अनिल गुप्त ‘ज्योति’ |
अनिल गुप्त ‘ज्योति’ का जन्म 3 मार्च 1959 को सीतापुर, उ.प्र. में हुआ। शिक्षा : बी.एस.सी., लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ। प्रकाशित कृतियाँ : चुभती धूप छलती छाँव (गीत संग्रह)। प्रकाशन : सप्त-स्वर, उभरते स्वर, दस दिशाएं आदि काव्य संकलनों में सहभागी कवि के रूप में सम्मिलित। सम्मान : युवा रचनाकार मंच, लखनऊ द्वारा श्रेष्ठ युवा रचनाकार सम्मान, निराला साहित्य परिषद्, महमूदाबाद (सीतापुर) के रजत जयंती वर्ष में उत्कृष्ट सहयोगी सम्मान से सम्मानित । सम्प्रति : स्वयं का मेडिकल बिज़नेस। संपर्क : अनिल मेडिकल स्टोर, रामकुंड चौराहे के पास, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर (उ.प्र.) 261203। दूरभाष : 09919281071
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
|
1. शब्द-शिल्पी का...
आज कविता दूर है औ’
जिंदगी है पास
शब्द-शिल्पी का लुटा इतिहास
भाव के सूने नगर
संकल्प के बिखरे शहर सा
मैं स्वयं
निर्जीव सा होने लगा हूँ
यातनाओं को समेटे
व्यर्थ के भ्रम पाल उर में
है युगों से चल रहा यह मर्त्य मानव
पंथ पर जिस
स्यात मैं भी
रूढ़ियों का दास बनकर
बोझ सी यह जिंदगी जीने लगा हूँ
किन्तु मेरी
वे कला की कामनाएं
हों न पायीं जो कभी साकार
मुझसे पूछती हैं
ओ व्यथित कवि मित्र
तुम स्वयं को भूलकर
किस भांति रहते हो
यह युगों का दर्द
तुम किस भांति सहते हो
ध्यान है ?
पहले कभी तुम रोज़ लिखते थे
रूप का, सौन्दर्य का, इतिहास का
तृप्ति का या फिर
अकल्पित प्यास का
देश की हर धड़कनों का दर्द गुनते थे
कल्पना का भी सुनहरा जाल बुनते थे
लौट आओ – तुम जहाँ हो
काव्य की अनुभूतियाँ मकरंद देतीं हैं
स्वर्ग सा भू पर हमें आनंद देतीं हैं
मैं निरुत्तर –
बोल कुछ पाता नहीं हूँ
शब्द फिर उठते
घुमड़ते बादलों सा
उत्तरों के पास जा पाता नहीं हूँ
शब्द-शिल्पी का लुटा इतिहास है
जिंदगी-
कुंठा, घुटन, संत्रास है |
2. कामनाएं
कामनाएं
तृप्त हो पातीं नहीं हैं
प्यास के पथ पर
युगों से चल रही है
हर हृदय में
त्रास बनकर जल रही है
भोग का आसव इन्हें बेचैन करता है
और दावानल जगाता है हृदय में
भूख, कुंठा और तृष्णा की कहानी
कामनाओं की परिधि में जी रही हैं
और व्याकुलता लिए सागर सरीखी
हलचलों सा द्वंद्व अपना पी रही हैं
सोचता हूँ-
इन अधूरी कामनाओं को सुला दूँ
जो कभी बस ही न सकते
भावनाओं के सुरभिमय गाँव
मैं उनको भुला दूँ
बलवती हैं किन्तु मेरी कामनाएं
मीन सी तड़पन लिए दम तोड़ती हैं
पत्थरों पर शीश अपना फोड़ती हैं
किन्तु विस्मृति की डगर पर
वे कभी जाती नहीं हैं
जानता हूँ- कामनाएं
तृप्त हो पाती नहीं हैं |
3. मैं खड़ा हूँ
मैं खड़ा हूँ
एक चेतन ज्योति बनकर
सामने मेरे अदम्य प्रकाश है
नील नभ है, यह वृहद् आकाश है
मैं खड़ा हूँ
पीठ के पीछे लिए छाया स्वयं की
सत्य हूँ मैं- जानता हूँ
किन्तु छाया, मात्र भ्रम है
मैं नहीं स्वीकारता हूँ
एक तुम हो
सैकड़ों सूरज सजाकर देह भर में
कर दिया मुझको अचंभित एक पल में
देखकर तुमको न जाने हो गया क्या
पंचभूतों से बनी इस देह के
दोनों नयन पथरा गये हैं
मैं खड़ा हूँ
मेरे बायीं ओर असंख्य पहाड़ हैं
हिमाच्छादित पर्वतों की श्रृंखलाएं
जलप्रपातों की मधुर ध्वनि गूंजकर
यह कह रही है
हम यहाँ जीवन-जगत के प्राण हैं
मैं खड़ा हूँ
और दायी ओर मेरे
घाटियाँ ही घाटियाँ हैं
सनसनाहट है हवाओं की कहीं पर
तो कहीं पर-
तीव्र गर्जन आंधियां हैं
मैं खड़ा हूँ
सत्य हो तुम
सत्य मैं भी
क्योंकि मैं भी तो तुम्हारा अंश हूँ
सृष्टि में मैं ही तुम्हारा वंश हूँ
किन्तु छाया मौन
तुम भी मौन हो
मध्य में मैं ही खड़ा
कुछ बोलता हूँ
कभी तुमको, कभी छाया
कभी खुद को तोलता हूँ
दृश्य हो तुम
और मैं हूँ मात्र दृष्टा
किन्तु छाया
मात्र पार्थिव देह – प्रक्षेपण तुम्हारा
मात्र माध्यम-स्नेहमय संबल तुम्हारा
इस तरह से तीन हैं हम
किन्तु जिस दिन
व्यथित व्याकुल प्राण यह आवाज़ देंगें
और पंखों को नया विश्वास देंगें
मैं उडूँगा- आ गले तुमसे लगूंगा
एक (हम-तुम) – एक छाया
मात्र दो ही सत्य हैं ब्रम्हांड के इस
एक चेतन- और उसका मौन प्रक्षेपण कहो या
बिम्ब कह लो याकि छाया
दृष्टि में जो आ रहा वह स्वप्न भ्रम है
चेतना ही उत्स है अंतिम, चरम है
मैं खड़ा हूँ |
4. मित्र मेरे
तुम अजीब हो
क्योंकि मेरे मित्र होकर भी
तुम ग़रीब हो |
मुझे देखो, मैं वी.आई.पी. हूँ
मैं ख़ास हूँ
जो भी पी रहे हैं
इस समाज का खून- उनके करीब हूँ
मैं उन सबके पास हूँ
मेरे पास नौकर हैं, बंगला है, कार है
शहर भर में फैला करोड़ों का व्यापार है
मेरे पास रुतबा है, दबदबा है, सम्मान है
तभी तो मंच पर खड़े होकर मैं कहता हूँ
कि- “अपना यह देश कितना महान है |”
कितना महान है वह खुदा-
जो देता है तो छप्पर फाड़ के देता है
और लेता है तो- मैंने कहा
“........फाड़कर लेता है”
वह चिढ़ा- मैं चढ़ा
मित्रता की नाव कब तक हिचकोले खाएगी
एक दिन जरूर डूब जायेगी |
नमस्ते, जय राम, सश्री अकाल
जब भी कभी सामने आओगे
मुस्कुराऊँगा, हाथ मिलाऊंगा
अवश्य पूछूँगा-
“मित्र ! क्या है तुम्हारा हाल”
5. हम हैं...
हम हैं इस देश के
राजनैतिक पुरोधा
हमारे अन्दर खून बह रहा है
राजे-महराजे-रजवाड़ों का
या फिर काले अंग्रेजों का
हमने शपथ ले रखी है
संविधान की
हम इस देश को जोड़ेंगे
किन्तु प्यारे मतदाताओं
‘जोड़ने के लिए पहले तोड़ना पड़ता है’
शपथ है संविधान की
हम भी संविधान सम्मत कार्य करेंगे
हम भी देश को तमाम टुकड़ों में
तोड़ेंगे- बांटेंगे –
कहीं भाषा के आधार पर
कहीं सम्प्रदाय के आधार पर
कहीं क्षेत्रीयता के आधार पर
हम सम्पूर्ण मानवजाति को
टुकड़ों-टुकड़ों में बांटने में
सक्षम हैं- तभी तो
जो समाज एकरसता की ओर
बढ़ता है
हम आरक्षण का निवाला फेंककर
उसे बाँट देते हैं
जातियों और उपजातियों में
अगड़ों और पिछड़ों में
अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों में
गरीबों और अमीरों में
किन्तु अमीरों को और बांटा नहीं जा सकता
क्योंकि वे सत्ता रुपी रथ के
पहिये बन चुके होते हैं
फिर अब किसे बांटे ?
अब हमें उन्हें बांटना है
जो सत्ता और व्यवस्था से दूर
अपनी रोजी-रोटी के संग्राम से
जूझते हैं दिन भर-
शाम तक चूर हो जाते हैं थककर
और सो जाते हैं अगले दिन की
रोटी के जुगाड़ की दुश्चिंता में
सोना ही इनकी नियति है
और इन्हें सुलाए रखना अपना कर्तव्य !
क्योंकि उनका जागना संकट है
सत्ता के लिए
व्यवस्था के लिए
इनका जगना क्रांति है
एक उबलते हुए ज्वालामुखी जैसी
इन्हीं को बांटा जा सकता है
टुकड़ों – टुकड़ों में – सैकड़ों टुकड़ों में
एक कटोरा अनाज देकर
साल में सौ दिन की मजदूरी देकर
जो इनके खातों में पहुँचती है
लेकिन इनके हाथों तक नहीं
दारु की दो बोतलें देकर
महिलाओं को दो साड़ियाँ देकर
बेरोजगारों को भिखारी से भी कम
भत्ता देकर
कुछ नौजवानों को लैपटॉप
और टेबलेट देकर
और जब बांटने का कोई
रास्ता नहीं दिखता तो
दंगों की आग और
अफवाहों की आंधी से
हमें बांटना पड़ता है यह समाज
निर्दोषों की लाशों पर
वोटों का वृक्ष उगाने के लिए
हमें लगाना पड़ता है
नोटों का मलहम-
गिराने पड़ते हैं आँखों से आंसू
दिखाना पड़ता है अपनी प्रिय जनता को
कि हम कितने संवेदनशील हैं
हम कितने दुखी हैं |
क्योंकि हम जानते हैं सत्य
कि सत्ताएं निरंकुश होतीं हैं
और सत्ताएं यथास्थितिवादी होतीं हैं
इसीलिए यदि कोई बात करता है
सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन की
हमें वह अच्छा नहीं लगता
क्योंकि हम लोकतंत्र के
सजग प्रहरी हैं
हम विद्रोह को सहन नहीं कर सकते
व्यवस्था परिवर्तन की आग सुलगाने वाले ये लोग
हमें आतंकवादियों से कम खूंखार नहीं दिखते
हम इन्हें कुचलेंगे- मिटायेंगे
तभी तो हम महान कहलायेंगे !
क्योंकि इस देश और समाज के
हमने जितने टुकड़े किये हैं
हमें उन सभी सैकड़ों टुकड़ों की चिंता है
और मित्रों
एक दिन क्यों
आज से ही
हम अपने स्वार्थ के लेप से इन सारे टुकड़ों को जोड़ेंगे |
ताकि हम भी सलामत रहें
और हमारी जनता भी |
कर्म, संघर्ष, श्रम और रोटी
के लिए इस देश की जनता
अपना पसीना बहाएगी
अभावों के प्रदूषित जल से नहाएगी
और हम लाल किले की प्राचीर पर
तिरंगा फहराकर
मुग़ल गार्डेन के गुलाबों की भीनी-भीनी
सुगंध से सुवासित होकर
उस परम स्वतंत्रता की अनुभूति करेंगे
और गर्व से गायेंगे-
‘सारे जहाँ से अच्छा......हमारा !’
विमर्शपूर्ण सुन्दर रचनाएँ !
जवाब देंहटाएंअनिल जी की कविताएँ ह्रदय से निकलती ज़रूर हैं लेकिन इनके स्वर संधान से मन-मस्तिष्क सब झनझना उठते हैं.ये अभिधा के सघन तंतुओं से बुनी तो होती हैं पर खुलती व्यंजना की सुई की नोक से ही हैं.बधाई!
जवाब देंहटाएं