दिनेश सिंह |
रायबरेली (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव गौरारुपई में जन्मे श्रद्धेय दिनेश सिंह
का नाम हिंदी साहित्य जगत में अदब से लिया जाता है। सही मायने में
कविता का जीवन जीने वाला यह गीत कवि अपनी निजी जिन्दगी में मिलनसार एवं
सादगी पसंद रहा । गीत-नवगीत
साहित्य में इनके योगदान को एतिहासिक माना जाता है । दिनेश जी ने न केवल
तत्कालीन गाँव-समाज को देखा-समझा है और जाना-पहचाना है उसमें हो रहे
आमूल-चूल परिवर्तनों को, बल्कि इन्होने अपनी संस्कृति में रचे-बसे भारतीय
समाज के लोगों की भिन्न-भिन्न मनःस्थिति को भी बखूबी परखा है, जिसकी
झलक इनके गीतों में पूरी लयात्मकता के साथ दिखाई पड़ती है। इनके प्रेम गीत
प्रेम और प्रकृति को कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करते हैं । इनके
प्रणयधर्मी गीत भावनात्मक जीवनबोध के साथ-साथ आधुनिक जीवनबोध को भी केंद्र
में रखकर बदली हुईं प्रणयी भंगिमाओं को गीतायित करने का प्रयत्न करते हैं
। अज्ञेय द्वारा संपादित 'नया प्रतीक' में आपकी पहली कविता प्रकाशित हुई
थी। 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' तथा देश की लगभग सभी बड़ी-छोटी
पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, नवगीत तथा छन्दमुक्त कविताएं, रिपोर्ताज,
ललित निबंध तथा समीक्षाएं निरंतर प्रकाशित। 'नवगीत दशक' तथा
'नवगीत अर्द्धशती' के नवगीतकार तथा अनेक चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत कविता
संकलनों में गीत तथा कविताएं प्रकाशित। 'पूर्वाभास', 'समर करते हुए',
'टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर', 'मैं फिर से गाऊँगा' (सभी नवगीत संग्रह), 'परित्यक्ता' (शकुन्तला-दुष्यंत की पौराणिक कथा को आधुनिक संदर्भ
देकर मुक्तछंद की महान काव्य रचना) आदि संग्रह
प्रकाशित। आपके द्वारा रचित 'गोपी शतक', 'नेत्र शतक' (सवैया
छंद), चार नवगीत-संग्रह तथा छंदमुक्त कविताओं
के संग्रह तथा एक गीत और कविता से संदर्भित समीक्षकीय आलेखों का संग्रह आदि
प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। चर्चित व स्थापित कविता पत्रिका 'नये-पुराने' (अनियतकालीन) के आप संपादक रहे। उक्त पत्रिका के माध्यम से गीत पर किये गये आपके कार्य को अकादमिक स्तर पर स्वीकार किया गया है। स्व. कन्हैया लाल नंदन जी लिखते
हैं " बीती शताब्दी के अंतिम दिनों में तिलोई (रायबरेली) से दिनेश सिंह के
संपादन में निकलने वाले गीत संचयन 'नये-पुराने' ने गीत के सन्दर्भ में जो
सामग्री अपने अब तक के छह अंकों में दी है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं रही ।
गीत के सर्वांगीण विवेचन का जितना संतुलित प्रयास 'नये-पुराने' में हुआ है,
वह गीत के शोध को एक नई दिशा प्रदान करता है. गीत के अद्यतन रूप में हो
रही रचनात्मकता की बानगी भी 'नये-पुराने' में है और गीत, खासकर नवगीत में
फैलती जा रही असंयत दुरूहता की मलामत भी. दिनेश सिंह स्वयं न केवल एक समर्थ
नवगीत हस्ताक्षर हैं, बल्कि गीत विधा के गहरे समीक्षक भी। (श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन- स्व. कन्हैया लाल नंदन, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, २००९, पृ. ६७)। आपके साहित्यिक अवदान के परिप्रेक्ष्य में आपको राजीव गांधी स्मृति सम्मान, अवधी अकेडमी सम्मान, पंडित गंगासागर शुक्ल सम्मान, बलवीर सिंह 'रंग' पुरस्कार
से अलंकृत किया गया। नवगीत के इस महान शिल्पी के पांच नवगीत हम आप तक पहुंचा
रहे हैं:-
1. मैं फिर से गाऊँगा
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
मैं फिर से
गाऊँगा बचपना बुलाऊँगा
घिसटूगा घुटनों के बल आँगन से चलकर
लौट -पौट आँगन में आऊँगा
मैं फिर से गाऊँगा!
कोई आये
सफेद हाथी पर चढकर
मेरी तरुणाई के द्वारे
किल्कूँगा
देखूँगा एक सूँड, चार पाँव
वह शरीर दाँत दो बगारे
मैं खुद में
घोड़ा बन जाऊँगा
हाथी और घोड़े के बीच
फर्क ढूढूँगा
लेकिन मैं ढूँढ कहाँ पाउँगा
मैं फिर से गाऊँगा !
पोखर में पानी है
पानी में मछ्ली है
मछली के होठों में प्यास है
मेरे भीतर
कोई जिंदगी की फूल कोई
या कोई टूटा विश्वास है
कागज की नाव
फिर बनाऊँगा
पोखर में नाव कहाँ जायेगी
लेकिन कुछ दूर तो चलाऊँगा
मैं फिर से गाऊँगा!
राजा की फुलवारी में
घुस कर चार फूल
लुक छिप कर तोडूँगा
माली के हाथों पड़कर
जाने जो गति हो
मुठ्ठी के फूल कहाँ छोडूँगा
फूल नहीं तितलियाँ फँसाऊँगा
भागेगी जहाँ -जहाँ भागूँगा
माली के हाथ नहीं आऊँगा
मैं फिर से गाऊँगा!
2. प्रश्न यह है
प्रश्न यह है-
भरोसा किस पर करें
एक नंगी पीठ है
सौ चाबुकें
बचाने वाले
कभी के जा चुके
हम डरें भी तो
भला कब तक डरें
स्वप्न हमसे
जी चुराते जा रहे
आँख सुरमे से
सजाते रहे
आँसुओं से
हम इन्हें कब तक भरें
घरों के भीतर
अजाने रास्ते
अलग-अलग बँटे
हमारे वास्ते
झनझनाते पाँव
जब इन पर धरें
3. भूल गए!
जाने कैसे हुआ
कि प्रिय की पाती पढ़ना भूल गए
दाएँ-बाएँ की भगदड़ में
आगे बढ़ना भूल गए
नित फैशन की
नए चलन की
रोपी फसल अकूते धन की
वैभव की खेती-बारी में
मन को गढ़ना भूल गए
ना मुड़ने की
ना जुड़ने की
जिद ऊपर-ऊपर उड़ने की
ऊँचाई की चिंताओं में
सीढ़ी चढ़ना भूल गए
हम ही हम हैं
किससे कम हैं
सूर्य-चन्द्र अपने परचम हैं
फूटी ढोल बजाते रहते
फिर से मढ़ना भूल गए।
4. मौसम का आखिरी शिकार
मौसम का आखिरी शिकार
आखिर फिर होगा तो कौन
झरे फूल का जिम्मेदार
आखिर फिर होगा तो कौन!
शाखें कह बच निकलेंगी
फूल आप झर गये
सूरज से आँख मिलाकर
पियराये और मर गये
सच्चाई का पैरोकार
आखिर फिर होगा तो कौन!
जंगल में आग लगेगी
भागेंगे सभी परिंदे
तिनकों के घोसले जलें
गर्भ भरे बेसुध अंडे
शेष देवदार या चिनार
आखिर फिर होगा तो कौन!
जले हुए टेसू वन में
तोला भर राख बचेगी
भरी -भरी सी निहारती
जोड़ा भर आँख बचेगी
पानी में पलता अंगार
आखिर फिर होगा तो कौन!
5. मैं गाने लगता
अक्सर क्या होता मुझको
जो मन ही मन शर्माने लगता
तुम रोती, मैं गाने लगता
तुम घर मैं कितना खटती हो
कितने हिस्सों में बटती हो
कड़ी धूप-सी सबकी बातें
आर्द्र भूमि-सी तुम फटती हो
मेरा मन छल-छल कर
आँखों-आँखों से बतियाने लगता
तुम रोती मैं गाने लगता
चूल्हा-चौका रोटी-पानी
सुबह-शाम की राम-कहानी
दिन भर बच्चों की
चिकचिक से
पोछा करती हो पेशानी
दस्तरखान सजाने वाले हाथों को
सहलाने लगता
तुम रोती मैं गाने लगता
तुम पर सास-ससुर का हक़ है
यह कहने में बड़ी खनक है
चुप हूँ मैं जानते हुए भी
यह रिश्ता कितना बुढ़बक है
तदपि अजब परिवार राग
मैं बारम्बार बजाने लगता
तुम रोती मैं गाने लगता
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