नई दिल्ली: आज दिनांक 28 मार्च 2014 को स्कूल ऑफ इंटरनेशनल, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के कमेटी रूम नं 203 में ‘हाशिये उलांघती औरत’ के पांच खंडों तेलुगु, प्रवासी, पंजाबी मराठी और गुजराती का लोकार्पण तथा संगोष्ठी सम्पन्न हुई। यह कार्यक्रम तीन सत्रों में सम्पन्न हुआ। बाकी के दो सत्र कल दिनांक 29 मार्च को हुए।
जे.एन.यू. के उपकुलपति प्रो. एस.के सोपोरी, नया ज्ञानोदय के संपादक लीलाधर मंडलोई, राजेंद्र उपाध्याय तथा तेलुगु लेखिका जे. भाग्यलक्ष्मी के हाथों इन पांच भाषा खंडों एवं वासवी किड़ो की पुस्तक ‘‘भारत की क्रांतिकारी आदिवासी वीरांगनाएं‘‘ तथा राजकुमार कुम्बज के कविता संकलन ‘दृश्य एक घर है’ का लोकार्पण हुआ। प्रो. सोपोरी ने अपने वक्तव्य में कहा कि ‘‘शायद ही पहले ऐसा हुआ हो कि एक साथ पांच-पांच भाषाओं के अलग-अलग खंडों का लोकार्पण हुआ हो। यह एक बहुत बडा काम है। उन्होंने खुद भी इस रमणिका फाउंडेशन के अभियान में शामिल होने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने कहा कि रमणिका फाउंडेशन ने 40 भाषाओं की स्त्री मुक्ति पर आधारित कहानियों का अनुवाद हिंदी में करके इस विश्वास को सिद्ध किया है कि भाषाएं जोड़ती हैं और विभिन्न संस्कृतियों के बीच संवाद कायम करती हैं। तेलुगु लेखिका भाग्यलक्ष्मी ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह एक बहुत बड़ा काम है और बहुत गंभीर मुद्दा है। जिसे रमणिका फाउंडेशन ने उठाया है। उन्होंने कहा कि साहित्य अकादमी 24 भाषाओँ तक ही सीमित है और छिटपुट कुछ अन्य भाषाएं लेती है। लेकिन रमणिका फाउंडेशन ने अपना दायरा 40 भाषाओं तक बढ़ाया है। इतने बड़े अनुवाद का कार्य फाउंडेशन ने किया है। फाउंडेशन की अध्यक्ष रमणिका गुप्ता ने इस पूरे ऋंखला की योजना तथा संपादकीय अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि स्त्री-मुक्ति की अवधारणा और उसके इतिहास को लेकर एक विशेष शोधपरक कार्य है। उन्होंने कुलपति के समक्ष अंग्रेजों की खिलाफत की जिस वीर नंगवा को फांसी की सजा़ दी गई थी, के नाम पर जे.एन.यू. में प्रस्तावित पूर्वोत्तर भाषाओं के केन्द्र का नामकरण करने का प्रस्ताव भी रखा। जिस पर कुलपति ने लिखित प्रस्ताव मांगा और इसपर विचार करने का आश्वासन दिया।’’
उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष लीलाधर मंडलोई ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि ‘‘रमणिका जी ने भाषा को बचाने की कार्रवाई की है। यह खंड एक तरह से आरकाइवल वर्क है।’’ उन्होंने पंजाबी खण्ड की कहानियों पर विस्तार से चर्चा की। तेलुगु खंड के संपादक मंडल में शामिल जे.एल. रेड्डी ने तेलुगु भाषा में चलम द्वारा चलाए गए स्त्री आंदोलन तथा तेलुगु खंड की कई कहानियों का उल्लेख किया और तेलुगु लेखन में मुक्ति की अवधारणा एवं मुस्लिम लेखिकाओं में आई चेतना से अवगत कराया। राजेन्द्र उपाध्याय ने अपने आलेख पाठ के माध्यम से कहा कि रमणिका जी ने ‘‘गागर में सागर भर दिया है।’’ डॉ. अर्चना वर्मा ने इस अभियान के अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि ‘‘स्त्री को केवल शरीर और शरीर को केवल काम वस्तु नहीं समझा जाना चाहिए। पुरुष की मुक्ति, स्त्री की मुक्ति में ही है।
‘‘दूसरा सत्र प्रवासी अंक पर केंद्रित था। इस सत्र में प्रवासी लेखिका उषा वर्मा तथा स्वाति सरोज ने अपने विचारों को व्यक्त किया तथा प्रवासी अनुभवों को साझा किया।’’
इस सत्र के अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रोफेसर मैनेजर पांडेय ने कहा कि सबसे पहले यह तय किया जाये कि प्रवासी किसे माना जाए? ‘‘उन्होंने यह भी कहा कि स्त्री-मुक्ति की धारणा और चेतना को व्यापक बनाने की जरूरत है। शरीर का मुक्त होना काफी नहीं मन की मुक्ति की बात भी होनी चाहिए।’’
कार्यक्रम के तीसरे सत्र में पंजाबी अंक की संपादक जसविंदर कौर बिन्द्रा ने अपने अनुभवों को साझा किया। रूपा सिंह ने आलेख पाठ किया। विशिष्ट वक्ता गीताश्री ने पंजाबी समाज के बारे में जानकारी दी और कहा कि भ्रम फैलाया जाता है कि पंजाबी स्त्रियां बहुत मुक्त और आजाद हैं। यह भी पुरुषों द्वारा फैलाया गया भ्रम है। वहीं सबसे ज्यादा अत्याचार होता है औरर औरतों की खरीद बिक्री तथा दहेज हत्याएं होती हैं। कुछ उल्लेखनीय कहानियों पर चर्चा भी की। सत्र के मुख्य अतिथि मंजीत सिंह ने रमणिका फाउंडेशन की अध्यक्ष रमणिका गुप्ता को इस काम के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि ‘‘रमणिका जी ने हाशिए उलांघती औरत की इमेज को हिंदी भाषा में अनुवाद कराकर बड़ा काम किया है।“
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए, प्रो. सलिल मिश्र ने कहा, ‘‘इस खण्डों का इतिहास से बहुत बड़ा संबंध है। यह सभी खण्ड आने वाली पीढि़यों के लिए एक दस्तावेज़ का काम करेंगे।’’
चौथे सत्र में मैत्रेयी पुष्पा ने अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहा कि इससे पहले हिन्दी के तीन खंडों में महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानियां पढ़ भी नहीं पाती अगर रमणिका जी ये खंड लेकर नहीं आती। इन पांच खंडों में चार आयु वर्ग में विभाजित कहानियां पढ़ने को मिलेंगी।
मराठी खंड की सम्पादक भारती गोरे ने कहा कि यौन -शुचिता और देह की बात बार-बार हो रही है, जबकि देह हमेशा दोयम वस्तु रही है। पहला वार देह ही सहती है पर केवल देह की बात करना, स्त्री को देह मात्र तक सीमित करने जैसा है। उन्होंने कहा कि अन्य प्रादेशिक भाषाओं की तुलना में मराठी कहानी बहुत आगे निकल चुकी है। इन कहानियों में स्त्री ने अपनी भाषा तथा अपने पात्र गढ़े हैं।“
गुजराती खण्ड की सम्पादक एवं अनुवादक प्रज्ञा शुक्ल ने कहा कि गुजरात में स्त्री-मुक्ति की अवधारण बहुत धीमी गति से चली है।
पांचवें सत्र में गंगा प्रसाद मीणा ने रमणिका फाउंडेशन की कार्ययोजना तथा विभिन्न भाषाओं के खण्डों पर रोशनी डाली।
एन.डी.टी.वी. के निदेशक प्रियदर्शन ने कहा कि ”आज की स्त्रियां बदल गई है। वह अंधेरे में भी कैमरा थामे जिंदगी और मौत से जूझती हुई अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। रमणिका फाउंडेशन ने यह बहुत बड़ा काम किया है दूसरी भाषाओं की कहानियों का हिन्दी में अनुवाद करवा कर उन्होंने देश को जोड़ा है।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में अशोक वाजपेयी ने कहा कि लोकतंत्र में पहली बार लिखा जाने वाला साहित्य है। जिन्होंने सदियों के बाद अपनी चुप्पी तोड़ी है वह स्त्री बता रही है उसके साथ कैसा व्यवहार हो रहा है। उन्होंने कहा कि आज की स्त्री रचनाकारों को अपनी ही लेखिकाओं से नारी-मुक्ति से सबक लेना चाहिए। मुक्ति के संदर्भ में अशोक वाजपेयी ने कहा कि पुरुषों की मुक्ति भी स्त्री की मुक्ति पर निर्भर है।
पहले सत्र का संचालन इस आयोजन के स्वागताध्यक्ष अजय नावरिया, दूसरे सत्र का ममता किरन, तीसरे सत्र का स्वाति श्वेता, चौथे सत्र का अनिता भारती तथा पांचवे सत्र का संचालन नितीशा खलख़ो ने किया। कार्यक्रम के आयोजन को सफल बनाने में भरत तिवरी और देवेन्द्र गौतम ने महत्वपूर्ण सहयोग दिया। रमणिका फाउंडेशन के कार्यकारी अध्यक्ष जोसेफ बारा तथा फाउंडेशन के ट्रस्टी पंकज शर्मा ने धन्यवाद ज्ञापन दिया। इस अवसर पर लेखक, बुद्धिजीवी और भारी संख्या में विद्यार्थी उपस्थित थे।
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