बलवंत |
आचार्य बलवन्त का जन्म 01 सितम्बर 1967 को ग्राम-जूड़ी, पोस्ट- तेन्दू राबर्टसगंज, सोनभद्र-231216 (उ.प्र.) में हुआ। पिता : स्व. अलगू सिंह चौहान एवं माता स्व. सुभागी देवी। शिक्षा: एम.ए., हिंदी। प्रकाशित कृति : आँगन की धूप (काव्य संग्रह - 2013)। संपादन : अहिंसा तीर्थ (त्रैमासिक पत्रिका), आर.सी.बाफना गो-सेवा अनुसंधान केन्द्र, कुसुंबा, जलगांव, महाराष्ट्र (2009 से 2011)। आकाशवाणी बेंगलूर और जलगांव (महाराष्ट्र) से आपकी काव्य रचनाएँ प्रसारित। विभिन्न समाचार पत्रों में भी आपकी कविताएँ और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। सम्पर्क: विभागाध्यक्ष (हिंदी), कमला कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट एण्ड साईंस, 450, ओ.टी.सी.रोड, कॉटनपेट, बेंगलूर-560053, मो. 91-9844558064 ई-मेल : balwant.acharya@gmail.com
बचाओ! बचाओ! की पुकार सुनकर यह समझने में देर नहीं लगी कि पूरब से आनेवाली आवाज़ रामनगीना बाबू के घरवाली की है। लुटेरे लूटपाट में लगे थे, मना करने पर मार-पीट भी रहे थे। रह-रहकर वातावरण के सन्नाटे को चीरती, वही दिल दहला देनेवाली आवाज़ हमारे कानों से टकराकर वातावरण में विलीन हो जाती थी। उस समय हम लोग एक कमरे में बंद थे। नज़र रखने के लिए उनका एक आदमी बन्दूक लिये बाहर खड़ा था।
दो-ढाई घण्टे पहले की बात थी। उस समय रात के बारह बजते रहे होंगे। आँखों में नींद न थी। कुछ देर पहले से ही मैं कमरे के आस-पास लोगों की आवाजाही महसूस कर रहा था। मन किसी अनहोनी आशंका से घबरा रहा था। तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। क्या करूँ, क्या न करूँ की उहापोह में कुछ समझ नहीं सका। पिछले दरवाजे से निकल भागने की बात भी नहीं सूझी उस समय। न चाहते हुए भी जब मैंने दरवाजा खोला, बाहर का दृश्य देखकर अवाक् रह गया। चार बन्दूकधारी मुझे चारों ओर से घेर लिये। एक ने रोबीली आवाज़ में मुझे चुपचाप बगलवाले कमरे में चलने की बात कही। अच्छी तरह याद है, ठीक उसके पहले उसने शोर मचाने पर गोली मार देने की बात भी कही थी। एक ने तो मेरे सीने पर बन्दूक लगा भी दी थी।
बगल के कमरे के अंदर का दृश्य कम चौंकानेवाला न था। पड़ोसी परिवार के सारे सदस्य वहाँ मौजूद थे। परिवार के मुखिया की माँ, बहन, बीवी और वह उनसे गिड़गिड़ा कर अपनी जिन्दगी की भीख माँग रहे थे। मेरे किरायेदार मेवालाल और छविनाथ उकड़ूं बैठे थे। उनके हाथ उनकी पीठ पर बंधे थे। बेचारे कब से यह नारकीय पीड़ा भोग रहे थे, कुछ कह नहीं सकता।
तभी एक आदमी जिसने अपना मुँह मफलर से बाँध रखा था, कमरे में दाखिल हुआ। एक तो पहले से ही वहाँ मौजूद था। तीन-चार बाहर भी रहे होंगे। एक ने दूसरे से कहा, ‘बाहर से लाठी लाओ और सालों को पीटो। मास्टर को मत मारना। पढ़ा-लिखा, समझदार आदमी है, शोर नहीं करेगा। और बुढ़िया, पता चला है कि तू अपनी बहू को बहुत सताती है, चुपचाप रहना-नहीं तो गोली मार दूँगा।’ बुढ़िया ‘नाहीं सरकार, नाही सरकार’ करती हुई अपने निर्दोष होने की सफाई दे रही थी और बच्चों को भी चुप रखे थी।
उनमें से एक ने मेवालाल से पूछा, “कितने रुपये मिलते हैं महीने के?”
“तीन हजार साहब।”
“तीन हजार साले, झूठ बोल रहे हो?”
“नहीं साहब, सही कह रहा हूँ,” मेवालाल ने कहा।
डर के मारे चोर को साहब कहते सुनकर मुझे हँसी आ गयी। “यह सच है कि तीन हजार ही नहीं मिलते होंगे। लेकिन जो मिलते हैं, अभी मिले नहीं हैं शायद। क्योंकि हर महीने की चार-पाँच तारीख को किराये के दो सौ रुपये मुझे भी तो देते हैं, अब तक दिये नहीं हैं,” मैंने कहा। शायद मेरी बात उसे जँची। फिर वह कमरे से बाहर निकल गया अंदरवाले साथी को दरवाजे पर खड़ा रहने की हिदायत देकर।
मेवालाल और छविनाथ बाबू को बहुत देर से पेशाब लगी थी। उनकी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही थी। मैंने उन दोनों के हाथ खोल दिये और लैम्प की लौ मद्धिम कर दी। महिलाएं भी निवृत्त हुईं एक-एक कर। बच्चों ने पेशाब के साथ शौच भी कर दिये थे। दमघोंटू दुर्गंध कमरे भर फैल गयी थी। अब तो सांस लेना भी कठिन हो गया था। प्यास से किसी का गला सूख रहा था तो कोई अपने अन्य साथियों के हालचाल जानने के लिए परेशान था। बच्चे मारे डर के माँ की गोद में दुबके थे। सब सुबह होने का इंतजार कर रहे थे।
दरवाजे पर एक आदमी को छोड़कर अन्य सामने के कृषि कार्यालय में घुस गये। पहले वे ऑफिस के कर्मचारियों को अपने कब्जे में किये। फिर उन्हीं के सहारे डिप्टी डायरेक्टर बेचारे उपाध्याय जी को भी दबोच लिये। अंगद बाबू जो केवल नाम के ही अंगद थे, किसी प्रकार बच निकले और शौचालय में जा छिपे। लुटेरे भी कम शातिर न थे। उन्हें पकड़कर जमीन पर पटक दिये। उनमें से एक बूट पहने उनकी छाती पर चढ़ गया। बेचारा चार सवा चार फीट का एकततिहा आदमी चीखने-चिल्लाने लगा, फिर चुप हो गया। मैनेजर सिंह को भी बुरी तरह मारे-पीटे थे सब।
सन्नाटा अन्दर ही नहीं, बाहर भी पसरा था। उसकी सांय-सांय दूर तक सुनाई दे रही थी। सड़क सूनी थी। रह-रहकर एक-दो गाड़ियाँ आहिस्ता-आहिस्ता सरक रही थीं। जाड़े की रात तो थी ही। पिछले दिन बूंदा-बांदी भी हुई थी। बाहर कुहरा इतना घना था कि पास की चीजें भी नज़र नहीं आती थीं। उसकी बूँदें सड़क के किनारे स्थित शिरीष के पत्तों से टपक रही थीं। वातावरण में नमी इतनी थी कि हवा सांस रोके हुए सी प्रतीत होती थी। फिर बचाओ! बचाओ! की आवाज़। सुबह पता नहीं कब होगी और तब तक क्या होगा? मैं सोचने लगा।
सुबह हुई। किसी ने दरवाजा खोला। हम लोग बाहर आये। रात की बात जंगल की आग की तरह आस-पास के गाँवों तक पहुँच गयी। लोग जुटने लगे। जिले के आला अधिकारियों को वारदात की जानकारी दी गयी। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक राधेश्याम त्रिपाठी दल-बल के साथ कृषि भवन में आ धमके। उनके आते ही क्षेत्राधिकारी राबर्टसगंज भी मौका-ए-वारदात पर उपस्थित हो गये। आस-पास के कई थानों के अधिकारी भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूके। क्षेत्रीय विधायक हरि प्रसाद खरवार उर्फ घमड़ी, (जो कभी दस्यु सरगना के रूप में दहशत के पर्याय थे) ग्राम प्रधान दयाराम व क्षेत्र के अन्य सम्मानित लोग भी उपस्थित हो गये। आम लोगों की भी खासी भीड़ जुट गयी, जो वहाँ हो रहे तमाशे पर तरह-तरह की अटकलें लगा रही थी। सबको लग रहा था कि जिले की पुलिस वारदात में शामिल प्रत्येक व्यक्ति को धर दबोचेगी।
पुलिस ने तहकीकात शुरू की। जिसका जो-जो गया था, हुटुक-हुटुक कर गिनाने लगा। एक एच.एम.टी कोहिनूर घड़ी, जिसे मेरे मित्र हीरालाल कवि ने दिया था, जैकेट और 250 रु. के करीब मेरे भी गये होंगे। पड़ोसी परिवार की स्त्रियों के बड़े-छोटे सारे जेवर और नकदी जो गये थे, बुढ़िया रो-रोकर बता रही थी।
नगीना बाबू के कमरे के बाहर टूटे हुए खाली बॉक्स पड़े थे। उनकी बड़ी बेटी भागमनी उन्हें उठा-उठाकर घर में ले जा रही थी। मझली कहाँ थी, नहीं मालूम पर उनकी छोटी बेटी नीतू अपने पापा के पास गुमसुम खड़ी थी। नगीना बाबू गले पर तौलिया लपेटे इधर-उधर टहल रहे थे। एस.पी. त्रिपाठी डिप्टी डायरेक्टर से औपचारिक पूछताछ में मशगूल थे। कभी-कभी हँसी-मज़ाक भी करते थे। औपचारिकता पूरी कर कड़ी कार्रवाई करने का आश्वासन देकर वापस लौट गये। उनके जाते ही पुलिस के अन्य छोटे-बड़े अधिकारी भी चलते बने।
रात का वह खौंफ़नाक मंज़र दिन में जब भी याद आता रोंगटे खड़े हो जाते थे और मन काँप उठता था। दो दिन पहले तक जिन लोगों की हँसी के ठहाकों से वातावरण सुखद एहसासों से सराबोर हो जाता था, आज उनके चेहरे लटके हुए थे। सब सन्न थे। कोई किसी से बातें नहीं करना चाहता था। दहशत तो इतनी थी कि सूर्यास्त होते ही सब अपने-अपने ठिकानों पर आ जाते थे। सुबह होने से पहले कोई घर से बाहर नहीं निकलता था।
दो दिन हुए थे घटना के। रात साढ़े आठ बजे के करीब नगीना बाबू की दो बेटियाँ मेरे पास आयीं और बोलीं- हमारे पापा पागल हो गये हैं, हम लोगों को मार पीट रहे हैं, मम्मी आपको बुलाई है। जल्दी चलिए। बिना कुछ सोचे-विचारे मैं उनके साथ ही चल पड़ा। इस बात की जानकारी मैंने डिप्टी डायरेक्टर को भी दे दी। उन्होंने कार्यालय के अन्य कर्मचारियों के ऊपर नगीना बाबू के देख-भाल की जिम्मेदारी सौंपने के लिए उस कमरे के सामने जाकर आवाज़ देने लगे, जिसके अंदर दसों लोग रहे होंगे। लेकिन न तो किसी की आवाज़ आयी न तो कोई बाहर निकला।
‘साले! चूड़ियाँ पहन लो’ कहते हुए उपाध्याय जी नगीना बाबू के कमरे की तरफ लौट आये। मेरे पहुँचने से पहले ही नगीना बाबू को पकड़कर उनके हाथ-पैर उन्होंने बाँध दिये थे। उन्होंने मेरे साथ अपने एक चपरासी को लगा दिया। मैंने देखा कि नगीना बाबू एक कमरे में बंद थे और गमछे से बंधे हाथों की गांठें दाँतों से खोल रहे थे। कभी चीखते-चिल्लाते तो कभी अपना सिर पटकने लगते थे। गालियाँ भी देते थे खूब। मुझे मालूम था कि उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। उस रात जो हुआ, उससे इतना क्षुब्ध हो गये कि खिड़की के शीशे में सिर घुसेड़ दिये। गले पर तो केवल खरोंचें आयीं लेकिन चेहरा बुरी तरह विदीर्ण हो गया। सूजन भी खूब थी। चोट आँखों पर भी आयी थी। गालियाँ बकते समय इतने भयावने लगते थे कि मत पूछिये। हम दोनों का काम इतना भर था कि रात भर किसी तरह उनको घर में रोके रहें।
आधी रात के करीब क्षेत्राधिकारी राबर्टसगंज चार पुलिस कर्मियों के साथ सीधे नगीना बाबू के आवास पर आ पहुँचा। उसने सबसे पहले मेरा नाम, काम और रात के बारह बजे वहाँ होने का कारण पूछा। जाते समय वह मुझे अगले दिन दस बजे कोतवाली आने का भी हुक्म दे गया। मुझसे अकेले में पूछताछ जो करनी थी। लगता है पुलिस की तफ्सीस में लोगों ने बताया होगा कि मास्टर जी को छोड़कर लुटेरों ने सबको पीटा था। कोतवाल का व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगा। उसके लहज़े में एक धमकी थी। ‘बहुत लम्बा-चौड़ा कुर्ता-पाजामा पहने हो मास्टर। कल कोतवाली में आ जाना दस बजे’ सुनकर मैं सन्न रह गया था।
अगले दिन दस बजने से पहले ही दो कांस्टेबल मुझे लेने आ पहुँचे। उनके साथ जब मैं कोतवाली पहुँचा, उस समय ग्यारह बजते रहे होंगे। क्षेत्राधिकारी बाहर धूप में चारपाई पर बैठा था। उसकी बायीं ओर की कुर्सी पर एक नेता टाइप का आदमी बैठा था। सामनेवाली कुर्सी खाली थी। मैं उस पर बैठा ही था कि क्षेत्राधिकारी उठ गया और मुझे लेकर वहाँ से कुछ दूरी पर आ गया। फिर बोला- मास्टर साहब ! आपकी भलाई इसी में है कि मैं जो पूछूँगा सही-सही बताइयेगा।
“ठीक है सर,” मैंने कहा।
“वो कितने आदमी थे।”
“जी, चार लोग।”
“किसी को पहचानते हैं उनमें से?”
“जी नहीं।”
“क्यों?”
“सबके मुँह कपड़े से ढके थे साहब।”
“उनकी बातचीत से कोई अनुमान?”
“जी नहीं, मैंने कहा।”
“बातचीत की भाषा क्या थी उनकी?”
“हिंदी।”
“पढ़े-लिखे लग रहे थे?”
“जी, शुद्ध हिंदी बोल रहे थे।”
“क्या वो आदमी था?”
“जी नहीं।”
“क्यों?”
“इसलिए कि उसके तीन बच्चे मेरे स्कूल में पढ़ते हैं। वो ऐसा नहीं कर सकता।”
“ठीक है, अब आप जा सकते हैं, ज़रूरत पड़ेगी तो बुला लूँगा।”
लोग डरे सहमे थे। घटना के एक सप्ताह के भीतर ही उपनिदेशक कृषि प्रसार कार्यालय पी.ए.सी. की एक छोटी छावनी में तब्दील हो गया। जिधर देखिए, उधर पी.ए.सी. के ही जवान नज़र आते थे। खाने-पीने और सोने के सिवाय दिन में कोई दूसरा काम न था उनको। ऑफिस के सामने उनकी बस हमेशा खड़ी रहती थी। सुबह-शाम एक दो बार साग-सब्जी और राशन आदि के लिए सड़क पर भी नज़र आ जाती थी।
कृषि कार्यालय के कर्मचारियों ने भी मामले को तूल देना उचित नहीं समझा। सब शांत हो गये।
नगीना बाबू की तबीयत दिन पर दिन बिगड़ती ही जा रही थी। बच्चे विद्यालय जाना बन्द कर दिये थे। पत्नी परेशान थी। समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, क्या न करे। नगीना बाबू को सम्भालना उसके वश की बात न थी। विभागीय लोगों ने उनकी मानसिक चिकित्सा कराने का मन बनाया। किसी प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें मानसिक चिकित्सालय वाराणसी ले जाया गया।
लम्बे समय तक दवा चली। चेहरे के घाव तो भर गये, लेकिन उनके दिल पर जो चोट लगी थी, उसके निशान अभी भी उनके स्मृति पटल पर विद्यमान थे। आश्चर्य इस बात का था कि इतनी भयावह वारदात के बाद भी संबंधित थाने में एफ.आई.आर तक दर्ज न हो सकी। उसके बाद एक-एक कर चोरी की कई घटनाएँ घटीं, लेकिन पुलिस की उदासीनता और उसके गैर जिम्मेदाराना रवैये से किसी की हिम्मत नहीं हुई कि थाने जाकर अपनी बात कह सके।
Balwant, H.O.D., Hindi
kahani to thik hai saheb par adrura sa lag raha hai.
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