भोपाल की धरती पर जिस युवा गीतकवि ने अपनी विशेष पहचान बनायी है और जिसे लगभग सभी अग्रज रचनाकारों का स्नेह-आशीष मिल रहा है वह हैं चित्रांश वाघमारे। लगभग बीस बरस की आयु। शरीर से अशक्त किन्तु मन-मष्तिस्क से ऊर्जावान। लिखने-पढने की ललक। साहित्यकारों की संगत करने का मनोभाव। एक संभावनाशील रचनाकार। जन्म : 19 जनवरी 1994 । शिक्षा : बी.कॉम (अर्थशास्त्र ) द्वितीय वर्ष में। कृतियाँ : माँ (काव्य संग्रह ) प्रकाशित एवं मृत्यु के बाद वध (काव्य संग्रह ), छत्रपति शिवाजी पर केन्द्रित महाकाव्य (दोनों प्रकाशनाधीन )। संपर्क : एम 329, गौतम नगर, (गोविन्दपुरा), भोपाल (मध्य प्रदेश ) - 462023 । मोबाइल : 09993232012, 09165105892। ईमेल : chitranshw1994@gmail.com
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
कई दिनों से मिला नहीं है
मित्र मुझे संवाद तुम्हारा
नकली पहचानॉ का बोझा
धरे हुए हो अपने काँधे,
या फिर चलते अलग राह पर
अनुभव की गाँठों को बाँधे
कुछ मौलिकता बची हुई है,
या कि हुआ अनुवाद तुम्हारा
क्या धुंधली अभिलाषा लेकर
महाशून्य में ताक रहे,
या फिर बढ़कर किसी शिखर की
ऊँचाई को आँक रहे
मन में चिडिया चहक रही है,
या साथी अवसाद तुम्हारा
क्या मन हुआ तुम्हारा शहरी
या गाँवों में रचे- बसे हो,
गाँवों - से उन्मुक्त बने या
शहरों जैसे कसे - कसे हो
क्या शहरों ने छीन लिया है,
मिसरी जैसा स्वाद तुम्हारा
अंतर्मन में अपनेपन के
क्या अब भी सन्दर्भ बचे है ?
अंतर के मंगल घट पर क्या -
नेह-भरे साँतिए रचे है ?
याकि प्रेम करना लगता है,
तुमको ही अपराध तुम्हारा ।
2. छंद गिरवी रख दिए है
आओ कलमकारों उठो अब
गीत की गरिमा बचाओ,
भूख से टूटी कलम ने
छंद गिरवी रख दिए है
है कहाँ अवकाश अब
कवि क्यों समय से द्वंद्व ठाने,
ढूँढ़ते है अब सभी जन -
कोष भरने के बहाने
बुझने लगे है वे दिए जो
पूर्व में बाले हुए है,
और हमने पूर्व के -
अनुबंध गिरवी रख दिए है
अब निराला भी नहीं है
है नहीं दिनकर कही पर,
मंद पड़ती काव्यधारा -
ढल रहे है कोकिला स्वर
झरने लगे है पुष्प सारे
वाटिका मिटने लगी है,
और हमने पूर्व के -
मकरंद गिरवी रख दिए है
शब्द बोझिल अर्थवाली
उलझनों में खो गए है,
शब्द है बोझिल यहाँ या -
अर्थ बोझिल हो गए है ?
अर्थ छीने, भाव छीने
शब्द से पर्याय छीने,
मूल्य देकर शोक का -
आननद गिरवी रख दिए है
लेखनी यदि उठ खड़ी हो
और अपना मर्म समझे,
शब्द के पर्याय को -
जीवंत करना धर्म समझे
शब्द तब ही बच सकेंगे
अर्थ जीएंगे तभी जब,
शब्द ने ही अर्थ के -
संबंध गिरवी रख दिए है ।
3. मेरी माँ
नटनी सी , पतली रस्सी पर
चलती रहती मेरी माँ
उसको ध्यान रहा करता है
छोटी छोटी बातों का
उसमे बसता है सोंधापन
सारे रिश्ते नातों का,
बुआ ,बहन, भौजाई सब में-
ढलती रहती मेरी माँ
मिसरी बनकर वही घुली है
खारी सी तकरारों में
भरती अपनेपन की मिट्टी
उभरी हुई दरारों में,
घर भर के घावों पर मरहम
मलती रहती मेरी माँ
आँचल के बरगद के नीचे
तपती धूप नहीं आती
सारे जगभर की शीतलता
माँ की गोदी की थाती,
झीने से आँचल से पंखा
झलती रहती मेरी माँ
आशय बदल रहे है अपने
सचमुच नेकी और बदी
हर सच्चाई झुठलाती है
ऐसी अंधी हुई सदी,
जग के झूठेपन में सच्ची
लगती रहती मेरी माँ
सुनती है माँ नयी हवा के
चाल चलन कुछ ठीक नहीं
जिसपर बढ़ते पाँव समय के
कोई अच्छी लीक नहीं ,
सोता है संसार रातभर
जगती रहती मेरी माँ
बसती है मेरी माँ मेरी -
अपनी हंसी ठिठोली में
चौखट के वंदनवारों में
आँगन की रंगोली में,
आँगन के दीये सी दिप-दिप
जलती रहती मेरी माँ ।
4. गुनगुनाना तक मना है
तार वीणा के कसो मत
गुनगुनाना तक मना है
भीड़ में अनुयायियों की
हो सको शामिल तो ठीक
चुप खड़ी परछाईयों में
हो सको शामिल तो ठीक
है कठिन पहरा अधर पर
शब्द लाना तक मना है
मूल है कोई नहीं बस -
मूल के पर्याय हम
ग्रंथ के रसवंत लेकिन
अनसुने अध्याय हम
कौन उच्चारण करे जब
बुदबुदाना तक मना है
ज्योति की उजली सभा में
तिमिर अभ्यागत बने
खुद यहाँ आकर, अमा का -
सूर्य शरणागत बने
है गहन तम,पर दियों का
टिमटिमाना तक मना है
हो भला कैसे यहाँ
दो चार बातें चैन की
कुछ कथाएँ शोक,सुख की
कुछ व्यथा दिन रैन की
अट्टहासों के नगर में
मुस्कुराना तक मना है ।
5. अच्छा लगता है
अच्छा लगता है अपने से
बातें करना भी
हाल पूछना अपना ही
बतलाओ कैसे हो ?
कुछ बदले हो या अब भी
वैसे के वैसे हो ?
अच्छा है अपने ही भीतर,
ज़रा उतरना भी
अच्छा है मन की नदिया की
आवाज़े सुनना,
औ' नदिया के छोर बैठकर
अपने को गुनना
भूली-बिसरी गलियों से
इक बार गुज़रना भी
अच्छा है अपने को ही
अखबारों सा पढ़ना,
खुद से सबक सीखकर खुद ही
अपने को गढ़ना
देख-देख मन के दर्पण में
ज़रा सवारना भी
कभी गुज़रना अपने मन की
संकरी गलियो से,
बातें करना ज्यों अपनी ही
वंशावलियों से
चलते चलते सुस्ताना भी -
ज़रा ठहरना भी ।
Chitransh Vaghmare, Bhopal
सुंदर गीत ।
जवाब देंहटाएंपाँचों नवगीत सुगठित शिल्प और समयबोध से परिपूर्ण हैं. चित्रांश को पहली बार मैंने विख्यात नवगीतकार और संपादक आदरणीय निर्मल शुक्ल के नवगीत सन्दर्भ ग्रन्थ "शब्दपदी" में पढ़ा था. सचमुच चित्रांश के नवगीत हमारे आस पास बिखरे समय सन्दर्भों का बखूबी तर्जुमा करते हैं. बधाई उन्हें और पूर्वाभास को.
जवाब देंहटाएंरामशंकर वर्मा, लखनऊ . rsverma8362@gmail.com
hamesh ki tarah ekdam bdhiya bahut bahut badhai
जवाब देंहटाएंममता का अदभूत साहस
जवाब देंहटाएंअरुण देव पूर्व से आये लाल परिधान की ओट में |
संसार सोया जाग गया द्वेषता के अंदाज में ||
लाली बिखरी भू धरा पर सुहागिनी श्रंगार में |
टिहरी ने अंडे दिये ताल तट की ओट में ||
रात दिन सेती रही भूखी प्यासी प्यार में |
एक पल नज़र नहीं हटती पावस की रात में ||
एक दिवस पुलिया की ओट में काल आया |
काला नाग अंडो को बनाता जब निशाना ||
टिहरी हिमालय सी बन बैठी वो चट्टान |
वासक देव से लड़ी जेसे मनु महान ||
चार पहर चली लड़ाई नहीं घबराई ननी जान |
नाग देव ने हार मानी ममता का हुआ विजय गान ||
हिम्मत देती है विपदा सागर को कर में सीमेटने की |
राजस्थान पत्रिका ने कैद की कथा मन भावन की ||
जन - जन ने देखि सुनी शोक युद्ध की व्यथा |
किशन गोपाल ने तुरंत लिखी ये भारी दुविधा ||
लेखक --------किशन गोपाल मीना (केन्द्रीय विद्यालय सवाई माधोपुर )
राजस्थान पत्रिका के अंश मे उदयपुर मे एक पुलिया के नीचे टिहरी के अंडो पर साँप का कहर परंतु नन्नी सी टिहरी हिम्मत के साथ उस कल रूपी नाग से लड़कर उन अंडो को बचा लेती ही इसी को आधार मानकर मेंने कविता लिखी है
जवाब देंहटाएंbahut badhiya
जवाब देंहटाएंअच्छे नवगीत हैं। बधाई!
जवाब देंहटाएं