चन्द्र प्रकाश पाण्डे |
आज जब तमाम साहित्यकार अपना ढोल अपने आप पीटने में लगे हुए हैं, ऐसे में बहुत कम साहित्यकार साहित्यकार लगते हैं। इन मुट्ठी भर विशुद्ध साहित्यकारों की सूची में एक नाम और जोड़ा जा सकता है - वरिष्ठ कवि चन्द्र प्रकाश पांडे। पांडे जी का जन्म 6 अगस्त 1943 को लालगंज, रायबरेली में हुआ, यह वही लालगंज है जहाँ डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया और दिनेश सिंह जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकारों की पहचान बनी। शिक्षा: एम ए, विशारद (वै) साहित्य रत्न। प्रकाशित कृतियाँ : बैसवाड़ी के नए गीत, मुट्ठी भर कलरव (नवगीत संग्रह), आँखों के क्षेत्रफल में (ग़ज़ल संग्रह), राम के वशंज (बाल कथाएं)। सम्मान : आकाशवाणी हरिद्वार एवं कोलकाता, राष्ट्र निर्माण सेवा समिति, अहमदाबाद आदि द्वारा सम्मानित। संपर्क : लालगंज, रायबरेली, उ. प्र., मोब - 09621166955।
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
शाम हुई तो बुद्धू लौटा
खाली हाथों घर
हारे हुये
जुंवारी जैसा
पस्त-हाल दीखे
परत-परत
मन में चिन्तायें
बालों में लीखें
पांव पराये से
लगते हैं
कंपते डगर-डगर
भूल गया
सुरती में चूना
बीड़ी का बण्डल
दम बेदम है
चलता जैसे
कदम तले दलदल
घर की दूरी
खिंची रबड़ सी
कई किलोमीटर।
2. सूरज नहीं उगा
अभी सूरज नहीं उगा
गया नहीं कोहरा
बच्चे मगर
कचरे में
ढूँढते रोटियाँ
हीरे-मोती
जैसे बिनते
पालीथिन दफ्तियाँ
अभी सूरज नहीं उगा
करियापन ठहरा
वर्षों गये
क्या कुछ किया
इनके लिये कुछ बात की,
बैठी कभी संसद सही
इनके लिये
सवालात की।
अभी सूरज नहीं उगा
धुंध जड़ा पहरा।
3. बच्चे कहेंगे
कल सुबह
बच्चे कहेंगे
फीस दो स्कूल की
जिस सतह पर
मैं खड़ा हूँ
वह खिसकता जा रहा
एक धोखा
दे रहा हूँ
एक धोखा खा रहा
मै मुकाबिल था
हवा के
यह बड़ी सी भूल की
काँच के घर में
छिपूँ क्या
मैं तमाशा बन गया
आँख से
अपनी ही आखिर
खुद ब खुद
मैं गिर गया
विषमतायें हमेशा
बेतरह अनुकूल कीं
4. अब अफसर है
कल बेटा था
अब अफसर है
इतना ही तो
रिश्ता भर है
वही मिरजई
पंचा मेरा
उस पर खाकी का
रंग गहरा
बेशुमार
गिरते सलाम हैं
रौबदाब सबके ऊपर है
हमको हाँ में
हाँ कहना है
आखिर
पानी में रहना है
नशा ओहदे का
है तारी
साहब से सरकारी डर है
जब बोले
क़ानून बोलता
सबको
बारह बाँट तोलता
निबह जाये बस
अपने लिये
यही आदर है।
5. चिडि़या घर
मुटठी भर
कलरव समेट कर
मौन हो गया
चिडि़या घर
चित्रों सी
शान्त भूमिकायें
वेताल की कथायें
कटी हुईं जीभें
लाचार
कितना भी
पंख फड़फड़ायें,
चुटकी भर
दर्द फेंट कर
मौन हो गया
चिडि़या घर
दृश्य हर तरफ फफूँदिये
क्या जिया शहर
न पूछिये
तार घिरे
बाड़ों के बीच
कैसे भी
श्वास तोलिये,
पुटकी भर
प्रश्न टेंट कर
मौन हो गया
चिडि़या घर।
6. रधिया
छोटे-छोटे हाँथों
रधिया
बासन माँज रही
छोड़ गई माई फिर बापू
एक भाई देकर
दिन भर काम
पसीना दाँतों
देह हुयी थ्रेशर,
खुली सिलाई
टूटी बटनें
रधिया टांक रही
भौजाई ले आई घर में
अपनी फिकर नहीं
खुद के कद में
हुई कटौती
तो भी नुकुर नहीं,
आपस की
खटटी-खोटी सब
रधिया पाट रही
कैसे
कितनी मरी खपी है
जिकर कभी ना की
छोड़ गई घर
छिन में अपना
रहा न कुछ बाकी,
मन का मैल
बड़े धैर्य से
रधिया छाँट रही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: