर्चित हुई है | गुजराती भाषा के पाठकों को ऐसा सुखद सन्देश पहले मिलना चाहिए था... क्या कारण रहा कि गुजरात साहित्य अकादमी और गुजराती साहित्य परिषद का ध्यान आपकी रचनाधर्मिता की ओर न जा सका?
पंकज त्रिवेदी : अवनीश जी, पहले तो मैं ऋण स्वीकार करूँगा कि आप सभी का स्नेह-आशीर्वाद मुझे मिलता रहा है और मैं गुजराती से हिन्दी साहित्य में कार्य करते हुए अपनी छोटी-सी पहचान बना पाया हूँ | गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी का भी शुक्रगुजार हूँ कि मेरे निबंधो को परखा और सम्मान के लायक समझा |
गुजराती साहित्य में मैंने गद्य की सारी विधाओं में लेखन किया और मेरी पहचान भी गद्यकार की ही रही है | जहाँ तक गुजरात साहित्य अकादमी और सौ साल पुरानी संस्था गुजराती साहित्य परिषद की बात है, परिषद से गांधीजी और गोवर्धनराम त्रिपाठी जैसे महानुभाव जुड़े हुए थे, यह दोनों संस्थानों के द्वारा प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान दिया जाता है | वैसे पुरस्कारों का मामला तो ऐसा है कि वो कहाँ विवादस्पद नहीं रहा? इसे पानेवाला प्रत्येक गुजराती साहित्यकार अपने आप को धन्य समझने लगता है |
मेरा सौभाग्य समझिए या दुर्भाग्य कि गुजरात की दो प्रतिष्ठित संस्थाओं के पदाधिकारी के रूप में मेरे बड़े भाई साहित्यकार हर्षद त्रिवेदी संलग्न रहे | आपका यह सिद्धांत रहा है कि सार्वजनिक संस्थाओं का निजी मंच के रूप में उपयोग न हो | इसके चलते भी मैं इन संस्थाओं के पुरस्कार से दूर रहा | यह मेरे लिए आश्चर्य की बात है कि इतने वर्षों बाद गुजरात की हिन्दी साहित्य अकादमी ने मेरी रचना को पुरस्कृत किया | तात्पर्य यह कि मूल रचना में दम होना चाहिए | पुरस्कारों से रचना बड़ी नहीं होती | गुजरात के समर्थ साहित्यकार चंद्रकांत बक्शी को गुजरात की एक भी संस्था ने पुरस्कृत नहीं किया लेकिन उनके अवसान के बाद आज भी गुजरात की प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ और समाचार पत्र उनके लेखन का पुनर्मुद्रण कर रही हैं |
बंधुवर, बताईए प्रेमचंद का लेखन किस पुरस्कार का मोहताज़ रहा !
सच कहूँ तो किसी भी अवार्ड कमिटी को साहित्य के बदले साहित्यकार ही दिखाई देने लगें तो परखने की दृष्टि ही खत्म हो जाती है | ये बात सिर्फ साहित्य क्षेत्र तक सीमित नहीं है, शिक्षा और कला क्षेत्र में भी ज्यादातर यही होता है |
अवनीश सिंह चौहान : यदि परिवार का कोई सदस्य किसी साहित्यिक संस्थान में उच्च पदाधिकारी है भी तो क्या संस्थान के अन्य पदाधिकारियों का ये धर्म नहीं कि वे आपकी रचनाओं/ कृतियों को संज्ञान में लेवें और उन्हें समादृत/ पुरस्कृत करें?
पंकज त्रिवेदी : आपके इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए मुझे कईं सालों का मौन तोडना होगा | पहली बात यह है कि गुजराती साहित्य में राज्य के सभी जिलों में से मेरा सुरेंद्रनगर जिला सबसे ऊपर हैं | जिले के साहित्यिक प्रदान को अगर गिनती में न लिया जाएँ तो गुजराती साहित्य में कम से कम 40 प्रतिशत साहित्यिक मूल्य कम हो जाएगा | यह बहुत बड़ा सत्य है | मेरे बड़े भाई गुजराती साहित्य के अग्रिम साहित्यकार-संपादक हैं | पहले वो गुजराती साहित्य परिषद में पदाधिकारी थे और अब वे गुजरात साहित्य अकादमी के महामात्र (रजिस्ट्रार) है | हमारे परिवार में यह संस्कार है कि जहाँ भी अपने परिवार का कोई सदस्य कार्य करता हो, वहाँ से कोई निजी कार्य नहीं करेंगे |
जहाँ तक साहित्य परिषद में भाई की उपस्थिति थी तब तक की बात और थी | मगर परिषद छोड़कर उनके गुजराती साहित्य अकादमी में जाने के बाद परिषद के साथ मेरा पारिवारिक कोई संबंध नहीं रहा | गुजराती साहित्य परिषद के अवार्ड की बात तो दूर रही, उनके मुखपत्र ‘परब’ में भी मेरी रचनाओं को स्थान देना बंद कर दिया गया | ‘परब’ के वर्त्तमान संपादक को जब भी हमने रचनाएँ भेजीं, तो न उनका प्रत्युत्तर मिला और न ही रचनाएँ प्रकाशित हुईं| हालांकि पूर्व के संपादकों ने मेरी रचनाओं को जरूर स्थान दिया था | हमने सम्पादकश्री से फोन पर पूछा तो जवाब मिला कि मैं यहाँ ऑनररी कार्य करता हूँ | मैंने उन्हें पत्र लिखकर साफ़ कर दिया कि अगर आप साहित्य के बदले पैसों को महत्वपूर्ण मानते है तो आपको यह कार्य छोड़ देना चाहिए | परिषद के मुखपत्र ‘परब’ के लिए दूसरे संपादक भी मिल जाएंगे | फिर तो बड़े भाई के साथ साहित्य परिषद के मत-मतान्तर की बातें भी आने लगीं, मगर मैं सच से वाकिफ़ नहीं हूँ | हो सकता है कि उसी के चलते परिषद के पदाधिकारियों ने मुझे एक साहित्यकार की नज़रों से देखने के बजाय श्री हर्षद त्रिवेदी के भाई के रूप में ज्यादा देखना शुरू किया और दरकिनार कर दिया | हाँ, उन्होंने चुनाव के समय मुझे हमेशा याद किया है क्योंकि मैं परिषद का आजीवन सदस्य हूँ | और यही एक कारण भी है कि मैंने गुजराती साहित्य से हिन्दी की ओर रूख कर लिया |
गुजरात में गुजराती, हिन्दी, संस्कृत, सिंधी, उर्दू आदि अकादमी भी हैं | सभी भाषाओं के मान्यवर साहित्यकार अवार्ड या श्रेष्ठ पुस्तक प्रकाशन चयनकर्ता के रूप में अलग होते हैं | गुजराती भाषा के पुस्तक के लिए मैंने कभी आवेदनपत्र नहीं दिया | क्यूंकि बड़े भाई वहाँ पदाधिकारी हैं | उनके पदभार संभालने से पूर्व मुखपत्र ‘शब्दसृष्टि’ के कईं संपादक रह चुके थे | जिन्होंने मेरी रचनाएँ प्रकाशित की थी | जितने सालों से भाई ने महामात्र (रजिस्ट्रार) और संपादक का पदभार संभाला है, मैंने कभी उन्हें एक भी रचना नहीं भेजी | हाँ, एक अपवाद जरुर है कि जब हिन्दी कथाकार भीष्म साहनी जी का देहावसान हुआ तब मेरे द्वारा उनकी अनुवाद की गई कहानी उन्होंने जरूर प्रकाशित की थी, क्यूंकि मैंने भीष्म जी का पूरा कहानी संग्रह गुजराती भाषा में दिया था | अब आप समझ सकते हैं कि गुजराती साहित्य परिषद, गुजराती साहित्य अकादमी या अन्य साहित्यिक संस्थान के पदाधिकारियों ने हमारी साहित्यिक यात्रा को संज्ञान में क्यूं नहीं लिया होगा?
एक और बात स्पष्ट कर दूं कि जब आप किसी साहित्यिक संस्थान के पदाधिकारी बनते है तब आप सभी साहित्यकारों को संतुष्ट नहीं कर सकते | ऐसे में हो सकता है कि कुछ असंतुष्ट साहित्यकार दूसरे संस्थान में पदाधिकारी हों और वो अपना हिसाब चुकाने का मौका भी नहीं छोडते | मुझे अपने लेखन से निजानंद मिलता है वो कोई अवार्ड से कम नहीं | मैं अवार्ड का मोहताज नहीं और कुर्निश बजाना मेरा स्वभाव नहीं | अवार्ड किसी व्यक्ति को नहीं, उसकी साहित्यिक रचना को मिलता है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए |
अवनीश सिंह चौहान : आपने बताया कि आपके भाई साहब साहित्यकार हैं | आपके पिताजी भी साहित्य से जुड़े रहे; यानी कि लेखन आपको विरासत में मिला है | ज़ाहिर है कि इन सबका प्रभाव आप पर पड़ा ही होगा? अपनी इस पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताना चाहेंगे?
पंकज त्रिवेदी : प्रभाव घर के माहौल का है | मेरे पिताजी ने साहित्य सृजन जितना भी किया उतना प्रकाशित नहीं करवाया | वो गीत और गज़ल के स्वरूप को खूब समझते थे | वो गाँव के स्कूल में आचार्य पद पर थे | देशभक्ति उनकी रगों में थी, आजादी का संग्राम और गांधीयन विचारधारा में जीते थे | उन्होंने जीवनपर्यंत खादी पहनी | वो जब भी गीत-गज़ल लिखते, तो उसे गाते थे | उनकी लय आज भी हमारे कानों में गूंजती है | बड़े भाई चुपके से उनकी कविताओं को पढते थे और धीरे-धीरे खुद भी लिखने लगे | मगर मैं गुजराती में कभी कविता कर न सका | कारण यही था कि छन्द में बंधना मुझे रास न आया | मैंने सहज अभिव्यक्ति को ही स्वीकार किया | संवेदना तो छन्द और छन्दमुक्त रचनाओं में भी होती ही है | मैंने शुरू में कुछ चरित्र निबंध लिखे और उसे लघुकथा का नाम देकर गुजराती साहित्य के लघुकथा स्वरूप के जनक श्री मोहनलाल पटेल को भेज दिए | उन्होंने लिखा – ‘मुझे तुम्हारी एक उत्तम शक्ति की ओर निर्देश करने का मन है | तुम चरित्र लेखन में सिद्धहस्त कलाकार हो और अभी भी उच्च कोटि के ललित चरित्रों को दे सकते हो | अगर यही चरित्रों को तुम कहानी का रूप दे सको तो सोने में सुगंध मिल जाएगी | तुम्हारे चरित्रों को पढकर लगता है कि मडिया (सुप्रसिद्ध गुजराती साहित्यकार श्री चुनीलाल मडिया) के पास जो ‘आंचलिक’ (प्रादेशिक) घटनाओं को बहलाने की शक्ति थी और उनके पास लोक बोली का वैभव था उसका दर्शन तुम्हारे लेखन में भी नज़र आता है |’
मेरे पिताजी केवल कविता ही नहीं लिखते थे, उन्होंने लोककथाएं भी लिखी | यूँ कहें कि वो पद्य-गद्य को समान्तर लिखते थे | यही कारण था कि मेरे साहित्य सृजन का पौधा विक्सित होता रहा | पिताजी के कारण गुजराती भाषा के कईं बड़े साहित्यकारों का हमारे घर आना-जाना रहता था | इन्हीं मुलाकातों से उभरती चर्चाएं मेरे कानों को पवित्र करती हुई हृदयस्थ होती थी |
अवनीश सिंह चौहान : पंकज जी, आपकी मातृभाषा गुजराती है लेकिन आपने गुजराती के साथ हिन्दी में भी लेखन किया है और कर रहे हैं | दोनों भाषाओं में संतुलन बनाये रखना आसान नहीं | हिंदी में लिखने की प्रेरणा कैसे मिली?
पंकज त्रिवेदी : बचपन में हिन्दी विषय में निबंध लिखने होते थे | तब मुझे इतनी रूचि नहीं थी | मगर मेरी माँ का जन्म वाराणसी में हुआ था | वो जब अपने बचपन की बातें करती थी तब हमारी नज़रों के सामने गंगाघाट, आरती, दिए और वाराणसी की गलियों का एक काल्पनिक दृश्य खड़ा हो जाता था | एक तो उनके कहने का अंदाज़ और उनकी भावनाओं का स्त्रोत आँखों से छलकता था | जो मेरे बाल मानस पर गहरा प्रभाव छोड़ गया | पिताजी गुजराती थे | इस तरह दो संस्कृतिओं का मिलाप और दोनों परिवेश की स्थिति के अनुसार उभरती भावनाओं का साक्षात्कार मेरे बाल मानस को होता था | समझ से ज्यादा अनुभूति प्रबल थी क्यूंकि माँ के कहने में चित्रात्मकता थी | जो मुझे अपने गद्य-पद्य लेखन में भी मुखरित करने लगी | ‘प्रेरणा’ शब्द मेरी भावनाओं से मुझे अलग कर देता है | मैं हमेशा कहता हूँ कि किसी भी व्यक्ति से तुरंत प्रभावित होना ठीक नहीं है और सच में प्रभावित हुए है तो वहाँ अभाव का प्रश्न उठाना ठीक नहीं है | मैं मानता हूँ कि किसी एक व्यक्ति या परिवेश का प्रभाव नहीं होता मगर समय और जीवन के साथ जो माहौल बनता है उससे प्रेरित होकर साहित्यकार या कलाकार उभरता है | बल्कि ये कहूँगा कि अभिव्यक्ति के द्वारा रचनाकार खुद उस वक्त कौन-सी मनोदशा और कालखण्ड में है यह साफ़ झलकता है |
अवनीश सिंह चौहान : आपने ‘नव्या’ ई-पत्रिका का संचालन एवं संपादन किया है | इसमें संपादन कार्य कलात्मक, मनमोहक और स्तरीय रहता था| अब यह पत्रिका वेब पर दिखाई नहीं देती | पाठकों और साहित्यकारों के लिए यह किसी आघात से कम नहीं, क्या कारण रहा?
पंकज त्रिवेदी : अवनीश जी, आज का दौर इंटरनेट का है | अगर आप कागज़-कलम से ही चलेंगे तो ज़माने के साथ चल नहीं पाओगे | संपादन करने के लिए मेरा स्पष्ट हेतु यह है कि वर्त्तमान प्रवाह के साहित्य और साहित्यकारों से आप रूबरू हो सकते हैं | जो ग्रंथस्थ है उन्हें तो हमने समय के अभाव में या हमारी विद्वता प्रदर्शित करने के लिए अलमारी की शोभा में बिठा दिए हैं | ‘नव्या’ ई-पत्रिका मैंने दो साल चलाई | इंटरनेट पर वो काफ़ी चर्चित रही | मगर एक दिन ऐसा आया कि उसे हैकर्स के द्वारा हैक कर दी गई | मैं टेकनिकली इतना समर्थ नहीं हूँ | मैंने वेबसाईट कंपनी और दोस्तों की मदद से पुन: शुरू करने का प्रयास किया मगर सफलता न मिली | इस दौरान मैंने अपनी प्रिंट पत्रिका शुरू कर दी थी | सम्प्रति, साहित्य सृजन के साथ पत्रिका और पुस्तक प्रकाशन के कारण समय की कमी महसूस होने लगी है | फिलहाल तो वेबसाईट शुरू करने का कोई इरादा नहीं है मगर आने वाले वर्षों में ‘विश्वगाथा’ के नाम से जरूर शुरू करूँगा |
अवनीश सिंह चौहान : आपने हिंदी से कहीं अधिक गुजराती में संपादन-लेखन किया है | वर्त्तमान में आप ‘विश्वगाथा’ हिन्दी त्रैमासिक प्रिंट पत्रिका का संपादन कर रहे हैं और जो वेब पत्रिका शुरू करने का इरादा है वह भी हिंदी में ही होगी | ये गुजराती में न होकर हिन्दी में क्यों ?
पंकज त्रिवेदी : हाहाहा ... मैं भारत की सभी भाषाओं का सम्मान करता हूँ | आपके पूर्व प्रश्नों में कहीं न कहीं गुजराती से हिन्दी भाषा की यात्रा का प्रत्युत्तर मिल जाता है | हिन्दी भाषा ने मुझे कवि और संपादक की पहचान दी है | हिन्दी के कारण मेरी सृजनात्मकता को प्रदेश से परदेश तक का खुला आसमान मिला है | इंटरनेट की भूमिका हम सब के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हुई है | कईं मान्यवर शुरू में इसे पसंद नहीं करते थे वो अब फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर दिखाई देने लगे है | यह ज्ञान और विज्ञान का संगम है |
अवनीश जी, भाषा तो केवल माध्यम है अभिव्यक्ति के लिए | आप इसे लेखन, संपादन या अन्य ललित कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करें | मैंने देखा कि मेरा लगाव बड़ी सहजता से हिन्दी की ओर बढता है, हिन्दीभाषियों के द्वारा मेरी रचनाओं की सादगी के बावजूद उस रचना की संवेदना पहुँच पाती है, उन्हें प्रभावित करती या प्रिय लगती है और प्रतिक्रियाँ बेशुमार आती हैं तो सोचा कि क्यूं न मैं अपनी पत्रिका हिन्दी में प्रकाशित करूँ? सबसे बड़ी बात यह है कि देश-विदेश के साहित्यकारों को एकत्रित करने का यह एक मंच होगा | इसलिए ‘विश्वगाथा’ त्रैमासिक प्रिंट पत्रिका प्रारम्भ की | गुजराती भाषी होने के बावजूद हिन्दी में भी साहित्य सेवा करने का मन है |
अवनीश सिंह चौहान : आपने भीष्म साहनी, अमरीकन लेखक नोर्मन मेलर, क्रांतिकारी उषा मेहता पर एक संयुक्त पुस्तक – ‘सामीप्य’ तैयार की थी | जिसमें इन तीनों के महत्वपूर्ण जीवनानुभवों को जाना-समझा जा सकता है | तीनों व्यक्तित्व अलग-अलग पृष्ठभूमि के होने के बावजूद इन्हे एक साथ रखा गया है | आखिर क्यों?
पंकज त्रिवेदी : आपने बिलकुल सही कहा कि यह तीनों आलग-अलग पृष्ठभूमि के हैं | मुझे इस पर विस्तृत जवाब देना होगा | असल में यह तीनों महानुभावों के दीर्घ साक्षात्कार हिन्दी में मैंने पढ़े थे, जिसे मैंने गुजराती पाठकों के लिए अनूदित किया था | फिर तीनों को मिलाकर एक किताब करना ही मुनासिब समझा | इस योजना के बारे में आपको विस्तार से बताऊँ तो 1988 से मैंने गुजराती लेखन शुरू किया और 1990 से मेरे लेखन को नई उड़ान मिली | कईं गुजराती अखबारों में स्तंभ लेखन और पत्रिकाओं में मेरे आलेख, कहानियाँ और निबंध प्रकाशित होते रहते थे | एकबार भीष्म साहनी जी की कहानी ‘बबली’ मेरे हाथ में आई | तब मैं गुजराती ‘जनसत्ता’ में स्तंभ लिखता था | वो कहानी मुझे छू गई क्यूंकि उसमें ‘बबली’ का चरित्र मेरे पुराने चरित्र लेखन से सुसंगत था | यूँ कहें कि एक चरित्र चित्रण था | और मैंने उस कहानी का गुजराती अनुवाद ‘जनसत्ता’ को दिया | प्रकाशित होते ही उस कहानी के लिए कईं पाठकों के पत्र आए | मेरी मौलिक कहानियों का स्तंभ ‘माछलीघरमां मानवी’ के साथ मेरे द्वारा अनूदित कहानियाँ भी छपने लगी | दूसरा कारण था कि बलराज साहनी मेरे प्रिय अभिनेताओं में से एक रहे हैं | बलराज जी का गुजरात और मेरे शहर से पुराने ताल्लुकात थे | प्रिय होने का कारण उनका मंच से लगाव | भीष्म जी भी दिल्ली की नाट्य संस्थान ‘इप्टा’ (IPTA) से जुड़े हुए थे | जब मैंने भीष्म जी से उनकी कहानियों के अनुवाद की अनुमति माँगी तो शीघ्र ही लिखित अनुमति मिली | मेरे लिए यह बहुत खुशी की बात थी | फिर तो हम प्रति सप्ताह आपस में पोस्टकार्ड लिखते थे | मेरा दुर्भाग्य यह था कि जब मैं पहली बार दिल्ली उनसे मिलने गया ठीक उसी दिन उनकी पत्नी का देहांत हो गया था और दूसरी बार जाना हुआ तो वो खुद ..... !
उषा मेहता की आज़ादी के संग्राम में उद्घोषक के रूप में महत्त्वपूर्ण और रोचकता से भरपूर भूमिका थी | एक अर्थ में यह साक्षात्कार आज़ादी के इतिहास के पृष्ठों को सजाने के लिए पर्याप्त था | क्यूंकि गांधी विचार धारा के लोग अहिंसा के माध्यम से संघर्ष कर रहे थे | दूसरी ओर सुभाषचन्द्र, भगत सिंह, खुदीराम, चंद्रशेखर आदि क्रांतिकारी अपनी आक्रमकता से अंग्रेजों को चुनौती दे रहे थे | ऐसे माहौल में अंग्रेजों ने सरकारी रेडियो प्रसारण को अपने हाथ में ले लिया था | हमारे क्रांतिकारी पूरे देश में से लड़ रहे थे | ऐसे समय गांधी जी या अन्य नेताओं की योजनाओं की सूचना एवं सन्देश को त्वरित गाँव-गाँव पहुंचाने के लिए एक निजी रेडियो स्टेशन भूगर्भ में बनाया गया था, जिसे ‘हेम रेडियो’ नाम दिया गया था | यह कार्य इतना जोखिम भरा था कि ज़रा सी चूक हो जाएँ तो पूरा रेडियो स्टेशन अंग्रेजों के कब्जे में आ जाएँ और महत्त्वपूर्ण योजनाएं विफल हो जाएँ | ऐसे समय गुजराती महिला उषा मेहता ने अपनी जान जोखिम में डालकर हेम रेडियो का संचालन करते हुए प्रथम उद्घोषक के रूप में क्रांतिकारी की भूमिका निभाई थी |
अमरीकन साहित्यकार नोर्मन मेलर बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी थे | जो उपन्यासकार, पत्रकार, निबंधकार, नाटककार, फिल्म निर्माता, अभिनेता और राजनीतिक उम्मीदवार थे | उनका पहला उपन्यास 1948 में The Naked and the Dead था, जो द्वितीय विश्व युद्ध में अपनी सैन्य सेवा पर आधारित था | "The White Negro: Superficial Reflections on the Hipster" मूल रूप सेDissent 1957 के अंक में प्रकाशित नॉर्मन मेलर द्वारा एक 9000 शब्दों का निबंध है | उनके द्वारा जीवनी पर आधारित लेखन में पाब्लो पिकासो, मुहम्मद अली, गैरी गिलमोर, ली हार्वे ओसवाल्ड और मर्लिन मुनरो शामिल थे | नोर्मन मेलर का जीवन और प्रतिभा का समन्वय साक्षात्कार पढने वाले को प्रेरक और आकर्षित करने वाला था |
इसलिए मैंने सोचा कि विविध पृष्ठभूमि के तीन महान व्यक्तियों की पहचान गुजराती पाठकों तक पहुंचानी चाहिए | अनुवाद विविध पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद बहुत सारे पत्र मिले थे | जिसमें कईंयों का सुझाव था कि इसे एक किताब का रूप दीजिए और कुछ अन्य विभूतियों को भी जोड़ें | मगर उस वक्त मैं नौकरी के लिए संघर्ष कर रहा था तो संभव नहीं हो पाया और यह तीनों को लेकर किताब बनी ‘सामीप्य’ |
अवनीश सिंह चौहान : नैतिक मूल्यों की वकालत कमोबेश सभी साहित्यकार करते रहे हैं | ऐसे में आप अपनी रचनाओं में मूल्य परक आशयों का प्रस्तुतीकरण कैसे करते हैं?
पंकज त्रिवेदी : मैं आपसे कुछ हद तक सहमत हूँ | मगर नैतिक मूल्यों की वकालत करना और जीना अलग बात है | न केवल साहित्यकारों बल्कि किसी भी प्रकार के मौलिक सृजन से जुड़े हुए लोगों के लिए यह चुनौतीपूर्ण शब्द हैं | असल में उनकी भावुकता और संवेदना भावकों को प्रभावित करती है | ऐसे में दोनों तरफ़ की भावुकता और संवेदनाओं को कहीं न कहीं अनछुए अहसासों से संतृप्ति मिलती है | दूसरी चीज है कि रचनाकार या कलाकार आख़िरकार एक इंसान भी है और इसी समाज में उसे जीना पडता है जो कल्पनाओं से हटकर वास्तविकता की कठोरता दिखाता है और ऐसे में उसे जूझना पडता है अपने विचारों से, समाज के नियमों से और भावनाओं से भी....
मेरी रचनाओं में मानवीय मूल्य और भाव-संवेदन को सहजता से प्रस्तुत होती मेरी अनुभूति है | ‘प्रेम’ के कईं आयाम-अर्थ है | रचनाकार के लिए इस शब्द के इर्दगिर्द रहना स्वाभाविक प्रक्रिया है | आप चाहें इसे करुणा, संवेदना या भावनाएँ ही कह दीजिए | व्यक्ति के माध्यम से व्यक्ति के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति और इरादे बदल जाते हैं | मैंने समाज के दायरे के मद्देनज़र जो जीवन को जिया या समझा है, मैंने जहाँ कहीं से विविध रूप में प्यार और नफ़रत को पाया है उसे ही अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति का स्वरूप दिया है | आमतौर से सभी यही करते हैं | ऐसा भी होगा कि कहीं समाज के ढाँचे को बदलने की ज़रूरत को वर्त्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में परखकर क्रान्ति की आवाज़ भी उठाई होगी | अपने विचार को अभिव्यक्त करने का सभी को अधिकार है मगर अपने विचारों को सकारात्मक सोच के साथ प्रस्तुत करना भी अनिवार्य है | सकारात्मक विचार चिरंजीव रहता है |
अवनीश सिंह चौहान : आपने हिन्दी में काफ़ी कविताएं लिखी हैं | आपका कविता संग्रह - ‘हाँ ! तुम ज़रूर आओगी’ शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है | ये कविता संग्रह नायिका को केंद्र में रखकर रचा गया है | जब कि आपने अन्य विषयों पर भी बखूबी कलम चलाई है | इस संग्रह को पहले प्रकाशित करने की क्या वजह रही ?
पंकज त्रिवेदी : मेरा प्रथम हिन्दी कविता संग्रह ‘हाँ ! तुम जरुर आओगी’ फरवरी 2014 में ही प्रकाशित हो जाएगा | हिन्दी भावकों ने मेरी कविताओं को स्वीकार किया है और हमेशा आग्रह करते रहे हैं कि जल्दी ही आपका कविता संग्रह आना चाहिए | बहुत जल्द दूसरा कविता संग्रह भी मिलेगा | इसके अलावा गुजराती निबंध संग्रह ‘होलो, बुलबुल अने आपणे’ (घू घू, बुलबुल और हम) भी आएगा | और बाद में मेरा हिन्दी कहानी संग्रह भी आपको मिलेगा |
इस कविता संग्रह में सिर्फ नायिका प्रधान कविताएं ही नहीं है | इस कविता संग्रह के बारे में इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री नन्दल हितैषी ने जो लिखा है वो सुनिए – ‘पंकज त्रिवेदी ने अपने इस संग्रह में सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक समीकरणों की खोज की है लेकिन रागात्मक सन्दर्भ ही उनकी केन्द्रीयता रही है | नायिका के प्रति कवि का आकर्षण रचनाओं में निश्चय ही सिर चढ़कर बोलता है | पेड़ पौधे, फूल-पत्तियों पर भी उनकी दृष्टि हैं, वे उनसे भी वार्तालाप करते चलते हैं, उन्हें छूते भी हैं और सहलाते भी हैं, यही वे बिन्दु है, जहाँ रचनाकार की संवेदनाएँ, मनुष्य की थाती बनती है |’
निबंध लिखना जितना आसान दिखता है उतना होता नहीं | वो मेरी प्यारी विधा है | हिन्दी साहित्य लेखन में कविता मेरे पास एक नदी के बहाव सी सहज और तरल रूप में आ गई | निबंध के बारे में मैं अक्सर कहता हूँ कि जो ‘निर्बंध’ है वोही निबंध है | गुजराती साहित्य से हिन्दी साहित्य की यात्रा के दौरान मैंने खुद को एक ‘विहग’ के रूप में महसूस किया, ऐसा लगा कि मेरे लिए खुला आसमान है और मैं अपनी माटी-गाँव-शहर-परिवार से उठकर समष्टि को समदृष्टि से देख रहा हूँ और तब भी मेरे अंतस का तार मेरी ज़मीं से जुडा हुआ होता है | क्यूंकि मैं जानता हूँ–
मिट्टी से वास्ता है पुरखों की विरासत का
उसी मिट्टी से पैदा हुए उसी में दफ़न हूँ मैं
अवनीश सिंह चौहान : क्या गुजराती साहित्य और हिन्दी साहित्य का वैचारिक धरातल एक ही है या उनमें कोई अंतर दिखाई पडता है ?
पंकज त्रिवेदी : अवनीश जी, क्या गुजराती और क्या हिन्दी ? रचनाकार आखिर तो इंसान ही है न? दुनिया के किसी भी कोने में जाएंगे तो धरातल तो एक ही होगा | इंसानियत, धर्म, प्रेम, नफ़रत, ईर्ष्या, प्रकृति, प्राण और हमारे छोटे से स्वार्थ के बीच में व्यक्तिगत सोच | मगर जो सजग साहित्यकार है, परिपक्व है वो अपने धरातल पर रहकर भी विचार से ऊपर उठ सकता है | अगले प्रश्न के जवाब में मैंने कहा है, बिलकुल उसी प्रकार से रचनाकार ‘विहग’ होना चाहिए | मैंने भारत की सभी भाषाओं के वैचारिक धरातल में ज्यादा फर्क महसूस नहीं किया है मगर एक बात स्पष्ट कर दूं कि हमारे देश में जाति, धर्म, रीति-रिवाज़ और संस्कृति के अनुसार जो वैविध्य है उसका सौंदर्य देखते ही बनता है | उसका वर्णन अलग हो सकता है मगर भावनाएँ और संवेदना में कोई अंतर नहीं होता | सभी को देशप्रेम, परिवार, गाँव, खेत-खलिहान से प्यार होता है, वो चाहें गुजरात में हो या बंगाल या कर्नाटका में... | विविधता में एकता की बात हम करते हैं वोही हमारी वास्तविकता है |
अवनीश सिंह चौहान : पंकज जी, मैंने आपको तो सबसे पहले कवि के रूप में देखा | इंटरनेट पर | फेसबुक पर भी आपकी कविताएं ही ज्यादा पोस्ट होती है | किन्तु आपकी अधिकतर पुस्तकें गद्य में हैं | आपको किस विधा में लिखना ज्यादा अच्छा लगता है और किस विधा (और भाषा) की पुस्तकें पढना आपको अधिक प्रिय है? किस पुस्तक को आपने विशेष माना ?
पंकज त्रिवेदी : 1988 से 2010 तक मैंने जो भी सृजन किया वो गुजराती गद्य में ही | मगर 1994 से मैं हिन्दी साहित्य के साथ अनुवाद के माध्यम से सक्रिय हो गया | बीच में कुछ साल हिन्दी में लिख नहीं पाया मगर पिछले चार-पाँच वर्षों से मैं हिन्दी के प्रति पूर्ण समर्पित हो गया हूँ | उसी के फलस्वरूप मेरा निबंध संग्रह ‘झरोखा’ और अब कविता संग्रह आपको मिला है | इंटरनेट-फेसबुक ने आज के समय में जिस तरह से अपनी पैठ जमाई है वो काबिले तारीफ़ है | हम सोच नहीं सकते उतना साहित्य और सन्दर्भ हमें एक पल में मिल जाता है |
मेरे लिए एक गुजराती भाषी होकर हिन्दी साहित्य में प्रवेश करना, वो भी अपने चंद शब्दों की गठरी लिए... मेरी उम्र गुज़र जाएँ तो भी मैं विशेषज्ञों और पाठकों तक नहीं पहुँच सकता था | इंटरनेट और सोशल मिडिया के कारण मेरे लिए यह आसान हो गया | सबसे बड़ी बात तो यह भी है कि अब हर कोई इंटरनेट के माध्यम से कहीं भी पहुँच पाता है मगर आप जिसके बलबूते पर खड़े होना चाहते हैं वो ताकत आपके अंदर कितनी है ? अगर सच में आप अंदर से समृद्ध है तो आपके लिए न भाषा और न प्रांतवाद की अडचनें आएंगी | जब आप कुछ हांसिल करने के लिए आते हैं तो आपको डर रहेगा कि मैं कितना सफल रहूँगा ? मगर आप अपने आनंद के साथ सबको साथ लेकर चलेंगे और किसी प्रकार का लालच नहीं होगा तो दुःख होने की गुंजाईश ही खत्म हो जाएगी |
पहले मुझे निबंध और कहानी लिखना विशेष पसंद था, अब हिन्दी साहित्य में भी कविताएं और निबंध प्रमुख हैं | गद्य लेखन के लिए आपके पास विशेष समय, धैर्य, समझ और चुस्तता होना अति आवश्यक है | मुझे सारी विधाएं प्रिय है मगर किसी भी रचना को शुरू करने से पहले मन की शांति होनी चाहिए | अपने विचारों को गढने की आवश्यकता तब होती है जब आप उस घटना या कथाबीज से आत्म साक्षात्कार नहीं कर पाएं हो | जबतक यह नहीं हो पाता तबतक आपको लिखना भी नहीं चाहिए | अगर पाठक के रूप में रचना और रचनाकार से आप पूर्ण रूप में साक्षात्कार करना चाहते हैं तो उनकी रचनाओं से उनके विचार और उनके व्यक्तित्व की पहचान की जा सकती है | मेरे लिए कोई एक पुस्तक विशेष नहीं है क्यूंकि सभी पुस्तकों ने मुझे कुछ न कुछ देकर समृद्ध किया है | मैं दो-चार बड़े रचनाकारों के नाम देकर अज्ञात रचनाकारों के विशेष प्रदाय को अनदेखा नहीं करना नहीं चाहता | एक छोटा सा विचार या घटना हमें पूरी कहानी लिखने को मजबूर कर दे या किसी का दर्द या प्रेम को महसूस करके हम कविता लिख दें तो हम किसे विशेष योग्यता देंगे? जिस वक्त जो पढने को मिला, हमें अच्छा लगा, उसे स्वीकार किया और दिलोंदिमाग में संजोकर अपने आप रह गया, फिर कहीं न कहीं वो अलग स्वरूप में हमारे लेखन में सहायक की भूमिका निभाएगा |
अवनीश सिंह चौहान : आपका जन्म (11 मार्च 1963) गुजरात के सुरेंद्रनगर के पास खेराली गाँव में हुआ | वर्त्तमान में आप शहर सुरेंद्रनगर में निवास कर रहे हैं | गाँव और शहर के बीच की इस यात्रा को आप किस प्रकार से देखते हैं ? विशेषकर अपने लेखन में ?
पंकज त्रिवेदी : अवनीश जी, मेरा जन्म खेराली गाँव में हुआ, मगर मेरे पिताजी वहाँ से चार किलोमीटर दूर लीमली गाँव के स्कूल के आचार्य थे | मेरा बचपन वहाँ बीता | लीमली से सुरेंद्रनगर शहर में जाते समय मेरे अपने गाँव खेराली से ही गुज़रना पडता था | हमारे गाँव का तालाब इतना सुंदर है कि ऐसा लगे कि यहीं स्वर्ग है | चारों तरफ़ अनगिनत बरगद के पेड़ की शाखा-प्रशाखाएँ फ़ैली हुई है, शायद ही किसी गाँव में ऐसा अदभूत नज़ारा देखने को मिले | आपने गाँव और शहर के बीच की यात्रा का ज़िक्र किया है तो मैं दोनों के बारे में अपनी कविता के माध्यम से ही प्रत्युत्तर दूँगा | कविताओं में शहर और गाँव के जनमानस का प्रतिबिम्ब नज़र आएगा | पहले शहर में रहकर गाँव तक के सन्दर्भ की कविता की अनुभूति ‘आशीर्वाद’ में सुनिए –
खिडकी से आती हुई धूप
मेरे अंदर तक उतर जाती है
और एक नई ताकत के साथ दिन भर की
ऊर्जा भर देती है मुझमें....
किताबों के पन्नों पर खिलती धूप से
काले अक्षर भी सुनहरी बन जाते हैं
मन समृद्धि से भर जाता है
अच्छे विचारों से उभरते शब्द
मेरे अंदर जी रहे इंसान को
आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करते हैं सदा...
यही सुनहरी धूप मेरे गाँव के खेतों में
मिली थी मुझे लहलहाते पौधों को नया जीवन देती
ठंडी हवाओं की झप्पियों में डोलते हुए उन्होंने ही तो
मेरा स्वागत किया था ...
यही धूप
मेरे गाँव के तालाब में पानी पर नृत्य करते हुए
मेरी आँखों को चकाचौंध कर रही थी
मेरे भीतर दिव्य उजास फैलाती हुई
मेरी प्रसन्नता बढ़ाती हुई वही धूप आज भी
मुझ पर बरस रही है
जैसे कि मेरी मेहनतकश माँ का आशीर्वाद हो !
और अब शहर के सन्दर्भ में ‘वृद्धत्त्व’ कविता –
सड़क को पार करते हुए
वृद्ध के कानों से टकराई हुई
गाली आसपास के लोगों ने सुनी
सभी ने वृद्ध की ओर तिरस्कार की
नज़रों से देखा...
एक नौजवान अपनी कार का शीशा
चढ़ाते हुए अब भी गालियाँ बकता हुआ
घूरता हुआ एक्सीलेटर को गुस्से से
दबाता हुआ
भीड़ को चीरता निकल गया
उसकी कार की ठंडक में बदबूदार
गरमाहट फ़ैल गई थी और
सड़क पर चले जाते उस वृद्ध के छूटे
पसीने को हवा के झोके ने ठंडक से
तरोताजा कर दिया और उनके पैर
धीरे-धीरे मज़बूत इरादों से चलने लगे !
अवनीश सिंह चौहान : वर्त्तमान में आप क्या लिख रहे हैं और क्या कुछ लिखने की आपकी योजना है ?
पंकज त्रिवेदी : वर्त्तमान में कुछ कहानियों पर कार्य कर रहा हूँ | अभी भी बहुत कुछ सीखना है, समझना है और लिखना है मुझे | मैंने हमेशा ज़िंदगी की चुनौतियों का स्वीकार किया है और उससे लड़ते हुए अपने कदम आगे बढ़ाएँ है | मगर चाहता हूँ कि चलते-फिरते मेरे कदम रुक जाएं या लिखते-लिखते मेरी कलम थम जाएं |
अवनीश सिंह चौहान : पंकज जी, आपसे बात करते हुए बहुत खुशी हुई | धन्यवाद |
पंकज त्रिवेदी : अवनीश जी, मैं भी बहुत आभारी हूँ | धन्यवाद
संपर्क :
Pankaj Trivedi, Gokul Park Society, 80 Feet Road, Surendranagar- 363002 Gujarat; Mobile: 096625 14007, E-mail: vishwagatha01@gmail.com
बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंप्रतिमा जी, आपका बहुत आभारी हूँ
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