वीरेंद्र आस्तिक |
कानपुर (उ.प्र.) जनपद के गाँव रूरवाहार (अकबरपुर तहसील) में 15 जुलाई 1947 को जन्मे मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं सम्पादक श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक जी बाल्यकाल से ही अन्वेषी, कल्पनाशील, आत्मविश्वासी, स्वावलंबी, विचारशील, कलात्मक एवं रचनात्मक रहे हैं। बाल्यकाल में मेधावी एवं लगनशील होने पर भी न तो उनकी शिक्षा-दीक्षा ही ठीक से हो सकी और न ही विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत और गायन में वह आगे बढ़ सके। जैसे-तैसे 1962 में हाईस्कूल की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और एक-दो वर्ष संघर्ष करने के बाद 1964 में देशसेवा के लिए भारतीय वायु सेना में भर्ती हो गये। पढ़ना-लिखना चलता रहा और छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में वीरेंद्र बाबू और वीरेंद्र ठाकुर के नामों से छपना भी प्रारम्भ हो गया। आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। उन दिनों आस्तिक जी दिल्ली में रहा करते थे। दिल्ली में नई कविता का दौर चल रहा था, सो उन्होंने यहाँ नई कविता और गीत साथ-साथ लिखे।
1974 में भारतीय वायु सेना छोड़ने के बाद वह कानपुर आ गए और भारत संचार निगम लि. को अपनी सेवाएँ देने लगे। कानपुर में छंदबद्ध कविता की लहर थी। इस नये माहौल का उनके मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह गीत के साथ ग़ज़लें भी लिखने लगे। 1980 में आ. रामस्वरूप सिन्दूर जी ने एक स्मारिका प्रकाशित की, जिसमें — 'वीरेंद्र आस्तिक के पच्चीस गीत' प्रकाशित हुए। उनकी प्रथम कृति— 'परछाईं के पांव' (गीत-ग़ज़ल संग्रह) 1982 में प्रकाशित हुई। 1984 में उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय, कानपुर से एम.ए. (हिंदी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1987 में उनकी पुस्तक— 'आनंद! तेरी हार है' (गीत-नवगीत संग्रह) प्रकाशित हुई। उसके बाद 'तारीखों के हस्ताक्षर' (राष्ट्रीय त्रासदी के गीत, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से अनुदान प्राप्त, 1992), 'धार पर हम' (1998, बड़ौदा विश्वविद्यालय में एम.ए. पाठ्यक्रम में निर्धारण : 1999-2005), 'आकाश तो जीने नहीं देता' (नवगीत संग्रह 2002), 'धार पर हम- दो' (2010, नवगीत-विमर्श एवं नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर) एवं 'दिन क्या बुरे थे!' (नवगीत संग्रह 2012) का प्रकाशन हुआ। इसी दौरान सितम्बर 2013 में भोपाल के जाने-माने गीतकवि एवं सम्पादक आ. राम अधीर जी ने 'संकल्प रथ' पत्रिका का महत्वपूर्ण विशेषांक— 'वीरेन्द्र आस्तिक पर एकाग्र' प्रकाशित किया।
आस्तिक जी को साहित्य संगम (कानपुर, उत्तर प्रदेश) द्वारा 'रजत पदक' एवं 'गीतमणि- 1985' की उपाधि— 17 मई 1986, श्री अध्यात्म विद्यापीठ (नैमिषारण्य, सीतापुर) के 75 वें अधिवेशन पर काव्य पाठ हेतु 'प्रशस्ति पत्र'— फरवरी 1987, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच (मुरादाबाद) द्वारा 'अलंकार सम्मान'— 2012, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (लखनऊ) द्वारा 'सर्जना पुरस्कार'— 2012, निमित्त साहित्यिक संस्था (कानपुर) द्वारा 'अलंकरण सम्मान'— 2013 आदि से अलंकृत किया जा चुका है।
संपादन के साथ लेखन को धार देने वाले आस्तिक जी के नवगीत किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। यह प्रवाह उनकी रचनाओं की रवानगी से ऐसे घुल-मिल जाता है कि जैसे स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास के व्यापक स्वरुप से परिचय कराता एक अखण्ड तत्व ही नाना रूप में विद्यमान हो। इस दृष्टि से उनके नवगीत, जिनमें नए-नए बिम्बों की झलक है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी, भारतीय जन-मन को बड़ी साफगोई से व्यंजित करते हैं। राग-तत्व के साथ विचार तत्व के आग्रही आस्तिक जी की रचनाओं में भाषा-लालित्य और सौंदर्य देखते बनता है— शायद तभी कन्नौजी, बैंसवाड़ी, अवधी, बुंदेली, उर्दू, खड़ी बोली और अंग्रेजी के चिर-परिचित सुनहरे शब्दों से लैस उनकी रचनाएँ भावक को अतिरिक्त रस से भर देती हैं। कहने का आशय यह कि भाषाई सौष्ठव के साथ अनुभूति की प्रमाणिकता, सात्विक मानुषी परिकल्पना एवं अकिंचनता का भाव इस रस-सिद्ध कवि-आलोचक को पठनीय एवं महनीय बना देता है। संपर्क: एल-60, गंगा विहार, कानपुर-208010, संपर्कभाष: 09415474755।
आस्तिक जी के साहित्यिक अवदान पर विद्वानों की टिप्पणियाँ :
- वर्तमान परिवेश की जितनी नोंक-नुकनी त्रासद अभिशप्त व्यथाएं हैं, वे कहीं न कहीं इनके गीतों में अक्स हैं। मानवधर्मी इस गीतनिष्ठां में कालबोध बाँसुरी-शंख-सा थरथराता है। ये थरथराहटें, थरथराहटें न रहकर अंतर्मन की लय-ताल से जुड़ जाएँ, कवि का यही प्रयत्न है। - डॉ. सुरेश गौतम (दिल्ली)
- वीरेंद्र आस्तिक 'चुटकी भर चांदनी' और 'चम्मच भर धूप' तक सीमित नहीं हैं। उनके कुछ गीतों में आज की त्रासद और भयावह स्थितियों से सीधी मुठभेड़ है। उनका मुहावरा जनगीत के बहुत निकट का है। आम आदमी के समानांतर समता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय आदि जनतांत्रिक मूल्यों के संकट में पड़ जाने की विडम्बना पर उनकी सीधी नजर है। यही वजह है कि उनका परिवेश-बोध जितना प्रासंगिक है, उतना ही उनका मूल्य-बोध विचारोत्तेजक और सार्थक है। सम्प्रेषण के स्तर पर उलझाव और जटिलता से परे रहकर सहज अभिव्यक्ति का प्रयास उनके गीतों को संवेद्य और ग्राह्य बनाता है। - डॉ. वेद प्रकाश 'अमिताभ' (अलीगढ़, उ.प्र.)
- वीरेंद्र आस्तिक के कवि से हिन्दी संसार सुपरिचित है। उनकी रचनाओं में जहाँ रचनाकार के मानवीय और सामाजिक सरोकार अभिव्यंजित हैं, वहीं जीवनराग और निसर्ग-प्रेम से उनकी रचनाएँ लबालब भरी हुईं हैं। भूमंडलीकरण और बाजारवाद के इस ऊसर भाव-भूमि पर आस्तिक के रचनाकार ने जीवन और जगतराग की जो सरिता बहाई है, उसके रस से मानवीय सृजन संसार रसमय रहेगा। - डॉ. विमल (वर्धमान, प.बं)
गीत-कविता करना मूलतः एक सृजन प्रक्रिया है। सृजन शब्द आर्ट शब्द का पर्यायवाची माना गया है। आर्ट मूलतः लैटिन शब्द है। सृजन शब्द का प्रादुर्भाव यूरोपीय पुनर्जागरण काल से हुआ था। सृजन उस युग का एक क्रांतिकारी द र्शन है जिसके द्वारा मनुष्य ने स्वयं को प्रकृति से मुक्त किया, अर्थात् सृजन का धर्म मुक्त होने के अर्थ में है। जिस प्रकार सृजन सृष्टिगर्भा है, सृष्टि की उत्पत्ति हैं। ठीक उसी प्रकार सर्जना सर्जनाकार के अभ्यंतर की अभिव्यक्ति है। सृजित वस्तु मुक्ति के रूप में हमें प्राप्त होती है। इस तथ्य को गहराई से समझना होगा। सृजन करना अर्थात् ऐसी मौलिकता की खोज करना है जिससे मानवीय मूल्यों में कुुछ नया जुड़ सके ताकि निरर्थक हो चुकी नैतिकताओं के प्रति मनुष्य का मोह भंग हो, उनसे मुक्ति मिले। डॉ0 विमल के शब्द हैं- ‘‘सृजन की अवधारणा उस मूल्यवान रिक्थ के रूप में हैं, जिसके लिए परम्पराओं, सिद्धांतों आदि के बरवक्स मानव हित सर्वोपरि है।’’ यही मानव हित साहित्य के केन्द्र में है।
इस तरह साहित्य की यात्रा अभिव्यक्ति की आजादी की यात्रा है। नए मानवीय मूल्यों के अन्वेषण में अक्सर भाषा के खतरे उठाने पड़े हैं। भाषा जो झूठ के आवरण से आच्छादित होती जाती है। उसकी आजादी एक अहम मुद्दा रहा है और आज भी है। इतिहास में अनेक ऐसे पड़ाव हैं जहाँ आजादी को निर्बाध रखने हेतु जड़ हो चुके अलंकारों और कला सिद्धांतों के विरूद्ध भाषा के खतरे उठाने पड़ते रहे हैं। ये खतरे आज भी उठाए जा रहे हैं। हमें यह सूूत्र कथन हमेशा याद रखना होगा कि सृजन का धर्म मुक्त होने के अर्थ में है तथा मुक्ति भी स्वेच्छाकारी नहीं बल्कि सार्थकता के अर्थ में है।
सृजन की अवधारणा के संबंध में ऊपर जो कहा गया है, उसके प्राचीनतम और सर्वोत्तम उदाहरण हैं हमारे वेद। सृजन-प्रक्रिया के प्रसंग में यहांँ वेदों का सन्दर्भ प्रासंगिक होगा। वेद भाषा की समृद्धता और वैज्ञानिकता के ही प्रमाण नहीं अपितु आदिम स्मृतियों और प्रतीतियों के परिवर्तित स्वरूप भी हंैं। परिवर्तन की मौलिकता वेदों की सृजनात्मकता में दिखाई पड़ती है, क्योंं कि तब वहाँ न तो कोई सिद्धांत था, न ही किसी आलोचना पद्धति का साँचा और न ही कोई भय था। वहाँ लय भाषा में पहली बार जन्म लेती है। ध्यातव्य यह भी है कि तब न छन्द शास्त्र था, न अंत्यानुप्रास और न टेक पद्धति ही थी। वहाँ पंक्तियां छोटी भी हैं और बड़ी-बड़ी भी। जिन्हें ऋचा या श्लोक कहा गया है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि सिर्फ लय के आलम्बन पर ऋचाओं का एक रूपाकार है और उस रूपाकार में पूरा भारतीय वाड.मय समा जाता है। कल्पना की जा सकती है कि हजारों-हजारों वर्षों तक साहित्य जगत में सिर्फ लय का एकाधिकार रहा होगा। उस समय काव्य का या गीत का एक ही घटक था, वह घटक था लय। वेदों को ही सर्वप्रथम गीत कहा गया और गीत-पाठक को उद्गाता। तब वहाँ गद्य की बात कल्पना में भी नहीं थी। वहाँ भाषा का विकास लय का विकास है। यानी मूलाधार लय ही है। छन्द शास्त्र व्याकरणों के रूप में, महाकाव्यों के रूप में और वैचारिक काव्यों के रूप में विकास पाते हैं। गीत की नई अवधारणाएं छन्द-संगीत के विकास के साथ ही शुरू होती हैं।
गीत गोविन्द के गीत उल्लेखनीय हैं। गीत गोविन्द की भाषा शुद्ध संस्कृत नहीं है। वह अपभ्र्रंश और खड़ी बोली का प्रभाव लिए हुए हैं। वहाँ गीत अपने घटकों का विस्तार करता है। उसी काल में 7वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में सिद्धों के काव्य मेंे दोहा का प्रादुर्भाव होता है, जिसमें छन्द को विशेष प्रकार का आकार मिलता है तथा जिसमें तुकांत मिलाने का पहली बार प्रयास किया गया। बौद्ध धर्मी एक सिद्ध हुए हैं, नाम था सरहपा जो पहले दोहाकार माने जाते हैं, उन्हीं के समकालीन है देवसेन जिनका मुकम्मल दोहा उदाहरण के रूप में यहाँ प्रस्तुत है-
काहि बहूतहि संपदहि यदि कृपणहि घर होइ
उदधि नीर खारे भरेउ पानिउ पियै न कोइ
मध्य युग में संगीत की राग-रागनियों का प्रवेश भक्ति-संगीत में शुरू होता है। फलस्वरूप संत कवियों ने गान पद्धतियों की सुविधा हेतु टेक का प्रयोग किया। टेक संगीत की देन है। इस तरह पद के रूप में गीत के घटक हो जाते हैं लय तुकांत और टेक। कबीर के गीत प्राचीनतम गीत माने जाते हैं। कबीर पहले प्रयोगकर्ता है, उनकी भाषा में ओज सर्वाधिक है किन्तु भाषा उतनी परिमार्जित नहीं। भाषा सतत् प्रयोगों से मजती हैं यही कारण है कि बाद के मीरा, सूर और तुलसी की भाषा में मार्जन का निखार अधिक दिखाई देता है।
आधुनिक काल मंें गीत के विकास की परिणति छायावाद है। छायावाद को हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग माना जाता है किन्तु इसी काल में अनेक विधाओं के विस्फोट में वह स्वर्ण युग ज्यादा दिन ठहर नहीं सका। छायावाद का पर्यवसान छायावादोत्तर गीत में हुआ जो ‘मंचीय गीत’ तक आते-आते अस्त हो गया। यथार्थ और समय को महत्व देने वाली नई कविता ने गीत को उखाड़ कर हाशिए पर फेंक दिया। यह सब अकारण नहीं था। स्वतंत्रता संग्राम में आधुनिक क्रांति जो आई तो उसने छायावाद की आयु को कम कर दिया, क्योंकि जब समय तेजी से बदलता है तब अभिव्यक्ति है, के औजार भी बदल जाते हैं।
छायावाद एक तरफ गीत के विकास की पराकाष्ठा है तो दूसरी तरफ उसके कथ्यात्मक और कलात्मक उपकरणों, प्रतिमानों और भाषा शैली के औजारों का घूर्णन भी कम नहीं है। जब कोई भाषा, कोई विचारधारा व्याकरणीय अलंकरणों और नियमों में कस जाती है तो आगे उसका विकास मुश्किल में पड़ जाता है। फिर वह अपने परिनिष्ठित संस्कारों से छूट कर आदिम लोक की ओर दौड़ती है। फिर पूरा रचना प्रवाह दौड़ता है, ताजगी प्राप्त करने के लिए। यही है सर्जना का वह तथ्य जिस पर 20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में सर्वप्रथम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की दृष्टि गई। नव जागरण काल से प्रभावित होने वाले पहले साहित्यकार हैं निराला। इसलिए मैं निराला को पहला क्रांतिकारी आधुनिक कवि मानता हूँ।
वे निराला ही थे जिन्होंने साहित्य के प्राचीन कोश से अनेक चिनगारियों को निकाल कर भविष्य के लिए सुरक्षित कर दिया। उन्होंेने अभिव्यक्ति की मुक्ति और शैली-शिल्प के अंर्तसम्बन्धों को आत्मसात किया। बताने की आवश्यकता नहीं कि उनका समग्र काव्य-कर्म उपर्युक्त तथ्य का प्रमाण है। निराला ने वेदों की रचना प्रक्रिया को गहराई से समझा और कहा- ‘‘वेदों में काव्य की मुक्ति के हजारों उदाहरण हैं, बल्कि पिच्चानवें प्रतिशत मंत्र इसी प्रकार मुक्त-ह्नदय के परिचायक हो रहे हैं।’’ यह कहना तर्कसंगत होगा कि वेदों में कथ्यानुसार ऋचाएं ढाली गई हैं यानी जो आज लय नवगीत में कथ्य-आधारित हो रही है यह तथ्य साहित्य के प्रारम्भिक दौर में मान्य हो चुका था। वेदों की छाया निराला की मुक्त छन्द की कविताओं में ही नहीं बल्कि छन्दबद्ध कविताओं में भी उसी छाया की दीप्ति दिखाई पड़ती है। निराला ने आगे कहा- ‘‘मुक्त छन्द तो वह है जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है।’’ यहाँ निराला का मंतव्य स्पष्ट हो जाता है कि हम विरासत में मिले छन्दों पर प्रयोग करके उनको अनेक प्रकार की लय पद्धतियों में परिवर्तित कर सकते हैं। उनकी ‘जूही की कलीं’ और ‘पंचवटी’ आदि सैकड़ो रचनाएं है जो बन्दिशो में होते हुए भी बन्दिशों से मुक्त हैं। उदाहरण के लिए उनकी एक कविता जिसका शीर्षक है ‘जागो फिर एक बार’ को देखा जा सकता है। ‘जागो फिर एक बार’ टेक पंक्ति है। पूरी रचना कहने को तुकांत शैली में है। किन्तु तुकांतों की आवृत्ति में कोई नियम नहीं, कोई समेकता भी नहीं। इस शैली-शिल्प के पीछे वेदों और संस्कृत शैली की अतुकांतता ही अंतर्निहित है। इस कविता में पंक्तियां छोटी भी हैं और बड़ी-बड़ी भी। सभी पंक्तियाँ हम वजन भी नहीं है। अन्तरा कोई तो सात सतरों का है, कोई ग्यारह का और कोई सत्रह सतरों तक फैलता चला गया है। अन्तिम पंक्ति के साथ तुकांत आता है तो कोई जरूरी नहीं कि वह हम मात्रिक ही हो, जैसे रचना का पहला बन्द देखें-
प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरूण-पंख तरूण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार
जागो फिर एक बार (निराला रचनावली एक से)
दूसरा उदाहरण लें ‘राम की शक्ति पूजा’ का। इस रचना का कथ्य प्रवाह इतना सशक्त है कि शेष रचना-प्रक्रिया गौण हुई -सी दिखती है, जब कि प्रयुक्त छन्द चैबीस मात्राओं का हैं अर्थ साम्य की दृष्टि से दो-दो पंक्तियां सतुकंात हैं किन्तु लय प्रवाह पर बात की जाए तो कहीं चैपाई छन्द का विस्तार है तो कहीं कवित्त छन्द का प्रभाव। कहीं-कहीं दोनों प्रकार के छन्दों का घालमेल है, जैसे ये पंक्तियां-
साधु-साधु साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम
यहां सिर्फ निराला का कथन पर्याप्त होगा। उन्हंोनें ‘पारिमल’ की भूमिका में कहा है- ‘‘केवल शब्द योजनाओं का जो प्रवाह है वहीं उन्हें छन्द सिद्ध करता है।’’ वे लय को प्रवाह की संज्ञा से अभिहित करते हैं। यहां यह ध्यान में रखना होगा कि लय मुक्त है जबकि लय का अनुशासन ही छन्द होता है, अर्थात् निराला ने छन्द को पुनः लय में बदलने का जो जोखिम उठाया था, उसके पीछे उनकी दृष्टि दो स्तरों पर कार्य कर रही थी। एक तो वह भाषा जो छायावादी और उसके परवर्ती स्वरूपों की जो अलंकरणों की आवृत्तियों से लदफद गई थी। दूसरे उन्हें भविष्य में आने वाले जटिल कथ्यों का आभास था।
निराला के काव्य-कर्म में मुक्त छन्द, छन्दबद्ध और गीत, तीनों प्रकार की रचना प्रक्रियाओं का अध्ययन मिलता है। सर्वविदित तथ्य है कि गीतांगिनी (राजेन्द्र प्रसाद सिंह संपादित गीत संकलन) के बाद के गीतों और नई कविता के प्रचार-प्रकाशन में निराला-समय का ताप-तेवर ही केन्द्रस्थ हैं। यहाँ यह भी स्मरण में रखना होगा कि नई कविता और कविता की रचना प्रक्रिया जो लय-छन्द विमुख होकर गद्य में पर्यवसित हुई, उसके प्रवर्तक अज्ञेय और उनके अनुयायी हैं, निराला नहीं। निराला ने आजीवन कथित गद्यात्मकता का तो विरोध ही किया। नवगीत के प्रारम्भिक काल में और उसकी स्थापना में जिस प्रकार की रचना प्रक्रिया और कथ्यगत भाषा अपनाई गई वह पुराने और रूढ़बद्ध कथ्यों-अलंकरणों से मुक्ति के स्वरूप में थी।
यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि साहित्य में जब कोई नया बदलाव आता है तो उसका विकास एक लक्ष्यीय न हेाकर गुणात्मक होता है। नवगीत के क्षेत्र में भी पूर्वाग्रहों से मुक्ति और अभिव्यक्ति की मुक्ति का दौर चला। इस दृष्टि से उस काल में कई नवगीत संग्रह चर्चा में रहे तथा उनके समीक्ष्य निकषों पर नवगीत परिभाषित किया जाता रहा। ठाकुर प्रसाद सिंह कृत ‘वंशी और मादल’, वीरेन्द्र मिश्र का ‘झुलसा है छायानट धूप में’ शिव बहादुर सिंह भदौरिया कृत पुरवा जो डोल गई और उमाकांत मालवीय कृत ‘सुबह रक्त पलाश की’ आदि। इनमें से वंशी और मादाल’ तथा सुबह रक्त पलाश की’ पर बात करना पर्याप्त होगा।
वंशी और मादल के बारे में पहला महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वहाँ गीतों की रचना प्रक्रिया भय मुक्त है। यह भयमुक्ति हमें वैदिक कालीन रचना प्रक्रिया तथा बाद के निराला के काव्य कर्म में प्रयुक्त शिल्प से जोड़ देती है। इस संग्रह में शिल्पगत संभावनाओं का विस्तार है, जो परम्परागत और नवीन परिवर्तनों पर एक साथ विचार करने को बाध्य करता है। वंशी और मादल में कथ्यात्मक भाषा सीधे-सीधे लोक जीवन (संथाली जीवन) से उठाई गई है, जो पूर्ववर्ती काल में कहीं दिखाई नहीं देती। इनकी रचना प्रक्रिया में मुझे न तो किसी आलोचना पद्धति का आदेश और न ही किसी मानकी का सहारा दिखाई देता है। इनमें गाँव और प्रकृति व्यापारों के मनोसंवेगों की निश्छल कथा है। ये गीत पारम्परिक बन गए तो ठीक अन्यथा अनगढ़ ही रहे। यही इनकी मौलिकता हैं। तुकान्तों की भी नई योजनाएं हैं। अन्तरा दो पंक्तियों का भी किन्तु उसी गीत में चार पंक्तियों का भी हो गया है। कुल मिलाकर यही इनका शिल्पबोध है। पूरे संग्रह में एक ही प्रकार का लय-छन्द है जो पारम्परिक नहीं कहा जा सकता। पहले ही गीत में ‘आखिरी’ का तुकान्त बाँसुरी मिलाया गया अर्थात् ‘री’ से साधा गया। ‘आ’ और ‘बॉ’ को भी सहयोगी माना जा सकता है किन्तु ‘खि’ और ‘सु’ का तो कोई तुक नहीं। आज ऐसे तुकांत नवगीत में सामान्य हो चुके हैं। ‘सातवाँ’ गीत यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है -
उत्तर से आ रही हवाएं
बूंदों की झालर पहिने
दक्षिण में उठ-उठ कर छा रहे
पागल बादल गहिरे
यहाँ ‘ए’ स्वरांत है और यही तुक है। ऐसे स्वरांत अधिकांश है संग्रह में। कहीं केवल पदांत से ही साध लिया गया, जैसे यह गीत-
जंगल से जंगल के बीच
दिए-सा आँगन
पास बुलाते तुमको
द्वार दिए, घर-आँगन
ऐसा लगता है जैसे गज़ल की तुकांत शैली को हिन्दी गीत में शामिल करके तुकांत शैली का विस्तारीकरण किया गया है।
यहाँ महत्व की बात यह है कि गीत ही एक ऐसी विधा है जो अपने रुपाकार में कमोबेश सभी काव्य विधाओं को आत्मसात किए हुए हैं। गीत की तुलना में अन्य विधाएं अपने कद-काठी में हद तक रूढ़ है। गीत अपने कमनीय गुणों के कारण प्रशंसित भी होता है और प्रताड़ित भी। प्रताड़ित इसलिए क्योंकि आलोचना की दकियानूस शैली हरदम हावी रहती है उस पर। मेरे विचार से आलोचना विधा को सभी छन्दबद्ध विधाओं को समग्रता में देखना-परखना चाहिए। ठाकुर प्रसाद सिंह जैसे वरिष्ठ रचनाकारों ने तुकांत शैलियों को समग्रता में अपनाकर उस भेदभाव को समाप्त किया जिसके चलते गीत कवि गजल से अलगाव बनाए रखते हैं।
प्रसंग का दूसरा उदाहरण उमाकांत मावलीय कृत ‘सुबह रक्त पलाश की’ है। मालवयी जी के गीतों के बारे में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने कहा है कि इनके गीत निराला जी के नए गीत संग्रहों में जो नवीन विन्यास है उससे प्रभावित होकर भी नवीन अलगाव जताते हुए समकालीनता पर केन्द्रित हैं (उमाकांत मालवीय : स्मृतियों के गवाक्षः 1985)।’’ इस कसौटी पर उनका पूरा संग्रह उद्धृत किया जा सकता है। एक गीतांश यहां प्रस्तुत है-
सूर्य
कभी कौड़ी का तीन नहीं होगा
जन्म से मिली जिसको
कठिन अग्नि परीक्षा
उसको क्या है
संकट, चुनौती, परीक्षा
सोना तो सोना है, टीन नहीं होगा
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उक्त छन्द मात्रिक होते हुए भी लय बहुत कुछ कवित्त छन्द की-सी हो गई है। ये लय वही है जो निराला के मुक्त छन्दों से विस्फूर्जित और परिमार्जित की हुई लगती है। मालवीय जी के गीतों पर टिप्पणी करते हुए श्री माहेश्वर तिवारी का कथन है- ‘‘मात्रा और वर्ण गिन कर शुद्ध कविता का रूढ़िवादी शव ढोने वालों को इस संकलन की रचनाओं में दोष ही दोष भायेंगे, किन्तु नए मनुष्य के लिए ये गीत एक सुखद संतुष्टि देंगे। गीत की नियति मात्र गाने-गुन गुनाने तक ही सीमित नहीं की जा सकती, बल्कि उसमें गुुनने के लिए भी कुछ होना चाहिए, इस दृष्टि से विरल कोटि के ये गीत, संपन्नता से लैस है (वही)।’’
उपर्युक्त विवेचन से यह तथ्य उजागर हो जाता है कि निराला ने छन्द का त्याग नहीं किया बल्कि छन्द का विस्तारीकरण किया। निराला निर्मित वह थाट ही है जिस पर भविष्य के गीत का आधुनिकीकरण संभव हो सका। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि काव्य के विकास के साथ-साथ उसकी शास्त्रीयता का भी विकास होता है। विकास के लिए परिवर्तन जरूरी है तो परिवर्तन के लिए प्रयोग। साहित्य में प्रयोग एक अनुभवी साधक साधिकार करता है। यह भी अवगत होना चाहिए कि रचनाकारों की रचनात्मकता ही नया शास्त्र गढ़ती है और आलोचक उसे मान्य ठहराता है। श्रेष्ठता के मानकों पर विचार करने की संभावनाएं कभी खत्म नहीं होती।
यहाँ रचनाकार की उस प्रवृत्ति की ओर भी इंगित करना जरूरी होगा जिसके कारण रचना प्रक्रिया में कथ्य की केन्द्रीयता तो प्रत्यक्ष रहती है किन्तु जाने-अनजाने कलात्मक निखार भी परवान चढ़ता रहता है, जो धीरे-धीरे कथ्य को रूढ़ करते हुए खुद भी जड़वत हो जाता है। कहना चाहता हूँ कि आज पुनः अपनी विरासत से ऊर्जा ग्रहण करने का समय आ गया है। समय की क्रूरता की पराजय के लिए केवल परम्परागत प्राप्त उपकरण काफी नहीं होते, अतः हमें सामयिक और आधुनिक उपकरण तलाशने होंगे। तभी हम मनुष्यता और संवदेना जैसे मूल्यों के स्थायित्व की रक्षा कर पाएंगे।
A Research Article by Virendra Astik
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