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मंगलवार, 3 मार्च 2015

संजय वर्मा 'दृष्टि' की चार कविताएँ

संजय वर्मा 'दृष्टि'

चर्चित कवि संजय वर्मा 'दृष्टि' का जन्म 02 मई 1962 को उज्जैन में हुआ। शिक्षा : आई टी आई। देश-विदेश की कई पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी से काव्य पाठ प्रसारित। आपको कई सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। सम्प्रति : जल संसाधन विभाग में मानचित्रकार के पद पर सेवारत। संपर्क : मनावर, जिला धार (म.प्र.) - 454446। ई-मेल : antriksh.sanjay@gmail.com

1. सूरज से गुहार
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

नववर्ष के सूरज से
धरती पर पड़ी पहली किरण
ओंस की बूंदों के आईने में  
अपना आकार देख कह रही-
कि ओंस बहन,
तुम बड़ी भाग्यवान हो
जोकि मुझसे पहले 
धरती पर आ जाती हो
तुम्हे नर्म घास के बिछोने 
पत्तों के झूले मिल जाते हैं 

मैं हूँ कि 
प्रकृति / जीवों को जगाने का 
प्रयत्न करती हूँ
किन्तु हम दोनों को भी 
अब भय सताने लगा?
फितरती इंसानों का 
जो पर्यावरण बिगाड़ने मे लगे है
और हमें भी बेटियों की तरह 
गर्भ मे मारने लगे है

नववर्ष के आगमन पर हम मिलकर
सूरज से गुहार करें कि -
हमें बचालो। 

2. अनुशासन

कोहरे में लिपटे
वृक्ष, पहाड़ कितने हसीं लगते हैं  
जैसे प्रकृति ने
चादर ओढ़ ली हो
सुबह की ठण्ड से। 

इन पर पड़ी ओंस की बूंदों से
खुल जाती है इनकी नींद
साथ ही सूरज के उदय होते ही 
ऐसा लगता है 
मानों
घर का कोई बड़ा बुजुर्ग
अपने बच्चों को जैसे उठा रहा हो। 

तब ऐसा महसूस होता है कि 
प्रकृति भी सिखाती है
सही तरीके से जीने के लिये
प्यार भरा अनुशासन। 

3. बांसुरी

बांसुरी वादन से
खिल जाते थे कमल
वृक्षों से आँसू बहने लगते
बाँसुरी होती है बड़ी प्रेमी
वो चुपके से पी जाती थी
अधरों से सुधा रस

स्वर में स्वर मिलाकर
नाचने लगते थे मोर
गायें खड़े कर लेती थी कान
पक्षी हो जाते थे मुग्ध
ऐसी होती थी बांसुरी की तान

नदियाँ कलकल स्वरों को
बांसुरी के स्वरों में 
मिलाने को थी उत्सुक
साथ में बहाकर ले जाती थीं  
उपहार कमल के पुष्पों के

ताकि उनके चरणों में
रख सके कुछ पूजा के फूल
ऐसा लगने लगता कि
बांसुरी और नदी मिलकर 
करती थी कभी पूजा

घन, श्याम पर बरसाने लगते
जब जल अमृत की फुहारें
जब बजती थी बांसुरी
अब समझ में आया
जादुई आकर्षण का राज
जो कि आज भी जीवित है
बांसुरी की मधुर तान में

माना हमने भी
बांसुरी बजाना 
पर्यावरण की पूजा करने के समान है
जो कि जीवों में
प्राण फूंकने की क्षमता रखती है
और लगने 
सुनाई देती है
हमारी कर्ण प्रिय बांसुरी।

4. टेसू

खिले टेसू
ऐसे लगते मानों
खेल रहे हो पहाड़ों से होली।

सुबह का सूरज
गोरी के गाल
जैसे बता रहे हों 
खेली है हमने भी होली
संग टेसू के।

प्रकृति के रंगों की छटा
जो मौसम से अपने आप
आ जाती है धरती पर
फीके हो जाते है हमारे
निर्मित कृत्रिम रंग।

डर लगने लगता है
कोई काट न ले वृक्षों को
ढंक न ले प्रदूषण सूरज को।

उपाय ऐसा सोचें कि  
प्रकृति के संग हम
खेल सकें होली । 

Hindi Poems of Sanjay Verma 'Drishti'

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