हिंदी गीत के विशिष्ट रचनाकार ब्रजनाथ श्रीवास्तव जी का जन्म 15 अप्रैल 1953 को ग्राम भैनगाँव, जनपद हरदोई (उ.प्र.) में हुआ। शिक्षा : एम.ए. (भूगोल)। प्रकाशित कृतियाँ : दस्तखत पलाश के, रथ इधर मोड़िये (दोनों नवगीत संग्रह)। स्नातकोत्तर कक्षाओं हेतु भी आपने तीन पुस्तकें लिखीं हैं - व्यावहारिक भूगोल, उत्तरी अमेरिका का भूगोल, जलवायु विज्ञान। देश के अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत, नवगीत, दोहे आदि प्रकाशित हो चुके हैं। सम्प्रति : भारतीय रिजर्व बैंक के प्रबन्धक पद से सेवानिवृत्त। सम्पर्क : 21 चाणक्यपुरी, ई-श्याम नगर, न्यू. पी. ए. सी. लाइंस, कानपुर - 208015, मोबाईल : 09450326930 / 09795111907, ई-मेल : sribnath@gmail.com
1. बुधई
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
बोलो-
बुधई की घरवाली
भूखे बच्चों को
कब तक डाटें
तुमने-
सावन के दर्पन में
प्रतिबिम्ब निहारा
चूमा चाटा
लेकिन-
बुधई के पीपे में
आज नहीं है
रत्ती भर आटा
बोलो-
बुधई के बच्चे, इन
काली रातों को
कैसे काटें
तुमने-
ढाली है गिलास में
ऊष्मायी हाला
सिप खूब लिया
लगता-
बुधई की ऑतों का
तपता-तपता ही
सब खून पिया
बोलो-
बुधई अब अपना दुख
ऎसे लोगों मे
कैसे बॉटे
तुमने-
ए.सी. के कमरों में
कितनी ही अच्छी
नीदें सोयीं
लेकिन-
बुधई की ऑखें तो
पॉलीथीन तले
कितना रोयी
बोलो-
बुधई उस दरार को
फटी मोमिया की
कैसे पाटे।
2. जेठ का महीना
दहक उठे पलाश वन
जल उठी दिशाएँ
सूरज को लादे सिर
घूमती हवाएँ
प्यास जिये पर्वत के
माथ पर पसीना
ढूढ रहा छाया को
जेठ का महीना
लिपटी हैं पैरों में
कृश नदी व्यथाएँ
छाया मे दुबक रहे
शशक, नकुल ब्याली
थके हुए पशुकुल की
चल रही जुगाली
बाज सुआ बॉच रहे
वैदिकी ऋचाएँ
कामिनिया बॉध रही
वट तरु मे धागे
सावित्री बनकर के
वर यम से मांगे
पोर-पोर गुंथी हुई
पर्व की कथाएँ।
3. गंगोत्री निर्मल
ये महकते
पारदर्शी हैं यहॉ के जल
चीड़ वन सुरभित हवाएँ
पत्थरों के घर
देख छवियाँ ये विदेशी
खुश हुए जी भर
घाट पर हम-
तुम बहे गंगोत्री निर्मल
लोकहित करने
मचल छोड़ा पिता का घर
मौन साधे रह गया बस
देखता गिरिवर
और फैलाया
समुन्दर तक भरा ऑचल
दाहिने मन्दिर
मुखर है आरती की धुन
गा रहा जल देवता के
भक्तकुल सदगुन
भर रहे गंगा-
जली में भक्त गंगाजल।
4. घुंघुरू बाजे पॉव के
कैसे हैं अब
हाल-चाल प्रिय
बन्धु आपके गॉव के
अखबारो में
छपा, पढा था
खेला गया महाभारत
आयी टीम
राजधानी से
लेकर लम्बी सी गारद
कैसे हैं अब
हाल-चाल प्रिय
बन्धु आपके गॉव के
अखबारो में
छपा, पढा था
खेला गया महाभारत
आयी टीम
राजधानी से
लेकर लम्बी सी गारद
नाच रही थी.
शोख कलायें
घुंघुरू बाजे पॉव के
खूब चली
जी भर छका सभी ने
लगे नाचने मिलकर
अपने मंतर
अपने सुर मे
सब लगे हॉकने डटकर
जान बचाकर
लोग भगे थे
अपने-अपने ठॉव के
नौकरशाही
तो नौकर है
करती भी तो क्या करती
लोकराज के
नंग-नाच में
फूँक-फूँक कर पग धरती
दोनो ओर
पॉव लटके हैं
राजा, परजा नाव के।
5. मेरी किताब था
ऑगन में
जो खड़ा हुआ था
बूढा पेड़ ढहा
घर भर ने दुख सहा
यह पेड़ नही था,
घर था
दरवाजे, छानी, छप्पर था
धूप न लगेगी
कभी इस घर को
ताने वितान सिर पर था
मिलकर रहना
सभी प्यार से
कितनी बार कहा
सच मानो
यह अम्मा और पिता था¸
अपना भाई था
मेरा वेदमंत्र,
मेरी किताब था
गुरू, पढाई था
बांटी छॉव
उमर भर उसने
मेरा हाथ गहा
सब रोगों की
एक दवा
था घर भर का रोटी-पानी
सांस-सांस में
घुली हवा
था जीवन की खुली कहानी
सदा आंधियों
उत्सव में
वह मेरे साथ रहा।
6. अखबार
सुबह-सुबह ही
हाल-चाल सब
बता गया अखबार
उजले चेहरों द्वारा
छाया का रेप हुआ
दूरभाष अनचाहे
लोगों का टेप हुआ
धर्म-जाति की
गणना में ही
मस्त हुआ दरबार
पेन्शन की दौड़ धूप में
बुधिया वृद्ध हुई
बढता बोझ करों का
सरकारें गिद्ध हुई
अनशन करते
लोग झेलते
मँहगाई की मार
मरा दिखाकर घर से
बेदखल हुआ होरी
लखपति के घर डाका
लिखी रपट में चोरी
पँचतारे में
चुस्की लेकर
ढूढ रहे उपचार
लोकवित्त को लीले
बड़े-बड़े घोटाले
क्लीन चिटों की मानद
बॉट रहे रखवाले
जोड़-तोड़ के
करतब से कब
मुक्त हुई सरकार।
7. मेघ तुम
मेघ !
हमने सुना था
तुम पुष्करावर्तक
सजल मन
उच्च कुल के
रामगिरि से
यक्षगृह तक
बन्धु बरसोगे बराबर
प्यास भर
पानी पियेंगे
मोर, नदिया, खेत, सागर
किंतु
भाई-भतीजों के सिवा
तुम बरसे कहॉ पर
कभी खुल के
नर्मदा
प्यासी पड़ी नत
विन्ध्यपद सकुची अभी भी
आम, जामुन
तक नही मुक्ता लड़ी
पहुँची अभी भी
किंतु
तजकर बोझ मन का
हो न पाये तुम
अभी भी यार हलके
नभ अटारी
यक्षबाला
ही तुम्हारे अभिप्रेत हैं
है फसल सूखी
खेत-बंजर
जन विकल अनिकेत हैं
याद आया
इन्द्र जैसे
पल जिये तुमने बराबर
कपट छल के।
Hindi Poems of Brajnath Srivastava on www.poorvabhas.in
शोख कलायें
घुंघुरू बाजे पॉव के
खूब चली
जी भर छका सभी ने
लगे नाचने मिलकर
अपने मंतर
अपने सुर मे
सब लगे हॉकने डटकर
जान बचाकर
लोग भगे थे
अपने-अपने ठॉव के
नौकरशाही
तो नौकर है
करती भी तो क्या करती
लोकराज के
नंग-नाच में
फूँक-फूँक कर पग धरती
दोनो ओर
पॉव लटके हैं
राजा, परजा नाव के।
5. मेरी किताब था
ऑगन में
जो खड़ा हुआ था
बूढा पेड़ ढहा
घर भर ने दुख सहा
यह पेड़ नही था,
घर था
दरवाजे, छानी, छप्पर था
धूप न लगेगी
कभी इस घर को
ताने वितान सिर पर था
मिलकर रहना
सभी प्यार से
कितनी बार कहा
सच मानो
यह अम्मा और पिता था¸
अपना भाई था
मेरा वेदमंत्र,
मेरी किताब था
गुरू, पढाई था
बांटी छॉव
उमर भर उसने
मेरा हाथ गहा
सब रोगों की
एक दवा
था घर भर का रोटी-पानी
सांस-सांस में
घुली हवा
था जीवन की खुली कहानी
सदा आंधियों
उत्सव में
वह मेरे साथ रहा।
6. अखबार
सुबह-सुबह ही
हाल-चाल सब
बता गया अखबार
उजले चेहरों द्वारा
छाया का रेप हुआ
दूरभाष अनचाहे
लोगों का टेप हुआ
धर्म-जाति की
गणना में ही
मस्त हुआ दरबार
पेन्शन की दौड़ धूप में
बुधिया वृद्ध हुई
बढता बोझ करों का
सरकारें गिद्ध हुई
अनशन करते
लोग झेलते
मँहगाई की मार
मरा दिखाकर घर से
बेदखल हुआ होरी
लखपति के घर डाका
लिखी रपट में चोरी
पँचतारे में
चुस्की लेकर
ढूढ रहे उपचार
लोकवित्त को लीले
बड़े-बड़े घोटाले
क्लीन चिटों की मानद
बॉट रहे रखवाले
जोड़-तोड़ के
करतब से कब
मुक्त हुई सरकार।
7. मेघ तुम
मेघ !
हमने सुना था
तुम पुष्करावर्तक
सजल मन
उच्च कुल के
रामगिरि से
यक्षगृह तक
बन्धु बरसोगे बराबर
प्यास भर
पानी पियेंगे
मोर, नदिया, खेत, सागर
किंतु
भाई-भतीजों के सिवा
तुम बरसे कहॉ पर
कभी खुल के
नर्मदा
प्यासी पड़ी नत
विन्ध्यपद सकुची अभी भी
आम, जामुन
तक नही मुक्ता लड़ी
पहुँची अभी भी
किंतु
तजकर बोझ मन का
हो न पाये तुम
अभी भी यार हलके
नभ अटारी
यक्षबाला
ही तुम्हारे अभिप्रेत हैं
है फसल सूखी
खेत-बंजर
जन विकल अनिकेत हैं
याद आया
इन्द्र जैसे
पल जिये तुमने बराबर
कपट छल के।
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अच्छे नवगीत हैं।
जवाब देंहटाएंकृषि कर्म के अनुकूल जलवायु के कारण भारत कभी कृषि प्रधान देश रहा था । जलवायु तो वहीँ रही किन्तु प्रधानता नहीं रही । ऐसे देश के नौनिहाल यदि कुपोषित है तो इसका अर्थ हैं यह पोषण, भ्रष्टाचार एवं भोग विलासिता के उदर में पूजित हो रहा है.....
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जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव विचारणीय और सराहनीय रचना सप्त धनुष के रंग एक से बढ़ एक
भ्रमर ५
sundar abhivyakti
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